जन्मदिन पर विशेषः मजाज़ की शायरी में रबाब भी है और इंक़लाब भी

एक कैफ़ियत होती है प्यार। आगे बढ़कर मुहब्बत बनती है। ला-हद होकर इश्क़ हो जाती है। फिर जुनून और बेहद हो जाए तो दीवानगी कहलाती है। इसी दीवानगी को शायरी का लिबास पहना कर तरन्नुम से (गाकर) पढ़ा जाए तो उसे मजाज़ कहा जाता है।

किसी ने उन्हें खूबसूरत कहा। किसी ने खुश शक्ल, लेकिन खुश अखलाक़ कहने में कहीं दो राय न हुई। ज़्यादातर अलीगढ़ी शेरवानी या लखनवी चिकन पहनने वाले मजाज़ खुश मिज़ाज, खुश लिबास, कम बोलने वाले हैं। उनकी हाज़िरजवाबी और चुटकीली बातों के तमाम क़िस्से लखनवी लच्छेदार बातों के उदाहरण के तौर पर याद किए जाते हैं।

आप सोचेंगे एक कंपलीट पैकेज वाला व्यक्तित्व लिए मजाज़ को बेहतरीन और भरपूर ज़िंदगी मिली होगी। सच है और नहीं भी। बाराबंकी के रुदौली (19 अक्टूबर,1911) के ज़मींदार सिराज उल हक़ के दो बेटों की मौत के बाद तीसरे नंबर पर रहे असरार उल हक़ अम्मी-अब्बू के जग्गन (जगन), सफ़िया- हमीदा-अंसार के जग्गन भईया हैं। अब्बू चाहते थे असरार इंजीनियरिंग कर के उन्हीं की तरह सरकारी मुलाज़िम लग जाएं।

लखनऊ, ‘अमीनाबाद कॉलेज’ से हाईस्कूल करके आगरा के सेंट जॉन में इंटर के लिए भेजे गए। पढ़ते हुए शायरी कहने लगे। इस्लाह के लिए फ़ानी बदांयूनी के पास बैठा करते। उस वक़्त तखल्लुस (उपनाम) ‘शहीद’ हुआ करता था। ‘शहीद’ को ‘मजाज़’ से तब्दील कर लेने का मशवरा देने वाले फ़ानी ने कुछ रोज़ बाद यह कह कर इस्लाह बंद कर दी कि भई, आपका और मेरा अंदाज़ जुदा है। उर्दू बोलने, उर्दू लिखने, उर्दू पढ़ने, उर्दू खाने, उर्दूं पीने, उर्दू ओढ़ने और उर्दू ही बिछाने वाले मजाज़ की ज़हानत को किसी उस्ताद की ज़रूरत भी क्या थी भला!

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे तो मिले- फैज़ अहमद फैज़, सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी, जां निसार अख्तर, अब क्या था। शायरी बढ़ने लगी और इंजीनियरिंग उसे तो छूटना ही था। फैज़ की ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग’ और साहिर की ‘ताजमहल’ से भी ज़्यादा मशहूर हुई मजाज़ की ‘आवारा’। पढ़िए या तलत महमूद की आवाज़ में यूट्यूब पर सुनिए तो लगता है उदासी, बेबसी, आवारगी इतनी बुरी शै भी नहीं।

ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं
रास्ते में रुक के दम ले लूं मिरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊं मिरी फ़ितरत नहीं
और कोई हम-नवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं
जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

तरन्नुम (गाकर) से पढ़ने का अंदाज़ और उनके शेर पर लड़कियां दीवानी हुई जाती थीं। गर्ल्स हॉस्टल में उनके नाम की पर्ची निकलती कि किस खुशक़िस्मत लड़की के तकिए को आज रात ‘आहंग’ (मजाज़ का काव्य संग्रह) का स्पर्श मिलेगा। अहमद ‘फ़राज़’ की शोहरत में मांओं ने बच्चों के नाम उन जैसे रखे, लेकिन मजाज़ का नाम तो कुंवारी लड़कियों ने क़सम खा-खा भविष्य में होने वाली औलादों पर मुक़र्रर कर दिया।

इस्मत चुगताई ने छेड़ते हुए कहा कि लड़कियां तो मजाज़ मर मरती हैं। मजाज़ ने झट से कहा, “और शादी पैसे वाले से कर लेती हैं।”

हां, यही पैसा उनकी मंगेतर छीन ले गई। वजह वही रिवायती दौलत। मंगेतर के वालिद अपनी हैसियत से बेहतर दामाद के ख्वाहिश्मंद थे। गृहस्थी के लिए गुणा-भाग करने वाले अब्बुओं ने इश्क़ से नाज़ुक एहसासों की कब क़द्र की थी भला!

मजाज़ देर रात तक तक मुशायरे पढ़ते। दाद लूटते। शराब पीते। दफ्तर अक्सर देर से आते। ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी करते और नज़्में लिखते इंकलाबिया। अंग्रेजों को बगावत कब पसंद आनी थी!

दिल्ली रेडियो की पहली पत्रिका ‘आवाज़’ में बतौर संपादक की नौकरी साल भर में ही छूट गई और टूट गई सगाई भी। मजाज़ के लिए यह झटका था। कला पर रुपए को तरजीह मिली थी। मुल्क़ का ताज़ा बंटवारा हुआ था। परिवार बिखर रहा था। छूट रहे थे दोस्त-अहबाब। उसी वक़्त गांधी की हत्या हुई। मेंटल बैलेंस बिगड़ गया। शराब बढ़ गई।

रोएं न अभी अहल-ए-नज़र हाल पे मेरे
होना है अभी मुझ को ख़राब और ज़ियादा
उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ां मिरे दिल से
देखूंगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और ज़ियादा

रूमानियत की नज़्में कहना। निजी ज़िंदगी में उसी से महरूम होना। साथ ही अत्यधिक संवेदनशीलता ने उन्हें उर्दू शायरी का कीट्स तो बनाया, सीवियर डिप्रेशन का मर्ज़ भी दे दिया। फिर भी जब बात औरत की आती है तब यही शायर जिसने अपने इर्द-गिर्द औरतों को हमेशा हिजाब में देखा, कहता है,
सर-ए-रहगुज़र छुप-छुपा कर गुज़रना
ख़ुद अपने ही जज़्बात का ख़ून करना
हिजाबों में जीना हिजाबों में मरना
कोई और शय है ये इस्मत नहीं है

मजाज़ मानते हैं कि मआशरे की तस्वीर बदलने के लिए औरतों को आगे आना-लाना होगा। फेमिनिज्म लफ्ज़ की पैदाईश को आपने 21वीं सदी में जाना होगा, लेकिन मजाज़ के यहां मुल्क़ की आज़ादी से भी पहले का कांसेप्ट है।

दिल-ए-मजरूह को मजरूह-तर करने से क्या हासिल
तू आंसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

सिर्फ औरत नहीं, एक छोटी हिंदू बच्ची के लिए मजाज़ का नज़रिया देखिए,
इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन
पतली बांहें पतली गर्दन
कैसी सुंदर है क्या कहिए
नन्ही सी इक सीता कहिए
हाथ में पीतल की थाली है
कान में चांदी की बाली है
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
हंसना रोना उस का मज़हब
उस को पूजा से क्या मतलब
ख़ुद तो आई है मंदिर में
मन उस का है गुड़ियाघर में

औरत से इतर मजाज़ की संवेदनशीलता भीड़ के उस आखिरी व्यक्ति के लिए भी है जो गरीब है। शोषित है, लेकिन तब वे अपने गीतों से सहलाते नहीं जोश भरते हैं,
जिस रोज़ बग़ावत कर देंगे
दुनिया में क़यामत कर देंगे
ख़्वाबों को हक़ीक़त कर देंगे
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

मजाज़ जितने रूमानी हैं,
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएं नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई

उतने ही इंकलाबी भी। फर्क़ बस इतना है कि ‘आम इंकलाबी शायर इंकलाब को लेकर गरजते हैं, सीना कूटते हैं, जबकि मजाज़ इंकलाब में भी हुस्न ढूंढकर गा लेते हैं,
बोल कि तेरी ख़िदमत की है
बोल कि तेरा काम किया है
बोल कि तेरे फल खाए हैं
बोल कि तेरा दूध पिया है
बोल कि हम ने हश्र उठाया
बोल कि हम से हश्र उठा है
बोल कि हम से जागी दुनिया
बोल कि हम से जागी धरती
बोल! अरी ओ धरती बोल! राज सिंघासन डांवाडोल

लगभग शराब छोड़ देने के बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी के एक प्रोग्राम में मजाज़ ने अपनी नज़्में गाईं। हमेशा की तरह दाद लूटी। महफ़िल खत्म हुई। कुछ दोस्तों के इसरार पर फिर पीने बैठ गए। दिसंबर की सर्द रात थी। पीते-पीते खुली छत बेसुध हो गए। सुबह लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल ने उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।

मजाज़ जैसे लोग मरते कहां हैं! उनकी नज़्में, गज़लें सबसे बढ़कर मजाज़ीफ़े (मजाज़ के लतीफ़े) लखनऊ रहने तक शहर की हवा में तैरते रहेंगे।

(नाज़िश अंसारी स्वतंत्र लेखिका हैं और लखनऊ में रहती हैं।)

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