अमेरिकाः ‘ट्रंप फोबिया’ भारी पड़ेगा या लोगों का आम तजुर्बा?  

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ऊपरी तौर पर यह महसूस हो सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला कड़ा है, जिसमें डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार, उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस को मामूली बढ़त हासिल है।

ऐसी धारणा चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षणों में राष्ट्रीय स्तर पर संभावित प्रतिशत के जताए गए अनुमान से बनी है। मगर अमेरिका में राष्ट्रीय स्तर पर मिले वोट कम ही मायने रखते हैं। दो तथ्य ध्यान में रखने चाहिएः

  • 2016 में डेमोक्रेटिक प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन को रिपब्लिकन डॉनल्ड ट्रंप से लगभग 27 लाख ज्यादा वोट मिले थे। लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप चुने गए। 
  • इसके पहले साल 2000 में डेमोक्रेट एल गोर को रिपब्लिकन जॉर्ज डब्लू. बुश जूनियर से तकरीबन पांच लाख वोट अधिक मिले। मगर राष्ट्रपति बुश बने। 
  • अमेरिका के 248 साल के इतिहास में पहले भी कुछ मौकों पर ऐसी विसंगति देखने को मिल चुकी है। 

यह विगसंगति वहां की चुनाव प्रणाली के कारण संभव हो जाती है। वहां जिस रोज मतदान होता है, उस दिन मतदाता सीधे राष्ट्रपति चुनने के लिए नहीं, बल्कि एक इलेक्ट्रॉल कॉलेज (निर्वाचक मंडल) के सदस्य चुनने के लिए मतदान करते हैं। ऐसे 538 सदस्य निर्वाचित होते हैं।

हर राज्य उतने सदस्य चुनता है, जितने वहां से हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव और सीनेट के लिए मिला कर कुल सदस्य चुने जाते हैं। अमेरिकी संसद के इन दोनों सदनों में से हाउस के लिए हर राज्य अपनी आबादी के अनुपात में सदस्य चुनता है, जबकि सीनेट के लिए हर राज्य दो सदस्य चुनता है। 

इस बार इलेक्ट्रॉल कॉलेज की बैठक 17 दिसंबर को होगी, जिसमें निर्वाचक मंडल के सदस्य राष्ट्रपति का चयन करेंगे। चूंकि इन सदस्यों का निर्वाचन दलीय आधार पर होता है, इसलिए मतगणना के साथ ही यह तय हो जाता है कि निर्वाचक मंडल की बैठक में कौन चुना जाएगा।

राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए जरूरी है कि डेमोक्रेटिक या रिपब्लिकन पार्टी अपने कम से कम 270 निर्वाचक चुनवाने में कामयाब रहे।  

अमेरिका में राजनीति इतनी ध्रुवीकृत होती गई है कि अधिकांश राज्यों में सियासी रुझान लगभग स्थिर हो गया है। इनके बीच कुछ ही ऐसे राज्य हैं, जो पाला बदलते रहते हैं। इन्हीं बैटल ग्राउंड, या टॉस अप या स्विंग स्टेट कहा जाता है। इस बार ऐसे सात राज्य हैं और आम समझ है कि राष्ट्रपति कौन बनेगा, इसका निर्धारण इन्हीं राज्यों के चुनाव परिणाम से होगा।     

ओपिनियन पोल्स के मुताबिक इन राज्यों का रुझान अब तक काफी साफ हो चुका है। (हर देश की तरह अमेरिका में भी ओपिनियन पोल गलत होते हैं। 2016 में वे पूरी तरह गलत हुए। बारीक विश्लेषण किया जाए, तो 2020 में भी उन्हें नाकाम ही माना जाएगा। इसलिए यह संभव है कि जो तस्वीर फिलहाल साफ दिख रही है, पांच नवंबर को यानी मतदान के दिन वह गलत साबित हो जाए।)

फिलहाल, साफ संकेत हैं कि हवा का रुख डॉनल्ड ट्रंप के पक्ष में है। ट्रंप अपने समर्थक समूहों में उत्साह भरने में कामयाब हैं, जबकि स्विंग वोटर्स का भी बड़ा हिस्सा उनकी तरफ खिंचता दिखा है। डेमोक्रेट्स के साथ उलटी स्थिति है। उनके परंपरागत समर्थक कई समूह इस बार पार्टी को दंडित करने का मूड बनाए हुए हैं। 

तो आखिर क्या मुद्दे हैं, जो ट्रंप के पक्ष में काम करते दिख रहे हैं या जो हैरिस के पक्ष में जाते दिख रहे हैं? आइए, इनका एक आकलन करते हैः

हैरिस की ताकत 

  • कमला हैरिस के पक्ष में गया सबसे प्रमुख मुद्दा गर्भपात का अधिकार है। 1973 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से महिलाओं को यह कानूनी अधिकार मिला था। लेकिन 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने 1973 के फैसले को पलट दिया। अब हैरिस वह अधिकार फिर से महिलाओं को दिलवाने के वादे के साथ चुनाव लड़ रही हैं। तमाम संकेत हैं कि इस मुद्दे पर उन्हें महिलाओं का बड़ा समर्थन मिला है। अनुमान है कि मतदान में भी वे महिलाओं की पहली पसंद बनेंगी। 
  • उनके पक्ष में गया दूसरा मुद्दा ‘ट्रंप फोबिया’ है। डेमोक्रेटिक पार्टी और उसके समर्थक मीडिया ने डॉनल्ड ट्रंप को लोकतंत्र के लिए खतरा, विज्ञान विरोधी और देश को बांटने वाली शख्सियत के रूप में पेश करने का अभियान चलाए रखा है। संकेत हैं कि इसका असर हुआ है। खासकर पढ़े-लिखे मतदाता सिर्फ इसलिए हैरिस को वोट दे सकते हैं, क्योंकि ट्रंप उन्हें देश के लिए खतरा मालूम पड़ते हैं। 2022 के संसदीय और प्रांतीय चुनावों में ‘ट्रंप फोबिया’ एक कारगर मुद्दा साबित हुआ था। 

ट्रंप को लाभ 

  • उधर ट्रंप ने जिन मुद्दों पर अपने पक्ष में माहौल बनाया है, उनमें सबसे प्रमुख अर्थव्यवस्था है। जो बाइडेन प्रशासन अर्थव्यवस्था के ऊपरी आंकड़ों के आधार पर अपनी सफलता का दावा करता रहा है। हैरिस इसी का ढोल पीट रही हैं। मगर हकीकत यह है कि महंगाई, अर्ध रोजगार के फैले चलन, ऊंची ब्याज दरों के कारण आम लोगों पर पड़े बोझ आदि के कारण बहुसंख्यक आबादी की जिंदगी मुहाल हुई है। ऐसे लोग ट्रंप काल के रिकॉर्ड को भूल कर फिलहाल डेमोक्रेट्स से छुटकारा पाना चाहते हैं।
  • ट्रंप ने अवैध आव्रजन को इस चुनाव में जज्बाती मुद्द बना दिया है। दोनों दलों की लंबे समय से चली आ रही आर्थिक नीतियों से बदहाल हुए बहुत से लोगों को वे यह कह कर गुमराह करने में सफल होते नजर आए हैं कि समस्या की जड़ अवैध आव्रजक हैं, जिन्हें बाइडेन-हैरिस प्रशासन का संरक्षण मिला हुआ है। उन्होंने आरोप लगाया है कि बड़े पैमाने पर ऐसे आव्रजक अपराध में शामिल हैं, जबकि डेमोक्रेट्स इनके जरिए देश की सियासी सूरत अपने पक्ष में करने की साजिश रचे हुए हैं। 
  • यह विडंबना ही है कि ट्रंप इस चुनाव में खुद को “शांति का उम्मीदवार” (peace candidate) के रूप में पेश करने में काफी हद तक सफल हुए हैं। उनके इस दावे पर ध्यान दिया गया है कि वे राष्ट्रपति होते, तो यूक्रेन और इजराइल-फिलस्तीन के युद्ध नहीं होते। दोबारा राष्ट्रपति बनने पर इन युद्धों को अविलंब रोक देने का दावा भी वे अक्सर करते हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर “युद्ध उन्मादी” डेमोक्रेटिक पार्टी की हैरिस जीतीं, तो तीसरा विश्व युद्ध अवश्यंभावी है। लोगों की उनकी बात में दम नजर आया है कि बाइडेन प्रशासन “युद्ध उन्मादी” है और उसकी वजह से तीसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडरा रहा है। (Why Foreign Policy is the Biggest Issue This November)

यह भी विडंबना है कि मिशिगन राज्य में (जो एक अति महत्त्वपूर्ण बैटल ग्राउंड स्टेट है) मुस्लिम समुदाय के एक बड़े संगठन ने खुलेआम ट्रंप का समर्थन करने का एलान किया है। (https://x.com/SanaSaeed/status/1850705346735575537

अमेरिकी सियासत में परंपरागत रूप से ब्लैक, अल्पसंख्यक और महिलाएं डेमोक्रेटिक वोटर रहे हैं। लेकिन इस बार डेमोक्रेटिक पार्टी के इस वोट आधार में सेंध लग गई है।

जिन समुदायों में सेंध लगी है, उनमें भारतीय मूल के अमेरिकी भी हैं। कारनेगी एन्डॉवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के लिए यू-गोव के एक ताजा सर्वे के मुताबिक इस चुनाव में 61 प्रतिशत भारतीय-अमेरिकी ही डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन कर रहे हैं, जबकि 2020 में यह संख्या 68 प्रतिशत थी।

दो दशक पहले तक 90 फीसदी तक भारतीय-अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक होते थे। (Indian Americans at the Ballot Box: Results From the 2024 Indian American Attitudes Survey – Carnegie Endowment for International Peace | Carnegie Endowment for International Peace)

मुस्लिम- खासकर अरब मूल के मुस्लिम समुदाय में नाराजगी का सबसे बड़ा कारण गजा और लेबनान में इजराइली मानव संहार को बाइडेन प्रशासन की तरफ से दिया गया बिना शर्त समर्थन है। चूंकि यह सवाल अभी दुनिया भर में छाया हुआ है, तो उसका असर अमेरिका में यूनिवर्सिटी छात्रों और आम नौजवान मतदाताओं पर भी देखा गया है।

ये मतदाता हैरिस को वोट ना देने का संकल्प जताते दिखे हैं। कुछ राज्यों में इन लोगों ने uncommitted (किसी के प्रति वचनबद्ध नहीं) समूह बनाया है और कुछ राज्यों में ये लोग ग्रीन पार्टी की जिल स्टाइन (वे भी चुनाव लड़ रही हैं) का समर्थन कर रहे हैं। 

हालांकि ट्रंप कहीं अधिक उग्र इजराइल समर्थक रहे हैं, मगर इस चुनाव में उन्होंने रणनीतिक चुप्पी साध ली है। इसका लाभ उन्हें दो रूपों में मिला हैः एक तो डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रति uncommitted हुए मतदाता ट्रंप फोबिया का शिकार नहीं हुए हैं, दूसरे बहुत से मतदाता डेमोक्रेट्स को दंडित करने की भावना में ट्रंप को वोट देने की हद तक चले गए हैं। 

जो. रोगन दुनिया के (कम से कम अंग्रेजी भाषा में) सबसे लोकप्रिय पॉडकास्टर हैं। पिछले दो चुनावों में उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदर डेमोक्रेटिक-सोशलिस्ट बर्नी सैंडर्स का समर्थन किया था। इस बार उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपना झुकाव ट्रंप की तरफ जताया है।

इसी तरह लोकप्रिय स्टैंड-अप कॉमेडियन जिमी डोरे आजीवन डेमोक्रेट रहे, मगर इस बार उन्होंने ट्रंप समर्थक पॉडकास्टर टकर कार्लसन को इंटरव्यू देकर दो टूक कहा कि डेमोक्रेट्स को दंडित किए जाने की जरूरत है। (https://x.com/upholdreality/status/1851057343229800873) निर्विवाद रूप से रुख के ऐसे परिवर्तन गजा और लेबनान में हो रहे मानव संहार में बाइडेन-हैरिस प्रशासन की भूमिका के कारण हुए हैं।

इसका नतीजा क्या होगा? क्या यह इस राष्ट्रपति चुनाव का निर्णायक पहलू बनेगा? इन प्रश्नों के उत्तर हमें पांच नवंबर (भारत में छह नवंबर) को मिलेंगे। फिलहाल, ओपिनियन पोल्स से जो संकेत मिल रहे हैं, उन पर पूरा भरोसा करके नहीं चला जा सकता।

ये संकेत भी बंटे हुए हैं। कंजरवेटिव माध्यमों में ट्रंप का पलड़ा बेहद भारी बताया जा रहा है, जबकि लिबरल माध्यमों में ट्रंप और हैरिस के बीच कड़ी टक्कर बताई जा रही है। 

पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी के भतीजे रॉबर्ट एफ. केनेडी ने अपना पूरा जीवन डेमोक्रेटिक पार्टी में गुजारा। मौजूदा चुनावी चक्र में वे डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी हासिल करने की होड़ में उतरे। लेकिन पार्टी ऐस्टैबलिशमेंट ने उनकी राह बाधित कर दी।

तब उन्होंने निर्दलीय लड़ने का एलान किया। मगर अंततः उन्होंने अपना समर्थन डॉनल्ड ट्रंप को दे दिया। कुछ समय पहले एक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा था कि जो बाइडेन को मैदान से हटाने और हैरिस को उम्मीदवार बनाने के डेमोक्रेटिक ऐस्टैबलिशमेंट के निर्णय के बाद लिबरल मीडिया, पोलिंग एजेंसियों, और सोशल मीडिया हैंडल्स ने हैरिस की बढ़त का बनावटी माहौल बनाया। 

यह हकीकत है कि उम्मीदवार में ऐसे बदलाव से जमीनी सूरत नहीं बदली थी। इसलिए कि लोगों के सामने मुद्दे वही रहते हैं, जो पहले मतदान के उनके निर्णय को प्रभावित करने वाले थे। इसीलिए चुनावों के गंभीर अध्येता रॉबर्ट एफ. केनेडी की बात से इत्तेफ़ाक रखते हैं। 

यह सच है कि आम मतदाता रोजमर्रा के स्तर पर मूड नहीं बदलते हैं और ना ही चुनाव टी-20 क्रिकेट की तरह होते हैं, जिसमें हर गेंद पर मैच का रुख बदलता है। मतदाताओं की राय बनने की प्रक्रिया लंबी- कुछ अपने अनुभव के आधार पर और कुछ माहौल के आधार पर होती है। इसलिए रोज उम्मीदवारों के आगे-पीछे होने का सारा नैरेटिव फर्जी ही माना जाना चाहिए। 

मीडिया की अपनी कारोबारी मजबूरियां होती हैं। उसमें वह चुनाव जैसी गंभीर प्रक्रिया को भी हर पल बदलने वाले खेल की तरह पेश अपने दर्शक/ श्रोता/ पाठक वर्गों को उलझाए रखने की कोशिश करता है। मीडिया का परिवेश बदलने के साथ (The shards of glass election: mainstream media’s dominance dies) सूचना संस्कृति का ध्रुवीकरण भी हो गया है।

ऐसे में अपने-अपने दर्शक/ श्रोता/ पाठक वर्ग को cater करने की मजबूरियां और बढ़ गई हैं। बहरहाल, इस बार अमेरिका में जिस तरह की उथल-पुथल लिबरल मीडिया में देखने को मिली है (WaPo, L.A. Times opt out of endorsements in 2024 election, sparking outrage), उससे हवा के रुख का कुछ संकेत जरूर मिला है। 

इसके बावजूद चुनाव नतीजे का कोई अनुमान लगाने के बजाय इस चर्चा के आखिर हम यही कहेंगे कि अमेरिका में अगला राष्ट्रपति कौन बनेगा, यह इससे तय होगा कि किसके मुद्दे अंततः अधिक मतदाताओं को खींच पाते हैं। ट्रंप फोबिया हावी होता है, या अर्थव्यवस्था, युद्ध एवं आव्रजन से जुड़ी चिंताएं भारी पड़ जाती हैं। 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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