क्योंकि उनकी जेहनियत में है समर्पण!

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पीएम नरेंद्र मोदी ने कल कह दिया कि न तो कोई घुसपैठ हुई है और न ही किसी चौकी पर कब्जा हुआ है। यह बात कहीं और नहीं बल्कि उन्होंने बाकायदा सर्वदलीय बैठक बुला कर कही है। दिलचस्प बात यह है कि इसमें उन्होंने चीन का नाम भी लेना जरूरी नहीं समझा। अब तक के आए सारे बयानों में उन्होंने कभी चीन का नाम नहीं लिया। यहां तक कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी तब से यही भाषा बोल रहे हैं। बगैर चीन का नाम लिए ही उन्होंने झड़प में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि दे दी थी।

बल्कि उनका बयान आने के तुरंत बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस पर सवाल भी उठाया था। लेकिन पीएम के ताजा बयान ने उनकी मंशा साफ कर दी है। दरअसल पीएम ने अपने इस एक बयान के जरिये गलवान घाटी को थाली में सजा कर चीन को दे दिया। वह खूबसूरत घाटी जिसमें गलवान नदी बहती है। और जहां बॉलीवुड की तमाम फिल्मों की शूटिंग हुई है। उसे मोदी अब अपना नहीं मानते।

यही बात तो चीन भी कह रहा है। उसके विदेश मंत्री ने खुला बयान जारी किया है जिसमें उन्होंने गलवान घाटी को अपना हिस्सा बताया है। साथ ही चेतावनी देते हुए कहा है कि इसमें भारत की तरफ से किसी भी तरह की दखलंदाजी उसकी संप्रभुता का उल्लंघन होगा। फिर तो पीएम मोदी चीन का ही पक्ष मजबूत कर रहे हैं।

लेकिन पीएम के इस बयान के बाद सवालों का सोता फूट पड़ा है। जिसका जवाब मोदी और उनकी सरकार को देना ही होगा। लोग पूछ रहे हैं कि मोदी जी अगर कोई घुसपैठ नहीं हुई तो फिर लड़ाई किस बात की है? चीन के साथ एक के बाद दूसरे दौर की वार्ता क्यों हो रही है? हमारे 20 सैनिकों को क्या शहादत का शौक चर्राया था जो बगैर किसी झगड़े और घुसपैठ के मोर्चे पर चले गए? या फिर बहुत सालों से भारतीय सैनिक बंधक नहीं बने थे इसलिए उन्होंने चीनी सैनिकों को कह दिया कि आप मुझे बंधक बना लीजिए। और उन्होंने दो अफसरों समेत 10 सैनिकों को अपने कब्जे में ले लिया। हालांकि उन्हें छुड़ाने के लिए भारतीय सैन्य टीम को बातचीत में तीन दिनों तक चीनी वार्ताकारों के साथ मशक्कत करनी पड़ी। फिर जाकर उनकी रिहाई हो पायी।

यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी सैनिक का युद्ध बंदी बनाया जाना खुद उसके अपने और देश के लिए सबसे बड़ा अपमान होता है। भारत के साथ यह वाकया सिर्फ 1962 के युद्ध में घटा था। लेकिन वह एक घोषित युद्ध था। बावजूद इसके पाकिस्तान के साथ चार-चार युद्ध लड़े गए लेकिन एक बार भी किसी भारतीय सैनिक को युद्धबंदी नहीं बनना पड़ा। ऊपर से बांग्लादेश वार में 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को भारत ने जरूर युद्धबंदी बनाया था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक साथ इतने सैनिकों का किसी एक देश द्वारा युद्धबंदी बनाया जाना अपने आप में एक रिकॉर्ड है। लेकिन मोदी सरकार ने उस पूरी गौरवशाली परंपरा को मिट्टी में मिला दिया। और अब वह एक सफेद झूठ बोलकर पूरे मामले से पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। लेकिन उनके ऐसा करने से जमीनी सच्चाई तो बदल नहीं जाएगी। वह जस की तस बनी रहेगी। उसका सबसे बड़ा सच यही है कि चीन ने भारत की 50 से 60 वर्ग किमी जमीन पर कब्जा कर लिया है। और इस कड़ी में हमारे 20 सैनिक शहीद हो चुके हैं।

पीएम से ज़रूर यह बात पूछी जानी चाहिए कि अब जबकि भारत की कोई जमीन नहीं गयी है और न ही कोई चौकी तबाह हुई है तब फिर दोनों देशों के बीच हो रही सैनिक वार्ताओं का क्या तुक है। आखिर दोनों पक्षों के सैनिक क्या शौकिया मेज पर बैठ रहे हैं। कई वार्ताओं के फेल होने और फिर उच्च स्तरीय अफसर के साथ शुरू होने की जो खबरें आयीं क्या वह सब झूठी थीं?

देश के रिटायर्ड उच्च सैन्य अधिकारी जिन्होंने अपनी जिंदगियां उन जगहों पर बिताई हैं क्या उनकी रिपोर्टें भी गलत थीं? कर्नल (रि.) अजय शुक्ला गलत थे या फिर एचएस पनाग जिन्होंने सेना को अपना पूरा जीवन दे दिया, झूठ बोल रहे हैं?

दरअसल चीन के रुख को देखते हुए पीएम मोदी को समझ में आ गया था कि अब गलवान घाटी को चीन से छुड़ाना इतना आसान नहीं है। और उसके लिए अगर युद्ध में भी गए तो फिर उसका बड़ा नुकसान होगा। और आखिर में राजनीतिक खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ेगा। ऐसे में अगर वह स्वीकार कर लेते हैं कि गलवान घाटी पर चीन का कब्जा है और वह घाटी कभी भारत के नियंत्रण में थी तो फिर उसे युद्ध हो या कि बातचीत किसी भी कीमत पर छुड़ाने का एक स्थाई दबाव उन पर बना रहता। और नहीं छुड़ा पाए तो इस स्थायी कलंक के साथ मरेंगे। लेकिन अब जबकि उन्होंने उसके कब्जे से ही इंकार कर दिया है तो फिर इस दबाव से कम से कम वह मुक्त हो गए हैं। और वार्ता की कड़ी में चीन के साथ मिन्नतें करके जितना हासिल कर लेंगे वह उनका होगा।

लेकिन सैन्य भाषा में इसे समर्पण कहते हैं। मोदी ने चीन के सामने बिल्कुल सरेंडर कर दिया। बगैर लड़े 60 वर्ग किमी जमीन चीन को थाली में रख कर सौंप दी। 20 सैनिकों को तो सिर्फ इसलिए शहीद करवा दिया गया जिससे भविष्य के इस कलंक से बचा जा सके कि बगैर लड़े जमीन चली गयी। लेकिन सच्चाई यह है कि वह लड़ाई नहीं बल्कि एक तरह की खुदकुशी थी जिसे ग्राउंड पर मौजूद सैन्य अफसरों और दिल्ली में बैठे राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान ने मिलकर अंजाम दिया है। तीन हजार चीनी सैनिकों के सामने 200-250 सैनिकों को निहत्थे मोर्चे पर भेजा जाना इसका सबसे बड़ा सबूत है। पूरे देश और उसकी जनता को उन सैनिकों से माफी मांगनी चाहिए। सरकार से क्या मांग करना। वह तो खुद उनकी हत्या की अपराधी है। सरकार के हाथ सैनिकों के खून से लाल हैं। लिहाजा चीनी सैनिकों से पहले यह दोष फैसला लेने वाले उन अफसरों और राजनीतिक प्रतिष्ठान को जाता है जिन्होंने उन्हें भेजने का फैसला लिया था।

बहरहाल मोदी का कल का बयान उनकी राजनीतिक-वैचारिक परंपरा का ही हिस्सा है। जिसका इतिहास लड़ाई की जगह समर्पण का रहा है। वह आजादी की लड़ाई हो या कि आपातकाल के खिलाफ संघर्ष। उनके राजनीतिक पुरखे हमेशा पीठ ही दिखाए हैं।

आजादी की लड़ाई में आरएसएस कभी शरीक नहीं हुआ। और हमेशा अंग्रेजों का साथ दिया। और जब, जहां अंग्रेजों को दंगों की जरूरत पड़ी संघ ने उसके हथियार का काम किया। इनके आदर्श सावरकर कितने वीर थे वह उनके छह-छह माफ़ीनामे बताने के लिए काफी हैं। और अंत में जब अंग्रेजों के सामने नाक रगड़ने के बाद रिहाई मिली तो पूरा जीवन उनकी ही सेवा में लगा दिए। और आखिर में उनके सीने पर गांधी की हत्या के आरोपी होने का एक मात्र ‘तमगा’ है। आपातकाल में जब इनके शीर्ष नेता पकड़े गए तो जेल में रहने की जगह उन लोगों ने तत्काल बीमारी के बहाने अपनी अस्पतालों में व्यवस्था करा ली। और इस तरह से 19 महीने की मस्ती के बाद जनता पार्टी सरकार में सत्ता की मलाई काटे। लिहाजा उनके वारिसों से किसी साहस और बड़े संघर्ष की उम्मीद करना बेमानी है। और सीना भले ही मोदी का 56 इंच का हो लेकिन जेहन में समर्पण का खून है। वही चीज है जो उन्हें आगे बढ़ने नहीं देती।

लेकिन एक बात अंत में बताना जरूरी है। मोदी भले हार गए हों। राजनीतिक सत्ता ने भले ही समर्पण कर दिया हो। लेकिन देश की सेना नहीं हारी है और न ही जनता ने अपना हौसला खोया है। अपनी मातृभूमि की एक-एक इंच की रक्षा के लिए वह आखिरी वक्त तक अपनी कुर्बानी देने के लिए तैयार है। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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