पत्रकार भाषा सिंह के पहले कविता संग्रह “योनि-सत्ता संवाद पलकों से चुनना वासना के मोती” पर राजधानी दिल्ली स्थित प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में गहरी चर्चा हुई। इस मौके पर कई कवि, लेखक, पत्रकार व साहित्य प्रेमी जुटे।
भाषा सिंह की कविताएं न केवल यथास्थितिवाद को नकारती हैं बल्कि उसे चुनौती देती हैं। उनका मानना है कि ‘प्रेम से उपजा जीवन प्रेम से ही बचेगा’। लेकिन उनकी कविताओं में नफ़रत से भी गहरी नफ़रत शामिल है। तभी वह कहती हैं कि ‘राजा नंगा है तो उसे नंगा ही कहना। भूलकर भी हत्याओं को मौत मत कहना।’ वह साफ़ करती हैं कि personal is political यानी जो निजी है वह राजनीतिक है। और यह उनकी हर कविता से स्पष्ट होता है।

अपने बारे में बताते हुए भाषा ने कहा– “कविताएं मेरे निजी स्पेस का हिस्सा रही हैं। मेरे लिए कविता में बतौर एक विधा वह ताक़त है जो ख़ुद को बेपर्दा-खंगालने की वैसी कूची देती है, जो अमृता शेरगिल की न्यूड पेंटिंग में नज़र आती हैं।”
लेखक और कवि अजय सिंह ने भाषा की कविताओं पर कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। अजय सिंह कहते हैं– “भाषा की कविता की स्त्री कहीं से भी आत्मदया या विक्टिमहुड की शिकार नहीं है। जैसे आमतौर पर बहुत सी कविताएं जो सामाजिक या व्यक्तिगत पृष्ठभूमि में लिखी जाती हैं उनमें दिखाई देता है। वह बहुत प्रतिकूल स्थितियों में भी लात मारने की इच्छा रखती है और संबंधों को अपनी शर्तों पर नए सिरे से परिभाषित करना चाहती है।”
उन्होंने कहा कि “यह कविताएं स्त्री अस्मिता की, अस्मितावाद की कविताएं नहीं हैं। यह बहुत ख़ास बात है क्योंकि अस्मितावाद पिछले काफ़ी समय से फ़ासीवाद का सहयोगी बन चला है। और वह प्रतिक्रियावादी यथास्थितिवाद को मज़बूत करने का एक औज़ार बन गया है। जो Identity Politics (पहचान की राजनीति) है, उस Identity Politics के ख़िलाफ़ भाषा की कविताएं हैं।
भाषा की कविताएं स्त्री को वर्ग युद्ध की तरफ़ ले जाने वाली कविताएं हैं। वर्ग पहचान की कविताएं हैं। वर्ग युद्ध की जितनी तीख़ी अनुभूति हमारे अंदर होगी, उतनी ही इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ हमारी नफ़रत होगी और इस व्यवस्था को बदलने की कूवत हमारे अंदर आएगी।
यह हिंदी में शायद पहली किताब है जो राजनीतिक रूप पर इतनी मुखर है। भाषा अपनी शिनाख़्त एक अंबेडकरवादी, मार्क्सवादी और नारीवादी के तौर पर करती हैं। इन्हीं तीनों पहचानों के मेल से यह सुंदर काव्य रचना, यह कविता संग्रह हमारे सामने आया है। इन कविताओं की जो ख़ूबसूरती है दरअसल वह उस विचार पद्धति की ख़ूबसूरती है जिसे काव्य में अभिव्यक्त किया गया है।”

वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने कहा कि “कविता संग्रह का शीर्षक बहुत लोगों को पहली नज़र में विचित्र लग सकता है पर यह मा’नीख़ेज़ है। इस संग्रह की कविताएं विशेष महत्व की हैं और राज सत्ता, धर्म सत्ता तथा ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को चुनौती देती हैं बल्कि कहिए कड़ी चुनौती देती हैं।” उनकी नज़र में यह प्रतिरोध की कविताएं हैं, विस्फोटक कविताएं हैं।
लेखक पत्रकार संजय कुंदन ने कहा कि भाषा की कविताएं अलग हटकर हैं। इसमें स्त्री विमर्श ही नहीं कई विमर्श हैं। समाज की तल्ख़ तस्वीरें भी हैं। उदाहरण के लिए मैलन दादी कविता को लिया जा सकता है। आज भी हमारे समाज में मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा है, यह उसी की कहानी कहती है।
लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा कहते हैं–”कवि भाषा सारी वर्जनाओं को तोड़कर कथित सभ्य समाज और सत्ता को चुनौती देती हैं। किताब का शीर्षक हमें चौंकाता है। क्योंकि प्रेम और सेक्स को लेकर हमारे समाज में दोहरी मानसिकता है। एक ओर तो इसे गंदा वर्जित फल माना जाता है। दूसरी ओर लड़किेयों से यौन शोषण की घटनाएं हमारे समाज में परिवार में सर्वाधिक अपने लोगों द्वारा होती हैं।”
कथाकार डॉ. पूरन सिंह ने कहा कि “सवर्ण साहितयकारों द्वारा इस किताब पर चर्चा करना मुश्किल है और हो सकता है वे इस किताब पर बैन (प्रतिबंध) लगावा दें। क्योंकि ये कविताएं पितृसत्ता, धर्म सत्ता, सामंती सत्ता का चुनौती देती हैं।”
कवि और लेखक पूनम तुषामड़ ने कहा कि इन कविताओं में फूल भी हैं तो वे भी संघर्ष के प्रतीक बन गए हैं। भाषा की कविताएं अंदर तक झकझोर देती हैं। स्त्री विमर्श को बड़ी बेबाकी से उठाती हैं।
कवि और हंस पत्रिका से जुड़ीं शोभा अक्षर ने भाषा की कविताओं को प्रतिरोध की कविता कहा और कई कविताओं में आईं स्त्री नामों का उल्लेख करते हुए कहा ये सभी ऐसी स्त्रियां हैं जिन्होंने पुरुष-मर्द के बनाए सत्य को मानने से इंकार कर दिया।
कवि-कहानीकार शोभा सिंह ने कहा कि भाषा के कविता संग्रह में आधी ज़मीन का सुलगता इतिहास है। पितृसत्ता के चंगुल में फंसा भूगोल है और पृष्ठभूमि में उकेरी तस्वीर रक्तपिपासु कारोबारियों की जो लगातार मानवता की धरोहर को दाग़दार कर रही हैं। नफ़रत के ख़िलाफ़ एक ज़रूरी पहल है कवि भाषा। जो देह की स्वायत्तता, दहकती रूह के सवाल, प्रकृति की सुंदरता से भीगे पल जो उजले दिनों के ख़्वाब का है, दिलक़श-दिरफ़रेब रचना बन जाती है उनकी।
नाट्य लेखक राजेश कुमार ने किताब के शीर्षक पर चर्चा करते हुए इसे महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने ‘मेरी माहवारी मेरी जाति है’ कविता का उल्लेख करते हुए इसे बहुत ज़रूरी कविता बताया। उन्होंने कहा कि भाषा कि कविताओं में कई आयाम हैं। सांप्रदायिकता भी सवाल है तो फ़ासीवाद को भी चुनौती है। क्योंकि हमारे देश में जिस तरह फ़ासीवाद आ रहा है, उसका सबसे बड़ा हमला स्त्री पर ही होता है।
कवि अदनान कफ़ील दरवेश ने कहा कि भाषा की कविताएं स्तब्ध कर देती हैं और इस समय का जो पूरा समाज बन रहा है जिसमें हत्या, बलात्कार, लिंचिंग एक नया नॉर्मल बनता जा रहा है, उसे बेपर्दा कर देती हैं। इन कविताओं में एक चुनौती भरा स्वर है। उन्होंने कहा कि जहां तक स्त्री कविता की बात है तो उसमें जो फासिस्ट सत्ता है उसकी पहचान नहीं हो पाती, इन अर्थों में भाषा की कविताएं बहुत बोल्डली फासिस्ट सत्ता की पहचान करती हैं। जो हमारा वर्ग शत्रु है उसकी पहचान करती हैं।
इस मौके पर कवि पवन करण, कवि-कहानीकार उषा राय और आलोचक आशुतोष की भेजी गई लिखित टिप्पणियों के अंश भी पढ़े गए।
नाट्यकर्मी लोकेश जैन भाषा की योनि-सत्ता संवाद शीर्षक कविता का प्रभावशाली पाठ किया। शिक्षक-लेखक लालिमा सिंह, लेखक-सामाजिक कार्यकर्ता राज वाल्मीकि और शोध छात्रा खिलखिल भाषानंदनी ने भी भाषा की अलग-अलग कविताओं का पाठ किया। खिलखिल ने ‘मेरी माहवारी मेरी जाति है’ पढ़कर सुनाई, जिसका उन्होंने किताब में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है।
कार्यक्रम में सीपीआई के महासचिव डी. राजा, लखनऊ से आए शायर ओम प्रकाश नदीम, इप्टा से जुड़ीं सुमन श्रीवास्तव, पत्रकार संस्कृतिकर्मी अतुल सिन्हा, पत्रकार जनार्दन, सामाजिक कार्यकर्ता सुलेखा ने भी अपनी बात रखी।
कार्यक्रम में कवि-व्यंग्यकार विष्णु नागर, न्यूज़क्लिक के प्रमुख संपादक प्रबीर पुरकायस्थ, सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के संयोजक बेजवाडा विल्सन, कार्टूनिस्ट इरफ़ान, चिकित्सक और व्यंग्यकार डॉ. द्रोण कुमार शर्मा, राजभाषा विभाग में अधिकारी रहीं कमला कुमारी, संस्कृतिकर्मी तक़ी मोहम्मद, फ़ोटोग्राफ़र पत्रकार कामरान यूसुफ़, पत्रकार उपेंद्र स्वामी सहित कई महत्वपूर्ण व्यक्ति मौजूद रहे। कवि-पत्रकार मुकुल सरल ने कार्यक्रम का संचालन किया।
गुलमोहर किताब से प्रकाशित भाषा के इस कविता संग्रह में कुल 29 कविताएं हैं। जिनमें से चार कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी किताब में उपलब्ध है। कुल मिलाकर यह कविताओं की ऐसी किताब है जिसकी हर रचना अलग से चर्चा की मांग करती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)
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