चुनावों में रणनीति के मोर्चे पर विपक्ष खा रहा है मात

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असम चुनाव परिणाम के बाद धीरे-धीरे परिकल्पनाओं की परतें खुल रही हैं। कांग्रेस का आरोप है कि असम जातीय परिषद तथा रायजोर दल ने चुनाव में भाजपा की मदद की क्योंकि इन दोनों दलों का गठन सीएए के विरुद्ध चले आन्दोलन में हुआ था। जो मतदाता सीएए के कारण भाजपा को पसंद नहीं करते थे उन मतदाताओं के लिए यह दोनों दल वोट कटवा बने। कांग्रेस की बातों में सच्चाई इसलिए मानी जायेगी कि जातीय परिषद व रायजोर दल के वोट कांग्रेस में जोड़ दिए जाएं तो कांग्रेस 14 अतिरिक्त सीटें जीतती और असम में सरकार बनाती।

यहां यह जान लेना जरूरी है कि यदि शत्रु धोखा देकर जीता है तो हारने वाला अधिक दोषी है। भाजपा ने एक चुनावी रणनीति बनाई तथा अपने को न पसंद करने वाले वोटों में बिखराव पैदा कर दिया तो कांग्रेस को किसने रोका था कि वह भाजपा की न पसंद के वोटों को बंटने से रोके। कांग्रेस को भी रणनीति के तहत भाजपा के वोटों में बिखराव कराना चाहिए था। क्या कांग्रेस को चुनाव के चलते इसकी भनक नहीं लगी? रणनीति से आभास होता है कि भाजपा ने मुद्दों की बड़ी गेंद जान-बूझकर उछाली जिससे भाजपा की तमाम असफलताओं का विरोध पीछे छूट गया तथा समूचे भारत में वह गेंद ही मुद्दा बन गयी। भाजपा तो मैच वहीं जीत गयी थी केवल पेनाल्टी कॉर्नर पर गोल दागना था। विपक्षी फंस चुके थे। सरकार ने भी चुटकी ली कि पहले कठिन प्रश्न हल करो परंतु सामान्य मनोविज्ञान पर आधारित नियम पर राजनीतिक दलों ने पहले हल्का प्रश्न यानी आसान मुद्दे की गेंद को लपकना चाहा। राजनीतिक दल सामान्य मनोविज्ञान को काउंटर पर रख कर अपनी शतरंज बिछाते हैं। स्वयं साधारण शतरंज बिछाने वाला नेता राजनीतिक दल नहीं चला सकता। गांधी को अंग्रेजों ने अनेकों बार उनके समान्तर बड़ी रेखाएं खींच कर गुमराह करना चाहा परंतु गांधी जी राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे, इतने चतुर की बिना झूठ बोले दूसरे की चाल को विफल कर देते थे। लोहिया को कांग्रेस ने धन से तथा साथियों की आलोचना के अवसाद से घेरने की कोशिश करी परंतु कामयाब नहीं हुए। जयप्रकाश जी पर इंदिरा गांधी ने रणनीति की गुगली डाली परंतु गांधी, लोहिया तथा जेपी विशुद्ध राजनीतिज्ञ थे जिनमें धन या पद का लोभ लेशमात्र नहीं था।

परंतु देश का सबसे बड़ा दल कांग्रेस बार बार फंस रहा है। पुराने राजाओं के राजकुमारों की काबिलियत की परीक्षा में एक अध्याय बिगड़ैल घोड़े को साध कर सवारी का होता था। भाजपा इसमें निपुण है तथा कांग्रेस सबसे फिसड्डी साबित हुई अन्यथा 2016 में कांग्रेस के हाथ से चार पूर्वोत्तर राज्य नहीं निकलते। राजनीतिक महत्वाकांक्षा लालच नहीं है फिर भी यदि ऐसे व्यक्ति को लालची कह कर अपनी बनी हुई फिल्डिंग खुद खराब कर रहे हो तो यह भूल है। उस भूल का परिणाम 2021 के चुनावों तक चल रहा है।

बंगाल में भाजपा चूक गयी क्योंकि ममता बनर्जी राजनीति में भाजपा से चतुर निकलीं, उनके साथ अब विश्व स्तर पर ख्याति प्राप्त कर चुके प्रशांत किशोर भी थे जिनके चश्मे में राजनीतिक चालों को भांपने का स्कैनर है। जिन पांच छोटे उत्तरी संगठनों को भाजपा ने साथ लिया उनकी प्रकृति भाजपा के भाषणों से मेल नहीं रखती। वे अलग लड़ते तो ममता बनर्जी को नुकसान पहुंचाते परंतु भाजपा ने उनसे गठबंधन कर अपना पांरपारिक वोट भी हल्का कर लिया तथा उन हिस्सों में ममता जी जीत गयी।

शतरंज की बिसात पर उत्तर प्रदेश के विपक्ष की स्थिति दयनीय है। भाजपा छोटी-छोटी मछलियों को किनारे फेंक रही है उन्हें लपकने में सभी अपने को खिलाड़ी समझ रहे हैं, तभी तो बेहद मिसमैनेजमेंट के बावजूद भाजपा नेतृत्व के चेहरों पर शिकन तक नहीं है। यदि कोई मुद्दों का खिलाड़ी रणनीति के चातुर्य को लेकर चुनाव मैदान में उतरा तो बात अलग है वरना 2022 में योगी जी वापसी करेंगे।

(गोपाल अग्रवाल समाजवादी नेता और चिंतक हैं और आजकल मेरठ में रहते हैं।)

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