जाने-माने लेखक, समीक्षक और समकालीन समस्याओं पर समान रूप से कलम चलाने वाले पत्रकार जाहिद खान की हाल ही में आई किताब ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े साहित्यकारों, रंगकर्मियों और कलाकारों के रचनात्मक योगदान, तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक प्रश्नों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को गंभीर रूप से पाठकों के सामने रखती है। लेखक का प्रगतिशील आंदोलन से कितना गहरा लगाव है, यह किताब का समर्पण पढ़कर समझ में आता है। किताब मराठी भाषा के लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे, रंगकर्मी राजेंद्र रघुवंशी और शायर साहिर लुधियानवी को समर्पित की गई है। जिन्होंने आजीवन प्रगतिशील आंदोलन की भूमिका को अपनी कला के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया।
किताब में प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े 29 रचनाकारों के योगदान पर चर्चा मिलती है। इस किताब के पूर्व ज़ाहिद ख़ान की साल 2016 में उद्भावना प्रकाशन से प्रकाशित किताब ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ इसी विषय से जुड़ी हुई एक और महत्वपूर्ण किताब है। यानी ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ लेखक द्वारा प्रगतिशील आंदोलन पर लिखी हुई दूसरी किताब है। किताब में हसरत मोहानी, जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरख़पुरी, एहसान दानिश, सैयद मुत्तलबी जैसे शायर और यशपाल, अहमद नदीम क़ासमी, रांगेय राघव जैसे कथाकार तो मुज़्तबा हुसैन जैसा व्यंग्यकार, डॉ नामवर सिंह, खगेंद्र ठाकुर जैसे आलोचक एवं अण्णाभाऊ साठे, अमर शेख़, बलराज साहनी, राजेंद्र रघुवंशी जैसे रंगकर्मियों के रचनात्मक योगदान पर विस्तृत चर्चा मिलती है।
किताब के आरंभ में ही लेखक ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के इतिहास पर विस्तार से चर्चा करते हुए, इस संगठन की स्थापना के पूर्व की वैश्विक परिस्थितियों और प्रलेस की स्थापना के ऐतिहासिक कारणों पर बात करते हुए यह बताया है कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी, इटली, फ्रांस, ऑस्ट्रिया जैसे देशों में जो भयावह परिस्थितियां उत्पन्न हुई थीं, उनसे उबरने के लिए वहां के साहित्यकारों ने एक सांस्कृतिक मोर्चा बनाया। जिससे प्रभावित होकर लंदन में शिक्षा ले रहे भारतीय सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद, प्रमोद सेन गुप्त, डॉ.ज्योति घोष, मोहम्मद दीन तासीर ने मिलकर लंदन में प्रलेस की स्थापना की। फ़िर साल 1936 में सज्जाद ज़हीर ने लंदन से भारत लौट आने के बाद, प्रलेस के प्रथम अधिवेशन की तैयारी की। जो 9 और 10 अप्रैल को प्रेमचंद जी अध्यक्षता में लखनऊ में संपन्न हुआ।
प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल लेखकों ने लेखन को सामाजिक बदलाव का हथियार माना। इस संगठन से जुड़े तमाम शायर, कथाकार, रंगकर्मी केवल रचनाकार ही नहीं थे बल्कि सच्चे, जुझारू देशभक्त, सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। वह विषमता प्रधान समाज व्यवस्था के कड़े विरोधी थे। आज़ादी का आंदोलन हो, देश में निहित तमाम सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक समस्याएं हों इन रचनाकारों ने बड़ी मार्मिकता से अपनी रचनाओं में इन सब समस्याओं का चित्रण किया है। वह केवल लिखने तक सीमित नहीं थे, इन रचनाकारों ने प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक कार्य, आज़ादी के आंदोलन में सहभाग भी लिया है। यह बात हमें किताब पढ़ते समय मालूम चलती है।
किताब की उपयुक्तता आज के दौर में और भी ज्यादा है। क्योंकि, आज राजनीतिक संकीर्णता के कारण समग्र आज़ादी के आंदोलन पर ही प्रश्नचिन्ह उपस्थित किया जा रहा है। आज़ादी के आंदोलन में मर मिटने वाले महान नायकों के कार्य को नकारा जा रहा है। ऐसे हालात में इस किताब को पढ़ने वाले पाठक कई ऐतिहासिक सच्चाईयों से वाकिफ़ होंगे। आज़ादी का आंदोलन कितना व्यापक और ऐतिहासिक था ?, यह किताब पढ़ते समय समझ में आता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि आज़ादी के आंदोलन में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सभी जाति, धर्म, पंथ के लोगों और साहित्यकारों ने असीम निष्ठा के साथ अपना योगदान दिया था।
जोश मलीहाबादी, अली सरदार जाफ़री, सैयद मुत्तलबी जैसे बड़े शायरों को आज़ादी के आंदोलन में ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ क़लम चलाने की वजह से ज़ेल जाना पड़ा। तो फ़िराक़ गोरख़पुरी ने देशभक्ति की ख़ातिर अंग्रेजी हुक़ूमत की नौकरी ठुकरा दी थी, शायर हसरत मोहनी ने सबसे पहले ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ की घोषणा के साथ ‘संपूर्ण स्वराज’ की मांग भी की थी। मजाज़ लखनवी जैसे शायर ने अपनी राष्ट्रभक्ति ज़ाहिर करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की मौत के बाद अपने ग़म, गुस्से और मातम को अभिव्यक्त करते हुए लिखा था,’हिंदू चला गया न मुसलमान चला गया/इंसान की जुस्तुजू में एक इंसान चला गया।’ ऐसे रचनाकारों के योगदान को कभी भुलाया जा सकता है ?
प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कथाकार प्रेमचंद ने कहा था,’वही सच्चा साहित्य है जिसमें उच्च चिंतन हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करें’। प्रेमचंद के विचारों के अनुसार प्रलेस से जुडे सभी रचनाकारों ने तत्कालीन सामाजिक विडंबना, धार्मिक संकीर्णता, अंधविश्वास का विरोध अपनी रचनाओं के माध्यम से किया। किताब में ज़ाहिद ख़ान ने प्रलेस और इप्टा से जुड़े सभी रचनाकारों के साहित्यिक योगदान पर चर्चा करते हुए उन लेखकों, शायरों, रंगकर्मियों की सामाजिक भूमिका, उच्च वैचारिक चिंतन पर विस्तृत बहस की है। शायर वामिक जौनपुरी पर लिखे लेख में हमें मालूम चलता है कि उन्होंने नज़्म ‘भूखा है बंगाल..’ इस संवेदनशीलता के साथ लिखी कि उसे गा-गाकर इप्टा के कलाकारों ने बंगाल अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया।
यह नज़्म अकाल में भूख से तड़प रहे लाखों लोगों के लिए मरहम का काम करती रही। भला इससे और ज्यादा साहित्य की उपयोगिता क्या हो सकती है ? यह भी सर्व विदित है कि प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े सभी साहित्यकार, कलाकार मार्क्सवाद से प्रभावित थे। इस वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से उनकी रचनाओं में सामाजिक समानता की चर्चा बार-बार मिलती है। सदियों से शोषित किसानों, मज़दूरों, महिलाओं और दलित वर्ग के प्रति उनके मन में सहनुभूति थी। शायर एहसान दानिश मज़दूरों के हक़ को लेकर इतने सचेत थे कि उन्हें ‘शायरे मज़दूर’ कहा गया। उनका मज़दूर, उपेक्षित लोगों से कितना जुड़ाव था, यह बताते हुए जाहिद खान लिखते हैं, ‘उनकी ग़ज़लों और नज़्मों की किताब के पहले सफ़्हे पर उनके नाम के साथ हमेशा ‘शायर—ए—मज़दूर’ लिखा होता था।’ मज़दूरों के साथ ही अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के शोषण के शिकार भारतीय किसानों के दर्द और ग़म को भी इन रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में तरज़ीह दी है। किताब में शामिल एक लेख लोक शायर सय्यद मुत्तलबी फ़रीदाबादी पर है। जिन्होंने अपने इलाके में किसान आंदोलन को संगठित करने का काम किया। परिणामस्वरूप उन्हें कई बार ज़ेल जाना पड़ा।
किताब में पं.नरेंद्र शर्मा, चंद्रकांत देवताले जैसे सामाजिक प्रतिबद्धता के कवियों पर लिखे हुए लेख पढ़ते समय यह पता चलता है कि एक कवि कविता लिखने के साथ-साथ कितना कुछ कर सकता है। साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भाग लेने वाले पं.नरेंद्र शर्मा ने आजीवन अपनी कविता के माध्यम से अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ ज़मकर लिखा। उनकी कविताओं में किसानों, मजदूरों के प्रति तीव्र संवेदना दिखाई देती है। वहीं चंद्रकांत देवताले के लिए कविता लिखना उनकी नियति थी। कविता के बिना वे ज़िंदा नहीं रह सकते थे। अपनी कविताओं के माध्यम से साम्राज्यवादी नीति का विरोध करनेवाले इस कवि ने तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की भारत यात्रा का कड़ा प्रतिवाद करते हुए, ‘बुद्ध के देश में बुश’ कविता लिखी थी।
इसी कारण लेखक जाहिद खान, चंद्रकांत देवताले को जनवादी कवि कहते हैं। जो अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहेंगे। किताब के अंतिम लेखों में प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक मुल्कराज आनंद, महाराष्ट्र की भूमि में पैदा हुए लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे, अमर शेख़ और अभिनेता बलराज साहनी, राजेंद्र रघुवंशी पर लेख हैं। अण्णाभाऊ और अमर शेख ने अपने पोवाड़ो, लावणी के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन में बड़ा योगदान दिया। ‘लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे’ पर लेख में लेखक बताता है कि, ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में अण्णाभाऊ के पोवाड़ा, तमाशा का बहुत बड़ा योगदान था। क्योंकि वे जनता को जनता की ज़बान में संबोधित करते थे।’
इस प्रकार ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ को पढ़कर कहा जा सकता है कि लेखक ज़ाहिद ख़ान ने प्रगतिशील आंदोलन से प्रतिबद्धता और जनवादी कविता से गहरा जुड़ाव होने के कारण इस विषय पर गहन अनुसंधान करते हुए, इस आंदोलन से जुड़े हुए तमाम रचनाकारों को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। प्रवाही भाषा शैली में लिखी इस किताब को पढ़ना पाठकों के लिए अपने आप में एक अनूठा अनुभव है। जब ज़ाहिद ख़ान उर्दू शायरों पर लिखते हैं, तो उनकी भाषा में उर्दू प्रधानता दिखाई देती है और जब वह हिंदी साहित्यकारों पर अपनी कलम चलाते हैं, तो शुद्ध हिंदी की भरमार दिखाई देती है। यह लेखक के भाषायी कला कौशल का कमाल है। कुल मिलाकर किताब ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ सामाजिक प्रतिबद्धता के चहेते, आज़ादी के आंदोलन को समझने के लिए उत्सुक और हर तरह के शोषण के विरोधी पाठकों को पसंद आयेगी, इसमें कोई संदेह नहीं।
किताब समीक्षा : ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’, लेखक : ज़ाहिद ख़ान,
प्रकाशक : लोकमित्र प्रकाशन नई दिल्ली, मूल्य : 250, पेज : 224
( डॉ.जयराम सूर्यवंशी नांदेड़ स्थित संत गाडगे महाराज महाविद्यालय में अध्यापक हैं।)
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