अप्रैल,1986 में दिल्ली से पटना गया। अगले कुछ वर्षों के लिए तब पटना ही मेरा नया बसेरा बन रहा था। दिल्ली में मेरी नियुक्ति नवभारत टाइम्स के रिपोर्टर के तौर पर हुई थी और मुझे पटना भेजा गया। वहां अख़बार का नया संस्करण निकलने वाला था। नये शहर में पहुंचने के दूसरे ही दिन अपने एक पत्रकार-मित्र से कहा: चलिये कॉफ़ी हाउस चलते हैं। उन्होंने कहा कि पटना में कॉफ़ी हाउस कहां है? मैंने कहा कि एक बार अपने छात्र-जीवन में यहां आया था, जेपी आंदोलन के दौरान। सन् 1974-75 का दौर रहा होगा। तब तो हमने डाक बंगला चौराहे से आगे किसी रोड पर इंडियन कॉफ़ी हाउस देखा था। पत्रकार-मित्र ने बताया कि अब वह इतिहास की बात है-इंडियन कॉफ़ी हाउस के बंद हुए दशक बीत गये। तब से पटना कॉफ़ी हाउस-विहीन है।
यहां न तो दिल्ली, कलकत्ता या भोपाल की तरह कॉफ़ी हाउस हैं और न प्रेस क्लब है। फिर हमने फ़्रेज़र रोड स्थित राजस्थान होटल के रेस्तरां में जाकर चाय पी। यह कहानी सिर्फ़ पटना की नहीं, उत्तर के ज़्यादातर हिंदी-भाषी राज्यों की भी है। झारखंड की राजधानी रांची में भी मैंने इंडियन कॉफ़ी हाउस नहीं देखा। देश के सबसे बड़े प्रदेश-उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में इंडियन कॉफ़ी हाउस का रेस्तरां था पर बाद में बंद हो गया। सुना है, फिर उसी जगह खुला है पर वह पहले वाले कॉफ़ी हाउस जैसा नहीं है! ले-देकर सिर्फ़ इलाहाबाद स्थित सिविल लाइंस का पुराना इंडियन कॉफ़ी हाउस बचा हुआ है। उसकी हालत भी अब पहले वाली नहीं है। संरचना वही है पर माहौल वह नहीं है।
लेकिन पहली बार जब मैं जबलपुर पहुंचा तो यह देख-सुन कर चमत्कृत रह गया कि मध्य प्रदेश के इस शहर में एक या दो नहीं, पूरे पंद्रह कॉफ़ी हाउस हैं और ये सभी इंडियन कॉफ़ी हाउस वर्कर्स सोसायटी द्वारा संचालित हैं। शहर में कॉफ़ी हाउस की ये सभी शाखाएं अच्छे से चल रही हैं। जबलपुर के कारण ही मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सहित आसपास के कई राज्यों में कॉफ़ी हाउसों की बड़ी श्रृंखला है। अनेक बड़े या मझोले शहरों में कॉफ़ी हाउस हैं। उत्तर और मध्य भारत में कॉफ़ी हाउसों की इस दिलचस्प कहानी और उसमें जबलपुर की केंद्रीय भूमिका के बारे में ज़्यादा प्रामाणिक ढंग से मैंने यहां पहुंचने पर ही जाना। 14 अप्रैल, 2023 की बात है।
दिल्ली से उड़कर जबलपुर के छोटे से एयरपोर्ट पर एयर इंडिया (अलायंस) का विमान तक़रीबन डेढ़ घंटे बाद उतरा। वहां मौसम दिल्ली से भी ज़्यादा गर्म लगा। तक़रीबन आधे घंटे बाद हमारी गाड़ी जबलपुर के मशहूर और सबसे पुराने इंडियन कॉफ़ी हाउस के सामने रुकी, जो शहर के बीचों-बीच मालवीय मार्ग के एक चौराहे के पास है। बाहर से आने वाला कोई भी अतिथि यह सोच सकता था कि होटल जाने से पहले यहां कॉफ़ी पीने के लिए मुझे रोका जा रहा है। पर मुझे तो इसी कॉफ़ी हाउस के होटल में रूकना था। जबलपुर में हमारे मेज़बान नंद किशोर तेम्भुरने साहब ने कहा: ‘सर, जब आपसे मैंने फ़ोन पर बात की थी और आपने यहां आने के लिए अपनी सहमति दी, उसी समय हमने तय कर लिया था कि आप को यहीं ठहराना है।
आपको याद है न, आपने जबलपुर का नाम सुनते ही शहर की सिर्फ़ दो चीजों में रुचि दिखाई-नर्मदा के भेड़ाघाट और जबलपुर के कॉफ़ी हाउसों में।’ नंदकिशोर जी की बात सही थी। मध्य प्रदेश स्थित कुछ कॉफ़ी हाउसों की खाने-ठहरने की व्यवस्था से बाहर के ज़्यादातर लोग अनजान हैं। पर मैं मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिला के मुख्यालय-बैढ़न में इंडियन कॉफ़ी हाउस के एक होटल में कुछ साल पहले रुक चुका था इसलिए किसी कॉफ़ी हाउस में ठहरने के प्रस्ताव पर मुझे किसी तरह की झिझक नहीं हुई। दरअसल, बैढ़न के इंडियन कॉफ़ी हाउस के नवनिर्मित होटल में मुझे पहले गेस्ट के रूप में दर्ज किया गया। जिस दिन मैं सिंगरौली पहुंचा, उसी दिन वह होटल शुरू हुआ था। मुझे विश्वास था कि जबलपुर के इंडियन कॉफ़ी हाउस का होटल भी बैढ़न से अगर अच्छा नहीं तो बुरा कत्तई नहीं होगा। सबसे बड़ी बात कि जब चाहे तब इडली और गर्मागर्म फ़िल्टर कॉफ़ी के मज़े लो।
कॉफ़ी हाउस के होटल में मेरा कमरा ऊपर की किसी मंज़िल पर था। जाने-आने के लिए लिफ़्ट लगी थी। अपेक्षाकृत छोटे-मझोले भारतीय शहरों की ज़्यादातर लिफ़्टों की तरह वह डरावनी नहीं थी, बहुत साफ़-सुथरी और सहजता से संचालित होने वाली थी। कमरा ज़्यादा बड़ा नहीं था पर सुंदर और साफ़ था। उसमें सभी ज़रूरी चीजें उपलब्ध थीं। फ़ोन व्यवस्था भी दुरुस्त थी।
थोड़ी देर बाद होटल के कमरे से मेरे मेज़बान जा चुके थे और मैं अकेला रह गया। नहाने के बाद मैंने इडली और फ़िल्टर कॉफ़ी का आर्डर पेश किया। कुछ ही देर में इंडियन कॉफ़ी हाउस की लक-दक सफ़ेद पोशाक और लाल-पीले रंग की पट्टी के साथ सफ़ेद पगड़ी वाले एक दक्षिण-भारतीय वेटर हमारे कमरे में हाज़िर हुए। इडली और कॉफ़ी का प्याला रखते हुए उन्होंने हिंदी में कहा-‘सर, और कुछ भी ज़रूरत हो तो आप रिसेप्शन को फ़ोन कर दीजियेगा।’ कुछ देर आराम करने के बाद मैंने फिर एक कॉफ़ी का आर्डर दिया और आज के अपने भाषण की तैयारी में जुट गया। कार्यक्रम के बाद होटल लौटा तो जबलपुर के चर्चित लेखक दिनेश चौधरी को फ़ोन किया, जिनसे पहले भी बात हो चुकी थी। अब मिलने की बारी थी। उनसे सबसे पहले हिंदी के मशहूर कथाकार-संपादक ज्ञानरंजन जी के बारे में पूछा।
जबलपुर पहुंचने से पहले ही ज्ञान जी से मिलने का मन बना चुका था। वर्षों बाद उनसे मुलाक़ात होती। पर अफ़सोस कि ऐसा नहीं हो सका। दिनेश जी ने बताया कि ज्ञान भाई की पत्नी सुनैना जी बीमार हैं और वह बेटे के पास नागपुर रहकर उनका इलाज करा रहे हैं। दिनेश जी से उसी दिन हमारी मुलाक़ात सैनिक छावनी इलाक़े के एक बाज़ार के अपेक्षाकृत नये कॉफ़ी हाउस में हुई। मैं समय से पहुंच गया। हमारे साथ शहर के वरिष्ठ पत्रकार मंगलेश्वर गज़भिये भी थे। कॉफ़ी हाउस में दिनेश जी हमारा इंतज़ार कर रहे थे। हमने वहीं डिनर किया। जबलपुर की मेरी यह पहली यात्रा ज़रूर थी पर शहर की कॉफ़ी हाउस कल्चर के बारे में मुझे सामान्य जानकारी पहले से थी। दिनेश जी से अपनी बातचीत में जबलपुर के कॉफ़ी हाउसों को लेकर काफी बातें हुईं। मैंने उन्हें बताया कि कल सुबह मेरी मुलाक़ात इंडियन कॉफ़ी वर्कर्स कोआपरेटिव सोसायटी लिमिटेड के अध्यक्ष-सह महाप्रबंधक ओ के राजगोपालन से भी होनी है।
उनसे सुनना चाहूंगा, कॉफ़ी हाउस की कामयाबी की कहानी। छावनी इलाक़े से होटल लौटते हुए मैंने शहर के अलग-अलग इलाक़ों में कई कॉफ़ी हाउस देखे। मंगलेश्वर जी भी कॉफ़ी हाउसों को लेकर मेरी दीवानगी से खुश नज़र आये। बहुत प्रेम से अपनी गाड़ी रोक-रोक कर रास्ते में दिखने वाले जबलपुर के कॉफ़ी हाउसों को दिखाते रहे। जबलपुर से लौटने के कुछ समय बाद ज्ञानरंजन से फ़ोन पर बात हुई तो उन्होंने अपने बारे में बड़ी दिलचस्प बात बताई, ‘उर्मिलेश, मैंने केरल से दिल्ली तक देश भर के न जाने कितने कॉफ़ी हाउसों में खाया और कॉफ़ी पी है। जबलपुर में जिस तरह आप यहां के कॉफ़ी हाउसों पर मुग्ध हुए, वही हाल मेरा शुरू से रहा है। इलाहाबाद का तो आप जानते ही हो, कॉफ़ी हाउस के हम लगभग नियमित बैठकबाज थे। जबलपुर आने के बाद पहले मालवीय नगर वाले में और बाद में लंबे समय तक सुपर मार्केट वाले कॉफ़ी हाउस में हमारी बैठकबाजी होती रही।’
पटना, लखनऊ, बनारस या रांची के लोग, ख़ासकर बुद्धिजीवी, लेखक, वकील और अन्य प्रोफेशनल्स क्या कल्पना कर सकते हैं कि लगभग साढ़े चौदह लाख की आबादी वाले जबलपुर में इस वक़्त एक या दो नहीं, पंद्रह कॉफ़ी हाउस चल रहे हैं और सभी अच्छी स्थिति में हैं। ये सभी इंडियन कॉफ़ी वर्कर्स को-आपरेटिव सोसायटी लिमिटेड जबलपुर द्वारा संचालित हैं। शहर के बहुत सारे लोगों को भी कॉफ़ी हाउसों की इस संख्या का ठीक-ठीक पता नहीं।
इंडियन कॉफ़ी वर्कर्स सहकारी सोसायटी की स्थापना सन 1958 में हुई। हालांकि भारत में कॉफ़ी बोर्ड की स्थापना ब्रिटिश शासन के दौरान सन् 1940 में हो चुकी थी। उसके बाद भारत के विभिन्न हिस्सों में कॉफ़ी हाउस खोले गये। आज़ादी के बाद भी सरकारी बोर्ड के तहत कॉफ़ी हाउस चलते रहे। सन् 1957 के अंत में केंद्र सरकार को लगा कि इन कॉफ़ी हाउसों को चलाना घाटे का सौदा है तो उसने अनेक इकाइयों को बंद कर दिया। कर्मचारियों की छंटनी होने लगी। कथित घाटे के अलावा सरकारी फ़ैसले का एक पहलू यह भी था कि भारत सरकार को कॉफ़ी का निर्यात करने से ज़्यादा फ़ायदा नज़र आ रहा था। विदेशी मुद्रा मिलने का नया रास्ता दिख रहा था। सरकार की इस अप्रत्याशित कार्रवाई से अनेक कर्मचारियों की नौकरियां जाने लगीं। इस कठिन परिस्थिति में आल इंडिया कॉफ़ी बोर्ड लेबर यूनियन, दिल्ली ने मामले में हस्तक्षेप किया। यूनियन के नेता थे-कामरेड ए के गोपालन। वही गोपालन जिनके नाम पर दिल्ली स्थित भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के राष्ट्रीय मुख्यालय का नाम ‘गोपालन भवन’ पड़ा है।
तब गोपालन साहब संसद में विपक्ष के बड़े नेता थे। कर्मचारियों की छंटनी और कॉफ़ी बोर्ड की दुर्व्यवस्था को लेकर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मुलाक़ात की। साथ में कॉफ़ी बोर्ड के कर्मचारियों का एक डेलीगेशन भी था। प्रधानमंत्री नेहरू ने विपक्ष के नेता के साथ कर्मचारियों की बात ध्यान से सुनी। उसी बैठक में छंटनी ग्रस्त कर्मियों को लेकर अलग सहकारी समितियां बनाने और उन समितियों की तरफ़ से अलग-अलग शहरों में कॉफ़ी हाउस चलाने का सुझाव उभरा। ए के गोपालन के मार्गदर्शन में देश के अलग-अलग शहरों में तेरह सहकारी समितियों का गठन हुआ। इनमें प्रमुख थे-जबलपुर, त्रिचूर और कन्नूर (केरल), दिल्ली, कोलकाता, पांडिचेरी, नागपुर, मुंबई, बेंगलुरू, चेन्नई, लखनऊ, बेल्लारी और पुणे। इन सभी समितियों का नाम इंडियन कॉफ़ी वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसायटी( ICWCS) रखा गया।
ओ के राजगोपालन ने जबलपुर में कॉफ़ी हाउसों के गठन का इतिहास बताते हुए उस दौर के दो श्रमिक नेताओं का ख़ासतौर पर ज़िक्र किया। एक थे-एल एन मेहरोत्रा और दूसरे थे-पी सदाशिवन नायर। इन दो लोगों के मार्गदर्शन में इंडियन कॉफ़ी वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसायटी लिमिटेड, जबलपुर का गठन हुआ। मामूली सी पूंजी 1365 रूपये से इसकी शुरुआत हुई। शुरुआती दौर में बहुत सारी कठिनाइयां रहीं। पर सिलसिला चलता रहा। सन् 1981 में ओ के राजगोपालन ने समिति के सचिव का कार्यभार संभाला। फिर वह समिति के अध्यक्ष-सह वरिष्ठ महाप्रबंधक चुने गये। इसके बाद मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कई शहरों में कॉफ़ी हाउस की शाखाएं खोली गईं।
आज सोसायटी की देखरेख में 163 शाखाएं चल रही हैं। इसमें कुछ जगहों पर होटल और लॉज भी चल रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के कई उपक्रमों के परिसरों में भी कॉफ़ी हाउस चलाये जा रहे हैं। ऐसे उपक्रमों में एनटीपीसी, एनएमडीसी, एनएलसीआईएल, सीआईएल आदि शामिल हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की विधानसभाओं और शासन की कई इकाइयों में भी कॉफ़ी हाउस द्वारा संचालित कैंटीनें चल रही हैं। रायपुर स्थित छत्तीसगढ़ सरकार के अतिथि गृह की नाश्ता-भोजन व्यवस्था भी कॉफ़ी हाउस संभाल रहा है। इस वक़्त समिति के तहत 21 राज्यों में कॉफ़ी हाउस चल रहे हैं और इनमें 7500 कर्मचारी काम कर रहे हैं। इनमें तक़रीबन 70 फ़ीसदी केरल-वासी हैं।
जबलपुर स्थित कॉफ़ी वर्कर्स सोसायटी की तरफ़ से इस वक़्त सिर्फ़ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दर्जनों कॉफ़ी हाउस चलाये जा रहे हैं। कुछ प्रमुख शहरों में कॉफ़ी हाउसों की संख्या जितना हैरान करती है, उतनी ही ख़ुशी देती है। इस वक़्त भोपाल में 8, रायपुर में 7, इंदौर में 6 ग्वालियर में 3 और जबलपुर में 15 कॉफ़ी हाउस चल रहे है। केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु और बंगाल के कॉफ़ी हाउस अलग सोसायटियों द्वारा चलाये जाते हैं। दिल्ली की सोसायटी दिल्ली के अलावा यूपी के इलाहाबाद स्थित कॉफ़ी हाउस का संचालन करती है।
सन् 2008 में कॉफ़ी वर्कर्स सोसायटी ने जबलपुर में अपना स्वर्ण जयंती मनाया था। उस मौक़े पर कॉफ़ी हाउस सोसायटी से जुड़े हज़ारों कर्मचारियों ने दिवंगत कम्युनिस्ट नेता ए के गोपालन को श्रद्धा के साथ याद किया, जिनकी प्रेरणा से देश में कॉफ़ी हाउस वर्कर्स ने अपनी समितियां बनाकर कॉफ़ी हाउस चलाना शुरू किया था। स्वर्ण जयंती की स्मारिका पर कवर के ठीक पीछे पहला चित्र ए के गोपालन का ही है। दूसरा चित्र जवाहर लाल नेहरू का है। नेहरू जी का यह चित्र दिल्ली के तत्कालीन बंगला रोड स्थित कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी पीते समय लिया गया था। बहुत सुंदर चित्र है-नेहरू दाहिने हाथ से कॉफ़ी का प्याला अपने मुंह से सटाये हुए हैं और प्लेट अपने बायें हाथ में थामे हुए हैं। कॉफ़ी का लुत्फ़ लेते किसी बौद्धिक की बिल्कुल स्वाभाविक तस्वीर।
जिस वक़्त कॉफ़ी हाउस वर्कर्स समिति जबलपुर में अपनी रजत जयंती मना रही थी, देश के जाने-माने लेखक-बुद्धिजीवी और जबलपुर के निवासी हरिशंकर परसाई जीवित थे। वह कॉफ़ी हाउस के नियमित बैठकबाज थे। इस मौक़े पर अपने शुभकामना संदेश में परसाई जी ने कहा थाः ‘मैं अक्सर लोगों से कहता हूं कि सहकारिता के क्षेत्र में कैसे काम किया जाता है, यह कॉफ़ी हाउस वर्कर्स की समिति से सीखा जा सकता है। सुदूर दक्षिण से आकर हमारे यहां सहकारिता के क्षेत्र में इतना अच्छा काम करके इन लोगों ने दूसरों के लिए भी आदर्श प्रस्तुत किया है।’ लेकिन दूसरों के लिए यह उतना आसान नहीं। केरल की ख़ास सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में सहकार और सहकारिता के आंदोलन और भावना का जन्म हुआ।
इसमें वहां के सामाजिक सुधार आंदोलनों और वाम-लोकतांत्रिक नेताओं की अगुवाई में काम करने वाले संगठनों की अहम् भूमिका रही। यह महज़ संयोग नहीं कि उसी केरल से आये लोगों ने मध्य प्रदेश आदि जैसे हिंदी क्षेत्र में आकर श्रमिकों की अपनी समितियों के सहकार से कॉफ़ी हाउसों का कार्य-संचालन शुरू किया, जो आज तक जारी है। हिंदी प्रदेशों के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली ज़्यादातर सहकारी समितियां भ्रष्टाचार, लालफ़ीताशाही, परिवारवाद और निरंकुश क़िस्म के निजी प्रबंधन के चलते बहुत पहले ही दम तोड़ चुकी हैं। अपवादस्वरूप ही कुछ समितियां सुचारू से काम कर पा रही हैं।
जबलपुर ही इंडियन कॉफ़ी वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसायटी और आसपास के कई प्रदेशों के कॉफ़ी हाउसों की श्रृंखला का मुख्यालय क्यों बना; यह सिर्फ़ मेरे लिए ही नहीं, अनेक लोगों के लिए उत्सुकता का विषय हो सकता है। जबलपुर न तो किसी प्रदेश की राजधानी है और न ही मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, बंगलुरू, हैदराबाद या चेन्नई की तरह बड़ा महानगर है। सोसायटी के अध्यक्ष-सह-महाप्रबंधक राजगोपालन से जब हमने यह सवाल किया तो उन्होंने बताया कि एल एन मेहरोत्रा और सदाशिवन नायर जैसे दिग्गजों की यहां सक्रियता थी।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम थे। यहां के समाज में विविधता थी। शहर में उन दिनों बहुत सारे लेखक-बुद्धिजीवी भी थे। भारत के लगभग मध्य में था। जबलपुर में सिर्फ़ सोलह लोगों ने मिलकर सोसायटी गठित की थी। मेहरोत्रा साहब अध्यक्ष और नायर साहब उपाध्यक्ष थे।
कॉफ़ी हाउस कल्चर के बारे में मैं अपने निजी अनुभव से कह सकता हूं कि यह अपनी प्रकृति में शालीन, सभ्य, बौद्धिक और उदार है। इंडियन कॉफ़ी हाउस की किसी भी इकाई का माहौल अन्य कैफ़े या नाश्ताघरों के मुक़ाबले कॉफ़ी अलग मिलेगा। इसके परिवेश में सद्भावना, उदारता और विनम्रता दिखेगी। इसके साथ ही बराबरी का बोध भी होगा। एक बार अंदर आ गये तो मिनटों क्या घटों यहां गुज़ार सकते हैं। यह जगह आज भी मित्रों या सहकर्मियों की आपसी मुलाक़ात और विचार-विमर्श के लिए सबसे मुफ़ीद है। यहां कोई आपको ये नहीं कहेगा कि इतनी देर से डेरा क्यों डाल रखा है! समाजों और लोगों को सभ्य, सहिष्णु, समझदार और सामाजिक बनाने में अनेक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का योगदान रहा है। मेरा मानना है कि इनमें थोड़ा-बहुत योगदान कॉफ़ी हाउसों और चायघरों का भी रहा है।
जैसा मैंने पहले ही बताया कि बिहार की राजधानी में एक भी इंडियन कॉफ़ी हाउस नहीं है। कैसी विडम्बना है, लेखकों-कवियों और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं से भरे सूबे की राजधानी में एक भी कॉफ़ी हाउस नहीं! पता नहीं, यहां के लोग इस अभाव की भरपाई कैसे कर रहे होंगे? जिस समय बिहार तानाशाही से लड़ने का पूरे देश को रास्ता दिखा रहा था, वहां राजधानी पटना में इंडियन कॉफ़ी हाउस की एक इकाई आबाद थी। जहां तक मुझे याद है-यह शहर के बीचों-बीच डाकबंगला रोड के चौराहे से ही कुछ ही दूर थी। कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु और कवि नागार्जुन जैसे अनेक बड़े लेखक-बुद्धिजीवी वहां के नियमित बैठकबाज थे। कॉफ़ी हाउसों के मामले में उत्तर प्रदेश भी बहुत दरिद्र है। आजकल यहां गौरक्षकों के दफ़्तर हर शहर-कस्बे में खुले दिखते हैं पर कॉफ़ी हाउस गिने-चुने हैं।
एक समय इलाहाबाद का कॉफ़ी हाउस देश के बड़े साहित्यकारों से गुलज़ार रहता था। एक समय यहां बैठने वालों में सुमित्रानंदन पंत, उपेंद्रनाथ अश्क़, भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, नरेश मेहता, डॉ. रघुवंश, विजयदेव नारायण साही और दूधनाथ सिंह आदि प्रमुख थे। लखनऊ के हज़रतगंज का कॉफ़ी हाउस एक समय हिंदी के बड़े लेखकों-यशपाल, अमृतलाल नागर, मुद्राराक्षस और वीरेंद्र यादव सहित अनेक लोगों का सांध्य कालीन अड्डा हुआ करता था। यहां बैठने वालों में लेखक-बुद्धिजीवियों के अलावा वकील, नेता-कार्यकर्ता और छात्र-युवा, हर तरह के लोग होते थे। लोग परिवार के साथ भी यहां डोसा-इडली खाने आते। कॉफ़ी समय पहले न जाने क्यों बंद हो गया? कुछ समय बाद मैंने अपने एक लखनऊ दौरे में देखा कि कॉफ़ी हाउस वाले बड़े कक्ष में एक कैफ़े-नुमा कॉफ़ी हाउस खुल गया है। उसमें खाने-पीने की तमाम चीजों के साथ कॉफ़ी भी उपलब्ध है पर इंडियन कॉफ़ी हाउस कल्चर नहीं, वह माहौल नहीं!
देश भर में आज नये ज़माने के नये-नये नाम वाले महंगे कैफ़े खुले हैं। इनमें कॉफ़ी के एक प्याले की क़ीमत डेढ़ सौ से डेढ़ हज़ार रुपये तक है। इनमें कुछ देसी तो कुछ विदेशी व्यापारिक कंपनियों द्वारा संचालित हैं। पर मैं दावे से कह सकता हूं कि दिल्ली से तिरुवनंतपुरम तक इंडियन कॉफ़ी हाउस के कॉफ़ी का एक प्याला जो संतुष्टि और आनंद देता है, वह उन सितारा रेस्तरांओं की महंगी कॉफ़ी में नदारद है। फिर इंडियन कॉफ़ी हाउसों की वो चमकदार सुबहें और मस्त शामें उन महंगे रेस्तरांओं में कहां मिलेंगी!
कॉफ़ी हाउस कल्चर ज़िंदाबाद!
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।)
I also fan of Indian Coffee Houses.
एक तथ्य और है जिसे जानना जरुरी है, जबलपुर की इस संस्था को ESI की गतिविधियों से पूरी तरह छूट दी गई है इसका कारण यह है कि यह संस्था अपने कर्मचारियों को ESI से भी बेहतर कल्याण और चिकित्सा सुविधाएँ प्रदान करती है। पूरे प्रदेश में यह एकमात्र ऐसी संस्था है।
मैं खुद जबलपुर शहर में रहता हूं ओर आपके द्वारा लिखे गए उन विचारों को महसूस किया हूं।मैं तीन साल इलाहाबाद अब प्रयागराज में भी रहकर पढ़ा हूं लेकिन कभी काफी हाउस नही देखा । पांडिचेरी के सरकारी गेस्ट हाउस के पास स्थित काफी हाउस में काफी और अन्य व्यंजनों का लुफ्त उठाया ।लेकिन वहा का काफी हाउस के कल्चर जबलपुर से काफी अलग था किंतु काफी अच्छा महसूस हुआ ।चार दिन के पंडीचेरी प्रवास के दौरान , जहां शाकाहारी व्यंजन और उत्तर भारत की थाली मिलना आसान नहीं था उस कमी को वहा के काफी हाउस ने भर दिया ।अब आगे हमेशा यह अनुभव दक्षिण भारत की यात्रा के साथ सहज महसूस होगा।।
Bahut hi achha facilities ke sath,,,, bahut hi swadist khana banane wale karmachariyo ke sath,,,,, unke achhe vyavhar,,, sab kuch pasand aaya h…..
अद्भुत जानकारी। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में हमारे देखते-देखते 5 कॉफी हाउस खुल चुके। पहले एक ही था। अब हाईकोर्ट परिसर में भी एक है।