महाराष्ट्र के नाटक में साफ झलक रही है नरेंद्र मोदी की बदहवासी 

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महाराष्ट्र में करीब एक साल पहले जोड़-तोड़ से बनी भाजपा और विखंडित शिव सेना की सरकार को विधानसभा में आरामदायक बहुमत हासिल था और उसे किसी के अतिरिक्त समर्थन की दरकार नहीं थी। इसके बावजूद भाजपा ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी को तोड़ कर उसके नौ विधायकों को मंत्री बना दिया। इस घटनाक्रम से एक बार फिर साबित हुआ कि जोड़-तोड़ की राजनीति में नरेंद्र मोदी युगीन भाजपा न सिर्फ माहिर है बल्कि तोड़-फोड़, जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त की राजनीति ही उसका परमधर्म है। इस घटनाक्रम से यह भी जाहिर हुआ कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी दलों को अपने खिलाफ एकजुट होते देख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेहद हैरान-परेशान और बौखलाए हुए हैं।

फौरी तौर पर लगता है कि यह घटनाक्रम महाराष्ट्र का है लेकिन हकीकत यह है कि मुंबई में मंचित इस नाटक की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी और इसका सूत्र संचालन भी दिल्ली से ही हो रहा था। गौरतलब है कि पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भोपाल गए थे। वहां उन्होंने अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए विपक्षी नेताओं के कथित घोटाले गिनाए थे और उसी सिलसिले में एनसीपी के नेताओं पर 70 हजार करोड़ रुपए के घोटालों का आरोप लगाया था। महाराष्ट्र सहकारी बैंक घोटाला, सिंचाई घोटाला, खनन घोटाला आदि का जिक्र करते हुए इसमें शामिल नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी थी। प्रधानमंत्री के इस भाषण के दो दिन बाद ही अजित पवार दिल्ली में अमित शाह से मिले थे। उसी मुलाकात में जो कुछ तय था वह 2 जुलाई को पूरे देश ने देख लिया। 

अजीत पवार सहित एनसीपी के जो नौ लोग महाराष्ट्र सरकार में मंत्री बनाए गए हैं, उनमें से अजित पवार और छगन भुजबल समेत चार तो सीधे-सीधे उन घोटालों में जांच का सामना कर रहे हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में गिनाए थे। बाकी पांच मंत्रियों और अजित पवार समर्थक अन्य विधायक भी किसी न किसी मामले में केंद्र और राज्य सरकार की जांच एजेंसियों का सामना कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सभी को जांच से राहत मिल जाएगी, यानी सभी के मामले रफा-दफा हो जाएंगे। ऐसा कोई पहली बार नहीं होगा। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और असम, गोवा तथा पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में कांग्रेस से दलबदल कर भाजपा में गए नेताओं को भी केंद्रीय एजेंसियों की जांच से इसी तरह छुटकारा मिला है। यानी मोदी अपने भाषणों में जिन नेताओं को जेल भेजने की बात करते थे, उन्हें जेल भेजने के बजाय अपनी पार्टी में ले आए। 

महाराष्ट्र के घटनाक्रम से यह भी जाहिर हुआ कि अपनी सत्ता के बल पर दूसरे दलों को तोड़ना और उनके नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का प्रिय खेल है। इस खेल में वे संविधान, कानून, लोकतांत्रिक मर्यादा और न्यूनतम नैतिकता की भी परवाह नहीं करते हैं, भले ही इस पर भाषण खूब चीख-चीख कर देते हों। इसे एक तरह उनकी ‘बीमारी’ भी कहा जा सकता है, क्योंकि यह खेल वे आए दिन किसी न किसी राज्य में खेलते रहते हैं। इसी खेल के जरिए उन्होंने पिछले नौ सालों के दौरान मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में जनता द्वारा ठुकरा दिए जाने के बाद भी जनादेश को ठेंगा दिखाते हुए अपनी पार्टी की सरकार बनाई है। कोई आश्चर्य नहीं कि जो खेल महाराष्ट्र में खेला गया है, वह आने वाले कुछ दिनों में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बिहार और अन्य विपक्ष शासित राज्यों में भी खेला जाए।

मोदी और शाह ने महाराष्ट्र में एक साल पहले अपनी पार्टी की सबसे पुरानी और विश्वस्त सहयोगी रही शिव सेना को भी इसी तरह तोड़ा था और उसके टूटे हुए धड़े के साथ मिल कर अपनी सरकार बनाई थी। लेकिन उन्हें इस बात का मलाल था कि वे अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री नहीं बनवा सके थे। चूंकि अगले लोकसभा चुनाव के लिहाज से महाराष्ट्र उनके लिए बेहद अहम है। पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा ने शिव सेना के साथ मिल कर लड़ा था और 48 में से 23 सीटें जीती थीं, जबकि 18 सीटें शिव सेना को मिली थीं। शिव सेना को तोड़ने और इस समय सत्ता में होने के बावजूद उसे भरोसा नहीं था कि वह अगले लोकसभा चुनाव में पिछले चुनाव जैसा प्रदर्शन दोहरा पाएगी।

उसे उद्धव ठाकरे की शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन के मुकाबले अपनी स्थिति बेहद कमजोर लग रही थी। इसलिए अब उसने एनसीपी को तोड़ दिया। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उसके लिए यह भी जरूरी था कि महाराष्ट्र में उसका अपना यानी भाजपा का मुख्यमंत्री हो। एनसीपी के टूटे हुए धड़े को अपने साथ लाकर उसने यह स्थिति बना ली है कि अब वह एकनाथ शिंदे की जगह अपना मुख्यमंत्री बना सकती है। अगर शिंदे को मुख्यमंत्री पद से हटा भी दिया तो भाजपा को कोई नुकसान नहीं होना है, क्योंकि भाजपा के साथ बने रहना शिंदे की मजबूरी होगी। 

एनसीपी को तोड़ कर और उसके एक धड़े को अपने साथ लाकर भाजपा ने महाराष्ट्र में अपनी सत्ता के पाए ज़रूर मजबूत कर लिए हैं, लेकिन एनसीपी के टूटे हुए धड़े से उसे लोकसभा चुनाव में कोई फायदा शायद ही मिल सके। जैसे शिव सेना के टूटने से उसके विधायक और सांसद भले ही भाजपा के पाले में चले गए हों लेकिन शिव सेना का संगठन और जनाधार तो आज भी उद्धव ठाकरे के साथ ही है।

इसी तरह एनसीपी के विधायकों और सांसदों को बहुमत भले ही तात्कालिक फायदे के लिए भाजपा के साथ चला गया हो लेकिन एनसीपी का मतलब तो शरद पवार ही हैं। जितने भी विधायक और सांसद टूट कर भाजपा के साथ गए हैं उनमें से किसी की भी, यहां तक कि अजित पवार की भी हैसियत अपने दम पर जीतने या किसी को जिताने की नहीं है। वे सब शरद पवार के नाम पर चुनाव जीतते रहे हैं। इसलिए भाजपा आने वाले दिनों में एकनाथ शिंदे को हटा कर अपना मुख्यमंत्री भले ही बना ले और खुश हो जाए लेकिन लोकसभा चुनाव में उसे वही खुशी मिलना आसान नहीं है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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