Saturday, April 27, 2024

हूल दिवस पर विशेष: आदिवासियों को बदहाली से निजात दिलाने के लिए एक और हूल व उलगुलान की जरूरत

झारखंड के आदिवासियों का अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का लंबा इतिहास है। इतना ही नहीं आजादी के बाद भी झारखंड अलग राज्य को लेकर लंबे संघर्ष से जो राज्य हासिल हुआ है उसमें कुछ चतुर चालाक लोगों को छोड़ दिया जाए तो आज भी आम आदिवासी वहीं खड़ा है जहां वह अंग्रेजी हुकूमत में खड़ा था। कहने का मतलब साफ है कि हूल हो या उलगुलान, उसकी प्रासंगिकता आज भी वहीं है, यानी आज भी एक हूल या उलगुलान की जरूरत है।

जिसे समझने के लिए हमें झारखंड के आदिवासियों की वर्तमान दशा पर एक नजर डालना होगा।

हम आते हैं झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिला अंतर्गत सोनुआ प्रखंड के पोड़ाहाट पंचायत व गांव के भालूमारा टोले पर, जहां रहती हैं अपने 5 बच्चों के साथ 35 वर्षीया गुम्मी दिग्गी। 5 साल पहले उनके पति की मौत ईंट भट्ठा की दीवार गिरने से उसके नीचे दबकर हो गई थी। वह झारखंड से सटे पश्चिम बंगाल में ईंट भट्ठे में काम करते थे। ईंट की पकाई के बाद उसके निकालने की प्रक्रिया में अचानक ईंट का टाल उसके ऊपर आ गिरा जिससे उसकी घटना स्थल पर ही मौत हो गई। लेकिन उसके परिवार को इस दुर्घटना से हुई मौत का कोई मुआवजा नहीं मिला। गुम्मी किसी तरह गांव में ही मजदूरी करके और जंगल से जलावन की लकड़ी वगैरह लाकर उसे बेचकर बच्चों का पेट पालती रही। दो साल गांव के सरकारी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली बड़ी बेटी अरकाली दिग्गी जिसकी उम्र 13 साल के करीब हो गई थी, पश्चिम बंगाल में ईंट भट्ठा में काम करने चली गई। बता दें कि गुम्मी दिग्गी के 5 बच्चों में से 2 बच्चे स्कूल जाते थे, 13 साल की लड़की तीसरी कक्षा में और 10 साल की लड़की दूसरी कक्षा में पढ़ती थी।

बताते चलें कि झारखंड के लातेहार जिले के महुआडांड़ प्रखंड अंतर्गत ओरसापाठ पंचायत के सुरकई गांव के रहने वाले हैं विकलांग राजेन्द्र नगेसिया। उनकी उम्र 45 वर्ष है, जिन्हें न तो दिव्यांग पेंशन मिलती है, न ही सरकार की ओर से विकलांगों को मिलने वाली व्हीलचेयर या इलेक्ट्रॉनिक चेयर ही मिल पायी है, क्योंकि सरकारी आंकड़ों के जनकल्याणकारी योजनाओं में शामिल होने के लिए जरूरी दस्तावेजों में उनका आधार कार्ड और बैक एकाउंट नहीं है। राजेन्द्र नगेसिया का न तो राशन कार्ड है और न अपना आवास है। यानी कोई भी पहचान जैसे आधार कार्ड, वोटर आईडी भी नहीं बन पायी है। यह सभी तरह की सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं। जीवन का गुजारा भीख मांगकर करते हैं और वर्तमान में महुआडांड़ प्रखंड के अम्बाटोली पंचायत के गुरगुटोली गांव में दूसरों के घर पर रहते हैं।

वह आदिवासी हैं, लेकिन आदिवासी नहीं हैं। वह विकलांग हैं, लेकिन विकलांग नहीं है। वह भूखा रहने को अभिशप्त हैं, लेकिन भूखा नहीं हैं। वे सरकार की सारी जनकल्याणकारी योजनाओं के हकदार हैं, लेकिन वे सरकार की हर जनकल्याणकारी योजना के लाभ से वंचित हैं।

उनके पास अपने होने का कोई भी दस्तावेज नहीं है। न आधार कार्ड, न वोटर कार्ड, न राशन कार्ड, न आयुष्मान भारत कार्ड और न कोई बैंक अकाउंट।

वहीं झारखंड के गढ़वा जिला अंतर्गत रमना प्रखण्ड के मानदोहर गांव की 65 वर्षीया जगीया परहिया व 70 वर्षीय पति हलकन परहिया विलुप्तप्राय आदिम जनजाति से आते हैं दोनों वृद्ध काफी असहाय व नि:संतान हैं। संतानविहीन इस दम्पति जगीया परहिया का बायां हाथ लकवाग्रस्त है वहीं हलकन परहिया की आंखों से दिखाई नहीं देता है। दोनों को न तो वृद्धा पेंशन मिलता है और न ही आदिम जनजाति पेंशन योजना ही मिल रही है। सरकारी लाभ में मात्र उन्हें एक बिरसा आवास मिला है, वहीं मुख्यमंत्री डाकिया योजना के तहत प्रखण्ड रमना से 30 किलो राशन मिलने की जगह कभी-कभी 5-10 किलो राशन मिल जाता है। साग-सब्जी व दाल वगैरह को भूल ही जाइए। माड़-भात खाने के लिए उन्हें नमक की भी भीख मांगनी पड़ती है।

यह पूछे जाने पर कि वे लोग साग-सब्जी कहां से लाते हैं? जगीया परहिया कहती हैं – पैसा कहां है कि साग-सब्जी लाएंगे, माड़-भात खाकर ही रहना पड़ता है। उसमें नमक भी भीग मांगकर लाते हैं। कभी-कभी जंगल की तरफ जाकर कोई साग लाते हैं तो उस दिन साग-भात खा लेते हैं। जगीया के शब्दों में अंतर्निहित पीड़ा यह बताने के लिए काफी है कि अंग्रेजी हुकूमत और आज की हुकूमत में कोई विशेष अंतर नहीं है।

इतना नहीं आए दिन माओवादी के नाम पर आदिवासियों की हत्याएं अंग्रेजी हुकूमत की याद ताजा कर देती हैं जब अपने पिता ब्रम्हदेव सिंह की सुरक्षा बलों द्वारा की गई हत्या के लिए उनका 2 साल का बेटा प्रिंस न्याय की गुहार करते हुए धरना देकर कहता हो कि “मेरे पापा को न्याय दो।”

बता दें कि 12 जून2021 को झारखंड के लातेहार जिला अन्तर्गत गारू थाना क्षेत्र के पिरी गांव निवासी 24 वर्षीय ब्रम्हदेव सिंह (खरवार जनजाति) की हत्या नक्सल के नाम पर किये जा रहे एक सर्च अभियान पर निकले सुरक्षा बलों ने कर दी थी।

कहना ना होगा कि आजादी के 75 साल व झारखंड अलग राज्य गठन के 22 साल बाद भी राज्य में आदिवासियों की बदहाल जिन्दगी और उनकी हत्याओं की घटनाओं की एक लंबी फेहरिस्त है और यह चीख चीख कर कह रहा है कि इनकी बदहाल जिन्दगी और सुरक्षित जीवन के लिए झारखंड में एक और हूल व उलगुलान की जरूरत है।

बताना जरूरी होगा कि 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में जल, जंगल, जमीन और आदिवासी अस्मिता के सवाल पर संतालों के प्रतिरोध को संताल विद्रोह या हूल दिवस के रूप में जाना जाता है, जिसकी नींव तिलका मांझी ने 1771 में डाली थी।

झारखंड क्षेत्र में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत की शुरुआत तत्कालीन जंगल महल से रघुनाथ महतो के नेतृत्व में 1769 का ‘चुहाड़ विद्रोह’, 1771 में तिलका मांझी का ‘हूल’, 1820-21 का पोटो हो के नेतृत्व में ‘हो विद्रोह’, 1831-32 में बुधु भगत, जोआ भगत और मदारा महतो के नेतृत्व में ‘कोल विद्रोह’, 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में ‘संताल विद्रोह’ और 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए ‘उलगुलान’ ने अंग्रजों को ‘नाको चने चबवा’ दिये थे।

संताल विद्रोह ब्रिटिश हुकूमत और महाजनी-जमींदारी शोषण के खिलाफ अकेला विद्रोह नहीं था। इसके पहले और इसके बाद भी संतालों ने विद्रोह किए।

ब्रिटिश हुकूमत और महाजनी शोषण के खिलाफ संतालों ने एक नहीं, कई बार विद्रोह किए। हर बार जल, जंगल, जमीन और अपनी अस्मिता, संस्कृति की हिफाजत और शोषण के खिलाफ संताल समाज ने विद्रोह किया। 1854 से लेकर 1917-18 तक छोटानागपुर-संताल परगना से लेकर मयूरभंज तक कम-से-कम नौ-दस बार संतालों ने विद्रोह किया है।

संतालों के विद्रोह के पीछे तीन कारक थे।

पहला- जल, जंगल और जमीन पर हक का सवाल।

दूसरा- ब्रिटिश हुकूमत की लगान वसूलने की नीति और इसके लिए उसके द्वारा बहाल जमींदारों की नीयत।

तीसरा- महाजनों सूदखोरी के नाम पर आर्थिक शोषण।

इन तीनों कारकों को पुलिस, न्याय और प्रशासन में बैठे लोगों के भ्रष्ट आचरण ने और भी प्रगाढ़ बना दिया था। अत: बार-बार विद्रोह हुए और एक-दो को छोड़ कर हर बार संतालों ने हुकूमत को झुकाया, नीति व व्यवस्था में सुधार और बदलाव करने के लिए मजबूर किया और ब्रिटिश हुकूमत ने समय-समय पर अपनी नीतियों में बदलाव व सुधार करती रही, लेकिन इन सुधारों और बदलावों के बावजूद संतालों के असंतोष को समाधान की सीमा तक कम करने में हुकूमत को कामयाबी नहीं मिली और उसे संतालों के विरोध का लगातार सामना करना पड़ा।

दरअसल 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी शाह आलम द्वितीय से मिली। वर्तमान झारखंड की भौगोलिक सीमा भी इसी दायरे में आयी। जिसके कारण यह क्षेत्र भी कर चुकाने वाला इलाका बन गया तथा टकराव की शुरुआत यहीं से हुई।

कंपनी ने जगह-जगह अपने एजेंट और जमींदारों को बहाल किया और उनके जरिये कर की वसूली के लिए जनता पर अत्याचार शुरू कराया। इसके लिए जिस शक्ति के इस्तेमाल की जरूरत पड़ी, उस लायक कानूनी व्यवस्था बना दी गयी। आदिवासियों के लिए यह समझ से परे था कि जब जंगल उनका, जमीन उन्होंने तैयार की, तो टैक्स लेने वाले जमींदार और कंपनी के एजेंट कौन हैं, कहां से आ गये?

इन सवालों ने उनके अंदर प्रतिरोध को जन्म दिया, जिसे दबाने के प्रयास में कंपनी द्वारा कई तरह के प्रपंच और पाखंड किए गए जिसके कारण आदिवासियों का विद्रोह और मुखर होता चला गया।

इसकी पहली बड़ी आग 1769 में जंगल महल में फैली और चुआड़ विद्रोह हुआ। इसके बाद के सालों में पलामू पर आक्रमण और चेरो विद्रोह (1771-1819 ), पहाड़िया विद्रोह (1784), तमाड़ विद्रोह (1782-98), सिंहभूम का हो विद्रोह (1820-21), कोल विद्रोह (1831-32), मानभूम-सिंहभूम भूमिज विद्रोह (1832-33) जैसे विद्रोह होते चले गये।

संघर्ष के इसी दौर में, 1790 से 1810 के बीच संताल जनजाति के लोग मानभूम, सिंहभूम, हजारीबाग, बांकुड़ा, पुरुलिया और मिदनापुर जिलों से आ कर राजमहल की पहाड़ी की तराई वाले क्षेत्र में बस गये। हालांकि इन्हें इस क्षेत्र में बसने में अंग्रेज प्रशासन ने ही मदद की, किंतु कर वसूली के सवाल पर संघर्ष की भूमि जल्द ही तैयार हो गयी। कर वसूली के लिए इस क्षेत्र में आकर बसे दिकू कहे जाने वाले महाजनों और जमींदारों का जुल्म बढ़ने लगा। तब वर्तमान संताल परगना से लेकर इसके अन्य सीमावर्ती इलाकों के संतालों में प्रतिरोध की भावना प्रबल हुई और उन्होंने बार-बार आंदोलन छेड़ा।

संताल परगना के बीर सिंह मांझी ने 1854 में दिकू लोगों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा, जो प्रकारांतर से ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह में बदल गया। पारसनाथ पहाड़ी क्षेत्र के मोरगो मांझी ने जिस विद्रोह का ऐलान किया था, बीरसिंह मांझी ने उसे आगे बढ़ाया। बीरसिंह मांझी ने यह ऐलान कर दिया कि उन्हें चांदों बोंगा (शिखर के देवता) और मारांग बुरू (बड़ा पहाड़ होता है, लेकिन संताल समाज उसे शिव की तरह मानता है) के दर्शन हुए हैं।

उन्होंने यह भी एलान किया कि चांदों बोंगा-मारांग बुरू ने उन्हें चमत्कारिक शक्ति दी है और संतालों के शोषकों को दंडित करने का आदेश दिया है। शोषण और अत्याचार से त्रस्त संताल समाज ने उनका नेत‍ृत्व स्वीकार किया। इस विद्रोह ने क्षेत्र को खूब आंदोलित किया। इसके एक साल बाद ही 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में संताल हूल हुआ।

संताल हूल की लपटें हजारीबाग भी पहुंची। लुबिया मांझी और बैरू मांझी के नेतृत्व में भीषण विद्रोह हुआ। विद्रोह इतना प्रबल था कि शहर से गांव तक इसके जद में आ गए। अप्रैल 1856 में संताल विद्रोही हजारीबाग जेल में घुस गये और आग लगा दी। इस विद्रोह को दबाने के लिए जहां ब्रिटिश हुकूमत की क्रूरता का शिकार होकर बड़ी संख्या में संताल विद्रोहियों ने शहादत दी।

1855-56 के संताल विद्रोह के बाद भी संतालों को महाजनी शोषण और जमींदारी उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिली थी। हालांकि ब्रिटिश हुकूमत ने संतालों के असंतोष को कम करने के लिए शासकीय व्यवस्था और कर प्रणाली में सुधार की बड़ी पहल की, किंतु इस बदलाव ने नये किस्म का संकट पैदा किया। जमींदारी हक खरीद कर नये जमींदार पैदा हुए और उन्होंने कर की दरें मनमाने ढंग से बढ़ानी शुरू की। लिहाजा, संतालों ने एक बार फिर विद्रोह किया।

साल 1866 का उत्तरार्द्ध आते-आते उड़ीसा (ओड़िशा) के मयूरभंज के बामनघाटी परगना के संतालों का शोषण और अत्याचार सहते जाने का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने विद्रोही रुख अख्तियार कर लिया। विद्रोह के यहां तीन कारक थे – भ्रष्ट अफसर, शोषक दिकू और भीषण अकाल।

ब्रिटिश हुकूमत ने जमीन का सर्वे और उसकी बंदोबस्ती का काम शुरू किया था। इस काम में लगे अफसर और कर्मचारी भ्रष्ट थे। जमीन मापी में मनमानी करते थे। लगान वसूलते थे, मगर रसीद नहीं देते थे। ऊपर से खुद के लिए नाजायज तरीके से अनाज मांगते थे। वहीं, इलाके में बड़ी संख्या में बसे बाहरी लोग (दिकू/हतुआ) स्थानीय निवासियों संताल, कोल, भूमिज आदि की जमीन हड़पने के लिए महाजनी कर्ज का खेल खेल रहे थे। ऊपर से इलाके में भीषण अकाल पड़ा था। चारों ओर भुखमरी और अकाल मौत की चादर पसरी हुई थी।

अत: संताल पीड़ों के चार सरदारों ने अनाज देने से इनकार कर दिया। तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। संतालों ने विद्रोह शुरू कर दिया। राजा के सिपाहियों को खदेड़ा। महीनों तक क्षेत्र में अशांति रही। अंतत: 1867 में हुकूमत को झुकना पड़ा। संताल सरदारों के साथ लिखित समझौता हुआ। राजा बर्खास्त किया गया। बामनघाटी का प्रशासन सिंहभूम के उपायुक्त डाॅ हेयस को सौंपा गया। संताल सरदारों को पुलिस-अधिकार मिले। गांवों का बंदोबस्त उनके साथ किया गया।

1869-70 में टुंडी में विद्रोह हुआ। यहां भी जमीन पर हक और लगान की दर को लेकर संताल रैयतों और स्थानीय जमींदार के बीच संघर्ष हुआ। 1869 के उत्तरार्द्ध में 52 गांवों के संताल रैयतों ने जमींदार के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया। जमींदार ने टुंडी छोड़ कर कतरास में शरण ली। 1870 में कर्नल डाल्टन के हस्तक्षेप पर संतालों एवं जमींदार के बीच समझौता हुआ। रैयतों को जंगल और जमीन पर अधिकार वापस मिला। लगान की चालू दर अगले आठ साल तक के लिए स्थिर कर दी गयी।

1871 में सफाहोड़ आंदोलन हुआ जिसका नेतृत्व झारखंड के संताल परगना (तब जिला) के गोड्डा सब डिवीजन (अब जिला) के तरडीहा गांव के आध्यात्मिक नेता भागीरथ मांझी ने किया। उन्होंने खुद को राजा घोषित कर दिया। वह जमीन की लगान वसूलने लगे और रसीद भी जारी करने लगे। रैयतों को आदेश दे दिया कि कोई सरकार या जमींदार को लगान नहीं देगा। 1871 में यह आंदोलन चरम पर था। सरकार ने भागीरथ मांझी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। यह आंदोलन छोटानागपुर के हजारीबाग में भी फैला, जहां इसका नेतृत्व दुबिया गोसाईं ने किया।

1896-97 में ब्रिटिश शासन व्यवस्था के खिलाफ पाकुड़ विद्रोह तब हुआ जब संताल परगना में सड़कों का निर्माण और उनकी मरम्मत के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया कि इस काम में गांव के लोग हिस्सा लेंगे, मगर उन्हें मजदूरी नहीं मिलेगी। दूसरी ओर पाकुड़ में मिस्टर क्रेवन ने भूमि संबंधी व्यवस्था में बदलाव की कोशिश की, जो संतालों को स्वीकार नहीं थी। लिहाजा, पूर्व परगनैत फत्तेह संताल (फुत्तेह संताल) के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हुआ। रैयतों ने लगान चुकाने से इनकार कर दिया। बाजार लूटे जाने लगे। अंतत: फत्तेह को गिरफ्तार कर लिया गया।

सरायकेला के राजा ने लगान की दर मनमाने ढंग से तय कर दी और उसकी वसूली के लिए अत्याचार की नीति अपनायी। राजा रैयतों से नजराने की भी जबरन वसूली करने लगा। इससे कुचिंग पीड़ के संतालों में आक्रोश फैला और उन्होंने 1902 में देवी और किशुन के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया तथा लगान देने से इनकार कर दिया। क्षेत्र में खूब अशांति फैल गयी। किशुन को गिरफ्तार करने पुलिस भेजी गयी, पर उन्होंने पुलिस अफसर को मार डाला। हुकूमत को विद्रोह के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए विशेष सैन्य बल भेजना पड़ा। 1902 के इस विद्रोह को सरायकेला का विद्रोह कहा जाता है।

संताल विद्रोह की फेहरिस्त में 1917-18 का सेना में भर्ती पर विद्रोह भी काफी चर्चे में रहा है। इस विद्रोह का केंद्र मयूरभंज था। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। फ्रांस भेजने के लिए सेना में श्रम सैनिक के रूप में आदिवासियों की भर्ती करने की कोशिश की गयी। संतालों ने इसका विरोध किया। भर्ती अधिकारी पर हमला कर दिया गया। दुकानें लूटी गयीं। बांगरीपोसी के निकट रेलवे लाइन क्षतिग्रस्त की गयी। विद्रोह इतना उग्र था कि क्षेत्र में सेना भेजी गयी। विद्रोह के नेता गिरफ्तार किये गये। मैथ्यू अरिपरम्पिल लिखते हैं कि 1118 व्यक्तियों के खिलाफ न्यायिक जांच की गयी, जिनमें से 977 को दोषी करार दिया गया। चार लोगों को फांसी की और 33 को आजीवन काले पानी की सजा दी गयी।

आदिवासियों द्वारा ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ हुए इन तमाम विद्रोहों पर संताली त्रैमासिक पत्रिका ‘जिवेत आड़ाङ’ के संयोजक व सह संपादक एवं रांची में कार्यरत रेलवे के अभियंता पंकज किस्कू कहते हैं कि संताल हूल विश्व इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। अब तक इस घटना पर विभिन्न तरह से विचार विमर्श किया जा चुका है, इस पर देश विदेश के विद्वानों ने अपनी राय जाहिर की है, बेशकीमती पुस्तकें प्रकाशित की हैं। इन सभी विचारों शोधों का निष्कर्ष यही है कि संतालों (उस क्षेत्र में रहने वाले तमाम आदिवासियों को लेकर) पर होने वाले अत्याचार की पराकाष्ठा का परिणाम यह विद्रोह था।

आदिवासी मामले के जानकार एके पंकज अपनी राय देते हुए कहते हैं कि संताल आदिवासी सदियों तक अपनी बसे बसाए गांवों खेत खलिहानों से बेदखल किए जाते रहे। इन संतालों ने अतिक्रमण करने वाले इन बाहरी लोगों से प्रति दिन प्रताड़ित होने से अपने गांवों को छोड़कर अन्य जगह की ओर प्रस्थान करना श्रेयस्कर समझा। हालांकि संताल कायर नहीं थे पर उन्होंने युद्ध करना, रक्तपात करना अच्छा नहीं समझा। यही गुण आदिवासियत है। परंतु 1855 तक आते आते शोषण की अति हो गई और संतालों ने वो किया जो उनके इतिहास में कभी नहीं हुआ था। परंतु सशस्त्र विद्रोह के पहले उन्होंने अंग्रेजी शासकों को उन पर होने वाले अत्याचारों से अवगत कराया था। अंग्रेज प्रशासकों से न्याय की गुहार लगाई थी। पर उनके निवेदन को अनसुना कर दिया गया। इसलिए संतालों को हथियार उठाना पड़ा। उनका विश्वास था कि यह युद्ध केवल वे नहीं लड़ रहे, वरन् उनके साथ उनके सृष्टिकर्ता ठाकुर जीव लड़ रहे हैं।

पंकज आगे कहते हैं कि ऐसा नहीं था कि संतालों के नेतृत्व कर्ताओं को इस युद्ध का अंजाम का आभास नहीं था। वे भी जानते थे कि उन पर अत्याचार करने वाले महाजनों जमींदारों के साथ अंग्रेजी हुकूमत है और इस युद्ध में उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी। उनके इस बलिदान का फल था संताल परगना का गठन।

नरेगा वाच के राज्य संयोजक जेम्स हेरेंज कहते हैं कि झारखण्ड में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह या उलगुलान का इतिहास लगभग 200 साल से भी अधिक पुराना रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के राजनीतिक पटल पर जब जवाहरलाल नेहरु, सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेताओं का कहीं प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, तभी चुटियानागपुर (अब छोटानागपुर) के आदिवासी क्रांतिवीरों के विद्रोहों से अंग्रेजी हुकूमत की सत्ता डोल रही थी। 1807 का तमाड़ विद्रोह, 1819-20 में रुदु और कोंता मुण्डा का तमाड़ विद्रोह और 1820-21 में पोड़ाहाट में हो विद्रोह 1832 में भरनो में बुधु भगत का विद्रोह, 1830-33 में कोल्हान का में मानकी मुंडाओं का विद्रोह, संताल हूल, बिरसा उलगुलान जैसे विद्रोहों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जो न सिर्फ अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष थे। बल्कि अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों की आड़ में यहाँ के शोषक साहूकारों, सूदखोरों, जमींदारों और इजारेदारों के खिलाफ भी यहाँ की आदिवासियों ने आर-पार के संघर्ष का बिगुल फूंक दिया था। 

उन दिनों चारों तरफ अंग्रेज शोषक शाषकों द्वारा समूचे आदिवासी इलाकों में आदिवासी समुदाय के जल, जंगल, जमीन पर जबरन कब्ज़ा करना एवं जमीन बंदोबस्ती के नाम पर जबरन टैक्स वसूली से आदिवासी त्राहिमाम कर रहे थे। जो टैक्स चुकाने में असमर्थ हो रहे थे, जमींदार और इजारेदार उनकी बची हुई जमीन लूट ले रहे थे। शोषण सिर्फ इतने ही नहीं हो रहे थे, अंग्रेज शोषक शासकों तथा इनके पिट्ठुओं ने आदिवासियों को बैठ बेगारी भी खूब कराया इनके द्वारा जमीन लूट तथा बैठबेगारी से त्रस्त आदिवासियों ने तीर धनुष उठाकर अंग्रेज शोषक, शासकों और जमींदारों का डटकर मुकाबला किया है, यह ऐतिहासिक सच्चाई है।

दलित चिंतक और प्रोफेसर विलक्षण रविदास आदिवासियों के विद्रोह का तीन कारण बताते हैं। संतालों के विद्रोह के पीछे तीन कारक थे। जल, जंगल और जमीन पर हक का सवाल, ब्रिटिश हुकूमत की लगान वसूलने की नीति और इसके लिए उसके द्वारा बहाल जमींदारों द्वारा शोषण और महाजनों द्वारा सूदखोरी के नाम पर आर्थिक शोषण।

इन तीनों कारकों ने आदिवासियों को विद्रोही बना दिया, जबकि आदिवासी बड़े शांतप्रिय प्रकृति के थे, जो आज भी हैं।

स्थानीय भाषा खोरठा के साहित्यकार और व्याख्याता दिनेश दिनमणी कहते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हुए आंदोलनों के इतिहास को फिर से लिखने की जरूरत है। सिपाही विद्रोह से बहुत पहले चुहाड़ विद्रोह और तिलका मांझी का हूल विद्रोह हुआ था।

सही मायने में देखा जाए तो रघुनाथ महतो और तिलका मांझी का प्रतिरोध और संघर्ष ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली लड़ाई थी। जो अपने जल-जंगल-जमीन और अपनी शासन व्यवस्था पर बाहरी अतिक्रमण का विरोध था। सिपाही विद्रोह धार्मिक भावनाओं पर ठेस पहुंचाने से उपजे आक्रोश का नतीजा था। पर झारखंड क्षेत्र में हुए प्रतिरोध शुद्ध रूप से बाहरी शासन के विरुद्ध लड़ाई थी।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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