आदिवासी सरना समाज अनजाने में हिन्दू गिरफ्त में तो नहीं आ जा रहा?

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झारखंड की राजधानी में आदिवासियों के हृदयस्थल करमटोली चौक स्थित केंद्रीय धुमकुड़िया में आज भवन निर्माण कार्यक्रम आयोजित हो रहा है। बड़े-बड़े सुंदर चेहरों के साथ पूरा पोस्टर, नेता, कार्यकर्ता के फोटोज आये हुए हैं। बहुत खुशी की बात है कि आदिवासी परम्परा के लिए सरकार कृतसंकल्प दिख रही। बहुत सारा साधुवाद, व शुभकामनाएं।

बस, आयजकों को कुछ बिंदुओं पर ध्यान देने का आग्रह करती हूं। सभी मेरे लिए बड़े व बहुत ही सम्मानीय हैं, और कई मेरे घर के अपने लोग हैं। क्योंकि यह जो आज केंद्रीय धुमकुड़िया मेरे घर के आंगन रूप में, खलिहान रूप में, जेवलिन थ्रो की प्रैक्टिस में दिख रहा है। मैंने इस धुमकुड़िया में अपना बालपन जिया है।

फिर भी इसके कुछ निहितार्थ हैं जो जनहित में सबके सामने लाना चाहती हूं:

1. आदिवासी काम जब भी कुछ नया किया जाता है तो उसे हिन्दू धर्म की तरह भूमि पूजन नहीं कहते। आदिवासी रीत में तो ‘सोसो पडा’ या ‘डंडा कट्टना’ कहा जाता है। सो आदिवासी धर्म कोड/ सरना धर्म कोड की लड़ाई चरम पर होने के बावजूद हम उसी शब्दावली में फंसे हैं जो यहां भूमि पूजन के नाम पर दिखाई पड़ रहा।

मुझे बिल्कुल यकीन है कि वहां पूजा भी पाहन के द्वारा ही किया जाएगा। पर “भूमि पूजन” नाम से बचा जा सकता था, यह हावी होती हिन्दू संस्कृति के ही परिणाम स्वरूप है। यह आज आदिवासी सामाजिक अगुवाओं को समझने की आवश्यकता है।

2. दूसरी बात, जो पोस्टर्स दिख रहे हैं वहां वीमेन विंग के अलग सदस्य गण, और पुरुष वर्ग के लिए अलग पोस्टर्स। आदिवासी समाज ऐसा नहीं है, यह पोस्टर में भी जेंडर की दूरी दिख रही है, जो आने वाले समय में समाज के लिए अहितकर है। धुमकुड़िया के आचरण के विरुद्ध है यह जेंडर वाइज अलग अलग करना। हम जिस चीज़ को बचाने के लिए आगे आये हैं उसे मूलरूप में जैसा पीछे था वैसा ही स्वीकार सकते हैं, ना कि वर्तमान में जो जेंडर की समझदारी अन्य समाज से आई है वह करें।

यह सीधे तौर पर अदेखा सांस्कृतिक युद्ध जैसा है, हम समझना चाहें तो दिखेगा, न समझना चाहें तो बात गैरजरूरी लग सकती है। ख़ैर सभी बड़ों का ध्यान इस ओर लाना जरूरी था, सो यह बातें आपके सामने रखी।

3. केंद्रीय शब्द के पीछे दौड़ना निरर्थक है, क्योंकि देश मे केंद्रीय व्यवस्था है, सो हमने भी यह देखा-देखी मान लिया कि जो आदिवासी लोकतांत्रिक होकर हर एक गांव को एक पड़हा मानता रहा है या कई गांव को मिलाकर 21 पड़हा तक कि परम्परा दिखती रही है, पर यहां “केंद्रीय धुमकुड़िया” शब्द बेवजह दिखाई पड़ती है। क्योंकि इससे पहले बजी की केंद्रीय सरना समिति बनती रही है, और कोई केंद्रीय बन जाता है, और बाकी की उपेक्षा क्यों हो जाती है, यह विचारणीय प्रश्न है। सो यह भी रांची के करमटोली का धुमकुड़िया रहता, हरमू का अपना धुमकुड़िया, हेहल का अपना धुमकुड़िया, और किसी को किसी से कम न आंका जा रहा होता, तो आदिवासियत फिर से बचती। केंद्रीय जैसा कुछ होता नहीं है, बस नाम के पीछे सत्ताएँ अपने वर्चस्व को स्थापित कर रही होती हैं।

4. मुख्यमंत्री महोदय और चम्पई सोरेन वाले सबसे बृहद पोस्टर को जो आप देख रहे हैं वह धुमकुड़िया के अंदर की जमीन में लगा हुआ एक advertisement है जिसमें आज तो कार्यक्रम की सूचना है लेकिन बाकी दिन वहां पान पराग से लेकर कई कामर्शियल advertisment लगाए जाते रहे हैं वर्षों वर्षों से। उसकी आय क्या धुमकुड़िया जैसे संगठन को जाती है, या इसके मालिक कुछ चुनिंदा लोग हैं जिस पर करमटोली गांव के सभी सजग लोगों को विचार करना चाहिए और सामाजिक उद्देशय में यह पैसा खर्च होना चाहिए। यह बेहद जरूरी है। शायद वह पैसे के रूप में संगठन (केंद्रीय धुमकुड़िया व उनके पदाधिकारियों) को जा भी रहा होगा। तो उसकी एकाउंटबिलिटी ट्रांसपेरेंट हो। शायद ट्रांसपेरेंट हो भी, पर अगर नहीं है तो होनी चाहिए यह बात समाज के बीच रखना जरूरी लग रहा है।

(नीतिशा खलखो दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षिका हैं।)

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