Saturday, April 27, 2024

स्मृति दिवस:  क्या इब्राहिम अल्काज़ी के बिना आधुनिक रंगमंच का तसव्वुर किया जा सकता है?

इब्राहिम अल्काज़ी रंगमंच की दिग्गज शख़्सियत थे। उनके बिना आधुनिक भारतीय रंगमंच का तसव्वुर नहीं किया जा सकता। उन्होंने देश की आज़ादी के बाद भारतीय रंगमंच को एक नई दिशा प्रदान की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय यानी ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ का आज हम जो स्वरूप देखते हैं, वह दरअसल उन्हीं की कोशिशों का नतीज़ा है। इब्राहिम अल्काज़ी ने एनएसडी को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुकूल गढ़ा। इस दरमियान उन्होंने ऐसी प्रस्तुतियां की और ऐसे स्नातक तैयार किए, जिन पर दुनिया का कोई भी रंगमंच फ़ख्र कर सकता है। इस नाट्य विद्यालय को अंतरराष्ट्रीय स्तर का संस्थान बनाने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ झोंक दिया। वे पन्द्रह साल तक एनएसडी में बतौर निदेशक रहे। उनके कार्यकाल में एनएसडी ने नई ऊंचाईयों को छुआ।

एनएसडी के निदेशक के रूप में उन्होंने देश की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित किया। उनके प्रशिक्षित रंगकर्मी और रंग निर्देशकों ने ही आगे चलकर देश में भारतीय रंग आंदोलन को आगे बढ़ाया। रंगमंच और नाटक के लिए इब्राहिम अल्काज़ी का एक और अहम योगदान विधिवत आधुनिक प्रशिक्षण कार्यक्रम की रूपरेखा को बनाना था। जो आज भी नये निर्देशकों और कलाकारों को प्रशिक्षित करने में मददगार साबित होता है।

इब्राहिम अल्काज़ी जब बीस साल के ही थे, तब सुल्तान पदमसी के मशहूर नाट्य ग्रुप ‘दि थिएटर ग्रुप’ के पहले अध्यक्ष चुने गए। उनके इस ग्रुप ने विभिन्न नाट्य प्रस्तुतियों की शुरुआत की, जिसने आगे चलकर मुंबई में एक रंग आंदोलन की शक्ल ले ली। उसी वक़्त इब्राहिम अल्काज़ी के द्वारा संपादित ‘द थिएटर बुलेटिन’ उस समय रंगकर्म और सहधर्मी कलाओं पर एकमात्र प्रकाशन था।

इब्राहिम अल्काज़ी ने ‘रॉयल अकेडमी ऑफ ड्रॅमैटिक आर्ट’ और ‘ब्रिटिश ड्रामा लीग’ से रंगमंच और ड्रामे का विधिवत अध्ययन किया। पढ़ाई मुकम्मल हुई, तो उन्हें काउंटी नाट्य सलाहकार बनने और रंगमंच पर पेशेवर तौर पर काम करने की पेशकश मिली। लेकिन उन्होंने यह सारी पेशकश ठुकराते हुए, अपने मुल्क में ही काम करने का फै़सला किया। 

साल 1954 में इब्राहिम अल्काज़ी, जब महज़ उनतीस साल के थे, उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के लिए एक प्लान बनाया, जिसे मंजूर कर लिया गया। उन्हें सरकार की ओर से एनएसडी के डायरेक्टर पद की पेशकश की गई, मगर उन्होंने यह पेशकश कबूल नहीं की। बहरहाल, यह प्लान 1958 में अमल में आया। जिस उम्मीद के साथ इस संस्था का आग़ाज़ हुआ था, जब वह पूरी होती नहीं दिखीं, तो एक बार सरकार का मन इसे बंद करने का हुआ। बंद करने से पहले, इब्राहिम अल्काज़ी को एक बार फिर इसकी ज़िम्मेदारी लेने को कहा गया। इस मर्तबा उन्होंने हामी भर दी।

आगे का इतिहास सब जानते हैं। इब्राहिम अल्काज़ी के साल 1962 में डायरेक्टर का पद संभालते ही, एनएसडी में आश्चर्यजनक बदलाव आए। अनुशासन और पेशेवर रवैया इन दोनों चीजों ने एनएसडी की पूरी तस्वीर ही बदल कर रख दी। इब्राहिम अल्काज़ी खुद वेस्टर्न ड्रामा पढ़ाते थे। हफ़्ते में वे कई दफा 30 से 40 क्लास तक लेते। उनकी इस लगन और समर्पण ने एनएसडी को नई ऊंचाईयों पर पहुंचा दिया।

साल 1962 से 1977 तक का समय एनएसडी का सुनहरा दौर था। कडे़ अनुशासन और योजनाबद्ध कार्यशैली अल्काज़ी के काम की ख़ासियत थी। इस दरमियान एनएसडी से पास हुए दो सौ से ज़्यादा ग्रेजुएट पर इब्राहिम अल्काज़ी के काम की स्पष्ट छाप है। उनके इन स्टूडेंट्स ने देश भर में रंगकर्म का विस्तार किया। रंगमंच के हर क्षेत्र में इब्राहिम अल्काज़ी का दखल था। नाटक के प्रस्तुतिकरण से लेकर वे उसके लिए सेट और लाईट डिज़ाइन तक कर लेते थे। ख़ास तौर पर अभिनेता के प्रशिक्षण में उनका कोई जवाब नहीं था। प्रशिक्षण में उन्होंने जहां आधुनिक पद्धति अपनाई, तो नाट्य प्रर्दशन में शिल्प और तकनीक के नए मापदंड भी स्थापित किए। 

एनएसडी में स्टूडेंट्स को सिर्फ़ परम्परागत भारतीय रंग प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता था, बल्कि इब्राहिम अल्काज़ी ने इस स्कूल से कार्ल वेबर, फ्रिट्ज बेनेविट्ज और रिचर्ड शेख़नर जैसी विश्व रंग जगत की नामवर हस्तियों को जोड़ा। ताकि उनके विद्यार्थी दुनिया भर के रंगमंच और उसकी शैलियों से अच्छी तरह से वाकिफ़ हो सकें। परंपरागत भारतीय रंगमंच शैलियों से भी इब्राहिम अल्काज़ी को कोई गुरेज नहीं था।

उन्होंने शांता गांधी को ‘जस्मा ओडन’ की प्रस्तुति के लिए प्रोत्साहित किया, तो जाने-माने नाटककार और रंग निर्देशक शिवराम कारंथ को एनएसडी में आमंत्रित किया और उन्हें रंगकर्मियों को ‘यक्षगान’ का प्रशिक्षण देने की ज़िम्मेदारी सौंपी। राजभाषा हिन्दी को राष्ट्रीय रंगमंच की भाषा या रंगमंच की केन्द्रीय भाषा बनाने में भी इब्राहिम अल्क़ाज़ी का अहम योगदान है। एनएसडी की स्थापना के बाद से ही उन्होंने हिन्दी भाषा की लगातार उम्दा प्रस्तुतियों से यह तय कर दिया था कि आगे चलकर यही ज़बान, रंगमंच की केंद्रीय भाषा होगी।

इब्राहिम अल्क़ाज़ी की प्रस्तुतियों की रेंज काफ़ी व्यापक है। एक तरफ़ उन्होंने नए नाटककारों को रंगमंच पर जोर-शोर से पेश किया। मसलन धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’, मोहन राकेश-‘आषाढ़ का एक दिन’, गिरीश कारनाड- ‘तुगलक़’, तो वहीं दूसरी ओर उन्होंने विश्व के क्लासिक नाटकों ‘कंजूस’ (मौलियर), ‘जूलियस सीज़र’, ‘हैमलेट’ (शेक्सपीयर), ‘दि हाउस ऑफ बर्नार्डा अल्बा’ (लोर्का), ‘दान्तोज डैथ’ (जार्ज व्यूख़नर), ‘क्रॉस परपजे़ज़’ (कामू), ‘मर्डर इन दि कैथेड्रल’ (टी.एस. इलियट), ‘घोस्ट्स’ (हेनरिक इब्सन) और कालिदास के संस्कृत नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ और ‘मृच्छकटिकम्’ (शूद्रक) की भी प्रस्तुति की। 

इब्राहिम अल्क़ाज़ी का एक और बड़ा योगदान, रंग स्थल को प्रोसेनियम से बाहर निकालकर दिल्ली के पुराने क़िले, फीरोज़ शाह कोटला क़िला, कैलाश कॉलोनी जैसे वैकल्पिक स्पेस में लेकर जाना था। फ़ीरोज शाह कोटला के खंडहर में उन्होंने जिस शानदार तरीक़े से ‘अंधा युग’ का प्रदर्शन किया, उसे भला कौन भूल सकता है ? आज भी यह नाटक लोगों के ज़ेहन में ज़िदा है। संगीत नाटक अकादमी में आज हम जो मुक्ताकाशी मंच ‘मेघदूत’ देखते हैं, वह भी उन्हीं की परिकल्पना थी। यह मंच ऐरिना शैली में है। जिसमें दर्शक तीन तरफ़ बैठते हैं। बहरहाल, इब्राहिम अल्क़ाज़ी को श्रद्धांजलि स्वरूप, अकादमी ने अब इसका नामकरण ‘अल-क़ाज़ी रंगपीठ’ कर दिया है। रंग प्रदर्शन के लिए सबसे ज़रूरी दर्शकों को उससे जोड़ना है। 

हमारे यहां जिस तरह से पारंपरिक लोक नाटकों और नौटंकी आदि से दर्शक जुड़ते थे, आधुनिक रंगमंच में उनका अभाव था। यह रंगमंच एक वर्ग तक सीमित था। आम दर्शक इससे दूर ही थे। इब्राहिम अल्क़ाज़ी ने अपने बेहतरीन नाट्य प्रदर्शनों से आम दर्शकों को रंगमंच से जोड़ा। उनमें आधुनिक रंगमंच के प्रति दिलचस्पी और रंग संस्कार पैदा किए। अपने शानदार करियर के दौरान उन्होंने पचास से अधिक नाटकों का मंचन किया।

इब्राहिम अल्काज़ी ने कई ड्रामों का डायरेक्शन किया। जिसमें शेक्सपियर, मौलियर के नाटकों के साथ-साथ ग्रीक ट्रेजिक नाटक भी शामिल हैं। ‘गुड़िया घर’, ‘ऐन्टीगनी’, ‘अंधा युग’, ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘इडिपस रेक्स’, ‘किंग लियर’, ‘हिरोशिमा’ और ‘बिच्छू’ वगैरह यह वह नाटक हैं, जिनका निर्देशन इब्राहिम अल्क़ाज़ी ने किया।

इब्राहिम अल्काज़ी ने जो नाट्य प्रस्तुतियां की, उनका भी कोई जवाब नहीं। वे वाक़ई लाजवाब हैं। उन्होंने कोई एक शैली का नाटक नहीं किया, बल्कि अलग-अलग शैली में जो नाटक प्रस्तुत किए, वे आज भी याद किए जाते हैं। वे हमेशा पर्दे के पीछे ही रहे। मंच पर अदाकारी से उन्होंने एक दूरी बरती। जबकि इब्राहिम अल्क़ाज़ी बहुत अच्छे अदाकार थे। जिस तरह से वे अपने कलाकारों को नाटक के लिए ख़ुद अदाकारी कर बतलाते थे, उससे मालूम चलता था कि वे कितने मंझे हुए कलाकार हैं।

साल 1966 में उन्होंने ‘यात्रिक’ के लिए निर्देशित ‘तारतूफ़’ में जो अभिनय किया था, वह आज भी अविस्मरणीय है। एनएसडी में इब्राहिम अल्क़ाज़ी के कार्यकाल के दौरान उनकी यह कोशिश होती थी कि स्कूल के स्टूडेंट्स, चाहे अभिनेता बनने का प्रशिक्षण ले रहे हों या निर्देशन का, उनसे ये अपेक्षा की जाती थी कि वे रंगमंच के हर पहलू के बारे में अच्छी तरह से जाने और समझें। ताकि जब वे एनएसडी से प्रशिक्षण लेकर बाहर निकलें, तो नाटक और रंगमंच के हर क्षेत्र में उनकी जानकारी हो। और वह अपने इस इल्म को देश के दीगर हिस्सों तक कामयाबी से पहुंचाएं। 

इब्राहिम अल्क़ाज़ी ने अपने एनएसडी के दिनों में स्टूडियो थिएटर बनाने के लिए ‘इंटिमेट’ स्पेस का निर्माण किया। क्योंकि ‘इंटिमेट थिएटर’ सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का सबसे उपयुक्त ज़रिया है। लेकिन जब उन्हें ‘तुग़लक’, ‘सुल्तान रज़िया’ और ‘अंधा युग’ जैसे ऐतिहासिक नाटकों का मंचन करना था, तब उन्होंने फ़ीरोज़ शाह कोटला और बाद में पुराने क़िले को रंगभूमि के लिए चुना। जहां हज़ारों दर्शकों ने इन नाटकों का प्रदर्शन देखा। नाटक का विषय और परिवेश देखकर, इब्राहिम अल्क़ाज़ी उसके प्रदर्शन के तरीके़ को तय करते थे। ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ में इब्राहिम अल्काज़ी के डेढ़ दशक के करियर के दौरान एक से बढ़कर एक शख़्सियात ने रंगमंच के क्षेत्र में अपना पर्दापण किया। 

बव कारंत, मोहन महर्षि, राम गोपाल बजाज, भानु भारती, बंसी कौल, प्रसन्ना, रतन थियम, आमाल अल्लाना, देवेन्द्र राज अंकुर, नादिरा ज़हीर बब्बर और रंजीत कपूर जैसे कई निर्देशकों के नाम लिए जा सकते हैं, जो अल्काज़ी के शागिर्द रहे। भारतीय रंगमंच के इन कद्दावर निर्देशकों ने उनके ही सान्निध्य में प्रशिक्षण लिया। आगे चलकर, इन रंग निर्देशकों ने रंगमंच के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई। और अपनी प्रस्तुतियों से एक अलग ही छाप छोड़ी। वहीं अदाकारों में भी इब्राहिम अल्काज़ी के शागिर्दों की एक लंबी फेहरिस्त है।

ओम शिवपुरी, ओम पुरी, राज बब्बर, नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर, अनुपम खेर, अनू कपूर, के.के. रैना, राजेश विवेक, इला अरुण, सुरेखा सीकरी, उत्तरा बावकर, सुधा शिवपुरी, मनोहर सिंह, नीना गुप्ता, एम.के. रैना, अनुराधा कपूर, अंजला महर्षि, गोविन्द नामदेव, बापी बोस जैसे और भी अनेक नाम हैं जिन्होंने रंगमंच से लेकर फ़िल्मी दुनिया में भी बुलंदियों को छुआ। जिनमें से कई दिग्गज सितारे आज भी पूरी तरह से सक्रिय हैं। और रंगमंच एवं फ़िल्मों को अपनी अदाकारी और निर्देशन से समृद्ध कर रहे हैं।
इब्राहिम अल्काज़ी, रंग निर्देशक और अध्यापक के साथ हिंदोस्तानी आर्ट के सरपरस्त और प्रमोटर भी थे। पेंटिंग में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उन्होंने न सिर्फ़ पेंटिंग्स बनाईं, बल्कि चित्रकला पर पेशेवर तरीक़े से समीक्षा भी की। ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ छोड़ने के बाद, वे लम्बे समय तक रंगमंच से दूर ही रहे।

इस दौरान वे पेंटिंग और कला संरक्षण के काम में जुट गए। इब्राहिम अल्काजी ने कंटेंपररी आर्ट के क्षेत्र में काम कर रहे आर्टिस्ट को प्रोत्साहन देने के लिए दिल्ली में ‘आर्ट हेरिटेज गैलरी’ की स्थापना की। साल 1982 में ‘म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट’, आक्सफोर्ड में ‘इंडिया मिथ ऐंड रियलिटी’ शीर्षक प्रदर्शनी में उनके अनेक कला प्रकाशनों की श्रृंखला प्रदर्शित हुई, तो देश के अनेक बड़े महानगरों दिल्ली, चेन्नैई तथा मुंबई में उन्होंने वार्षिक प्रदर्शनियां कीं। इब्राहम अल्काज़ी ने साल 1992 में दिल्ली में ‘लिविंग थिएटर’ नाम का एक रंगमंच प्रशिक्षण केंद्र भी शुरू किया था। बीती सदी के नवें दशक में वे एक लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर थिएटर की ओर वापस लौटे। अपनी इस दूसरी पारी में उन्होंने ‘विरासत’, ‘रक्त कल्याण’, ‘‘दिन के अंधेरे’, ‘अ रॉयल हंट ऑफ दि सन’, ‘डिज़ायर अंडर दि एल्मस’, ‘तीन यूनानी त्रासदियां’ और ‘तीन बहनें’ नाटकों का मंचन किया।

देश में आधुनिक रंगमंच और नाटक के विस्तार में इब्राहिम अल्काज़ी के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें कई सम्मानों और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। ‘संगीत नाटक अकादमी’ ने बेहतरीन निर्देशन के लिए जहां इब्राहम अल्काज़ी को ‘संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड’ से सम्मानित किया, तो वहीं लाइफ़टाइम अचीवमेंट के तौर पर उन्हें अकादमी का सर्वोच्च सम्मान ‘संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप’ भी प्रदान की गई। भारत सरकार के शीर्ष प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ (साल 1966), ‘पद्मभूषण’ (साल 1991) और ‘पद्मविभूषण’ (साल 2010) से भी नवाज़े गए। एक कलाकार के लिए इनसे बड़े और क्या सम्मान मिल सकते हैं ? देश में ही नहीं, विदेशों में भी इब्राहिम अल्काजी के अद्भुत काम का सम्मान हुआ। 

साल 2012 में वे फ्रांस के शीर्ष सांस्कृतिक पुरस्कार ‘नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ आर्ट्स एंड लेटर्स’ से सम्मानित किए गए। इब्राहिम अल्काजी को यह पुरस्कार, भारत में रंगमंच की स्थापना एवं उसके विकास में अमूल्य योगदान तथा फोटोग्राफी के ख़ज़ाने के संरक्षण के वास्ते दिया गया। इसके अलावा फ्रांस सरकार ने ही ललित कला और संस्कृति के संरक्षण में उनके बेमिसाल योगदान को सराहते हुए, ‘द यूनीवर्सल मैन’ की उपाधि दी। अपनी ज़िंदगी में इब्राहिम अल्काज़ी के लिए यह वाक़ई बहुत बड़ी उपलब्धियां थीं। एक सार्थक जीवन जीने के बाद, 4 अगस्त 2020 को 95 साल की उम्र में उन्होंने इस दुनिया से विदाई ली।

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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