राजा मेहदी अली खान के नाम और काम से जो लोग वाकिफ नहीं हैं, खास तौर से नई पीढ़ी, उन्हें यह नाम सुनकर फौरन एहसास होगा कि यह शख्स किसी छोटी सी रियासत का राजा होगा। लेकिन जब उन्हें यह मालूम चलता है कि यह एक पूरा नाम है, तब उनके चौंकने की बारी आती है। वे तब और ताज्जुब में पड़ जाते हैं, जब उनके फिल्मी गीत सुनते हैं। फिल्मी दुनिया में शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी और कैफी आजमी जैसे नामी गिरामी शायर-गीतकारों के बीच उन्होंने जो गजल और गीत लिखे, उनका कोई जवाब नहीं। वे वाकई लाजवाब हैं।
शायर-नगमानिगार राजा मेहदी अली खान ने बीसवीं सदी की चौथी दहाई से अपना अदबी सफर शुरू किया, जो तीन दहाईयों तक जारी रहा। वे इस दरमियान न सिर्फ मजाहिया शायरी का बड़ा नाम रहे, बल्कि फिल्मों में उन्होंने जो गीत-गजल लिखीं, वे बेमिसाल हैं। दोनों ही काम साथ-साथ चलते रहे। एक तरफ मजाहिया शायरी थी, जिसमें उन्हें तंज-ओ-मिजाह से काम लेना पड़ता था, तो दूसरी ओर फिल्मी गीत थे, जिसमें रूमानी शायरी लिखना पड़ती थी। फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से हीरो-हीरोईन के जज्बात को नगमों में ढालना पड़ता था। दोनों ही काम वे इस हुनरमंदी से करते कि मालूम ही नहीं चलता था यह तखलीक, एक ही शख्स की है। राजा मेहदी अली खान ने मजाहिया शायरी में काफी नाम-शोहरत हासिल की। ‘खरगोशों के जज्बात’, ‘अदीब की महबूबा’, ‘चार बजे’, ‘बच्चों की तौबा’, ‘मियां के दोस्त’, ‘हमें हमारी बीवियों से बचाओ’, ‘परिंदों की म्यूजिक कांफ्रेंस’, ‘अलिफ से ये तक’ उनकी अहम मजाहिया नज्में हैं।
अविभाजित भारत में पंजाब के वजीराबाद के नजदीक करमाबाद में एक इज्जतदार और नामी-गिरामी ख़ानदान में 23 सितम्बर, 1928 को पैदा हुए, राजा मेहदी अली खान के वालिद बहावलपुर रियासत के वज़ीर-ए-आजम थे। वे जब चार बरस के ही थे, तब उनके वालिद इस दुनिया से रुखसत हो गए। वालिद का साया सिर से उठ जाने के बाद मां और मामू ने उनकी परवरिश की। राजा मेहदी अली खान के ददिहाल और ननिहाल दोनों जगह अदबी माहौल था। उनकी वालिदा हामिदा बेगम खुद एक बेहतरीन शायरा थीं, जो हेबे साहिबा के नाम से शायरी करती थीं। खुद अल्लामा इकबाल ने हेबे साहिबा की शायरी की तारीफ की थी। यही नहीं राजा मेहदी अली खान के मामू मौलाना ज़फर अली ख़ान, उस दौर के मशहूर अखबार ‘जमींदार’ के एडिटर थे।
राजा मेहदी अली खान के भाई राजा उस्मान खान, ‘मगजन’ रिसाले के एडिटर थे। उनकी बहिनों को भी शायरी का शौक था। जाहिर है कि इस अदबी माहौल का असर, राजा मेहदी अली खान पर होना ही था। वे भी बचपन से ही शायरी करने लगे। गवर्मेंट इस्लामिया कॉलेज, लाहौर से उन्होंने एफ. ए. किया। राजा मेहदी अली खान का कलम से तआल्लुक एक सहाफी (पत्रकार) के तौर पर शुरू हुआ। अपने मामू के अखबार ‘जमींदार’ के अलावा बच्चों की एक पत्रिका ‘फूल’ में उन्होंने जर्नलिस्ट की हैसियत से काम किया। ‘तहजीब’ और ‘निस्वां’ जैसे रिसालों से भी जुड़े रहे। ‘फूल’ रिसाले में काम करने के दौरान उन्होंने कई मशहूर अफसानानिगारों के अफसानों का तर्जुमा किया, जो उस वक्त के नामी रिसालों में शाया हुए। राजा मेहदी अली खान की पहली मजाहिया नज्म, उस दौर के मशहूर रिसाले ‘अदबी दुनिया’ में शाया हुई। जो खूब पसंद की गई। इसके बाद वे पाबंदगी से मजाहिया शायरी करने लगे।
साल 1942 में राजा मेहदी अली खान दिल्ली चले आए और वहां ऑल इंडिया रेडियो में स्टाफ आर्टिस्ट के तौर पर जुड़ गए। वहीं उनकी मुलाक़ात हुई, मशहूर उर्दू अफसानानिगार सआदत हसन मंटो से। मंटो से उनकी अच्छी दोस्ती हो गई, जो आखिरी वक्त तक कायम रही। ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी में न तो मंटो ज्यादा दिन तक टिके और न ही राजा मेहदी अली खान। पहले मंटो, यह नौकरी और शहर छोड़कर मुंबई चले गए, फिर उसके बाद उन्होंने राजा मेहदी अली खान को भी वहां बुला लिया। मंटो फिल्मिस्तान स्टूडियो से जुड़े हुए थे और अदाकार अशोक कुमार उनके गहरे दोस्त थे।
अशोक कुमार से कहकर, उन्होंने राजा मेहदी अली खान को भी काम दिलवा दिया। ‘आठ दिन’ वह फिल्म थी, जिससे राजा मेहदी अली खान ने फिल्मों में शुरुआत की। ‘आठ दिन’ की स्क्रिप्ट लिखने के साथ-साथ उन्होंने और मंटो ने इस फिल्म में अदाकारी भी की। राजा मेहदी अली खान बुनियादी तौर पर शायर थे और जल्द ही उन्हें अपना मनचाहा काम मिल गया। फिल्मिस्तान स्टूडियो के मालिक एस. मुखर्जी ने जब फिल्म ‘दो भाई’ बनाना शुरू की, तो इस फिल्म के गीत लिखने के लिए, उन्होंने राजा मेहदी अली खान को साइन कर लिया। इस तरह फिल्मों में गीतकार के तौर पर उनकी नई शुरुआत हुई, जिसे उन्होंने आखिरी दम तक नहीं छोड़ा।
साल 1946 में रिलीज हुई ‘दो भाई’ में राजा मेहदी अली खान ने मौसिकार एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में दो गाने ’मेरा सुंदर सपना बीत गया’ और ‘याद करोगे, याद करोगे इक दिन हमको..’ लिखे। इन गीतों को आवाज दी गीता राय (दत्त) ने। दोनों ही गाने सुपर हिट साबित हुए और इसके बाद राजा मेहदी अली खान ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
फिल्म ‘दो भाई’ की रिलीज के एक साल बाद ही, साल 1947 में मुल्क आजाद हो गया, लेकिन हमें यह आजादी बंटवारे के तौर पर मिली। मुल्क में हिंदू-मुस्लिम फसाद भड़क उठे। नफरत और हिंसा के माहौल के बीच मुल्क हिंदुस्तान और पाकिस्तान के नाम से तक़सीम हो गया। लाखों हिंदू और मुसलमान एक इलाके से दूसरे इलाके में हिजरत करने लगे। जाहिर है, राजा मेहदी अली खान के सामने भी अपना मादरे-वतन चुनने का मुश्किल वक़्त आ गया। उनके पुश्तैनी घर-द्वार, रिश्तेदार-नातेदार, दोस्त अहबाब सब पाकिस्तान में थे। लेकिन उन्होंने वहां न जाते हुए, हिंदुस्तान में ही रहने का फैसला किया।
ऐसे माहौल में जब चारों और मार-काट मची हुई थी और एक-दूसरे को शक, अविश्वास की नजरों से देखा जा रहा था, राजा मेहदी अली खान का हिंदुस्तान में ही रहने का फैसला, वाकई काबिले तारीफ था। खैर, यह संगीन दिन भी गुजरे। साल 1948 में राजा मेहदी अली खान को फिल्मिस्तान की ही एक और फिल्म ‘शहीद’ में संगीतकार गुलाम हैदर के संगीत निर्देशन में गीत लिखने का मौका मिला। इस फिल्म में उन्होंने चार गीत लिखे। जिसमें ‘वतन की राह में, वतन के नौजवान’ और ‘आजा बेदर्दी बालमा’ की खूब धूम रही। जिसमें ‘वतन की राह में, वतन के नौजवान’ ऐसा गीत है, जो आज भी राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि के मौके पर हर जगह बजाया जाता है।
राजा मेहदी अली खान का फिल्मों में कामयाबी का सिलसिला एक बार जो शुरू हुआ, तो यह फिर नहीं थमा। उस दौर का शायद ही कोई बड़ा मौसिकार और सिंगर था, जिसके साथ उन्होंने काम नहीं किया हो। लेकिन उनकी सबसे अच्छी जोड़ी मौसिकार मदन मोहन और ओ.पी. नैयर के साथ बनी। साल 1951 में आई फिल्म ‘मदहोश’ से मदन मोहन ने अपने संगीत करियर की शुरुआत की। इस फिल्म के सारे गीत राजा मेहदी अली खान ने लिखे। ‘मेरी याद में तुम न आंसू बहाना..’, ‘हमें हो गया तुमसे प्यार…’, ‘मेरी आंखों की नींद ले गया..’ समेत सभी गीत खूब पसंद किए गए। इस फिल्म के संगीत की कामयाबी के बाद राजा मेहदी अली खान, मदन मोहन के पसंदीदा गीतकार बन गए।
मदन मोहन उम्दा शायरी के शैदाई थे और राजा मेहदी अली खान के शायराना नगमों को उन्होंने अपनी खास धुन में ढालकर अमर कर दिया। राजा मेहदी अली खान ने साल 1951 से लेकर 1966 तक यानी पूरे डेढ़ दशक, मदन मोहन के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिखे। इस जोड़ी के सदाबहार गानों की एक लंबी फेहरिस्त है। जिसमें से कुछ गाने ऐसे हैं, जो आज भी उसी शिद्दत से याद किए जाते हैं। इन गानों को सुनते ही श्रोता, खुद भी इनके साथ गुनगुनाने लगते हैं। ‘आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे’, ‘है इसी में प्यार की आबरू वह जफा करें मैं वफा करूं’, ‘वो देखो जला घर किसी का’ (फिल्म अनपढ़, साल 1962), ‘मैं निगाहें तेरे चेहरे से हटाऊं कैसे..’, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है मुझे सब अपने गम दे दो’ (फिल्म आपकी परछाईयां, साल 1964), ‘जो हमने दास्तां अपनी सुनाई, आप क्यों रोए’, ‘लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो..’, ‘नैना बरसे….’ ‘शौक नजर की बिजलियां..’ (फिल्म वो कौन थी, साल 1964), ‘आखिरी गीत मुहब्बत का सुना लूं…’, ‘तेरे पास आकर मेरा वक्त गुजर जाता…’ (फिल्म नीला आकाश, साल 1965), ‘एक हसीन शाम को दिल मेरा खो गया..’ (फिल्म दुल्हन एक रात की, साल 1966) ‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’, ‘नैनो में बदरा छाए, बिजली-सी चमकी हाय’, ‘आप के पहलू में आकर रो दिए…’ ‘झुमका गिरा रे, बरेली के बाजार में…’ (फिल्म मेरा साया, साल 1966)। इन गीतों में से ज्यादातर गीत सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने गाए हैं। यह गीत न सिर्फ राजा मेहदी अली खान और मदन मोहन के सर्वश्रेष्ठ गीत हैं, बल्कि लता मंगेशकर के भी सर्वश्रेष्ठ गीतों में शुमार किए जाते हैं।
मौसिकार मदनमोहन के अलावा राजा मेहदी अली खान की ओ. पी. नैयर के साथ भी अच्छी ट्यूनिंग रही। इन दोनों की जोड़ी ने कई बेहतरीन सदाबहार नगमें अपने चाहने वालों को दिए। साल 1960 से लेकर 1966 तक का दौर राजा मेहदी अली खान का फिल्मों में सुनहरा दौर था। जिसमें उन्होंने अपने चाहने वालों को शानदार नगमों की सौगात दी। ‘मेरा साया’ उनकी आखिरी फिल्म थी, जिसके सारे के सारे गाने सुपर हिट साबित हुए।
राजा मेहदी अली खान का हालांकि लखनऊ से कोई तआल्लुक नहीं रहा, मगर उनके कई नगमों में लखनऊ की तहजीब और नजाकत की झलक जरूर दिखाई देती है। लखनऊ की तहजीब से मुराद, उनके गीतों में ‘आप’ लफ्ज का इस्तेमाल है, जो उन्होंने कई गीतों में इस हुनरमंदी से बरता है कि ये गीत अलग से ही पहचाने जाते हैं। इन गीतों में राजा मेहदी अली खान की छाप नजर आती है। मिसाल के तौर पर ‘आपके पहलू में आकर रो दिए’, ‘आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है’, ‘आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे’, ‘आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहे’, ‘जो हमने दास्तां अपनी सुनाई, आप क्यों रोए’, ‘आपने अपना बनाया, मेहरबानी आपकी’ वगैरह।
ऐसा नहीं कि अपने महबूब से बात करते हुए आशिक हमेशा तहजीब से गुफ्तगू करते हैं, जब वे एक-दूसरे से बेतकल्लुफ हो जाते हैं, तो ‘आप’ से ‘तुम’ पर उतर आते हैं। इस बात पर आपको यकीन न हो, तो राजा मेहदी अली खान के ऐसे ही कुछ गीत देखिए-‘तुम बिन जीवन कैसे बीता..’, ‘मेरी याद में तुम ना आंसू बहाना..’ ‘हमें हो गया तुमसे प्यार…’, ‘तेरे पास आकर मेरा वक्त गुजर जाता है…’, ‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’। राजा मेहदी अली खान न सिर्फ अपने नगमों से उम्दा शायरी चलन में लाए, बल्कि जब जरूरत पड़ी तो उन्होंने लोेक और शास्त्रीय धुनों पर भी खूबसूरत गीत रचे। ‘झुमका गिरा रे..’, ‘जिया ले गयो जी मोरा सांवरिया..’, ‘कहीं दूर कोई कोयलिया गाए रे’ ऐसे ही उनके कुछ गीत हैं।
राजा मेहदी अली खान एक हरफनमौला अदीब थे, जिन्होंने अदब के अलग-अलग हलकों में एक जैसी महारत से काम किया। खास तौर से मजाहिया शायरी में उनकी, दूसरी मिसाल नहीं मिलती। ‘जमींदार’ अखबार में उनकी मजाहिया नज्में लगातार छपीं। यह मजाहिया नज्में इतनी दिलचस्प हैं कि इनको पढ़कर बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी को लुत्फ आता है। मिसाल के तौर पर उनकी कुछ ऐसी ही नज्में इस तरह से हैं, ‘हँसी कल से मुझे इस बात पर है आ रही ख़ालू/ कि ख़ाला कह रही थीं आप का है क़ाफ़िया आलू/उसी दिन से बहुत डरने लगा हूँ आप से ख़ाला/जब अम्मी ने बताया आप का है क़ाफ़िया भाला।'(हँसी कल से मुझे इस बात पर है आ रही ख़ालू), ऐ चचा ख़र्रू शिचोफ़ ऐ मामूँ केंडी अस्सलाम/एक ही ख़त है ये मामूँ और चचा दोनों के नाम/इक तरफ़ नफ़रत खड़ी है दूसरी जानिब ग़ुरूर/क़हर की चक्की में पिस जाएँ न बच्चे बे-क़ुसूर/…. ले चुके हैं आप तो जी भर के दुनिया के मज़े/हम को इन से दूर रखना चाहते हैं किस लिए।'(ऐ चचा ख़र्रू शिचोफ़ ऐ मामूँ केंडी अस्सलाम) मजाहिया नज्मों में राजा मेहदी अली खान कमाल करते थे। उनमें हास्य बोध गजब का था। अपनी इन नज्मों में वे ऐसी—ऐसी तुकबंदियां लड़ाते कि मजा आ जाता।
अदबी एतबार से भी वे इन नज्मों का मैयार गिरने न देते। अपनी एक लंबी नज्म में तो उन्होंने उर्दू अदब के तमाम बड़े अदीबों के नाम का इस्तेमाल कर, एक ऐसी नज्म रची कि ये अदीब भी इसे पढ़कर मुस्कराए बिना नहीं रहे। वह नज्म इस तरह से है, ‘तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे ‘मीर’ की ग़ज़लें गा रहा हूँ/बहत्तर इन में छुपे हैं नश्तर जो सब के सब आज़मा रहा हूँ/…लिहाफ़ ‘इस्मत’ का ओढ़ कर तुम फ़साने ‘मंटो’ के पढ़ रही हो/ पहन के ‘बेदी’ का गर्म कोट आज तुम से आँखें मिला रहा हूँ/….फ़साना-ए-इश्क़ मुख़्तसर है क़सम ख़ुदा की न बोर होना/’फ़िराक़-गोरखपुरी’ की ग़ज़लें नहीं मैं तुम को सुना रहा हूँ/…मिरी मोहब्बत की दास्ताँ को गधे की मत सरगुज़िश्त समझो/मैं ‘कृष्ण-चंद्र’ नहीं हूँ ज़ालिम यक़ीन तुम को दिला रहा हूँ।'(तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे ‘मीर’ की ग़ज़लें गा रहा हूँ)
राजा मेहदी अली खान का पहला शेरी मजमुआ ‘मिजराब’ था, तो वहीं साल 1962 में उनकी मजाहिया शायरी की दूसरी और आखिरी किताब ‘अदाज—ए—बयां और’ प्रकाशित हुई। ‘चांद का गुनाह’ उनकी एक दीगर किताब है। फिल्मी नगमों, मजाहिया शायरी के अलावा राजा मेहदी अली खान ने अफसाने भी लिखे, जो उस दौर के मशहूर रिसाले ‘बीसवीं सदी’, ‘खिलौना’ और ‘शमा’ में शाया हुए। राजा मेहदी अली खान बच्चों के लिए कहानियां भी लिखते रहे, उनकी यह कहानियां ‘राजकुमारी चंपा’ में संकलित हैं। यही नहीं उन्होंने एक उपन्यास ‘कमला’ लिखा। राजा मेहदी अली खान की नज्मों में तंजो मिजाह (हास्य-व्यंग्य) तो था ही, उन्होंने तंजो मिजाह के मजामीन भी लिखे, जो कि उस वक्त ‘बीसवीं सदी’ पत्रिका में नियमित प्रकाशित होते थे। अपने दोस्तों को उन्होंने जो खुतूत लिखे, वे भी तंजो मिजाह के शानदार नमूने हैं। इन खतों में भी उनका हास्य-व्यंग्य देखते ही बनता है। राजा मेहदी अली खान ने जिस तरह की मजाहिया नज्में लिखीं, फिल्मों में उस तरह के उनके गीत इक्का-दुक्का ही नजर आते हैं। उनका ऐसा ही एक गीत, ‘सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई…’ (फिल्म अनपढ़) है।
शायर-नगमानिगार राजा मेहदी अली खान ने अपने बीस साल के फिल्मी करियर में तकरीबन 72 फिल्मों के लिए 300 से ज्यादा गीत लिखे। जिसमें ज्यादातर गीत अपनी बेहतरीन शायरी की बदौलत देश-दुनिया में मकबूल हुए। उन्हें बहुत छोटी उम्र मिली। फिल्मी दुनिया में जब वे अपने उरूज पर थे, तभी कुदरत ने उन्हें हमसे छीन लिया। यदि उन्हें जिंदगी के कुछ साल और मिलते, तो वे अपने नगमों से हमें और भी मालामाल करते। 29 जुलाई 1966 को महज 38 साल की उम्र में यह बेमिसाल नगमानिगार इस जहाने फानी से हमेशा के लिए रुखसत हो गया। मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर ने राजा मेहदी अली खान की मौत पर उन्हें याद करते हुए क्या खूब लिखा था,‘‘राजा मेहदी अली खान एक बच्चा था और जब भी किसी बच्चे को मौत हमारे बीच से उठाकर ले जाती है, तो इस कायनात की मासूमियत में कहीं न कहीं कोई कमी जरूर रह जाती है।’’