Friday, April 26, 2024

हम हिन्दुस्तानी : जितना भी तुम समझोगे, होगी उतनी हैरानी!

हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक बहुचर्चित और विचारोत्तेजक कविता है-‘देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता’। जिन बेहद गम्भीर आशयों के सिलसिले में उन्होंने देश को लेकर यह व्यवस्था दी है, यहां उनके विश्लेषण का अवकाश नहीं है। हां, इतना कहे बिना आगे नहीं बढ़ना अनुचित होगा कि और देशों की बाबत उनकी यह ‘व्यवस्था’ जैसी भी हो, अपने हिन्दुस्तान की बाबत सौ फीसदी सच्ची है। यह कागज पर बना नक्शा भर होता तो जावेद अख्तर उसके लोगों के बारे में फिल्म ‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ के लिए रचे लम्बे शीर्षक गीत में लिख ही नहीं सकते थे कि: हम लोगों को समझ सको तो समझो दिलबर जानी/ उल्टी सीधी जैसी भी है अपनी यही कहानी/ थोड़ी हममें खुशियां भी हैं/ थोड़ी है नादानी/ थोड़ी हममें सच्चाई है/ थोड़ी बेईमानी!…

जिस देश में अपनी सच्चाई और बेईमानी दोनों की ऐसी बेलौस बयानी करने वाले निराले, कहना चाहिए, मनमौजी, लोग रहते हों, वह कागज पर बना नक्शा हो भी क्यों कर सकता है? खासकर, जब खुद को ‘जन्मजात दार्शनिक’ कहलाने में फख्र महसूस करने वाले ये लोग मिलकर उसको लगातार निरालापन भेंट करते रहते हों। हां, इसके लिए एक से बढ़कर एक दूर की कौड़ियां लाते और बातें भी बनाते हों।

यकीनन, राजनीति हो, साहित्य या समाज का कोई और कोना, इन दूर की कौड़ियों के साथ गहराइयों में उतरे बिना हम हिन्दुस्तानियों से शायद ही कोई बात बनती हो। तभी तो हम उनके लिए बातों के बनते-बनते बिगड़ जाने तक की नौबत झेलने को तैयार रहते हैं-आगे के बजाय भद से पीछे गिर जाने की भी-पर मजाल क्या कि किसी को बातों में खुद से जीत जाने दें। अकारण नहीं कि इधर अपनी विश्वगुरु की पुरानी पोजीशन के लिए भी परेशान रहने लगे हैं। बिना इसकी चिन्ता किये कि कहीं इसके चलते ‘मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंग्लिश्तानी, सिर पै लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’वाली हमारी पहचान ही तो नहीं बदलती जा रही? लोग हम पर हंसने तो नहीं लगे हैं?

वैसे सच्ची कहें तो ‘लोग क्या कहेंगे?’से बेहद डरने वालों के इस देश में हम हिन्दुस्तानियों का हम पर हंसने वालों को भाव न देना भी कोरोना को हराने से छोटी उपलब्धि नहीं है। ऐसा लगता है कि जावेद अख्तर ने अपने उक्त गीत में ‘जितना भी तुम समझोगे, होगी उतनी हैरानी’वाली पंक्ति लिखी तो उनके निशाने पर ये हम पर हंसने वाले लोग ही थे। कौन जाने उन्होंने सोचा हो कि अभी जो ये लोग हम हिन्दुस्तानियों पर हंस रहे हैं, क्या पता हमें कुछ और समझ जायें तो हैरान होकर रोने भी लग जायें!

ऐसे में बेहतर होगा कि न उनके रोने-हंसने पर फैसला सुनाने की जल्दी में पड़ें और न मानें कि ऐसा करके वे हम पर कोई फैसला सुना सकते हैं। एक और शायर की पंक्ति उधार लेकर कहें-‘जल्दी भी क्या है फैसला करने की इस तरह, रह करके पास देखिये यूं भा ही जायें हम!’और बता दें कि अभी तुमने जाना ही नहीं है कि हम वास्तव में क्या चीज हैं? और तो और, हमारे बारे में चन्द चुटकुले भी जान जाओगे तो हंसना-रोना भूल जाओगे, बोलती बन्द हो जायेगी! मिसाल चाहिए तो लो, हाजिर किये देते हैं, पढ़ डालो:

एक बड़ी कान्फ्रेंस में दुनिया भर से बड़े-बड़े वैज्ञानिक इकट्ठा हुए। ज्ञान-विज्ञान की नयी-नयी खोजों की चर्चा होने लगी। रूसी वैज्ञानिक ने कहा-हमने एक ऐसी पनडुब्बी बनाई है जो समुद्र की तली को छूती हुई चलती है।’अमेरिका के वैज्ञानिक ने तुरंत प्रतिवाद किया। कहा-यह कैसे हो सकता है? इस पर रूसी वैज्ञानिक ने गलती सुधारी-अरे, मेरा मतलब था समुद्र की तली से दो सेन्टीमीटर ऊपर से।

अमेरिकी वैज्ञानिक की बारी आई तो उसने कहा-हमने एक ऐसा विमान बनाया है, जो आसमान से बिलकुल सटकर चलता है। रूसी वैज्ञानिक ने कहा-असंभव। आसमान तो कुछ है ही नहीं। शून्य से सटकर कैसे चला जा सकता है? इस पर अमेरिकी वैज्ञानिक ने कहा-अरे भाई, उसके दो सेन्टीमीटर नीचे से।

इस पर हिन्दुस्तानी वैज्ञानिक ने कहा-हम डींग हांकने में विश्वास नहीं रखते। पर हमने आप दोनों से बड़ा वैज्ञानिक चमत्कार किया है। सारे देश को नाक से खाना खाना सिखा दिया है। रूसी और अमेरिकी वैज्ञानिक उस पर एक साथ बरस पड़े-झूठ, सौ फीसदी झूठ। हिन्दुस्तानी वैज्ञानिक ने डांटा-चुप भी रहो। मेरा मतलब है नाक के दो अंगुल नीचे से।

अब कोई जवाब दे तो क्या? इस हिन्दुस्तानी दहले के मुकाबले कोई नहला क्यों कर चलाये?

एक और कान्फ्रेंस में विभिन्न देशों की पुलिस की पेशेवर कार्यकुशलता की चर्चा हो रही थी। एक देश के प्रतिनिधि ने कहा-अपराध और अपराधी कितने भी शातिर क्यों न हों, हमारी पुलिस कुछ घंटों में ही उनकी पोल खोल देती है। दूसरे ने कहा-हमारे देश की पुलिस तो इस काम में कुछ मिनट ही लगाती है।

इस पर हिन्दुस्तान के प्रतिनिधि ने उनकी खिल्ली-सी उड़ाते हुए कहा-हमारे यहां क्या मजाल कि कोई पत्ता भी पुलिस की जानकारी के बगैर खड़क जाये। हर अपराधी को वारदात के चैबीस घंटे पहले अपनी कारस्तानी से हलके की पुलिस को अवगत कराना होता है। इस तरह हमारी पुलिस को हर अपराध के बारे में 24 घंटे पहले ही पता होता है। हां, रहस्योद्घाटन की टाइमिंग वह जब और जैसे चाहे तय करे। जाहिर है कि हिन्दुस्तान के प्रतिनिधि की धाक जम गयी और बाकी देशों के प्रतिनिधियों को चुल्लू भर पानी भी नहीं मिला।

कान्फ्रेंस की बात चली है तो डॉक्टरों की एक कान्फ्रेंस का किस्सा भी सुन लीजिए। उसमें एक विदेशी ने कहा, क्या बतायें, हमारे यहां तो डॉक्टर किसी मरीज का निमोनिया का इलाज करते हैं तो वह किसी और मर्ज से मर जाता है। इस पर हिन्दुस्तानी ने खुश होकर कहा-हमारे देश में तो ऐसा कभी नहीं होता। हमारे डाक्टर किसी मरीज का निमोनिया का इलाज करते हैं, तो उसको निमोनिया से ही मरना पड़ता है।

अब एक हिन्दुस्तानी सरदार का किस्सा। वे इंगलैंड गये तो वहां एक अंग्रेज से उन्हें चिढ़ाने के लिए कहा-‘‘सरदार जी, एक बात पूछूं?’’

सरदार ने कहा-हां, हां, पूछो, पूछो।

अंग्रेज ने पूछा-हिन्दुस्तान के झण्डे में तीन रंग होते हैं न?

-हां, हां होते तो तीन ही हैं।

-इसमें सफेद रंग ईसाइयों का है?

-होगा।

-और लाल हिन्दुओं का।

-होगा, मगर तुमसे क्या? झण्डा हिन्दुस्तान का है, तो हिन्दुओं का रंग भी होगा ही।

-और हरा रंग मुसलमानों का होगा? अंग्रेज ने उसी रौ में पूछा।

अब सरदार झल्ला पड़े-अरे भाई, झंडा हमारा, रंग हमारे। यह हमारा आपसी मामला है। कोई भी रंग किसी का हो, तुमसे क्या लेना देना?

मगर अंग्रेज तो जैसे उन्हें खिझाने पर ही तुला था। उसने कहा-पर हैरत की बात है कि इसमें आपका यानी सरदारों का कोई रंग नहीं है।

उसे उम्मीद थी कि इस बेतुके सवाल पर सरदार को कोई जवाब नहीं सूझेगा। मगर सरदार ने एक पल सोचा और कहा-उस झंडे का डंडा सरदारों का नहीं तो किसके बाप का है?

फिर तो अंग्रेज से कुछ कहते नहीं बना। कैसे कहता कि डंडा सरदारों का नहीं उसका है?

खेलने कम और खेलाने ज्यादा में तो हम हिन्दुस्तानियों का दुनिया भर में कोई सानी नहीं। होता तो प्रेमचन्द को ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी की प्रेरणा कहां से मिलती? ‘शतरंज के खिलाड़ी’ जिस लखनऊ की कहानी है, एक बार उसी में तीन पतंगबाज इकट्ठा हुए। दो विदेशी एक हिन्दुस्तानी। एक विदेशी ने कहा-मेरे उस्ताद एक ही पतंग से दसों पतंगें काट दिया करते थे। दूसरे ने कहा-मेरे उस्ताद की पतंग तो कभी उनकी जिन्दगी में कटी ही नहीं। हिन्दुस्तानी ने सीना फुलाकर कहा-छोड़ो भी ये चोंचले, मेरे उस्ताद ने तो कभी पतंग में डोर लगायी ही नहीं। सारी जिन्दगी बिना डोर के ही पतंग उड़ाते रहे।

अब विदेशी क्या जवाब देते? बेपर की उड़ाने में हिन्दुस्तानियों का मुकाबला कौन कर पाया है आज तक? कर पाता तो ज्यों कदली के पात में पात में पात, त्यों चतुरन की बात में बात, बात में बात कहकर उनकी तारीफ क्योंकर की जाती?

हमारे आज तक के ज्ञात इतिहास में हिन्दुस्तानियों पर और कितनी भी तोहमतें लगाई गई हों, यह तोहमत कभी नहीं लगाई गई कि उन्हें बात में से बात निकालना नहीं आता। किसी ने नहीं कहा आज तक कि खुद को विश्वगुरू मानने वाले हिन्दुस्तानियों को तो बातें बनाने, बिगाड़ने या घुमाने-फिराने का भी शऊर नहीं। दुनिया जानती है कि हम हिन्दुस्तानी आंखों से काजल भी निकाल लेते हैं और बाल की खाल भी। तभी तो दुनिया कुछ भी कहती और करती रहे, हम उसकी चिंता नहीं करते। दुनिया को जरूर हमारी चिंता होती रहती है।

एक ऐसा ही चिंताग्रस्त विदेशी हिन्दुस्तान आया तो उसने एक जगह लोगों की लम्बी लाइन लगी देखी। पूछा-यह क्या हो रहा है? उसे बताया गया-एक फिल्म की शूटिंग हो रही है। बाद में उसने छोटी-बड़ी कई और लाइनें भी देखीं। मामला कुछ समझ में नहीं आया तो जहां से शुरू किया था, फिर वहीं जा पहुंचा। पूछा-अरे, इतने बड़े पैमाने पर जो फिल्म आप लोग शूट कर रहे हैं, उसका नाम क्या है? उसे बताया गया-‘हम हिन्दुस्तानी’।

बताते हैं कि यह सुनकर विदेशी इतना अभिभूत हुआ कि उसने हिन्दुस्तान में ही प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया। सोचा-कहीं किसी ऊंची जगह से नदी में छलांग लगा देगा। इच्छित जगह पर गया। कूदने ही वाला था कि पीछे से किसी हिन्दुस्तानी ने उसका गिरेबान पकड़ लिया और कहा, ‘अबे, मैं तुझसे पहले से लाइन में लगा हूं। तू मेरे ही देश में मुझसे पहले क्यों कूदना चाहता है?’

विदेशी हक्का-बक्का रह गया। उसके मुंह से बोल नहीं फूटे।

आप चाहें तो कह लीजिए कि यह वारदात देश में सेवाओं व सुविधाओं के ऑनलाइन होने से पहले की है। लेकिन इस खांटी हिन्दुस्तानी तर्क का क्या करेंगे कि ऑनलाइन भी आखिरकार नानलाइन तो नहीं ही है, उसमें भी लाइन लगाने की गुंजायश है ही। लाइन मारने की भी हो तो ताज्जुब नहीं।

(कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और अयोध्या में रहते हैं।)

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