मोदी सरकार ने शुरू की श्रमिकों को बंधुआ बनाने की तैयारी

भले ही देश की ट्रेड यूनियनें श्रम कानून के संशोधन के खिलाफ 26 नवंबर को राष्ट्रव्यापी आंदोलन करने जा रही हों पर मोदी सरकार है कि जैसे उसने श्रमिकों को कंपनी मालिकों के यहां बंधुआ बनाने की ठान ली है। मोदी सरकार धीरे-धीरे श्रम कानून में संशोधन को लागू करने में लगी है। इसके लिए उसने शातिराना रवैया अपनाया है। सरकार माहौल बनाने के लिए श्रम मंत्रालय से प्रस्ताव दिलवा रही है। श्रम मंत्रालय ने वर्तमान कार्य के घंटे को आठ से बढ़ा कर 12 घंटे प्रतिदिन करने का प्रस्ताव दिया है। हालांकि श्रम मंत्रालय इस मसौदे में साप्ताहिक कार्य घंटे को 48 घंटे पर बरकरार रखने का दावा कर रहा है।

श्रम मंत्रालय का कहना है कि सप्ताह में 12 घंटे के चार कार्य दिवस होंगे। मतलब तीन साप्ताहिक छुट्टियां होंगी। क्या कॉरपोरेट घरानों के दम पर चल रही मोदी सरकार से श्रमिकों को तीन साप्ताहिक छुट्टियां दिलवाने की अपेक्षा की जा सकती है? जो लोग निजी कंपनियों में काम कर रहे हैं, फिर ट्रेड यूनियनें चला रहे हैं या फिर कानून के जानकार हैं वे भलीभांति समझते और जानते हैं कि देश में श्रम कानून में संशोधन पर कैसे श्रमिकों के रोजगार की गारंटी छीनने के साथ ही उन्हें निजी कंपनी मालिकों के यहां बंधुआ बनाने की तैयारी मोदी सरकार ने कर दी है।

जो कंपनी मालिक एक साप्ताहिक अवकाश देने को तैयार नहीं है, वे क्या तीन साप्ताहिक अवकाश देंगे? छोटे-मोटे कार्यालयों में तो छुट्टियां मिलती ही नहीं। लॉकडाउन के बाद तो बड़ी-बड़ी कंपनियां भी साप्ताहिक अवकाश देने को तैयार नहीं हैं। ईएल, सीएल, पीएल तो लगभग खत्म ही की जा रही हैं। जहां तक 12 घंटे ड्यूटी की बात है तो कितनी कंपनियों में आज की तारीख में भी 10-12 घंटे तक काम लिया जा रहा है, पर ओवरटाइम के नाम पर बस ठेंगा ही दिखा दिया जाता है। यदि कोई श्रमिक ओवरटाइम मांगता भी है तो उसकी नौकरी जाने का डर दिखाकर चुप करा दिया जाता है।

ऐसे में प्रश्न उठता है कि श्रम मंत्रालय यह प्रस्ताव किसको दे रहा है? ट्रेड यूनियनों को तो यह सरकार खत्म करने पर आमादा है। श्रमिकों की समस्याओं को न तो सरकार समझ रही है और न ही कंपनी मालिक। मतलब प्रस्ताव तो बस बेवकूफ बनाने के लिए है। मोदी सरकार ने 12 घंटे ड्यूटी करने की पूरी तरह से तैयारी कर ली है। जहां तक ओवर टाइम की बात है तो देश में नाम मात्र की कंपनियां हैं, जो ओवर टाइम देती हैं। जो सरकार निजी कंपनियों की छंटनी पर रोक नहीं लगा पा रही है। जो सरकार निजी कंपनियों में वेतन आधा तक करने पर कोई अंकुश नहीं लगा पा रही है। वह सरकार क्या श्रमिकों को ओवर टाइम दिला पाएगी? सप्ताह में एक भी अवकाश न देने वली कंपनियों को तीन अवकाश दिला पाएगी?

जो सरकार सभी फैसले पूंजीपतियों का हित ध्यान में रखकर ले रही है वह श्रमिकों के हित में कुछ कर पाएगी? वैसे जिन लोगों को इस व्यवस्था पर विश्वास है, उनके लिए प्रिंट मीडिया हाउसों में मजीठिया वेज बोर्ड लागू होने की सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को ठेंगा दिखाने से समझ जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि 2008 से प्रिंट मीडिया में मजीठिया वेज बोर्ड लागू होना था। जब प्रिंट मीडिया में मजीठिया वेज बोर्ड लागू नहीं हुआ तो प्रिंट मीडिया मालिकों के खिलाफ अवमानना का केस चला।

जिस सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने का आदेश दिया था उसी सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के केस में प्रिंट मीडिया मालिकों को यह कहकर राहत दे दी कि उन्हें मामले की सही से जानकारी नहीं थी। उल्टे मजीठिया वेज बोर्ड मांगने वाले मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकाल दिया गया। अब ये श्रमिक लेबर कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। ये सब मोदी सरकार के इशारे पर होना बताया जा रहा है। मतलब जिस व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट के आदेश लागू नहीं कराया जा रहा है। वह भी उस मीडिया में जिसे दूसरों के हक के लिए लड़ने का तंत्र माना जाता है।

ऐसे में निजी कंपनियों से बेबस श्रमिक अपना ओवर टाइम ले पाएंगे? वैसे भी मोदी  सरकार ने स्थायी कर्मचारियों को कांट्रैक्ट पर करने की कंपनी मालिकों को पूरी छूट दे दी है। मतलब कांट्रेक्ट पर काम करने वाला श्रमिक अपने हक में भी खड़ा नहीं हो पाएगा।

मोदी सरकार श्रमिकों के हित का कितना ध्यान रख रही है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कोरोना महामारी की आड़ में श्रम कानूनों में संशोधन को बिना प्रश्नोउत्तरी के पेश कर बिना बहस के पास करा दिया गया। मतलब वर्षों से प्राप्त श्रमिकों के अधिकार को समाप्त कर दिया गया। इस श्रम संशोधन बिल में 300 कर्मचारी के नीचे के चल रहे किसी भी संस्थान को किसी भी समय बंद कर दिया जा सकता है, इसके लिए किसी की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी। मोदी सरकार ने किसी कर्मचारी की सेवा समाप्ति के साथ ही छंटनी करने को जायज ठहरा दिया है।

औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 को खत्म कर सामाजिक सुरक्षा का हनन और रोजगार की गारंटी पूंजीपतियों के हाथों में सौप दिया गया है। निजी कंपनियों में काम करने वाले श्रमिकों के साथ ही पत्रकारों और गैर पत्रकारों पर इस कानून संशोधन की मार पड़ने वाली है। अब पत्रकारों को भी दुकान कर्मचारी की भांति सिर्फ मंहगाई भत्ता दिया जाएगा। इतना ही नहीं आने वाले दिनों में इस बिल की आड़ में बैंक, बीमा, रेलवे, भेल, कोल आदि संस्थानों में भी वेज बोर्ड को खत्म करना तय माना जा रहा है।

मतलब देश के 70 प्रतिशत श्रमिक असुरक्षित हो गए हैं। निजी कंपनी मालिकों को श्रम कानून और ट्रेड यूनियनों का थोड़ा भय था वह मोदी सरकार पूरी तरह से खत्म करने जा रही है। इस संशोधन से ट्रेड यूनियन एक्ट को भी निष्प्रभावी कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने तो बिल की आड़ मे 39 श्रम कानूनों में से 36 श्रम कानूनों को अगले तीन वर्षों के लिए स्थगित ही कर दिया है। इस कानून से 15 करोड़ श्रमिकों को अपने वेतन से हाथ धोना पड़ सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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