भारतीय कैलेंडर में यह वसंत का मौसम चल रहा है। इसके अवसान के समय ही खबर आई, विवान सुंदरम नहीं रहे। 29 मार्च, 2023 को उन्होंने कला की समृद्ध विरासत में अपना हिस्सा देकर इस दुनिया से विदा ले लिया। यह खबर हिन्दी भाषा की दुनिया में जितनी कमजोर ढंग से छपी, विवान की दुनिया में यही समाज उतनी ही प्रखरता के साथ उपस्थित रहा है। कला, भाषा और समाज के रिश्तों पर हजारों किताबें छपी होंगी, लेकिन इससे रिश्ते जीवित तो नहीं होते। इन रिश्तों की प्रासंगिकता आने वाले दिनों में शोध के एक और विषय का आगाज करेगी और फिर अलमारियों की दराजों में बंद हो जायेगी। यह लिखते हुए उम्मीद कर रहा हूं आने वाले समय में विवान सुंदरम की कला और लेखन शोध का विषय होगी।
विवान से मेरा परिचय व्यक्तिगत नहीं था। दिल्ली आये हुए कुछ साल गुजर गये थे। उस समय दिल्ली के चौराहों पर, खासकर मंडी हाउस गोलबंर में कटती हुई सड़कों के नुक्कड़ पर पत्थर पर बनी आकृतियां थीं, अमूर्त में मूर्त होती आकृतियां। कला में मेरी रूचि थी। खुद इस दिशा में काम तो नहीं कर रहा था, लेकिन जब भी मौका मिलता, पढ़ाई में लग जाता था। इसी दौरान एक किताब मिलीः ‘अमृता शेरगिल- अ सेल्फ पोर्ट्रेट इन लेटर्स एण्ड राइटिंग्स’। यह दो हिस्सों में में छपी। अमृता शेरगिल के बारे में मैं गोरखपुर में रहते हुए कुछ-कुछ जानने लगा था। लेकिन उन पर छपी इस किताब ने कला की समझ में एक नया दरवाजा खोल दिया।
विवान की इस संपादित पुस्तक के ठीक पहले यशोधरा डालमिया की पुस्तक ‘अमृता शेरगिलः अ लाईफ’ पढ़ी थी। इस तरह मैं एक कलाकार की जिंदगी से और भी रूबरू हुआ। रंग, जीवन, देखना (नजरिया), जुड़ना और अलग होना, गणित की रेखाओं का वापस जिंदगी में आना और उसका कैनवास पर उतर जाना …कैनवास और दिल के बीच होने वाले संवाद में भावों के बादलों का कुछ बरसना और कुछ का उड़ते हुए चले जाना, ऐसे हाथ में ब्रश लिए कलाकर हाल-बेहाल सोचता है और सूखते रंगों को निहारता रहता है। एक कलाकृति का बनना और कलाकार का होना, मैंने इसी दौरान सीखा। और, विवान सुदंरम का नाम मेरे दिल पर छा गया। यहां यह बता देना मुनासिब होगा कि अमृता शेरगिल विवान की मौसी थीं।
लेकिन, एक बात रह गयी थी, ‘सेल्फ पोर्ट्रेट’। अमृता ने सेल्फ पोर्ट्रेट कुछ वाटर कलर और थोड़े से ऑयल पेटिंग्स से बनाये थे। यह पेटिंग्स न्यूड है। उनके यह चित्र गोरखपुर सीरीज से एकदम अलग थे। जबकि, मैं पेटिंग्स की दुनिया में न्यूड पोर्ट्रेट को लेकर थोड़े उलझाव में रहता था।
यही समय था, जब हरिपाल त्यागी से मुलाकात हुई। जब मैं इस बारे में उनसे पूछा, तब उन्होंने थोड़ा ठहरते हुए कहा, ‘उस दौर में एक महिला का न्यूड पोर्ट्रेट बनाना, भारत की कला में एक क्रांतिकारी काम था।’ उन्होंने और भी बहुत सारी बातें कहीं। मेरे लिए जो समझ बनी, वह खुद को ‘देखना’ और उसे पेश करना मूल बात थी। इस नजरिये से मैं एक बार फिर विवान की संपादित पुस्तकों की तरफ गया और एक कलाकार को समझने में थोड़ा और करीब हो गया।
इसी से थोड़े समय बाद एक दिन मैं आईटीओ चौराहे से उतर कर पैदल ही शहीद भगत सिंह पार्क की तरफ जा रहा था। रास्ते में टाइम्स ऑफ इंडिया की काफी ऊंची बिल्डिंग है। उस बिल्डिंग के सामने वाले हिस्से के नीचे से लेकर ऊपर तक चमकदार सफेद रंग पर धीरे-धीरे आकृति उभर रही थी। मुझे समझ में नहीं आया कि यह हो क्या रहा है।
उस समय तक वैश्वीकरण की मार भारत पर पूरी तरह पड़ चुकी थी और उससे आई तकनीक का प्रयोग जनता के दमन से लेकर ऊल-जुलूल कामों में खूब हो रहा था। मुझे यही लगा, शायद कुछ आधुनिक तकनीकों का प्रयोग किसी आकर्षक चमक को बनाने के लिए किया जा रहा है। समय गुजरा और वहां गांधीजी का चित्र उभर कर आया। यह गांधी पर उनका पहला काम नहीं था। उन्होंने अन्य कलाकारों के साथ मिलकर 100 चित्रकारों से गांधी के जीवन को लेकर प्रत्येक को 5 आर्ट वर्क करने थे। यह गांधी और उनकी कला से जुड़ी परम्परा को आगे ले जाने वाली धारा थी। यहां कहना ठीक रहेगा कि गांधी कला को जीवन से जोड़कर चलने के एक माध्यम की तरह देखते थे, वह कला कला के लिए है, का घोर विरोध करते थे।
विवान सुंदरम एक संपन्न परिवार में 28 मई, 1943 को जन्मे और अच्छे स्कूलों में पढ़ाई हुई। बड़ौदा विश्वविद्यालय के फाइन आर्ट्स में पढ़ाई किया जहां उन्हें गुलाम मोहम्मद शेख जैसा अध्यापक मिला। वहीं पर भूपेन खक्कर भी अध्यापक थे। यह विभाग भारत की कला की दुनिया में एक विचार को ला रहा था और भारत की चल रही राजनीति से बनने वाले समाज के तनावों से दो-चार हो रहा था।
विवान यहां से पढ़ाई के बाद स्कूल ऑफ आर्ट्स, लंदन चले गये। वहां कला और विचार की नई दुनिया बन रही थी। यह 1966-68 का समय है। यूरोप में राजनीति, कला, विचार, चिंतन, ….सब कुछ उबाल पर था। युवा बेचैन थे। विवान ने मार्क्सवाद का रास्ता पकड़ा और इसी रास्ते से कला का चुनाव किया। भारत में आपातकाल का विरोध किया और कला प्रदर्शिनयां की।
वैश्वीकरण के साथ भारत में जो दंगों की नई आमद आई, उसे लेकर वह बेचैन रहे और उसके खिलाफ काम करते रहे। एकल और समूह में पेटिंग्स प्रदर्शनियां आयोजित की गई। सहमत के निर्माण में मौलिक भूमिका का निर्वाह किया। शहर की जिंदगी को उनके इंस्टालेशन पर उतरना शुरू कर दिया था। वह कला की दुनिया का एक सक्रिय नाम बने रहे।
1970 में युवा होने वाली पीढ़ी के पास जनमुक्ति और जनांदोलन की शानदार विरासत थी। यह पीढ़ी कुछ कर गुजरने के लिए बेचैन थी। उनके पास उस विरासत के साथ सामने आ रही चुनौतियां थीं। आज जब वे इस दुनिया को अलविदा कह रहे हैं, अपनी विरासत छोड़कर जा रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि आज के युवा इसे एक मशाल की तरह उसी तरह पकड़ेंगे जैसा उन्होंने अपने समय में किया था।
आज भी युवा बेचैन है, विरासत की तलाश में वह एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां-जहां तक नजर जाती है, जाम ही जाम नजर आता है, बाहर निकल आने की बेचैनी कभी हिंसक हो रही है और कभी अवसाद में टूट रही है। कलाकार ट्रैफिक सिग्नल पर खड़ा पुलिस तो नहीं है, हां, वह ट्रैफिक के नियमों को चित्र में उतार देने का काम जरूर करता है। ऐसे चित्रकार विवान सुंदरम को विनम्र श्रद्धांजलि!
(अंजनी कुमार लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)