Thursday, April 25, 2024

‘संविधान दिवस’ औपचारिकता निभाने का नहीं, कमियों एवं खामियों पर चिंतन और मनन का मौका

26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने संविधान के उस प्रारूप को स्वीकार किया, जिसे डॉ. बीआर आंबेडकर की अध्यक्षता में ड्राफ्टिंग कमेटी ने तैयार किया था। इसी रूप में संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ और भारत एक गणराज्य बना।  आंबेडकरवादी और बौद्ध लोगों द्वारा कई दशकों पूर्व से ‘संविधान दिवस’ मनाया जाता है लेकिन  2015 में डॉ. आंबेडकर के 125वें जयंती वर्ष के रूप में 26 नवंबर को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने इस दिवस को ‘संविधान दिवस’ के रूप में मनाने के केंद्र सरकार के फैसले को अधिसूचित किया था। तब से ही यह दिवस हर साल सरकारी तौर पर भी मनाया जाता है। 26 नवंबर को राष्ट्रीय कानून दिवस के रूप में भी जाना जाता है।

यह सही है कि कोई भी सभ्य समाज संविधान विहीन नहीं हो सकता या नहीं होना चाहिए। संविधान ही वो दस्तावेज़ है जो किसी भी राष्ट्र के कार्य कलापों को संगठित/संचालित करने का ढांचा प्रदान करता है। इसलिए इस दस्तावेज पर चर्चा होना स्वाभाविक है, जरूरी है। लेकिन यह महत्वपूर्ण है की हमें इस बारे में जरूर स्पष्ट होना चाहिए कि हम इस दिवस को किस उद्देश्य से मनायें। सरकारी तंत्र या मुक्तिबोध के शब्दों में ‘ रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध’ ज्ञानियों की चर्चा तो आमतौर पर  इस बात पर सिमट कर रह जाती है कि किसने इसके बनाने में क्या भूमिका अदा की या अपने  विरोधियों से बेकार की बहस करने में। उदाहारण के लिए आज प्रधानमंत्री ने देश को बताया कि ‘भारत एक ऐसे संकट की तरफ बढ़ रहा है, जो संविधान को समर्पित लोगों के लिए चिंता का विषय है, लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वालों के लिए चिंता का विषय है और वह है पारिवारिक पार्टियां।’

लेकिन गंभीर लोगों को इस अवसर का इस्तेमाल अर्थपूर्ण चर्चा के लिए करना चाहिए। ताकि हम समझ सकें की कहाँ तक हमारा समाज संविधान के अनुरूप चल रहा है, ठीक से चल रहा है या नहीं , संविधान में क्या कमियां हैं और इन्हें कैसे सुधारा जा सकता है।

इस सम्बन्ध में सबसे जरूरी सवाल है कि संविधान देश के नागरिकों को क्या अधिकार देता है और उसमें क्या घटाया या बढ़ाया जाए की इस देश के बहुलांश नर नारी एक मानवीय जीवन जीते हुए तथा अपनी अन्तर्निहित क्षमताओं और संभावनाओं को आगे बढ़ाते हुए समाज को आगे ले जा सकें।

इस चर्चा के लिए जरूरी है संविधान द्वारा स्वीकृत मौलिक अधिकारों से बात शुरू की जाए। 1949 में स्वीकृत शुरू में संविधान द्वारा हर नागरिक को सात मूल अधिकार प्रदान किए गए थे- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार। लेकिन बाद में संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकार से हटा कर उसे कानूनी अधिकार बना दिया गया।

उपरोक्त को पढ़ने से पता चलता है कि हमारे संविधान में नागरिक को आवास,भोजन,शिक्षा या चिकित्सा या रोज़गार का मौलिक अधिकार नहीं है और न ही इन अधिकारों को संपत्ति के अधिकार की तरह कानूनी अधिकार का ही दर्ज़ा प्राप्त है।यानि सरकार पर आम नागरिक को ये सुविधाएँ प्रदान करने की कोई जिम्मेवारी नहीं । ऐसे में देश की बहुसंख्यक आबादी कुपोषित, अनपढ़ बीमार और रोज़गार विहीन हो तो क्या आश्चर्य?

ऐसा नहीं है कि दुनिया के सभी देशों भारत जैसी स्तिथि ही है। और कोई कारण नहीं की हमारे देश में ये अधिकार आम नागरिकों को नहीं दिए जा सकते। समय की मांग है कि जिम्मेद्दार दोस्त मौलिक अधिकार और उसकी अंतर्वस्तु पर चर्चा करें और सोचें की कैसे देश के हर नागरिक को आवास,भोजन,शिक्षा,चिकित्सा और रोज़गार का मौलिक अधिकार मिले। फैज़ याद आ रहे हैं

ऐ ज़ुल्म के मारो लब खोलो चुप रहने वालों चुप कब तक

कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जायेंगे

(रवींद्र गोयल दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं।)

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