सावित्रीबाई फुले की एक पेंटिंग।

प्लेग से लड़ते हुए शहीद हुई थीं सावित्री बाई फुले

कोरोना महामारी के दौरान जातिवादी छुआछूत और सांप्रदायिक बुराइयों के वापस आने का खतरा है। तबलीगी जमात का मामला तो राजनीतिक संरक्षण में उछल गया लेकिन यह कहने वालों की कमी नहीं है कि पिछली सदी की छुआछूत की प्रथा इसी प्रकार की बीमारियों का संक्रमण रोकने के लिए थी। ऐसे माहौल में महात्मा ज्योतिबा फुले की पत्नी और स्त्री चेतना की प्रणेता सावित्री बाई फुले ने जिस तरह प्लेग और जातिवाद से लड़ते हुए अपना बलिदान दे दिया वह आज भी प्रेरणा देता है। 

1897 वह वर्ष है जब भारत में प्लेग फैला था और हजारों मौतें हुई थीं। उसी वर्ष महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे। तब भारत में जातिवाद और छुआछूत चरम पर था। अंग्रेजों की गुलामी तो थी ही। इस प्रकार महामारी, जातिवाद और गुलामी मिलकर भारत देश और उसके समाज को लाचार बना रहे थे। पुणे में लोकमान्य तिलक सक्रिय थे और स्वाधीनता की अलख जगा रहे थे लेकिन वे जातिवाद से लड़ना जरूरी नहीं मानते थे। ऐसे में सावित्री बाई फुले और उनके परिवार ने अपने सेवा भाव और साहस से एक आदर्श कायम किया। प्लेग से लड़ाई में 10 मार्च 1897 को सावित्री बाई की मृत्यु हुई तो आठ साल बाद उनके बेटे डॉ. यशवंत राव भी उसी बीमारी से लड़ते हुए 1905 में शहीद हुए। 

यहां शहीद शब्द का प्रयोग जानबूझकर किया जा रहा है। क्योंकि सैन्य राष्ट्रवाद से प्रेरित विचारधारा के तहत उन्हीं को शहीद का दर्जा दिया जाता है जो किसी दुश्मन देश से सैनिक वर्दी पहन कर लड़ते हुए मारे जाएं। आजकल आतंकवाद से लड़ते हुए मारे गए सुरक्षाकर्मियों को भी शहीद कहा जाता है। ऐसा कहते हुए उनके बलिदान को भुला दिया जाता है जो किसी श्रेष्ठ राजनीतिक लक्ष्य के लिए लड़ते हुए जान देते हैं या समाज की सेवा करते हुए मर जाते हैं।

सावित्री बाई फुले के बेटे डॉ. यशवंत राव फुले ने पुणे के बाहरी इलाके सासने माला में अपना अस्पताल खोल रखा था। वे सावित्री बाई के दत्तक पुत्र थे। उनकी जन्मदात्री मां काशीबाई जब विधवा हुईं तो इलाके के ब्राह्मण बिरादरी वालों ने उनकी हत्या करनी चाही। सावित्री बाई ने उन्हें संरक्षण दिया और यशवंत राव को अपना पुत्र बना लिया। उन्होंने यशवंत राव को इसलिए डॉक्टर बनाया ताकि वे शूद्रों और दलितों की सेवा कर सकें। उन दिनों मेडिकल प्रोफेशन में भी जातिवाद चलता था और बड़ी जाति के लोग या तो डॉक्टर बनने से बचते थे या फिर अछूतों की सेवा करने से कतराते थे।

लगभग यही समय है जब आठ साल पहले मोहन दास कर्मचंद गांधी डॉक्टर बनना चाहते थे लेकिन उनके पिता की इच्छा थी कि वे चीरफाड़ के काम से बचें और वकील बनें। जातिवाद और समाज सेवा के इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले ने यशवंत राव को डॉक्टर बनाया। यशवंत ने वायसराय के सहायक सर्जन डॉ. विश्राम रांगी धाले के मातहत मेडिकल की पढ़ाई की थी।

ज्योतिबा फुले का निधन तो 1890 में ही हो गया था। लेकिन सावित्री बाई ने सत्यशोधक समाज के मंच से उनकी सामाजिक क्रांति की लड़ाई जारी रखी थी।1897 में जब प्लेग फैला तो महार जाति के लड़के पांडुरंग बाबागी गायकवाड़(10) को संक्रमण हो गया। सावित्री बाई उसे बचाने के लिए यशवंत राव के अस्पताल लाईं और उसकी सेवा कीं। इस दौरान गायकवाड़ तो ठीक हो गया लेकिन सावित्री बाई फुले 10 मार्च को चल बसीं। उस समय उनकी उम्र 66 साल की थी। उन्होंने ज्योति राव के साथ मिलकर 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी। स्त्री शिक्षा के लिए उन्होंने समाज का कड़ा विरोध सहते हुए भी काम किया था। वे जातिवादी और पुरुषवादी समाज को बदलने के लिए निरंतर संघर्ष कर रही थीं। लेकिन उनकी यह क्रांति यात्रा बीच में ही ठहर गई। पर वे संदेश दे गईं  कि मानव सेवा से बड़ी न कोई राजनीति होती है और न कोई व्यवसाय। 

यह समय ऐसा था जब सार्वजनिक स्वास्थ्य की व्यवस्था लगभग नहीं थी। अंग्रेजों ने अपने सैनिकों और अधिकारियों के स्वास्थ्य के लिए जरूर कुछ अस्पताल कायम किए थे। लेकिन वे महामारी को रोकने के लिए नाकाफी थे। ऐसे में जब महामारी तेज हुई तो उन्होंने महामारी अधिनियम 1897 जारी किया। इसके तहत बीमार लोगों को आज की तरह क्वारंटाइन करके इलाज किया जाता था।

यह बहुत छोटा कानून है जिसमें सिर्फ चार धाराएं हैं। एक धारा महामारी को परिभाषित करती है। दूसरी धारा राज्य और केंद्र सरकारों को विशेष शक्तियां हासिल करने का अधिकार देती है। तीसरी धारा इस कानून के उल्लंघन के लिए आईपीसी की धारा 188 के तहत दंड का विधान करती है और चौथी धारा कानून को लागू कर रहे अधिकारियों को संरक्षण देती है। लेकिन इन धाराओं के बावजूद अस्पताल और सेवा तो जरूरी होती है। आज सरकार ने 123 साल पुराने इस कानून का फिर से सहारा ले रखा है। लेकिन आज अस्पताल भी हैं और दवाएं भी। तब वैसा नहीं था। 

मां सावित्री बाई के निधन के बाद डॉ. यशवंत राव ने सेना में नौकरी की और दक्षिण अफ्रीका चले गए। वे 1905 में पुणे आए हुए थे। तभी प्लेग फैल गया और मरीजों का इलाज करते हुए उन्हें संक्रमण हुआ। डॉ. यशवंत राव चल बसे। यशवंत राव जाति के ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने माली जाति की सावित्री बाई को अपनी मां के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने राधा नाम की अन्य जाति की युवती से विवाह किया जिसके पिता समाज सुधार के कामों में लगे थे। 

सावित्री बाई फुले और उनके बेटे डॉ. यशवंत राव का बलिदान यह बताता है कि सामाजिक दूरी का मतलब सामाजिक बुराइयों की वापसी नहीं है। न ही समाज सुधार और राजनीति का मतलब मानव सेवा से दूरी बनाना। समाज सुधार, राजनीति और सेवा का चोली दामन का साथ है और किसी भी महामारी के समय इन तीनों को एक साथ खड़ा होना चाहिए ताकि बीमारी से उबरने के बाद समाज को गैर बराबरी की बीमारी न जकड़ ले। 

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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