वे लालू-मुलायम से चिढ़ते हैं या समाजवाद से!

दिल्ली प्रवास कर रहे लालू प्रसाद दो दिन पहले मुलायम सिंह यादव से मिलने क्या गए कि ट्रॉल करने वालों की मौज आ गई। लालू प्रसाद का दोष इतना था कि उन्होंने कह दिया कि देश पूंजीवाद और सांप्रदायिकता से नहीं चलेगा उसके लिए समाजवाद की जरूरत है। उसके बाद अखिलेश यादव ने उस फोटो को ट्वीट कर दिया जिसमें वे तीनों (लालू-मुलायम और अखिलेश) एक साथ बैठे हैं। फिर तो अखिलेश को विशेष दल के आईटी सेल और परिवार विशेष के सदस्यों ने खूब ट्रॉल किया। तुरंत कहा जाने लगा कि एक चारा चोर और दूसरा टोंटी चोर। वे क्या देश की चिंता करेंगे। उसके बाद यह भी टिप्पणी आने लगी कि कितनी तनख्वाह है जो दिल्ली में इतना बड़ा घर बनवा कर बैठे हैं।

लालू, मुलायम और अखिलेश अपने में कोई आदर्श नेता नहीं हैं। उनमें तमाम कमियां हैं और वे कमियां वैसी ही हैं जैसी देश के अन्य नेताओं में। इसके बावजूद इन तीन नेताओं ने देश के लोकतंत्र को वैसा नुकसान नहीं पहुंचाया है जैसा आज के राष्ट्रवादी और भ्रष्टाचार से लड़ने वाले नेता पहुंचा रहे हैं। बल्कि अगर कहा जाए कि देश के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लालू और मुलायम सिंह ने अपनी छवि, करियर और जीवन को दांव पर लगा दिया है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन इन नेताओं के प्रति सवर्णों और संघियों में एक विशेष प्रकार का घृणा भाव रहा है। हालांकि यह भाव सभी सवर्णों में रहा हो ऐसा नहीं है।

उसका अहसास सन 1996 की एक घटना से होता है। अभय कुमार दुबे के संपादन में आज के नेता राजनीति के नए उद्यमी शीर्षक से सात नेताओं के मोनोग्राफ की एक श्रृंखला तैयार की गई थी। उसमें मेधा पाटकर, बाल ठाकरे, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, ज्योति बसु और कल्याण सिंह शामिल थे। उसका विमोचन विश्वनाथ प्रताप सिंह को करना था। उन्होंने बाल ठाकरे के नाम पर तो आपत्ति की लेकिन कल्याण सिंह के बारे में कहा कि वे तो उसी श्रेणी के नेता हैं जिस तबके को हम आगे बढ़ाना चाहते हैं। हालांकि वे विमोचन कार्यक्रम में बीमारी के कारण नहीं आए लेकिन उस कार्यक्रम में मौजूद कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने कहा कि दरअसल आप लोगों ने जिन पर पुस्तकें लिखी हैं वे सवर्ण समाज की नजर में हीरो नहीं एंटी हीरो हैं। इसलिए इन लोगों पर पुस्तकें लिखकर आपने साहस का काम किया है।

दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में अपना अच्छा- बुरा और लंबा योगदान देने के बावजूद आज भी उस समाज की नजर में वे एंटी हीरो हैं। शायद लालू प्रसाद ने ठीक ही कहा कि यह पूंजीवादी और सांप्रदायिक व्यवस्था है और इसने देश के विकास को पीछे ठेल दिया है। ऐसे में इस व्यवस्था में जो भी नायक बनेगा वह सांप्रदायिक शक्तियों के साथ घूमेगा, पूंजीपतियों के साथ गलबहियां करेगा और उन्हें मजबूत करेगा। जो धर्मर्निरपेक्षता की बात करेगा, समाजवाद की बात करेगा, लोकतंत्र की बात करेगा वह तो खलनायक या एंटी हीरो ही होगा। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मुख्यधारा का मीडिया विपक्षी एकता के प्रयासों को यह कह कर निशाने पर रख रहा है कि उसे ऐसे लोग चला रहे हैं जिनका यकीन इस बात में है कि राज्य ही सारा काम करे। यानी विपक्षी एकता तभी तक सही है जब तक उसमें पूंजीवाद की पैरवी करने वाले लोग हों।

जिस तरह 1918 की स्पानी फ्लू की महामारी ने यह साबित कर दिया था कि दुनिया को स्वतंत्रता, समता और कल्याणकारी राज्य की ज्यादा जरूरत है उसी तरह कोविड-19 की महामारी ने भी उन मूल्यों के औचत्य को सिद्ध किया है। समाजवाद का अर्थ तमाम तरह से बताया जाता है लेकिन उसका एक अर्थ समता और समृद्धि होती है। समाजवाद का अर्थ दरिद्रता नहीं है। इसलिए अगर देश की राजनीति को लंबे समय तक प्रभावित करने वाले दो नेता राजधानी में एक ठीक ठाक आवास में रह रहे हैं और मिल रहे हैं तो इसमें वेतन और कमाई की बात कहां से आ गई। जहां तक सादगी की बात है तो उसका आह्वान तो महात्मा गांधी ने उस समय किया था जब देश आजाद हुआ था। उनका कहना था कि वायसराय भवन को राष्ट्रपति भवन बनाने की कोई जरूरत नहीं है। न ही प्रधानमंत्री और मंत्रियों को बड़े बंगलों में रहने की। वे जनता के सेवक हैं और उन्हें उसी तरह से रहना चाहिए।

लेकिन न तब गांधी की बात किसी ने सुनी और न ही आज 13 हजार करोड़ से लेकर 20 हजार करोड़ रुपए तक की लागत से सेंट्रल विस्टा परियोजना को लागू करने वाली सरकार कुछ सुनने को तैयार है। जबकि आज महामारी का समय है और बहुत सारे संगठनों, पार्टियों और नेताओं ने इस संकट के समय उसे रोक देने की अपील की थी। गैर बराबरी और गैर जरूरी खर्चों पर चर्चा होनी चाहिए लेकिन उसी के साथ वह व्यापक दृष्टि होनी चाहिए जिससे इस समस्या का निदान किया जा सके। पूंजीवाद ने इस महामारी का इस्तेमाल किस तरह अपने विस्तार के लिए किया है इस पर केंद्रित एक अंक सोशलिस्ट रजिस्टर ने प्रकाशित किया है। उस अंक का शीर्षक है बियांड डिजिटल कैपिटलिज्म, न्यू वेज आफ लिविंग।

एक ओर आपदा में अवसर ढूंढते हुए दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियों ने अपना कारोबार डिजिटल प्लेटफार्म पर शिफ्ट कर दिया है वहीं दूसरी ओर यह बात ज्यादा तेजी से प्रमाणित हुई है कि बाजार से हर समस्या का हल नहीं हो सकता। आखिरकार राज्य की कल्याणकारी भूमिका जरूरी है। तो एक ओर दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियों की आय बढ़ी है वहीं दुनिया में श्रमिकों, किसानों और काले लोगों के आंदोलन भी तेज हुए हैं। अमेरिका में तो काले लोगों के आंदोलन ने सरकार ही पलट दी और भारत में किसान लंबे समय से धरने पर बैठे हुए हैं। सन 2018 से 2021 के बीच अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप समेत दुनिया के कई देशों में बड़ा परिवर्तन आया है।

आउटसोर्सिंग कंपनियों में कोविड को आपदा में अवसर की तरह से लपका है। सन 2020 में ग्रेट ब्रिटेन में सार्वजनिक ठेका आमंत्रित किए जाने के काम में 40 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें 4.3 अरब पौंड के ठेके कोविड-19 के सिलसिले में हुए हैं जिनमें 32 करोड़ पौंड अस्थायी अस्पताल और 75 करोड़ पौंड संक्रमण सर्वे का ठेका दिया गया है। इस तरह आम आदमी की गरीबी और लाचारी कंपनियों की कमाई का जरिया बनी है।

जहां तक भारत की बात है तो आक्सफैम ने अपने सालाना सर्वे में इन्इक्विलिटी वायरस शीर्षक से बताया है कि लॉकडाउन के दौरान जहां अरबपतियों की संपत्ति 35 प्रतिशत बढ़ी है वहीं 12.2 करोड़ लोगों की नौकरियां गई हैं। अप्रैल 2020 में तो हर घंटे 130,000 लोगों की नौकरी गई है। भारत का शायद ही कोई अरबपति हो जिसकी संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि न हुई हो। आक्सफैम कहता है कि मुकेश अंबानी ने महामारी में एक घंटे में जितना कमा लिया उतना कमाने में एक अकुशल मजदूर को 10,000 साल लगेंगे। महामारी के दौरान हुई अंबानी की आमदनी से 40 करोड़ मजदूरों को पांच महीने तक गरीबी रेखा से ऊपर रखा जा सकता है।

इतना सब होने के बावजूद इस देश में समाजवाद के नाम से चिढ़ने वालों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। विडंबना यह है कि देश का आम आदमी समता और समृद्धि की अनिवार्यता को समझ नहीं पा रहा है। दूसरी ओर समाजवाद का नाम लेने वाले नेताओं और दलों की दिक्कत यह है कि वे या तो उसमें ठीक से यकीन नहीं करते और यूं ही उसका नाम लेते रहते हैं या फिर उसके लिए संघर्ष नहीं करते।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)  

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