देहरादून। साल बीतते न बीतते उत्तराखंड एक बार फिर आपदा की चपेट में है और आपदा आते ही एक बार फिर पूरा सिस्टम लाचार नजर आ रहा है। ऐसा हमने इस राज्य में पहले भी देखा है। 2013 की केदारनाथ आपदा हो या उसके बाद आई तमाम आपदाएं। पिछले वर्ष एक के बाद एक दो बड़ी आपदाएं उत्तराखंड ने झेली। 7 फरवरी 2021 को चमोली जिले के ऋषिगंगा और धौली गंगा में आई आपदा में 206 लोग लापता हुए और अब तक सिर्फ 89 शव ही बरामद हुए। उनमें से भी तीन शव डेढ़ वर्ष बाद पिछले दिनों बरामद हुए हैं। अब जरा 9 वर्ष पहले केदारनाथ की आपदा पर नजर डालें तो तीन दिन तक तो सरकारी तंत्र को पता ही नहीं चल पाया था कि केदारनाथ में हुआ क्या है। कितने लोग मरे यह आज भी सिर्फ अनुमान लगाया जाता है। केदारनाथ आपदा में मरने वालों के जो सरकारी आंकड़े पेश किये जाते हैं, उन्हें आज भी संदेह की नजर से देखा जाता है।
अब हालिया आपदा की बात करें।19 और 20 अगस्त की दरम्यानी रात को राज्य के तीन जिलों में बारिश ने कहर बरपाया। देहरादून जिले के रायपुर क्षेत्र की बांदल नदी घाटी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई। कई लोग लापता हुए। इसी नदी घाटी में टिहरी जिले के धनोल्टी और सौंग नदी घाटी के चंबा क्षेत्र में भी तबाही हुई। माना जा रहा है कि बांदल नदी के कैचमेंट क्षेत्र में बादल फटने से यह घटना हुई। टिहरी जिले के ही कीर्तिनगर क्षेत्र में भी उस रात तबाही हुई और पौड़ी जिले के यमकेश्वर क्षेत्र में भी।

राज्य सरकार हर वर्ष मॉनसून आने से पहले संभावित आपदा से पूर्व की तैयारियों को लेकर बड़े-बड़े दावे करती है। लेकिन, जब आपदा आती है तो सब कुछ धरा का धरा रह जाता है। आपदा के 36 घंटे से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बाद 21 अगस्त की दोपहर को जनचौक ने देहरादून जिले के आपदा प्रभावित बांदल नदी घाटी का दौरा किया तो तब तक वहां राहत और बचाव कार्य के कोई खास इंतजाम नहीं हो पाये थे। उसी दिन शाम को सरकार की ओर से दावा किया गया कि आपदा प्रभावित क्षेत्रों में राहत और बचाव कार्य तेजी से चल रहा है। सबसे ज्यादा प्रभावित गांव जहां 5 लोग लापता हैं, उनकी तलाशी की जा रही है। गांव में राहत सामग्री पहुंचा दी गई है। स्वास्थ्य विभाग की टीम वहां लोगों की मेडिकल चेकअप भी कर रही है। सरकार की ओर से हेलीकॉप्टर से मदद भेजने की भी बात कही गई, लेकिन वहां कोई हेलीकॉप्टर पूरे दिन उड़ान भरता नहीं दिखा।
उस दिन आपदाग्रस्त सरखेत गांव में एनडीआरएफ और एसडीआरएफ के कुछ जवान जवान ज़रूर नजर आये और गांव के प्राइमरी स्कूल की एक अध्यापिका। अध्यापिका को उस दिन रविवार होने के बावजूद गांव में जाकर वहां के फोटो भेजने का आदेश हुआ था। गांव जाने की सड़क टूट चुकी थी और कम से कम दो जगहों पर जान जोखिम में डालकर ही गांव पहुंचा जा सकता था। जिस घर के मलबे में दब जाने से वहां 5 लापता लोगों के दबे होने की आशंका थी, वहां गांव में करीब दो दर्जन लोग और एनडीआरएफ के कुछ कर्मचारी मौजूद थे।

एनडीआरएफ के एक अधिकारी द्वारा वायरलैस सेट पर चेन वाली जेसीबी के बिना कोई काम न हो पाने की बात कही जा रही थी। अधिकारी को वायरलैस पर यह कहते भी सुना गया कि यहां प्रशासन और सरकारी एजेंसियों का कोई कर्मचारी मौजूद नहीं है। जनचौक के पास एनडीआरएफ के अधिकारी की वह वीडियो क्लीपिंग उपलब्ध है। 22 अगस्त की सुबह जेसीबी मौके पर पहुंची और उसके बाद ही दबे हुए मकान से मलबा हटाने का काम शुरू हो पाया। हालांकि दो दिन बाद 24 अगस्त की दोपहर तक भी वहां कोई शव बरामद नहीं हो पाया है।
19-20 अगस्त की रात आई आपदा के बाद से अब तक सरकारी स्तर पर 7 लोगों की मौत की पुष्टि की गई है। और 11 लोग अब भी लापता बताये जा रहे हैं। टिहरी जिले में 5 और देहरादून व पौड़ी में एक-एक की मौत हो जाने की पुष्टि की गई है। टिहरी में हुई मौतों में वह महिला हिमदेई भी शामिल है, जिसका शव दून में सौंग नदी में बरामद किया गया। देहरादून में जिस युवक की मौत हुई, उसका शव भी सौंग नदी से ही बरामद हुआ था। जो 11 लोग लापता बताये जा रहे हैं, उनमें 5 देहरादून के सरखेत गांव के हैं और चार टिहरी जिले के हैं।
हर आपदा के बाद इस बार भी दो सवाल प्रमुख रूप से उठाये जा रहे हैं, पहला यह कि इस आपदा का कारण क्या है, और दूसरा यह कि क्या आपदा के बाद राहत और बचाव कार्य के साथ ही प्रभावितों को दिया जा रहा मुआवजा पर्याप्त है। सरखेत गांव में अनुसूचित जाति के पांच परिवारों के मकान पूरी तरह दब गये या बह गये हैं। इन परिवारों के खेत भी बह गये। अब उनके पास घटना के वक्त जो कपड़े पहने थे, उनके अलावा कुछ भी बाकी नहीं रह गया है। इन लोगों को मालदेवता के जूनियर हाई स्कूल में ठहराया गया है। इन परिवारों के एक सदस्य सुनील लाल ने जनचौक को बताया कि कोई अधिकारी आकर उन्हें 1 लाख रुपये मकान के लिए और 38 सौ रुपये राशन आदि के लिए दे रहा था, उन्होंने लेने से इंकार कर दिया है। सुनील के अनुसार उनके पास अब कुछ भी नहीं है, न घर, न राशन, न कपड़े, न बर्तन। ऐसे में इस रकम से वे क्या करेंगे? उन्होंने यह अहसान न लेना ही ठीक समझा।

सरखेत गांव के ग्राम प्रधान सुखवीर सिंह तोपवाल का कहना है कि गांव के ज्यादातर परिवारों का सब कुछ खत्म हो गया है। सौ के करीब पशुओं की हानि हुई है। खेत बह गये हैं, घर दब गये हैं। ऐसे में मुआवजा इतना तो मिलना ही चाहिए कि जो लोग बच गये हैं, वे नये सिरे से अपनी जिन्दगी शुरू कर सकें। गांव के लोगों का कहना था कि हमारी पहली प्राथमिकता अपने लोगों को मलबे से निकालने की है, जो काम देर से शुरू हुआ है। इस बीच प्रशासन ने 24 अगस्त की सुबह सरखेत गांव और उससे आगे भैंसबाड़ा से सड़क बनाने का दावा किया है।
बांदल नदी में पहले भी बाढ़ आती रही है, लेकिन इस बार इतना भारी नुकसान क्यों हुआ? यह सवाल बार-बार सामने आ रहा है। बांदल नदी घाटी पर नजर रखने वाले भारत ज्ञान विज्ञान समिति के विजय भट्ट और इंद्रेश नौटियाल आपदा के बाद लगातार यहां बने हुए हैं। वे कहते हैं कि बांदल नदी में 14 अगस्त, 2016 को भी बाढ़ आई थी, लेकिन तब इतना नुकसान नहीं हुआ था। वे मानते हैं कि इस नुकसान का कारण नदी के दोनों तरफ बने रिजॉर्ट हैं। इन रिजॉर्ट की कतार लाल पुल से शुरू होकर सरखेत और सीतापुर के ऊपर तक जा रही है। सभी रिजॉर्ट 2018 के बाद बने। कुछ तो 5-7 महीने पहले ही बने थे।
साफ है कि ये निर्माण राज्य में भूकानून में किये गये बदलाव के बाद हुए हैं। इस कानून में अब असीमित जमीन खरीदने की छूट तो है ही, साथ ही लैंड यूज चेंज जैसी बाध्यता को भी खत्म कर दिया गया है। यानी कि किसी भी जमीन को खरीद कर आप उसका कोई भी इस्तेमाल कर सकते हैं। वे कहते हैं कि बांदल के किनारे के इन रिजॉर्ट को बनाने के लिए कुछ जमीन खरीदकर बाकी बांदल के पाटों को कब्जा दिया गया है। नदी को पाटकर स्वीमिंग पूल और पार्किंग बनाये गये थे। यही कारण है कि आपदा में पर्यटकों के दर्जनों वाहन बहे हैं और सैकड़ों पर्यटक इन रिजॉर्ट में फंस गये थे।
क्षेत्र का दौरा कर लौटे उत्तराखंड वानिकी और औद्यानिकी विश्वविद्यालय के भू-वैज्ञानिक डॉ. एसपी सती मानते हैं कि बांदल नदी के इस तरह आक्रामक हो जाने का कारण नदी के पाटों को पाट कर और नदी के किनारे के पहाड़ों को काटकर बनाये गये रिजॉर्ट हैं। उनका कहना है नदी के पाटों पर कब्जा करके बड़े-बड़े रिजॉर्ट बनाने की अनुमति आखिर किस आधार पर दी गई। वे कहते हैं कि नदी के दोनों तरफ बचे रिजॉर्ट के अवशेष साफ बता रहे हैं कि नदी को दोनों तरफ से कब्जा करके नाला बना दिया गया था। वे कहते हैं कि नदी को पाटकर और पहाड़ को काटकर बनाये गये इन रिजॉर्ट का मलबा नदी में ही फेंका गया होगा, जो इतने बड़े नुकसान का कारण बना। प्रो. सती के अनुसार इस आपदा में पेड़ों को भी भारी नुकसान पहुंचा है। मलबे में पत्थरों के साथ भारी संख्या में टूटे हुए पेड़ देखे जा सकते हैं।
(देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)
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