( 28 अगस्त 1863 – 18 जून 1941 : केरल के दलितों शोषितों को नयी राह दिखाने वाले, संघर्षों में ही तपे अय्यनकली का अस्थमा की लम्बी बीमारी के बाद इंतकाल हुआ, मगर आज भी अपने विचारों एवं आंदोलनों के ज़रिये वह हमें राह दिखाते हैं।)
क्या आप उस सूबे का नाम बता सकते हैं जहां आज से डेढ़ सौ साल पहले दलितों को आम सड़कों पर चलने का भी अधिकार प्राप्त नहीं था तथा इसे हासिल करने के लिये उन्हें लड़ाकू संघर्ष करना पड़ा था ! या क्या आप बता सकते हैं कि वह कौन सा सूबा है जहां आज से सौ साल पहले खेत मजदूरों (लगभग सभी दलित) ने इस बात के लिए हड़ताल की थी कि उनकी सन्तानों को स्कूल जाने का तथा उन सभी को आम सड़कों पर चलने का अधिकार मिले तथा उनकी झंझावाती हड़ताल ने भूस्वामियों को झुकने के लिए मजबूर किया था। केरल में मानवीय विकास के जिस चमत्कार की बातें स्वातंत्रोत्तर काल में की जाती हैं उसके बरअक्स वंचित तबकों की इस तस्वीर को देख कर समझदार लोग भी इन्कार कर सकते हैं कि यह पूर्ववर्ती केरल की बातें हैं।
आज भले ही विभिन्न समाज सुधारकों तथा लम्बे कम्युनिस्ट आंदोलन के कारण केरल के दलितों स्त्रियों को तमाम तरह के अधिकार मिलें हों लेकिन 19 वीं सदी तक उन्हें जानवरों से बेहतर नहीं समझा जाता था। इस पूरी प्रणाली में महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा बुरा बर्ताव होता था, उन्हें अपने स्तन ढंकने की इजाजत नहीं थी। एक कहानी प्रचलित है कि एक बार कोई गरीब औरत अपने स्तनों को ढंक कर किसी रानी से मिलने गयी। रानी ने खफा होकर उसके स्तन वहीं कटवा दिये। जाहिर सी बात थी पढ़ना लिखना तो मना था ही सार्वजनिक स्थानों पर उनका प्रवेश वर्जित था यहां तक कि बाजारों में भी उन्हें घुसने नहीं दिया जाता था।
इस समूची पृष्ठभूमि में देखें तो केरल के दलितों को शिक्षा तथा अन्य मानवाधिकार दिलाने का तिरुअनंतपुरम के पास पुलया नामक दलित जाति में जन्मे अय्यन कली ( जन्म 1864) के नेतृत्व में चला संघर्ष उत्पीड़ितों के लिए चले आंदोलन में अपनी विशेष अहमियत रखता है।
साफ है कि अय्यनकली की अगुआई में दलितों-शोषितों ने संघर्ष नहीं किया होता तो उनके हालात अपने आप सुधरने वाले नहीं थे। तिरुअनन्तपुरम से 18 किलोमीटर दूर वेगनूर गांव में अय्यन और माला के परिवार में 28 अगस्त 1863 को जब उनका जन्म हुआ था तो शायद ही किसी को अंजाम रहा होगा कि इन सात भाई बहनों के बीच जन्मे अय्यनकली का नाम एक दिन सातों समुंदर पार भी पहुंच जाएगा और लोग अपने इस लाड़ले को हमेशा के लिए याद करेंगे। बताया जाता है कि तबियत से हृष्ट पुष्ट अय्यनकली बचपन से ही खेलकूद में आगे रहते थे और अन्याय का प्रतिरोध करने की तमन्ना उनके अन्दर गोया जन्मजात थी। 25 साल की उम्र में अय्यनकली ने चेल्लम्मा से शादी की।
अपनी युवावस्था में अच्छे दो सफेद बैलों तथा उन्हें नयी गाड़ी में जोत कर जब वे लौट रहे थे तो ऊंची जातियों की नौजवानों की एक टोली ने उन्हें रोक दिया और धमकाने की कोशिश की। युवा अय्यन ने आव देखा न ताव झट से कमर में लटकाया खंजर निकाल कर उन सभी को ललकारा कि वे अगर ज्यादा बोले तो उन सभी को खंजर का आनंद उठाना पड़ सकता है। अय्यनकली के गुस्से को देख कर इन युवाओं ने भाग जाना ही बेहतर समझा। यह कहा जा सकता है कि बहुत सुगठित भले ही न रही हो लेकिन अपने आत्मसम्मान की इस पहली लड़ाई में वे जीत गये थे।
फिर वक्त आया उनके जीवन के पहले संगठित विद्रोह का। जहां उनकी ताकत तथा उनके स्वभाव को देखते हुए ऊंची जाति के लोग उन्हें बैलगाड़ी से चलते हुए नहीं रोकते थे लेकिन आम सड़कों पर अन्य पुलया लोगों के घूमने-फिरने की आज भी पाबंदी थी। फिर एक दिन उन्होंने अपने युवा साथियों के साथ पुथन मार्केट तक जाना तय किया। जब वे बलरामपुरम् के चालियार रास्ते पर पहुंचे तब वहां पहले से ही तैनात ऊंची जाति के नौजवानों ने उनका रास्ता रोक दिया। अय्यनकली तथा उनके तमाम युवा साथी पहले से ही तैयार थे और आपस में जबरदस्त संघर्ष हुआ, दोनों तरफ से कई लोगों को चोटें आयीं। इस ‘चालियार विद्रोह’ से प्रेरणा पाकर दलित नौजवानों ने राजधानी के आस-पास के मान्नाकाडू, काझाकोट्टम और कुनया पुरामेट आदि तमाम गांवों में, कस्बों में इसी तरह का ‘सत्याग्रह’ किया। देखते-देखते ही यह असन्तोष इतना फैला कि लगा कि रियासत में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बन गयी है।
उनके जीवन का एक दूसरा महत्वपूर्ण पड़ाव था दलितों के लिए स्कूलों में प्रवेश दिलाने का आन्दोलन। वे जब छोटे थे तब दलितों को स्कूल में प्रवेश नहीं दिया जाता था। इस समस्या से मुक्ति पाने के लिये उन्होंने दो स्तरों पर प्रयास शुरू किये। एक तो रियासत में जनमत तैयार करना तथा दूसरे समानान्तर स्कूल खोलना। वेंगनूर ग्राम जहां उनका जन्म हुआ था वहां उनका यह पहला स्कूल शुरू हुआ। ( वर्ष 1904) सभी सुविधाओं से विहीन यह स्कूल दरअसल लोगों की प्रचण्ड इच्छाशक्ति पर ही चल रहा था। ये ऐसे स्कूल थे जिसमें ब्लैकबोर्ड भी नहीं था । जमीन पर पड़ी बालू ही बच्चों की किताब थी तथा उनकी उंगलियां ही पेन्सिल का काम करती थीं ।
इस तरह दलितों ने एक स्वाभिमान भरा कदम उठाया तथा सवर्णों द्वारा लागू इस संहिता को चुनौती दी कि दलित पढ़ नहीं सकते हैं। कथित ऊंची जाति के लोगों को दलितों का इस कदर स्कूल चलाना नागवार गुजरा और उन्होंने इस स्कूल को ही नष्ट कर दिया। दरअसल वे अच्छी तरह जानते थे कि दलितों द्वारा अक्षरज्ञान का मतलब होगा ब्राह्मणवाद की उस समूची गुलामी की व्यवस्था से या सामन्ती उत्पीड़न की प्रथा से उनकी मुक्ति की जमीन तैयार करना।
उसके कुछ समय बाद 1907 में अय्यनकली के नेतृत्व में साधु जन परिपालन संगम ;श्रैचैद्ध नामक संगठन की नींव डाली गयी। ‘संगम’ की तरफ से सरकार को कई दरखास्त दी गयी कि वह दलित छात्रों को भी स्कूल में पढ़ने दें । जानने योग्य है कि आज के केरल में उन दिनों नारायण गुरू जैसे सामाजिक विद्रोहियों की ओर से श्री नारायण धर्म परिपालन योगम ;श्रैचैद्ध जैसे संगठनों के जरिये मुख्यतः इझावा और अन्य पिछड़ी जातियों को संगठित करने की कोशिशें पहले से चल रही थीं। उनके इस संगठन की ही तर्ज पर अय्यनकली ने अपने संगठन की नींव डाली। साधु जन परिपालन संघम की ओर से सबसे पहला काम हाथ में लिया गया दलितों की सन्तानों के लिए शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने का। इन आवेदनों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करके सरकार ने आदेश दिया कि दलित छात्रों को भी पढ़ने दिया जाये ।
हालांकि त्रावणकोर रियासत का दीवान इस मांग के पक्ष में था लेकिन नीचे के स्तर के अफसरों ने इस आदेश को लागू नहीं होने दिया । इस आदेश का पता लगने पर अय्यनकली ने शिक्षा विभाग पर भी दबाव डाला कि वह इस दिशा में सख्त कदम उठाये। मगर अधिकारियों के कानों पर जूं नहीं रेंगी। अय्यनकली ने उन्हें चेतावनी भी दी कि वे इस मांग को मान लें वर्ना उनके खेत खाली रह जाएंगे । फिर अय्यनकली के आह्वान पर पुलया तथा अन्य जाति के दलित मजदूरों ने एक ऐतिहासिक हड़ताल शुरू की जिसमें प्रमुख मांगें थीं कि बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिया जाये अर्थात दलित छात्रों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करना, मजदूरों के साथ मारपीट बंद की जाये तथा उन्हें झूठे मामलों में फंसाना बन्द किया जाये, चाय की दुकानों में दलितों को अलग कपों में चाय देने की प्रथा बन्द की जाये, काम के दौरान आराम का वक्त़ और अनाज या अन्य मोटी चीजों के बजाय मजदूरी का भुगतान नगद में । एक महत्वपूर्ण मांग यह भी थी कि दलितों को सड़कों पर आजादी से टहलने पर जो मनाही थी उसे भी खत्म किया जाए ।
हड़ताल काफी दिनों तक जारी रही । जमींदारों को लगा कि भुखमरी का शिकार होने पर पुलया लोग काम पर लौट जाएंगे । मगर वे अडिग रहे । दलितों को भुखमरी से बचाने के लिए अय्यनकली ने इलाके के मछुआरों से सम्पर्क किया तथा उनसे सहयोग मांगा । सवर्णों के उत्पीड़न से परेशान मछुआरों ने खुशी-खुशी उनकी मदद की। अन्ततः जब स्थिति बिगड़ती देख कर रियासत के दीवान की मध्यस्थता में दलितों के साथ समझौता हुआ जिसमें उन्होंने मजदूरी बढ़ाने तथा स्कूल में प्रवेश दिलाने और आज़ादी से घूमने-फिरने की मांग मान ली । निश्चित ही यह दलितों की ऐतिहासिक जीत थी मगर अभी भी कई बाधाएं पार करनी थी।(1908)
बहरहाल, रियासत की ओर से आदेश जारी होने के बाद भी स्थिति में ज्यादा फर्क नहीं आया। फिर शुरू हुई ऐतिहासिक ‘पुलया बग़ावत’। पुजारी अय्यन की पांच साल की बेटी पंचमी को अपने साथ लेकर अय्यनकली तथा उनके साथी बलरामपुरम के ओरोट अम्बालाम स्कूल पहुंचे ताकि रियासत के आदेश के मुताबिक उसे प्रवेश दिलाया जा सके। गौरतलब था कि वहां पहले से ही तैनात कथित ऊंची जाति के गुण्डों ने उन पर हमला कर दिया। एक जबरदस्त संघर्ष हुआ जो जल्द ही समूची रियासत में फैला। इस संघर्ष की उग्रता को देखते हुए जिसमें दलित बस्तियों पर हमले हुए, उनकी महिलाओं के साथ बदसलूकी हुई लेकिन दलितों ने अपने प्रतिरोध को जारी रखा, बाद के लेखकों ने इसे पुलया बगावत के नाम से जाना।
इस बात को भी रेखांकित करना यहां जरूरी है कि अय्यनकली जिन दिनों समाज सुधार की अपनी मुहिम में व्यस्त थे उन्हीं दिनों भारत में आजादी का आन्दोलन गति पकड़ रहा था। सामाजिक विद्रोह के अपने कामों में अपनी जिन्दगी खपा देने वाले अय्यनकली से जब पूछा गया कि राजनीतिक कामों में उनकी क्यों अरुचि है? उनका जवाब दिलचस्प था: ‘‘ किसके खिलाफ संघर्ष करें ओर किसके साथ जुड़ें ? क्या वह उन लोगों के साथ कंधा मिलायें जो आबादी का तीसरा हिस्सा उनके लोगों पर परम्परा के नाम पर जुल्म ढाते हैं ?’’ उनका साफ कहना था कि वे उन लोगों के साथ हाथ मिलाने के लिये तैयार नहीं हैं जिनके लिए उनके अपने लोगों का दर्शन भी प्रदूषणकारी है ।’’ हालांकि इसके बावजूद उन्होंने उनके सम्पर्क में आये तमाम नौजवानों को आजादी के आंदोलन में जुड़ने के लिये प्रोत्साहित किया ।
वर्णाश्रम की परिधि में सिमटी राष्ट्र की अवधारणा के तहत आकार लेता उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष और दूसरी तरफ इस समूचे आन्दोलन से बिल्कुल अलग वर्णाश्रम की चुनौती में खड़ी रेडिकल सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की धारा के बीच यह एक ऐसा द्वंद्व था जो बार-बार चुनौती बन कर उभरने वाला था। अपने संगठन के जरिये अय्यनकली ने दलितों की बेहतरी के लिये अपने संघर्ष को विभिन्न स्तरों पर जारी रखा। खुद निरक्षर होने के बावजूद उन्होंने जगह-जगह स्कूल खोले, मंदिर प्रवेश के लिए आन्दोलन चलाये और मजदूरों के हितों की हिफाजत के लिए भी कदम बढ़ाये। वे त्रावण कोर रियासत के सबसे पहले दलित प्रतिनिधि थे। अपने भाषणों के जरिये उन्होंने एक अच्छे खासे गैर दलित हिस्से को भी अपने साथ जोड़ा।
20 वीं सदी की तीसरी दहाई में समूचे केरल में एक नयी हवा चली। 1924 वैकोेम सत्याग्रह या 1931 में हुए गुरूवयूर सत्याग्रह जैसे आन्दोलनों ने अय्यनकली के सामाजिक विद्रोह का एक तरह से विस्तार किया। केरल के दलितों शोषितों को नयी राह दिखाने वाले, संघर्षों में ही तपे अय्यनकली का 1941 में अस्थमा की लम्बी बीमारी के बाद इंतकाल हुआ।
(सुभाष गाताडे लेखक, चिंतक और स्तंभकार हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)