Saturday, April 27, 2024

ग्वालियर और कोझिकोड को मिली वैश्विक पहचान, यूनेस्को ने रचनात्मक शहरों की सूची में जोड़ा

नई दिल्ली। 31 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को की ओर से वर्ष 2014 से World cities Day (विश्व शहर दिवस) मनाया जाता है। वैश्विक धरोहर शहरों की सूची में शिल्प एवं लोक कला, डिजाइन, फिल्म, गैस्ट्रोनॉमी, साहित्य, मीडिया कला और संगीत की सात रचनात्मक क्षेत्र को रखा गया है। अभी तक दुनिया के सौ से अधिक देशों के 350 शहरों को शामिल किया जा चुका है।

लेकिन इस बार सबसे उल्लेखनीय रूप से भारत के दो शहरों मध्य प्रदेश के ग्वालियर और केरल के कोझिकोड (कालीकट) शहर को यूनेस्को ने संगीत और साहित्य के क्षेत्र में इन शहरों की विशिष्ट ऐतिहासिक भूमिका के लिए चुना है। यूनेस्को महानिदेशक ऑड्रे अज़ोले के अनुसार इस वर्ष यूनेस्को ने दुनिया के 55 शहरों को यूनेस्को क्रिएटिव सिटीज़ नेटवर्क (यूसीसीएन) में शामिल किया है।

इन शहरों में एक ग्वालियर फिलहाल राज्य विधानसभा चुनाव के बुखार में तप रहा है, इसलिये संगीत के क्षेत्र में वैश्विक मानचित्र पर स्थान हासिल करने को भी राजनीतिक रूप दिया जाना तो तय है, लेकिन संगीत के क्षेत्र में ग्वालियर घराने का इतिहास सबसे पुराना है। हालांकि संगीत के क्षेत्र में भारत के दो शहर पहले ही वैश्विक मानचित्र पर अंकित हैं, जिनमें चेन्नई के साथ 2015 से वाराणसी को यह स्थान मिला हुआ है। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में अभी तक यूनेस्को ने भारत के किसी भी शहर को मान्यता नहीं दी थी, इस लिहाज से कोझिकोड को हासिल यह सम्मान अपने आप में बेहद अहम है।

भारत से पहले पड़ोसी देश पाकिस्तान के शहर लाहौर को 2019 में यूनेस्को साहित्य के शहर के रूप में चिन्हित कर चुका है। यूनेस्को की वेबसाइट के अनुसार, “हम साहित्य का जश्न मनाने और दुनिया भर में टिकाऊ एवं समावेशी शहरी विकास को बढ़ावा देने के लिए इन नए शहरों के साथ सहयोग करने के लिए तत्पर हैं।”

आज जब हमारे युवाओं के ख्वाब में दिल्ली, मुंबई से भी अधिक बेंगलुरु, पुणे, गुरुग्राम, नोएडा और हैदराबाद टेक-सिटी घुमड़ती रहती है, ऐसे में ग्वालियर और कोझिकोड जैसे प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति को समेटे शहर अपना अस्तित्व लगातार खो रहे हैं, और स्थानीय लोग भी अपने शहर की पहचान को भूलते जा रहे हैं। यूनेस्को की यह पहल और विरासत को पहचान देने से बहुत संभव है कि इन शहरों के विशिष्ट चरित्र को देखते हुए राज्य एवं केंद्र सरकार की ओर से भी सकारात्मक कदम उठाये जायें। 

हाल के वर्षों में देखें तो सरकार की निगाह में हिंदू धार्मिक स्थलों को ही बड़े पैमाने पर देश के मानचित्र पर स्थापित करने की धुन सवार रही है। बनारस में विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर, उज्जैन के महाकाल, उत्तराखंड में केदारनाथ और बद्रीनाथ धाम सहित अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में सीधे भारत के प्रधानमंत्री की भूमिका भारतीय जनमानस को धार्मिकता की आड़ में हिंदू वोट बैंक के अक्षय भंडार में तब्दील करने की कवायद बनकर रह गई है। यह प्रत्येक भारतीय के मानस को विस्तार देने, उसे अपनी संस्कृति, सभ्यता के विविध रूपों से रूबरू कराने और एक जिम्मेदार सर्व धर्म समभाव की भावना से ओतप्रोत धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की संवैधानिक जिम्मेदारी के प्रति जागरूक बनाने से मुख मोड़ना है।

ग्वालियर और कोझिकोड को मिली यूनेस्को की मान्यता इसी जिम्मेदारी को एक बार फिर से याद दिला रही है। इन शहरों की विशिष्टता आज सभी भारतीयों विशेषकर युवाओं को जानना चाहिए, तो आइये देखते हैं कि इन शहरों में ऐसा क्या खास था, जिसे दुनियाभर के शहरों में चुनिंदा शहर बनने का अवसर प्राप्त हुआ है:

संगीत के सिरमौर ग्वालियर की निराली विरासत

ग्वालियर को भारतीय शास्त्रीय संगीत सम्राट तानसेन के शहर के रूप में भी जाना जाता है, जिसे संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के द्वारा ‘संगीत का रचनात्मक शहर’ घोषित किया है।

ग्वालियर को शहर की समृद्ध संगीत विरासत ‘ग्वालियर घराना’ (वंश) संगीत के लिए वैश्विक मान्यता मिली है, जिसे उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के ‘ख्याल’ गायन (राग) के क्षेत्र में प्रमुख और सबसे पुराना संगीत घराना माना जाता है। ऐसा दावा किया जाता है कि देश में मौजूद सभी संगीत घरानों की उत्पत्ति ग्वालियर घराने से हुई है। यही नहीं, ग्वालियर घराने को ख्याल राग का सबसे प्राचीन स्रोत माना जाता है।

पूर्व शाही परिवारों जैसे राजा मानसिंह के संरक्षण में यह घराना फला-फूला है। मान सिंह के परदादा डूंगरेंद्र सिंह तोमर स्वयं एक संगीतकार थे, जिनकी संगीत में अकादमिक रुचि और संरक्षण की वजह से भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुनरुद्धार का प्रयास हो सका। उन्होंने अपने मित्र और कश्मीर के सुल्तान ज़ैन-उल-आब्दीन को संस्कृत में दो संगीत ग्रंथ- संगीत शिरोमणि और संगीत चूड़ामणि उपहार के तौर पर भेंट की थी। इन ग्रंथों में संगीत और संगीत के विभिन्न वाद्ययंत्रों पर विस्तृत चर्चा शामिल थी।

डूंगरेंद्र सिंह ने गायन की एक अनूठी शैली के साथ विष्णुपद (विष्णु की स्तुति में गीत) की भी रचना की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि मान सिंह ने शास्त्रीय शैली के अर्थ में ध्रुपद का आविष्कार किया था। उनके होरी और धमार काफी लोकप्रिय हुए। यह वह जमाना था जब राजा सूफी संतों से सलाह लेता था, जो अक्सर संगीतकार भी होते थे। भारतीय संगीत को लोकप्रिय बनाने के प्रयास में, उन्होंने संस्कृत गीतों के स्थान पर सरल हिंदी गीतों को संगीत में शामिल किया।

मान सिंह ने मनकुतुहला (सीखने की खोज) भी लिखी, जिसे हिंदी में संगीत का पहला ग्रंथ माना जाता है, जिसकी वजह से आम दर्शकों को भी राजाओं के दरबार में प्रदर्शित उच्च कला को समझने में मदद मिली। इसने ध्रुपद को और अधिक सुलभ बना दिया, जिसमें अब रागों में गाए जाने वाले विष्णुपद शामिल थे। राजा द्वारा अपने महल में विशाल संगीत कक्ष का भी निर्माण किया जाने लगा था, और नियमित तौर पर संगीत सत्र आयोजित किये जाते थे। उनका संगीत सूफियों के साथ-साथ मुस्लिम सुल्तानों के बीच भी काफी लोकप्रिय हो रहा था।

मशहूर बालीवुड फिल्म बैजूबावरा में अकबर के नौ-रत्नों में से तानसेन और बैजू के बीच संगीत के मुकाबले का दृश्य भला कौन भूल सकता है। बताया जाता है कि तानसेन का जन्म जहां ग्वालियर शहर से लगभग 45 किमी दूर बेहट में हुआ था, वहीं बैजू बावरा का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ था। लेकिन ग्वालियर शहर में संगीत की ऐसी धूम थी कि बैजू बावरा भी ग्वालियर जा पहुंचे, जहां संगीत के शिक्षक के रूप में उन्होंने जीविकोपार्जन शुरू कर दिया था। जबकि तानसेन का जन्म एक कवि और संगीतकार के घर हुआ था। 16वीं शताब्दी की शुरुआत में उन्होंने स्वामी हरिदास से संगीत का प्रशिक्षण लिया, जो ध्रुपद का अभ्यास करते थे।

प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद ग़ौस का भी तानसेन पर बहुत प्रभाव था। गौस से सीखते हुए तानसेन ने ग्वालियर घराने की शैली को समझा और उसे निखारा। उनकी संगीत प्रतिभा और ज्ञान की चर्चा मुगल दरबार तक जा पहुंची, और अकबर ने तानसेन को मुगल दरबार में अपने दरबारी संगीतकारों में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। एक वैष्णव संगीतकार होने के नाते पहले पहल उन्होंने इंकार कर दिया, लेकिन अपने गुरु राम चंद्र के जोर देने पर 60 वर्ष की उम्र में वे अकबर के दरबार में शामिल हो गए।

अबुल फज़ल की आइन-ए-अकबरी में 36 शाही संगीतकारों का उल्लेख है, जिनमें से 15 संगीतकार अकेले ग्वालियर से थे। तानसेन के प्रति अकबर की प्रशंसा को लोकप्रिय संस्कृति में व्यापक स्थान प्राप्त है और इस बारे में अधिकांश जानकारी हमें संगीतकार के बारे में लिखे गये लेखों से मिलती है।

ग्वालियर घराने का विकास मुगल साम्राज्य (1526 ई- 1857 ई) के दौर में हुआ। शुरुआती उस्तादों (उस्ताद) में नाथन खान, नाथन पीर बख्श और उनके पोते हद्दू, हस्सू और नत्थू खान थे। शाही दरबार में प्रमुख संगीतकार बड़े मोहम्मद खान थे, जो अपनी तान बाजी शैली के लिए प्रसिद्ध थे। मियां बन्ने खान के शिष्यों में उनके चचेरे भाई, अमीर खान (जिन्हें “मीरन बख्श खान” के नाम से भी जाना जाता है), गम्मन खान, भाई अत्ता मुहम्मद, अली बख्श खान (उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के पिता), काले खान, मियां कादिर (सारंगी) भाई वधावा, भाई वसावा, बाबा रहमान बख्श शामिल थे।

हस्सू खान (मृत्यु 1859 ई) और हद्दू खान (मृत्यु 1875 ई) ने गायन की ग्वालियर शैली का विकास जारी रखा। हद्दू खान के बेटे उस्ताद बड़े इनायत हुसैन खान (1852 1922) भी एक गायक थे, लेकिन उनकी शैली पारंपरिक ग्वालियर शैली से हटकर थी।

इन सभी शिष्यों ने अपना-अपना घराना शुरू किया और उनके वंशज आज भी भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे सम्मानित संगीतकार हैं। आमिर खान ने पंडित बालकृष्णबुवा इचलकरंजीकर के शिष्यों के साथ मियां बन्नी खान की चीज भी साझा की, जब वे कुछ समय के लिए मिरज में रुके थे। उनके शिष्यों में अन्य लोगों के अलावा उनके चार बेटे भी शामिल थे, जिनमें से एक बेटा, प्यारे खान पेशेवर संगीतकार बन गया। वहीं एक अन्य पुत्र, बाबा सिंधे खान (1885-18 जून 1950) एक संगीत शिक्षक बने जिन्होंने बीआर देवधर (1901-1990), मशहूर गायक बड़े गुलाम अली खान (1902-1968)] और फरीदा खानम (जन्म 1935) जैसे शिष्यों को प्रशिक्षित किया।

इसी प्रकार 1914 में, कृष्णराव शंकर पंडित ने ग्वालियर में शंकर गंधर्व महाविद्यालय नाम से एक स्कूल खोला। 1921 में अखिल भारतीय कांग्रेस में उन्हें गायक शिरोमणि की उपाधि से सम्मानित किया गया। पंडित ग्वालियर के माधवराव सिंधिया के दरबारी संगीतकार होने के साथ-साथ महाराष्ट्र के राजकीय संगीतकार, माधव संगीत महाविद्यालय, ग्वालियर में एक एमेरिटस प्रोफेसर और ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन में एक एमेरिटस निर्माता भी थे। शास्त्रीय संगीत की दुनिया में उनके योगदान के लिए उन्हें 1973 में पद्म भूषण और 1980 में तानसेन पुरस्कार सहित पुरस्कार से नवाजा गया।

इसके बाद की पीढ़ी में पंडित कुमार गंधर्व, मालिनी राजुरकर, वीणा सहस्रबुद्धे और धारवाड़ के पंडित वेंकटेश कुमार जैसी विभूतियां शामिल हैं, जिनके संगीत में अन्य लोगों के अलावा किराना गायकी का भी विशिष्ट स्पर्श मिलता है। आज भी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखने वाला कोई भी छात्र ग्वालियर घराने द्वारा आविष्कृत और सिखाई गई तकनीकों और बारीकियों को अपने शिक्षण में शामिल करने की चाह रखेगा।

कोझिकोड: पुस्तकालय और प्रकाशन का शहर

उत्तरी भारत में पारंपरिक तौर पर इलाहाबाद, बनारस और कोलकाता को पढ़ने-लिखने और प्रकाशन का केंद्र मानने की परंपरा रही है, जो अब सिमटकर दिल्ली में केंद्रित हो गई है। लेकिन दक्षिण में कोझिकोड का इतिहास बताता है कि 19वीं सदी से ही अंग्रेजों एवं वाणिज्यिक केंद्र होने के कारण पूर्व में कालीकट के नाम से मशहूर इस शहर को बसाने और बौद्धिक रूप से संवारने में आसपास के जिलों की महती भूमिका रही है।

दक्षिण के एक समाचारपत्र द साउथपोस्ट के अनुसार कोझिकोड निगम ने केरल इंस्टीट्यूट ऑफ लोकल एडमिनिस्ट्रेशन के एक सुझाव पर विचार विमर्श कर 2022 में अपने शहर को यूनेस्को साहित्य का शहर बनाने की अपनी महत्वाकांक्षी योजना को अमली जामा पहनने का फैसला लिया था। चूंकि प्राग शहर 2014 में सबसे पहला टैग हासिल करने वाला पहला शहर बन गया था, इसलिए कोझिकोड कॉर्पोरेशन ने कागजी कार्रवाई में मदद हेतु चेक गणराज्य में प्राग विश्वविद्यालय से संपर्क साधा।

इसका नतीजा यह हुआ कि प्राग विश्वविद्यालय की शोध छात्रा लुडमिला कोलोचोवा ने कोझिकोड की यात्रा की और प्राग और कोझिकोड पर एक तुलनात्मक अध्ययन पेश किया। उनके शोध से पता चला कि कोझिकोड में 70 से ज्यादा प्रकाशक एवं 500 से अधिक पुस्तकालय मौजूद हैं, जो शहर को एक ठोस परिचालन आधार प्रदान करते हैं। वास्तविकता यह है कि शहर हर वर्ष केरल साहित्य महोत्सव सहित कई अन्य पुस्तक महोत्सवों की मेजबानी करता है, जो उसके दावे का समर्थन करता है। लेकिन इस टैग को हासिल करने के लिए बड़ी संख्या में साहित्यिक संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए समर्पित व्यवसायों, विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों की मेजबानी करने की क्षमता एवं अनुभव, साहित्यिक शिक्षा के उच्च मानकों, साहित्यिक गतिविधियों में तेजी एवं विविधता का भी अपना योगदान है।

इसके साथ ही कोझिकोड को मलयालम में साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन केंद्र होने का गौरव प्राप्त है। शहर में कई स्थानीय समाचार पत्रों एवं टेलीविजन नेटवर्क के द्वारा साहित्य को महत्व दिया जाता है। कुछ साल पहले एक राष्ट्रीय एजेंसी ने कोझिकोड को देश में दूसरी सबसे बेहतर जिंदगी बिताने वाली जगह का दर्जा दिया था। यह शहर अपने समृद्ध भोजन, संस्कृति और मित्रवत व्यवहार के लिए प्रसिद्ध है। पूर्व में कालीकट के नाम से मशहूर इस शहर में आगंतुकों के लिए पार्क, वन्य जीवन, मूर्तियां, संग्रहालय, अभयारण्य, पहाड़ियां, समुद्र तट और नदियों सहित बहुत कुछ है।

लेकिन इस शहर को साहित्यिक स्वरूप देने में जिस एक शख्स को सबसे बड़ा श्रेय जाता है, वह नाम है वैकोम सुल्तान मुहम्मद बशीर का, जिनके घर पर हर रोज साहित्यिक दिग्गजों, प्रमुख फ़ोटोग्राफ़रों, चित्रकारों, उनके पाठकों और आम लोगों का जमघट लगा रहता था। बशीर के बारे में जानकारी मिलती है कि उन्होंने कहानी कहने के व्याकरण को बदलकर रख दिया, और वे उन चंद प्रमुख साहित्यिक हस्तियों में से एक थे जिनपर कोझिकोड को नाज है।

5 जुलाई 1994 को सुल्तान बशीर के निधन के बाद भी यह परंपरा खत्म नहीं हुई है, और कोझिकोड द्वारा यह प्रतिष्ठित खिताब हासिल करने के बाद, यहां के लोग इसका श्रेय बशीर एवं उन जैसे अन्य रचनात्मक प्रतिभाओं को दे रहे हैं, जिन्होंने मलयालम के संस्कृत के रूप से हटकर एक ऐसी शब्दावली विकसित की जो सर्वसुलभ, भरोसेमंद और अनौपचारिकता लिए हुए थी। उनके बारे में मशहूर है कि उन्होंने भाषा को कम डराने वाला बना दिया।

बशीर के अलावा एक और महान हस्ती एमटी वासुदेवन नायर हैं, जिन्हें साहित्यिक प्रतिभा का धनी कहा जाता है। 90 साल के वासुदेवन भी बशीर की तरह पलक्कड़ जिले के कुदाल्लूर गांव में जन्मे थे। मलयालम भाषा के एक प्रमुख साहित्यिक प्रकाशन, द मातृभूमि वीकली के लिए उप-संपादक के रूप में काम करने के लिए वे 1957 में कोझिकोड पहुंचे। लेखक की गहरी रचनात्मकता और उसके पसंदीदा शहर के बीच सह-अस्तित्व का अनूठा रिश्ता उसे कैसे एक सशक्त उपन्यासकार, पटकथा लेखक और संपादक के रूप में निर्मित करने में मददगार सहित होता है, इसे हम वासुदेवन नायर के रूप में देख सकते हैं। मलयालम में सबसे अधिक अनुवादित लेखक के रूप में उनकी अधिकांश रचनाएं तब प्रकाशित हुईं जब उन्होंने फैसला लिया कि कोझिकोड ही वह स्थान है जहां वे रहकर अपना रचनाकर्म करना चाहते हैं।

इनके अलावा कहानीकार एवं दुनिया भर की सैर करने वाले साहित्यकार, सांसद दिवंगत शंकरन कुट्टी पोट्टेक्कट जो कोझिकोड में पैदा हुए थे, की विशिष्टता शहर में आम लोगों के साथ अपनी पहचान बनाने की उनकी क्षमता में थी।

शिक्षा के क्षेत्र में कोझिकोड बेहद संपन्न है। जिले में 191 हाईस्कूल सहित 1,237 स्कूल हैं। कोझिकोड में राष्ट्रीय महत्व के दो प्रमुख शैक्षणिक संस्थान: भारतीय प्रबंधन संस्थान कोझिकोड (आईआईएम), और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान कालीकट (एनआईटीसी) मौजूद हैं। इसके अलावा अनुसंधान संस्थानों में राष्ट्रीय रक्षा जहाज निर्माण अनुसंधान और विकास संस्थान (NIRDESH), भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान (IISR), जल संसाधन विकास एवं प्रबंधन केंद्र (CWRDM) एवं राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (NIELIT) शामिल हैं।

इसके अलावा कालीकट विश्वविद्यालय केरल का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है। यह विश्वविद्यालय 1968 में स्थापित किया गया था और यह केरल में स्थापित दूसरा विश्वविद्यालय था। कालीकट मेडिकल कॉलेज की स्थापना 1957 में केरल के दूसरे मेडिकल कॉलेज के रूप में की गई थी। तब से, यह संस्थान राज्य में चिकित्सा शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र बन गया है। वर्तमान में यह राज्य का सबसे बड़ा चिकित्सा संस्थान है जिसमें स्नातक कार्यक्रम के लिए सालाना 250 उम्मीदवार प्रवेश लेते हैं। 1970 में स्थापित सरकारी लॉ कॉलेज, कोझिकोड, केरल राज्य का तीसरा लॉ कॉलेज है।

1879 में अंग्रेजी साप्ताहिक वेस्ट कोस्ट स्पेक्टेटर के साथ कोझिकोड में समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू हो गया था। कोझिकोड में पहला मलयालम समाचार पत्र केरल पथरिका की शुरुआत 1884 में हुई, जिसके संस्थापक चेंगलथु कुन्हिरामा मेनन थे। 19वीं शताब्दी में कोझिकोड में प्रकाशित अन्य समाचार पत्रों में केरलम, केरल संचारी और भारतीवासम थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान देने वाले कुछ प्रमुख समाचार पत्रों में मातृभूमि और मिथवाडी भी कोझिकोड की जमीन पर स्थापित किये गये थे। मौजूदा दौर में द हिंदू और द न्यू इंडियन एक्सप्रेस जैसे अंग्रेजी अखबारों सहित मलयालम के लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों के संस्करण कोझिकोड से प्रकाशित होते हैं।

ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि संगीत और साहित्य के रसिक जो हाल के वर्षों में पहचान के संकट से गुजर रहे थे, ग्वालियर और कोझिकोड को नई वैश्विक पहचान मिलने के बाद अपनी पसंदीदा स्थानों की सूची में इन दो बेजोड़ शहरों को शामिल करना नहीं भूलेंगे।

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम से सदस्य हैं।)

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