‘फेंकने’ की लिमिट नहीं, बजट में ये प्रथा न सिर्फ़ क़ायम रही बल्कि फली-फूली भी

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बजट-2022 में पूँजीगत खर्च या Capital Expenditure (Capex) में 35.4% का इज़ाफ़ा करने की बात हुई है। इससे Capex को 5.54 लाख करोड़ से बढ़ाकर 7.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुँचाया जाएगा। लेकिन ये होगा कैसे? पूँजीगत निवेश आएगा कहाँ से? Capex के पिछले लक्ष्य में से आधी की भी उपलब्धि नहीं रही है। फिर भी इसमें ज़बरदस्त उछाल का सपना बेचा गया है। बता दें कि ये व्याख्या बजट के सिर्फ़ एक और सबसे बड़े पहलू की है। ये ‘हाथी के पैर में सबका पैर’ की तरह है, क्योंकि बजट के केन्द्र में हमेशा यही पहलू रहता है। हरेक एलान या तो इसी से शुरू होता है या फिर इसी पहलू पर ख़त्म होता है।

ग्रोथ के सभी इंजन तो सिसक रहे हैं

विदेशी निवेश भी पूँजीगत निवेश का ही हिस्सा होता है, लेकिन ध्यान रहे कि विदेशी निवेश में यहाँ पैसा बनाने के लिए आता है, हमारी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नहीं। ज़रूरतें तो देश का आन्तरिक ताक़त से ही पूरी होती हैं। इसे जुटाने से जुड़े प्रत्यक्ष कर (direct taxes) भरने वाले टैक्स पेयर्स की हालत भी अच्छी नहीं है। इन्हें और चूसना सम्भव नहीं रहा क्योंकि इन्हें चूसकर जितना टैक्स मिलता है, उससे कहीं ज़्यादा अलोकप्रियता या बदनामी हाथ लगती है। अर्थव्यवस्था में माँग-पक्ष लगातार कमज़ोर बना हुआ है। लिहाज़ा, अप्रत्यक्ष कर (indirect taxes) वाली कमाई से भी ज़्यादा उम्मीदें नहीं पाल सकते। कमज़ोर माँग की वजह से ग्रोथ का महत्वपूर्ण इंजन कहे जाने वाले ‘कोर सेक्टर’ (यानी खनन, बिजली, सीमेन्ट, पेट्रोलियम वग़ैरह) में कोई दमखम दिख नहीं रहा। सभी सिसक ही रहे हैं।

Capex आएगा कहाँ से?

Capex जुटाने के लिए आख़िरी उम्मीद यदि घरेलू बचत और विनिवेश (disinvestment) में हो सकती है तो यहाँ भी माँग के कमज़ोर होने की वजह से बैंकों में रखी घरेलू बचत पर इतना ब्याज़ भी नहीं मिलता कि मुद्रास्फीति (inflation) की ही भरपाई हो जाए। आलम ये है कि बैंकों में रखी रकम की क्रय-शक्ति (purchasing power) लगागार घट रही है। उधर, विनिवेश का आलम ये है कि पिछले साल इससे 1.5 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य बजट में रखा गया था। लेकिन एयर इंडिया को बेचकर सरकार करीब 18,000 करोड़ रुपये ही जुटा सकी। बाक़ी तस्वीर सफ़ाचट है।

बहरहाल, ‘फेंकने’ की कोई लिमिट नहीं। ये प्रथा न सिर्फ़ क़ायम है बल्कि ख़ूब फल-फूल भी रही है। बजट बताता है कि जब Capex बढ़कर 7.5 लाख करोड़ रुपये होगा, तब देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में इसकी हिस्सेदारी 2.7% होगी। ज़ाहिर है कि यदि Capex कम रहा तो फिर ये हिस्सेदारी भी घटेगी ही। ऐसे में 8 से 8.5% की विकास दर का जो सपना बेचा गया है वो साकार कैसे होगा?

खेती-किसानी की दुर्दशा

खेती-किसानी से तो अर्थव्यवस्था में गति आने से रही क्योंकि किसानों की आमदनी 2022 तक दोगुनी करने के हवा-हवाई एलान के बाद सूरत-ए-हाल ये है कि देश के 58% लोग आज भी खेती-बाड़ी से ही जीवन यापन कर रहे हैं। इतनी बड़ी आबादी की आमदनी और उत्पादकता ऐसी है कि आज भी देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी महज 17-18% है। 86% किसानों के पास खेती की जितनी ज़मीन है उसके मुताबिक जोत का औसत आकार 1.1 हेक्टेयर प्रति किसान परिवार है।

किसानों की राष्ट्रीय औसत मासिक आमदनी 10,218 रुपये है। इनमें से 9 राज्य ऐसे हैं जहाँ के किसानों की मासिक आय राष्ट्रीय औसत से भी बहुत कम है। मसलन, नगालैंड: 9,877 रुपये, छत्तीसगढ़: 9,677 रुपये, तेलंगाना: 9,403 रुपये, मध्य प्रदेश: 8,339 रुपये, उत्तर प्रदेश: 8,061 रुपये, बिहार: 7,542 रुपये, पश्चिम बंगाल: 6,762 रुपये, ओड़िशा: 5,112 रुपये और झारखंड: 4,895 रुपये। इन राज्यों में किसानों की बहुत बड़ी आबादी बसती है। यहीं सबसे ज़्यादा ग़रीब भी हैं।

8-8.5% की विकास दर आएगी कहाँ से?

तो फिर इसका मतलब ये है कि 8-8.5% की ग्रोथ या विकास दर सर्विस सेक्टर से आएगी? ये तो सिर्फ़ कल्पना में या मुंगेरी लाल के सपनों में ही हो सकता है क्योंकि ये किसी ये छिपा नहीं है कि नोटबन्दी के बाद से अर्थव्यवस्था का माँग-पक्ष लगातार सिर्फ़ कमज़ोर से कमज़ोर होता जा रहा है। 2016 के बाद से माँग-पक्ष में तेज़ी से विकास लगभग थम चुकी थी, लेकिन लॉकडाउन के बाद ये तो और भी चरमरा गयी। तभी तो करीब 40 लाख लोगों को अपनी छोटी-मोटी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। लाखों काम-धन्धे और कल-कारखाने बन्द हो गये।

देश की 90 फ़ीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले असंगठित क्षेत्र की दुर्दशा तो सबसे ख़राब है। इन विशाल समुदाय में रोज़गार और आमदनी की भारी किल्लत नज़र आती रही। ऊपर से इसी तबके पर बेतहाशा भाग रही महँगाई का सबसे ज़्यादा असर पड़ा। पेट्रोलियम पदार्थों की दिनों-दिनों कीमतों और इससे बढ़ी महँगाई ने उस मध्यम वर्ग की रीढ़ झुका दी जो अर्थव्यवस्था में विकास दर के लिए सबसे ताक़तवर इंजन की भूमिका निभाता है।

वस्तुस्थिति ये है कि सत्ता प्रतिष्ठान के लिए सबसे सुखद है कि देश के मुट्ठी भर लोगों के सिवाय आर्थिक तथ्यों को कोई समझता नहीं। बिका हुआ मीडिया लोगों को तथ्यों को बताता और समझाता नहीं। यहाँ तक कि मरियल पड़े विपक्ष की आलोचनाओं को भी जनता तक पहुँचने नहीं देता। बहरहाल, चुनाव सामने है इनका मज़ा लीजिए और देखिए कि भारतीय जनमानस पर आर्थिकी क्या असर छोड़ती है!

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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