(क्रांतिकारी गीत, गायन और उसकी प्रस्तुति को एक नई ऊंचाई तक ले जाने वाले गदर ने अपने नाम से कम ही रचनाएं की। उन्होंने बहुत से साक्षात्कार दिये। वह कुछ गद्य और अधिकांश गान में बात करते थे। उन्होंने जन नाट्य मंडली की स्थापना में केंद्रीय भूमिका निभाया और उसे नेतृत्व दिया। वह अपने गायन और लेखन में अकेले नहीं होते थे। वह प्रस्तुति में अकेले नहीं होते थे। प्रस्तुति देने के पहले वह जनता के बीच ही तैयारी करते और देखते-देखते लोगों को अपने गीतों का हिस्सा बना लेते थे। परम्परा, यथार्थ और प्रयोग के सम्मिलन के त्रिभुज में ही सर्जना का वह क्षण होता था, जिसके भीतर से कला जन्म लेती थी। वह कला अपनी विशिष्ट स्थल में जनता को अपने भीतर समाहित करती थी और गायकों की भंगिमा और आवाज में ढलती जाती थी। गदर इसी कला की अभिव्यक्ति का रूप बनकर सामने आये थे। उन्होंने इस कला का अपना हिस्सा बना लिया और सर्जना को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। इस तरह वह समूह की सर्जना का हिस्सा था और प्रस्तुति देते समय उसका मूर्तरूप भी होते थे।
एक दलित परिवार से आने वाले गदर ने ब्राम्हणवादी राज्य-व्यवस्था के सारे जुल्म और ज्यादतियों को देखा और खुद भी झेला था। वह गांव से चलकर हैदराबाद जैसे शहर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया। वह उस समय गीत लिखने लगे थे। अंडर ग्राउंड जिंदगी में जाने के पहले वह फिल्मों के लिए गीत लिख चुके थे और वे गीत लोकप्रिय भी हुए थे। लेकिन, गदर ने जनता के बीच जाने का रास्ता चुना। जनता के सबसे गरीब लोगों का जीवन चुना। उन्हीं की तरह कपड़ा पहना। हाथ में लट्ठ लिया। एक कंबल कंधे पर डाला। पैर में घुंघरू बांधा। वह अपने बने-बनाये गीतों को गाते हुए जनता के बीच नहीं गये। उन्होंने जनता के सुरों और गीतों को सीखना शुरू किया। उनकी प्रस्तुतियों को सीखा।
और, इस तरह जनता के गायक गदर निखरकर सामने आए। यह रास्ता आसान नहीं था। सर्जना की जरूरतों को पूरा करना इतना आसान नहीं होता, जितनी वह दिखती है। सर्जना के क्षणों के बारे में पढ़ना जरूर आसान हो सकता है लेकिन सर्जना के क्षणों में डूबते हुए घुंघरू पहनकर उसे लोगों के बीच साकार करना उतना ही कठिन होता है। गदर ने किया। ऐसे ही कुछ क्षणों को बातचीत के द्वारा कलमबद्ध किया गया। इसका एक छोटा सा हिस्सा ‘आमुख’ पत्रिका ने अपने कुछ अंकों में क्रमवार छापा। यह निश्चित ही आमुख के संपादक कंचन कुमार के प्रयासों और सा. मोहन राव द्वारा तेलगू से हिंदी भाषांतर से ही संभव हो पाया। इसमें उल्लेखित संदर्भ तेलगू से है, उसे ध्यान में रखते हुए इसे पढ़ना जरूरी है। ‘आमुख’ से इसका एक हिस्सा साभार प्रस्तुत है- अंजनी कुमार)
गाने का प्रदर्शन स्थल- गाना जीवन के साथ गांठ बांधकर रहने वाला कला का रूप है। आदमी के सुख में, दुख में, कष्टों में, आसुंओं में, काम के दौरान, विश्राम के समय गाना सहायता करता है। इसके लिए किसी मंच की जरूरत नहीं होती है।
गाना और अभिनय- अभिनय गाने के साथ ही आगे बढ़ सकता है। जीवन के संग जुड़कर सीधे, सरलता के साथ आगे बढ़ता जाता है, सहज रूप से गाने के साथ अंगों के संचालन से अभिनय मूर्त होता है। गाने के साथ उत्पन्न अभिनय बहुत सहजता के साथ दर्शकों में भी संरचण पैदा करता है। अलग रूप से अभिनय के प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती है। गायक गाने में लीन हो जाता है तो दर्शक गाने में लीन होकर, गाने को अपना बना लेते हैं। अब दर्शक ही निर्देशक हो जाते हैं।
प्रश्नः गाने की दिशा किस ओर होनी चाहिए?
उत्तरः इसकी यात्रा हमारी जिन्दगियों से गुजरनी चाहिए।
नीचे के गानों की दिशा को पहचानिए।
1- जन्मे हुए बच्चे की तुतली बोलती आ आम, अई शब्द के साथ ही गाना जनमता, बढ़ता है।
2- जन्म-जच्चापन होना ही गाना है।
3- ओट पोट होना, झूले में डालना ही गाना है। लोरी है।
4- बच्चे का नामकरण ही गाना है। बच्चे को सिल्क जुब्बा, लुंगी पहनाना ही गाना है। अक्षर ज्ञान कराना ही गाना है। बच्चे वयःसन्धि पार करे तो गाना है। फल-फूल सौंपते समय गाना है। हल्दी लगाकर नहाते समय गाना है। लड़के-लड़की की मुंह-दिखाई के समय भी गाना। विवाह संदर्भों में गाना। लड़की-लड़का पान-सुपारी हाथ बदलते समय गाना। उनकी विदाई की बेला में गाना। बहू का सास के घर में पैर रखते वक्त गाना। सुबह-शाम भजन के गीत, दिया जलाते समय गाना, पूर्णिमा-अमावस्या के समय गाना, हर पौर-त्यौहार पर गाना, मंदिर, चर्च, मस्जिद, गुरुद्वारा में गाना, दुख को रोकने के लिए दुख (विषाद) का गीत, वृद्धावस्था में विराग का गीत, भक्ति गीत आदि।
आदमी मरे तो गाना, शव घर में रहते वक्त के गाने, शव को चिता पर रखने, मुख में कुलगुरु द्वारा तीर्थजल देते समय के गाने, चिता पर आग देते समय के गाने, तीन दिन-सात दिने की प्रथाओं के गाने, मरने वालों पर भिखारियों द्वारा रचकर गाये जाने वाले गीत। इस तरह आदमी के जन्म से शुरू होकर उसके मृत्यु तक गाना साथ ही चलता है।
अब, काम के वक्त गीत साथ कैसे चलता है, देखें।
घर में आंगन बुहारते हुए बुहारी का गीत, हांडी बर्तन मांजकर धोते वक्त गुनगुनाये जाने वाला गीत, ओखली में कूटते वक्त और मशीन द्वारा कपड़ों की सिलाई के समय के गीत।
जमीन पर काम करते समय के गाने, बारिश के समय के गाने, हल बांधते वक्त के गाने, हल चलाते समय के गाने, रोपनी के समय के गाने, निकाई-गोड़ाई के समय के गाने, फसल काटते वक्त के गाने, बोझ बांधते वक्त के गाने, ढोते वक्त के गाने, झड़ाई के समय के गाने, थोथा उड़ाते समय के गाने, गाड़ी में लदाई के वक्त के गाने, नया चावल पकाते वक्त के गाने, उसका नैवेद्य चढ़ाते वक्त के गाने। इस तरह गाना काम के साथ आगे बढ़ता है। अब बुर्जुआओं के गाने सुबह ‘वंदेमातरम्’ से शुरू होकर रात के ‘जनगण मन’ पर शेष होते हैं।
अब हमारा गाना ठीक जनता की तरह अपने गाने की यात्रा-पथ का निर्धारण करेंगे। पहले क्या? बाद में क्या? इन तथ्यों पर आधारित होकर पूरे जीवन में साया जैसा हमारे गीतों को यात्रा करना चाहिए। लड़ाई की यात्रा के मुताबिक हमारे गाने की यात्रा की योजना बननी चाहिए।
प्रश्नः जन नाट्य मंडली के गाने की रूपरेखा कौन बनाते हैं? कैसे बनाते हैं?
उत्तरः हमारे गाने की रूपरेखा तीन दशाओं में रूपायित होती है।
1- जीवन को जनता रूपायित करती है।
2- साहित्य को साहित्यिक मित्र।
3- राजनीति को राजनीतिक मित्र द्वारा रूपायित किया जाता है।
इस तरह रूपायित करने का असल में मतलब क्या है? ठीक करना, क्रम में सजाना-संवारना। अब किसे कौन संवारे या रूपायित करे? अनुभवशाली ही करेगा। निरन्तर अभ्यास से जो अनुभवी होगा, वही करेगा। अनुभवी लोहार अपने अनुभवहीन पुत्र के काम को संवारेगा। इसके अलावा खुद बनाकर दिखाते हुए भविष्य में इस तरह के भूलों से बचने के लिए सिखाते हुए, स्वतंत्र रूप से उस कार्य को संपन्न करने के लिए प्रेरित करेगा। इसी वास्तविकता को हम हर दिन देखते हैं। इस तरह संवारना एक दिन में या एक काम से पूरा हो जाने से ही नहीं हो जाता है। यह निरंतर एक प्रक्रिया है। काम में घटी कोई भी तब्दीली इस संवारने की प्रक्रिया को आगे ले जाती है।
कैसे? जैसे लोहार का पुत्र हंसुआ बनाते वक्त अपने द्वारा की गई गलतियों को दूसरा हंसुआ बनाते समय सुधार लेता है। लेकिन, यदि हंसुआ की जगह बंदूक बनायेगा तो नई गलतियां करेगा ही। इसमें कई गलतियां होंगी जिन्हें उसे फिर से सुधारना पड़ेगा। इस तरह यह क्रम चलता रहेगा। कौन किसको संवारेगा? इस प्रश्न का उत्तर ऊपर की पंक्तियों से कुछ स्पष्ट हो गया होगा। अनुभवी लोहार ही लोहार के काम को संवार सकता है। बहुत ही अनुभवी बढ़ई लोहार की गलतियों को दिखा तो सकता है लेकिन उन्हें संवार नहीं सकता है। यह काम विशेष उसके द्वारा नहीं होगा। क्योंकि उस काम में उसका ज्ञान शून्य है। यदि करने को कोई प्रयत्न करता है तो उस काम में निखार आने के बदले, वह काम खराब कर सकता है।
अब मैं गाने के प्रसंग पर आना चाहूंगा। इस गाने के कार्य को किस तरह से संवारा जाना चाहिए। इस प्रश्न के जबाब को भी यदि हम जनता में खोजें तो हमें ठीक तरह की समझ आ जायेगी।
जनता अपने गीतों को किस तरह से संवार रही है?
जनता के गीत काम के दौरान जन्म लिये हैं अर्थात उनके गीतों में काम और गान ये दो अंश हैं। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। उनके गानों को काम ही सुधार सकते हैं। कैसे? यह गाना सुनें-
‘हल चला रहे हैं भैइया
पौधे बो रहे हैं भैइया
फसल काट रहे हैं भैइया
गठ्ठर बांध रहे हैं भैइया
झड़ाई कर रहे हैं भैइया-’
ऊपर का गाना खेती के कार्य से जुड़ा हुआ है। खेती इनका जीवन है। यह हजारों साल से आ रहा अनुभव है। अनुभव के आधार पर ही वे कई गाने मुंह-जबानी ही बना लेते हैं। अभ्यास और कार्य को ही गाने के रूप में संवार लेते हैं। इसीलिए गलतियों को होना उन्हें सुधारना इनमें कम होता है। ऊपर के गाने को ही देखें।
हल न चलाकर, बीज न बोकर, फसल न काटकर झड़ाई नहीं कर सकते हैं।
फसल घर नहीं पहुंचेगी। दांतों तले अन्न नहीं आयेगा। यह वास्तव है। इसीलिए वे वास्तव रूप देकर गाते हैं। एक और गाने को लें-
‘कुम्हार ने हड़िया बनाई
वो हो गई टेढ़ी-मेढ़ी
बढ़ई आकर कुर्सी बनाई
उसके न पैर है न पेट-’
ऊपर के गाने से क्या अर्थ निकलता है? जिसे काम करना नहीं आता है, यदि वह काम करे तो पूरा काम ही खराब हो जाता है। यहां काम ही गाने को संवारेगा। इसका मतलब काम में की गई भूलें गाने में प्रतिफलित होती हैं। ऊपर के दोनों गाने हमें क्या सीखा रहे हैं?
1- काम से उपजा गाने को काम ही संवारेगा।
2- जनता अपने आचरण (अभ्यास या दैनंदिन काम) को ही गाने के रूप में तराश लेती है। इसी कारण उस गाने को बहुत संवारने की जरूरत नहीं रहती है।
3- जन गीतों की कर्ता जनता ही है, वह समष्टिगत रूप से, आये हुए संशोधनों, परिवर्द्धनों को समाहित कर लेता है। अतः एक गाने को दूसरे गाने से संवारने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
सामंतवादी कवि को ही लें। सामंतवादी कवि सामंतवादी व्यवस्था की रक्षा में लगा रहता है। यहां कवि का संबंध सामंतवादी व्यवस्था से है। यह कवि अपने गानों में सामंतवादी व्यवस्था को बचाये रखने की बात कहता है। लेकिन, इस कवि को कौन सुधारेगा?
सामंती प्रभु ही। कैसेे?
कवि उवाचः
‘राजाज्ञा देवाज्ञा
राजाज्ञा जो न माने
देवाज्ञा का उलंघन करें-’
ऊपर के कवि के वाक्य को कौन सुधारेगा? राजा ही सुधार सकता है। तुरंत ही राजा ‘कवि की बात को देववाक’ बताता है। यहां कवि के राजा ही भगवान है जबकि राजा को कवि ने ही भगवान बनाया है। इस तरह वे एक दूसरे को सुधारते हैं। एक और उदाहरण को लें-
‘जितने दिन भी जीओ हे जीव
कोई भी फल नहीं है।
अतः इस लोक की भ्रांति छोड़
शिव के भजन में लीन हो हे माया जीव।’
इस गीत का मर्म हैः यह लोक पूरी तरह भ्रम (भगवान) नहीं है। जितना दिन भी जिये फल नहीं है। (फिर इतने दिन जी क्यों रहा है?)। जीवात्मा, परमात्मा, परलोक, शिव, भजन जैसे विषय इनकी कविता की वस्तुएं हैं। ये सब गीत किसी काम से संबंध नहीं रखते हैं। किसी भी काम में सहायता भी नहीं करते हैं। ये किसी भी वास्तविक परीक्षा में खरे नहीं उतरेंगे। इसीलिए इसमें कोई सुधारने की बात नहीं आती।
ऊपर के दो गाने क्या बताते हैं?
1- सामंतवादी कवि को सामंतवादी प्रभु ही सुधारते हैं।
2- सामंतवादी कवि सामंतवाद की रक्षा करता है। अतः सुधरने के लिए राजी नहीं होगा।
3- समाज के सभी विषयों को लेकर अपने भावों और विचारों के अनुकूल उन्हें मोड़कर उनके कर्ता के रूप में अपने को प्रतिष्ठित करता है। इस कविता का सृजनकर्ता के रूप में कवि ब्रम्ह के रूप में अपने को प्रकट कर लेता है। अतः अपने गीत में कोई सुधार स्वीकार नहीं करता है।
अब हम पूंजीवादी कवि को ही लें।
यहां कवि का संबंध पूंजीवादी के लिए एक श्रमिक का होता है। इन दोनों के बीच का संबंध पूंजीवादी गति होता है। पूंजीवाद का अंतिम लक्ष्य लाभ होता है। इसी उद्देश्य की प्राप्ति को दृष्टिगत करते हुए गीत लिखवाता है। और जो लिखा हुआ है, उसे अपने अनुकूल मोड़ लेता है। यहां कवि केवल श्रमिक कुली हो जाता है। पूंजी के अनुसार गाना होता है। यहां यह गाना कवि की इच्छा के अनुकूल न होकर पूंजीपति की इच्छा के अनुकूल होता है। गाना पूंजीपति की निजी संपत्ति के रूप में बदल जाता है। इसीलिए, इसे सजाना, इसमें जोड़ना-घटाना उसी की इच्छा के अनुसार होता है। इस गाने को लेकर जांच-पड़ताल करें। उदाहरण के लिए एक फिल्मी गाने को लें-
‘भगवान द्वारा बनाये लोगों
लोगों द्वारा बनाये गये भगवान
सुनो लोगों की पुकार
देखो भगवान की लीला।’
यह एक फिल्मी गाना है। इसे कोई भी लिख सकता है। किसी भी संदर्भ में गाया जा सकता है। लेकिन, यदि इस गाने की गहराई में जायें तो एक शोषक किस तरह से अपने शोषण को गुप्त तरीके से प्रचारित कर रहा है, समझा जा सकता है। किस तरह से कवि को खरीद कर, अपने भावों के मुताबिक उस गाने को लिखवाकर संपादित करा लेता है, यह समझा जा सकता है।
ऊपर की पंक्तियों की जांच करें। ऊपर की दो पंक्तियों में या तो भगवान ने आदमी को बनाया या आदमी ने भगवान को बनाया। एक सच तो दूसरा झूठ। अब हमारे आंखों के सामने की सच्चाई को ग्रहण करें। एक पत्थर को लाकर, उसे रूप देकर, एक मंदिर में बिठाकर, तिलक लगाकर, दिया जलाकर, नारियल तोड़कर सामने रखें तो वह पत्थर भगवान बन जाता है। इसी सच्चाई को हम रोज देखते रहते हैं। एक पत्थर को भगवान के क्रम में बदलने की प्रक्रिया में भगवान की कोई भूमिका नहीं है।
पत्थर को काटना, तराशना, शिल्प बनाना, मंदिर बनाना, नारियल तोड़ना, दिया जलाना, सभी श्रम का ही फल है। श्रमजीवी जिस तरह से कई वस्तुओं की सृष्टि करते हैं उसी तरह से इस देवता की मूर्ति की वे ही सृष्टि किए हैं, यह साफ है। इसीलिए ‘लोगों द्वारा बनाया गया भगवान’ कहने में कोई अर्थ हो सकता है। भगवान द्वारा बनाये गये लोगों का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। यदि ऐसा है तो पूंजीपति ने इसे सुधारा क्यों नहीं? इन दोनों विचारों को वैसा ही क्यों रहने दिया? क्योंकि उसे दोनों की जरूरत है। इसके दो प्रधान कारण हैं।
पहलाः अपने राजनीतिक अधिकारों को बचाने के उद्देश्य से कि सब भगवान की लीला है। मैं कौन हूं करने वाला? करवाने वाला सब वही है। इस तरह सभी कुछ भगवान के सिर पर थोपकर अपने अधिकार और शोषण को बचाने की कोशिश करता है।
दूसराः पूंजीपति को आदमी की जरूरत है। यदि आदमी नहीं हो, उसका पसीना नहीं हो तो उसकी पूंजी नहीं होगी। उसको लाभ नहीं मिलेगा। आदमी का पसीना ही उसका करोड़ों रुपया है। इसीलिए ‘लोगों द्वारा बनाये गये भगवान’ कहता है।
अब तीसरी और चौथी पंक्ति को लेते हैं।
‘लोगों की पुकार’ की बात उठती है। क्योंकि उसे भगवान की लीला कहा जाता है। अपने ऊपर आने वाली आवाज या पुकार को वह धीरे से भगवान की ओर मोड़ देता है। दिखाई देने वाला आदमी और न दिखाई देना वाला भगवान के बीच विवाद सृष्टि कर देता है।
जैसा भी हो, भगवान तो दिखाई नहीं देगा, वह आवाज दब जायेगी। गाने का भाव यह है। ऊपर के गीत के रचयिता कवि को यह बात मालूम हो सकती है कि यह बात असत्य है, या नहीं भी मालूम हो सकती है। इस गीत में सत्य या असत्य से उसको कुछ आता, जाता नहीं है। उसे उस गीत को लिखने से मतलब है। उसका उससे वही संबंध है, इसलिए उसके सामने इस गीत को सुधारने की आवश्यकता का प्रश्न ही नहीं उठता। यहां सुधारने का अधिकार पूंजीपति को ही है।
ऊपर की आलोचना से निम्न विषय का पता चलता है-
1- पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति ही कवि को सुधारता-सजाता है। उनके दोनों के बीच का संबंध ‘पैसा’ है।
2- पूंजीपति की इच्छानुसार ही गीत जनम कर बढ़ता है।
3- पूंजीपति अपनी व्यवस्था की रक्षा करने के लिए ही गाने में पूंजी लगाता है।
4- जनता से, सामंती प्रभुओं से वह कई विषयों को चुराता है।
5- पूंजीपति विषय को पहले ही संपादित करता है और उसी परिधि में गाना लिखवा लेता है।
अब हम क्रांतिकारी गाने के क्षेत्र में जायें। हमारा गाना, क्रांतिकारी जनगीत होगा अर्थात 1. क्रांति, 2. जनगण, 3. गीत का साहित्य।
इन तीनों को मिलाकर गाना होता है। इसीलिए हमारे गीत तीन अवस्थाओं में सुधारा-संवारा जाता है।
1- गीत के गाने को जनता ही संवारेगी।
2- गीत के राजनीतिक विषय को राजनीतिक भाई ठीक करेंगे।
3- साहित्य को साहित्य के मित्र सुधारेंगे।
इसीलिए, हमारे गाने को सुधारने का क्रम पार्टी, जनता और कवि का होता है। इनके संबंधों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। वे एक दूसरे को सुधारते हुए चलेंगे।