Saturday, April 27, 2024

जन्मदिवस पर विशेष: अपने जीते जी गाथा पुरुष बन गए हबीब तनवीर

बीसवीं सदी के चौथे दशक में मुल्क के अंदर तरक़्क़ी-पसंद तहरीक अपने उरूज पर थी। इप्टा के नाटक अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता और सरोकारों के चलते पूरे मुल्क में मक़बूल हो रहे थे। इप्टा से जुड़े हुये अदाकर-निर्देशकों ने हिंदोस्तान में पहली बार लोक नाट्य स्वरूपों को समकालीन सार्थक रूप में प्रस्तुत किया। हबीब तनवीर भी आज़ादी की जद्दोजहद के उस दौर में इप्टा के अभिन्न हिस्सा थे। एक वक़्त तो ऐसा भी आया कि उन्हें इप्टा को पूरी तरह संभालना पड़ा। जन आंदोलन के दौरान साथियों की गिरफ़्तारी के बाद, कुछ ऐसे हालात बने कि इप्टा की सारी ज़िम्मेदारी तनवीर के ऊपर आ गई।

साल 1948-50 के बीच उन्होंने नाटक लिखने के साथ-साथ उनका निर्देशन भी किया। अपने आत्मकथ्य ‘ए लाइफ़ इन थियेटर’ में हबीब तनवीर लिखते हैं, “दरअसल निर्देशन मुझ पर आरोपित किया गया। वह मेरा चुनाव नहीं था, मेरा चुनाव तो अभिनय था।” मुंबई में प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद ज़हीर के घर होने वाली साप्ताहिक बैठकों में हबीब तनवीर नियमित तौर पर जाते थे। इन साहित्यिक बैठकों में तनवीर अपनी पुर-कशिश आवाज़ में शायरी पढ़ते, जो बहुत पसंद की जातीं। उनकी ग़ज़लों का पहला सेट जिसमें छह ग़ज़लें शामिल थीं, अली सरदार जाफ़री द्वारा संपादित उर्दू के मक़बूल रिसाले ‘नया अदब’ में एक साथ शाए हुईं।

1 सितंबर, 1923 में अविभाजित मध्य प्रदेश के रायपुर में जन्मे हबीब अहमद ख़ान की शुरुआती तालीम रायपुर में हुई। शायरी से लगाव के चलते, उन्होंने ‘तनवीर’ अपना तख़ल्लुस चुना। नाटक में पूरी तरह उतर जाने के बाद, शायरी तो उनसे काफ़ी पीछे छूट गई। अलबत्ता ‘तनवीर’ उनके नाम के आगे हमेशा के लिए जुड़ा रहा। उन्हें बचपन से ही नाटक और फ़िल्मों का शौक़ था। ख़ास तौर से पारसी थियेटर उन्हें ख़ूब आकर्षित करता था। महज़ बारह साल की उम्र में उन्होंने शेक्सपियर के मशहूर नाटक ‘किंग जॉन’ में प्रिंस आर्थर का किरदार निभाया था।

बहरहाल, पढ़ाई के साथ-साथ हबीब तनवीर का शायरी और अभिनय का शौक़ परवाज़ चढ़ता रहा। नागपुर के मॉरिस कॉलेज से उन्होंने बी.ए. किया। बाद में एम.ए. उर्दू के लिए अलीगढ़ गए और फ़िल्मों का शौक़ उन्हें आख़िरकार, मुंबई ले आया। मुंबई में पैर जमाने के लिए उन्होंने जमकर संघर्ष किया। कई छोटे-मोटे काम किए। मसलन आकाशवाणी में संगीतात्मक रूपक, पत्र-पत्रिकाओं में फ़िल्मी समीक्षा, विज्ञापन फ़िल्मों की स्क्रिप्ट वगैरह लिखीं। तनवीर की जी तोड़ मेहनत ज़ल्द ही रंग लाई। थोड़े ही अरसे के बाद, उन्हें अपनी मंजिल-ए-मक़सूद यानी फ़िल्मों में भी मौक़ा मिल गया। लिहाज़ा उन्होंने फ़िल्मों में अदाकारी की और कई फ़िल्मों के गाने और संवाद भी लिखे।

बंबई में फ़िल्मों और पत्रकारिता में मसरूफ़ियत के बावजूद हबीब तनवीर प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़े रहे। इप्टा से जुड़कर, उन्होंने कई नुक्कड़ नाटक लिखे और निर्देशित किए। ‘शांतिदूत कामगार’ उनका लिखा और निर्देशित पहला नाटक था। प्रेमचंद की कहानी पर आधारित ‘शतरंज के मोहरे’, कृश्न चंदर का नाटक ‘मेरा गांव’, उपेन्द्रनाथ अश्क का ‘दंगा’, विश्वामित्र आदिल का ‘दिन की एक रात’ का उन्होंने इन्हीं दिनों निर्देशन किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक में हबीब तनवीर मुंबई से दिल्ली आ गए। यहां आकर उन्होंने अपना नाटक ‘शतरंज के मोहरे’ दोबारा लिखा और इसमें ख़ालिस लखनवी उर्दू ज़बान का इस्तेमाल किया। नाटक इस बार ज़्यादा कामयाब साबित हुआ।

साल 1954 में लिखा ‘आगरा बाज़ार’ वह नाटक था, जिसने हबीब तनवीर को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। अठारहवीं सदी के मशहूर अवामी शायर नज़ीर अकबरावादी की ज़िंदगी और रचनाओं पर आधारित नाटक ‘आगरा बाज़ार’ में उन्होंने न सिर्फ़ आम आदमी की ज़िंदगी और उसके रोज़मर्रा के सरोकारों को अपना विषय बनाया, बल्कि लेखन में भी वह मुहावरा और तरीक़ा बरता, जो पारंपरिक अभिजन कविता के आदाब और मौज़ूअ के बिल्कुल ख़िलाफ़ था। ये वह दौर था जब हिंदोस्तानी रंगमंच में हिंदोस्तानी, अपनी मिट्टी से जुड़ाव एवं शैली का डंका पीटने वाले नारे और मुहावरे ईजाद नहीं हुये थे। ‘आगरा बाज़ार’ हिंदोस्तान के रंगमंच में मील का पत्थर साबित हुआ।

हबीब तनवीर ने थिएटर की आला तालीम लंदन के प्रसिद्ध थिएटर स्कूल ‘रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स’ यानी ‘राडा’ से हासिल की। इस दरमियान उन्होंने यूरोप में तीन साल बिताए। इन तीन सालों में उन्होंने यूरोपीय रंगमंच को क़रीब से देखा। ख़ासकर बर्लिन में तो तनवीर ने आठ महीने गुज़ारे, जहां जर्मन नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की नाट्य प्रस्तुतियां देखीं। बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटकों से हबीब तनवीर ने काफ़ी कुछ सीखा। उनके नाटकों में हमें जो जनपक्षधरता दिखाई देती है, उसमें ब्रेख्त के नाटकों का बड़ा योगदान है।

हिंदुस्तान वापसी पर तनवीर की पहली प्रस्तुति हिंदुस्तानी थिएटर के बैनर पर हुई। शूद्रक के संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ के हिंदी अनुवाद ‘मिट्टी की गाड़ी’ को उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों के साथ रंगमंच पर उतारा। इस नाटक में उन्होंने पूरी तरह से लोक रंगमंच की पारंपरिक शैली और तकनीक का प्रयोग किया। नाटक को एक ख़ास हिंदोस्तानियत में ढाला। ज़ाहिर है, नाटक बेहद मक़बूल हुआ।

लोक अदब और लोक रिवायतों से हबीब तनवीर को बेहद लगाव था। उन्होंने कई लोक कथाओं को विकसित कर नाटक में तब्दील किया। मसलन ‘जालीदार पर्दे’- रूसी लोक कथा पर आधारित है, तो ‘सात पैसे’- चेकोस्लोवाकिया की लोककथा, ‘अर्जुन का सारथी’- छत्तीसगढ़ी कहानी, ‘गांव का नाव ससुराल, मोर नाव दामाद’- छत्तीसगढ़ी लोककथा, ‘ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह’- राजस्थानी लोककथा, ‘चरनदास चोर’- राजस्थानी लोककथा, ‘बहादुर कलारिन’- छत्तीसगढ़ी लोककथा, ‘सोनसागर’- बिहारी लोककथा, ‘हिरमा की अमर कहानी’- आदिवासी लोककथा पर आधारित नाटक हैं।

इन नाटकों की ख़ासियत ये है कि तनवीर ने इन लोक कथाओं को सीधे-सीधे ड्रामा रूप में तब्दील नहीं किया है, बल्कि लोककथा के केन्द्रीय विचार को लेकर अपने हिसाब से नाटक में विस्तारित किया। इम्प्रोवाइज किया। यही नहीं इन नाटकों को उन्होंने मौजूदा परिवेश से भी जोड़ा, जो लोगों को ख़ूब पसंद आया।

साल 1959 में हबीब तनवीर ने नाटक के एक नये ग्रुप ‘नया थिएटर’ की नींव रखी। ‘सात पैसे’, ‘रुस्तम सोहराब’, मोलियर का ‘द बुर्जुआ जेंटलमैन’, ‘मेरे बाद’ वगैरह उनके इस ग्रुप के शुरुआती नाटक थे। दिल्ली में जीविकायापन के लिये हबीब तनवीर ने नाटक के साथ-साथ स्वतंत्र पत्रकारिता भी की। ‘लिंक’, ‘स्टेटसमेन’, ‘पेट्रिएट’ के लिये उन्होंने फ़िल्म समीक्षा, नाट्य समीक्षा आदि लिखीं। इस दरमियान ‘संगीत नाटक अकादमी’ ने तनवीर से उनके मशहूर नाटक ‘आगरा बाज़ार’ का पुनर्सृजन करने के लिए कहा।

इस बार तनवीर ने ‘आगरा बाज़ार’ के संगीत में छत्तीसगढ़ी लोकधुनों के अलावा दीगर प्रयोग किए, जो काफ़ी हिट रहे। नाटक बेहद मक़बूल हुआ। नाटक के सैकड़ों शो हुए। गोया कि ‘आगरा बाज़ार’ और हबीब तनवीर एक दूसरे के पर्याय हो गए। नाटक ‘चरनदास चोर’ तक आते-आते हबीर तनवीर ने अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। उनके नाटक ख़ालिस छत्तीसगढ़ी मुहावरे में खेले जाते। ‘अर्जुन का सारथी’, ‘गौरी-गौरा’, ‘चपरासी’, ‘गांव के नाव ससुराल, मोर नाम दामाद’ आदि नाटक पूरी तरह से छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य शैली नाचा में खेले गए। इन नाटकों को महानगरीय दर्शकों ने भी ख़ूब सराहा।

साल 1975 में ‘चरनदास चोर’ के साथ ही तनवीर की शैली और प्रस्तुति ने अपनी पूर्णता पा ली। इसके बाद उन्होंने अपनी शैली को बिल्कुल नहीं बदला और आख़िर तक इसी शैली में नाटक खेलते रहे। नाटक ‘चरनदास चोर’ के कथ्य की ताज़गी और दिलचस्प व आकर्षक पेशकश ने पूरे मुल्क में तहलका मचा दिया। एक शुद्ध लोक कहानी को बिल्कुल नया रूप देकर, मौजूदा हालात से जोड़कर कैसे सामायिक बनाया जा सकता है?, इसकी एक शानदार मिसाल है ‘चरनदास चोर’।

साल 1982 में एडिनबरा के विश्व ड्रामा फेस्टिवल में बावन मुल्कों के ड्रामों के बीच ‘चरनदास चोर’ की कामयाबी ने हबीर तनवीर और नया थिएटर को दुनियावी स्तर पर मक़बूल कर दिया। ‘चरनदास चोर’ के ज़रिए तनवीर ने ये साबित कर दिखाया कि लोक परंपराओं के मेल और देशज रंगपद्धति से कैसे आधुनिक नाटक खेला जा सकता है।

हबीब तनवीर द्वारा विकसित रंगमंच सिर्फ़ लोक रंगमंच ही नहीं था, बल्कि वह आधुनिक रंगमंच भी था। तनवीर आधुनिक दृष्टि वाले नाट्य निर्देशक थे। उनके पास इतिहास और सियासत की गहरी समझ थी। उनका लोककला में दिलचस्पी लेना और लोक मुहावरों में काम करना, वैचारिक फ़ैसला था। और अपने इस फ़ैसले पर वे आख़िर तक क़ायम रहे। नाटक ‘आगरा बाज़ार’ से लेकर ‘एक औरत हिपेशिया भी थी’ तक उन्होंने दर्जन भर से ज़्यादा अर्थपूर्ण नाटक लिखे और निर्देशित किये।

अपने नाटकों के ज़रिए वे दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ, उन्हें सम-सामायिक मुद्दों से भी जोड़ते रहे। हबीब तनवीर के हर नाटक में एक मक़सद है, जो नाटक के अंदर अंतर्धारा की तरह बहता है। मसलन नाटक ‘आगरा बाज़ार’ में भाषा और अदब के जानिब कुलीन और जनवादी नज़रियों के बीच कशमकश है, तो ‘चरनदास चोर’ सत्ता, प्रशासन और व्यवस्था पर सवाल उठाता है। ‘हिरमा की अमर कहानी’ और स्टीफ़न ज्वाईंग की कहानी पर आधारित ‘देख रहे हैं नयन’ सियासी नाटक हैं, जो हर दौर में सामायिक रहेंगे।

‘बहादुर कलारिन’ में वे सामंतवाद पर वार करते हैं। नाटक ‘जिन लाहौर नहीं देख्या, वो जन्मा ही नईं’ हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द पर और ‘पोंगा पंडित’ समाज में व्याप्त छुआ-छूत को उजागर करता है। ‘मिट्टी की गाड़ी’ में वे समाज को लोकसत्ता से जोड़ने की ठोस कोशिश करते हैं। ऐसा नाटक जिसका कोई मक़सद न हो उसके हबीब तनवीर ख़िलाफ़ थे। अपने जीते जी गाथा पुरुष बन जाने वाले हबीब तनवीर का रंगकर्म एक जुदा रंगकर्म था, जो हमेशा याद किया जाएगा।

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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