लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

संतोष की बात है कि आम चुनाव के पहले चरण में मतदान प्रारंभ हो चुका है। मतगणना पद्धति और प्रक्रिया में VVPAT मतपर्ची पर माननीय सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है। उम्मीद है कि समय पर महत्वपूर्ण न्यायिक फैसला आ जायेगा। उम्मीद है कि देश हित में अपनी सूझ-बूझ से महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसले को आकार देंगे। 

चुनाव प्रचार के दौरान एक शब्द की अनुगूंज बार-बार सुनाई देती रही, वह शब्द है ‘परिवारवाद’। इसके अपने निहितार्थ हैं, जो अपने राजनीतिक निहितार्थ के अधिकांश में नकारात्मक ही होते हैं। इस के साथ ही कभी-कभार ‘परिवारविहीनता’ की भी चर्चा सुनने में आती है। दुखद है कि परिवार की संरचना, परिवार में स्त्री-पुरुष की स्थिति, पारिवारिक, वैवाहिक वैमनस्य, बच्चों-बुजुर्गों की स्थितियों पर राजनीतिक दलों के किसी कार्यक्रम में एजेंडा नहीं होता है। सच पूछा जाये तो यह राजनीतिक एजेंडा है भी नहीं। वैसे यह भी अपनी जगह सच है कि इंसानी खुद एक राजनीतिक प्राणी है, इसलिए उसे से जुड़े मुद्दे राजनीतिक परिधि से बाहर होते नहीं हैं; राजनीति ने जीवन में जितना स्थान घेर रखा है उस में यह बात सच ही ठहरती है। 

राज्य व्यवस्था और समाज व्यवस्था के पितृसत्तात्मक होने और उस में मदर्दवादी रुझान के बढ़ने का असर लोकतंत्र पर दिखता है। राजनीतिक विश्लेषण में महिला वोटों के निर्णायक असर के होने की भी बात कही-सुनी जाती है। महिला वोटों पर महिलाओं कि विशिष्ट स्थितियों का कितना पर कितना प्रभाव पड़ता है, कहना मुश्किल है। किसी स्त्री के हाथ में राज्य व्यवस्था होने से व्यवस्था में मातृसत्तात्मक रुझान नहीं ‎आ जाता है। क्योंकि यह सत्ता का नहीं, व्यवस्था का सवाल है। इंदिरा गांधी के हाथ में बरसों सत्ता रही, खुद सोनिया गांधी का भी सत्ता पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष पर प्रभाव रहा, जयललिता और मायावती देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहीं, ममता बनर्जी कई सालों से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं लेकिन इस से व्यवस्था पर उनके स्त्री होने से कोई पठनीय प्रभाव नहीं पड़ा है। क्यों न, राज्य व्यवस्था के मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मक हो जाने की प्रक्रिया पर भी लोकतंत्र के पर्व के अवसर पर भी सोचने की कोशिश की जाये।     

मातृत्व वास्तविक और सत्य है। सत्य हमेशा प्रमाण सापेक्ष होता है। प्रमाण-सापेक्षता सत्य का प्राण होता है। पितृत्व विश्वास और आस्था है। विश्वास और आस्था प्रमाण-निरपेक्ष होता है। समाज व्यवस्था मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मक हो जाना सभ्यता की लगभग सबसे बड़ी दुर्घटना और पराजय है। इस अर्थ में भी समझना चाहिए कि मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मक में बदलाव सत्य और वास्तविकता पर विश्वास और आस्था के विजय की कहानी है। विश्वास और आस्था के विजय की इस कहानी में सभ्यता की सब से बड़ी दुर्घटना और पराजय की कहानी लिखी हुई है। इसलिए कैसे और क्यों यह दुर्घटना और पराजय हुई, इसे थोड़ा-बहुत समझने के लिए इस कहानी को खोलना और पढ़ना होगा। क्या इस के लिए हम तैयार हैं! हम तैयार हैं! बल्कि हमें इस कहानी का पुनर्संयोजन (Realignment)‎ करने और पढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। इससे सभ्यता की सब से बड़ी दुर्घटना और पराजय ‎को समझने में कुछ तो मदद मिलेगी ही, मातृत्व का हक कितना अदा होगा! कहना बहुत मुश्किल है।   

बांझ या निस्संतान स्त्री को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। उसके लिए सब से बड़ा आशीर्वाद होता है, “दूधों नहाओ, पूतों फलो”। ‘पूतों’ में कन्या संतान भी शामिल है, यह मानना थोड़ा मुश्किल ही है। आशीर्वाद का आशय है, हमेशा ‘लरिकोर अर्थात गोद में बच्चावाली’ रहो! खैर, पहले संतानोत्पत्ति की प्रविधि का सत्य स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एक रहस्य था। स्त्री के सामने सत्य प्रकट हुआ कि संतान हमेशा स्त्री के ही पेट से जन्म लेता है। मगर क्यों और कैसे! इस का पता नहीं था। उसे गर्भ धारण के कष्ट और प्रसव की पीड़ा का अनुभव था। कष्ट और पीड़ा के बाद के आनंद का अनुभव था। आनंद में ममत्व था। ममत्व का प्रतिदान अपनापन था। ममत्व और ममत्व के प्रतिदान की परिधि से पुरुष बिल्कुल बाहर था। सब कुछ स्त्री के अधीन था, बचपन भी यौवन भी। 

आदेश की ऐकिकता (Unity of Command)‎ स्त्री के पास थी। जब संतानोत्पत्ति में पुरुष की भूमिका का रहस्य खुला तो पुरुष अपने अधिकार के प्रति सतर्क हुआ। लेकिन उसे पता ही नहीं होता था कि ठीक किस संतान की उत्पत्ति में उसकी भूमिका है! इस का ठीक-ठीक पता स्त्री को भी नहीं होता था। पता हो भी, तो उस की बात को असहमत पक्ष से चुनौती मिलती थी। फिर इस मुद्दे पर समूह में संग्राम होता रहता था। यहीं ध्यान देने की बात है कि स्त्री को ‘सभी झगड़ों की जड़’ क्यों कहा जाने लगा! संतान पर संग्राम को रोकने के लिए समूह में सब से ताकतवर, यानी समूह के राजा ने स्थाई तौर पर खुद को सब का पिता घोषित कर दिया। ताकत के सामने सभी पुरुष चुप तो रहते थे, लेकिन अंदर-ही-अंदर यह सवाल सुलगता रहता था। अंदर-ही-अंदर सुलगता यह सवाल कभी-कभी राजा के प्रति विद्रोह की आग भड़कने के कई अन्य कारणों में से एक कारण बनने लगा। 

राजा पिता तुल्य होता है, यह मानते हुए भी पिता की पहचान का सवाल अपनी जगह बना हुआ रहा। विवाह व्यवस्था में पिता की पहचान का स्थाई आधार मिल गया, इस पहचान में की पवित्रता में संदेह की किसी गुंजाइश को कानून की कठोरता और धर्म की आभा से भर दिया गया। पिता की पहचान को सुदृढ़ नैतिक और न्यायिक आधार मिल जाने पर भी राजा पिता तुल्य बना रहा। एक नई बात यह हुई कि राजा के पिता तुल्य होने के साथ-साथ अब पिता राजा तुल्य हो गया। पिता के राजा तुल्य होते ही व्यवस्था मातृ सत्तात्मक से पितृ सत्तात्मक के लिए प्रस्थान कर गई! प्रेमवश, पति और पुत्र को राजा कहने का चलन शुरू हो गया। इस चलन के मनोविज्ञान पर अलग से सोचा जा सकता है। यहां तो इतना ही कहना है कि आदेश की ऐकिकता (Unity of Command)‎ अब स्त्री के हाथ से निकलकर पुरुष के हाथ में पहुंच गई। व्यवस्था पुरुष सत्तात्मक हो गई। इस तरह से सभ्यता में एक बड़ी दुर्घटना और पराजय की कहानी का पुनर्संयोजन (Realignment)‎ किया जा सकता है। 

परिवार में स्त्री-पुरुष के बीच अधिकार और आदेश क्षमता की असमान स्थितियों ‎‎का असर केवल स्त्रियों पर नहीं पड़ता है। इसका असर पूरे परिवार और समाज ‎पर ही नहीं लोकतंत्र के स्वरूप पर भी पड़ता है। सब से बड़ी बात पीढ़ियों के ‎मनो-शारीरिक विकास पर भी पड़ता है। स्त्री-पुरुष के बीच अधिकार और आदेश ‎क्षमता की असमान स्थितियों का सवाल, सभ्यता का सवाल है। कई महत्वपूर्ण लोग कई तरह से कहते हैं कि चूंकि पुरुष संतानोत्पत्ति में जैविक रूप से सक्षम नहीं हो सकते हैं, इसलिए संतान के लालन-पालन में उनकी भूमिका सुनिश्चित होनी चाहिए।  ‎    

सभ्यता विकास के क्रम में सत्ता का जन्म हुआ। सत्ता क्या है! सत्ता आदेश करने की शक्ति है, जिस आदेश का अनुपालन करना आदेशित का कर्तव्य होता है। जिस के पास बेहतर आदेश-पालक को पुरस्कृत करने और आदेश का यथा-अपेक्षित अनुपालन न करनेवाले या अनुपालन ही न करनेवाले को दंडित करने की शक्ति होती है। दंड और पुरस्कार सत्ता की दो प्रमुख शक्ति होती है। दंड का भागी बनने से बचने और पुरस्कार का दावेदार बनने के लिए आदेश की ऐकिकता (Unity of Command)‎ का बहुत बड़ा महत्व होता है। आदेश की बहुलता (Multiplicity of Command)‎ से आदेश के अनुपालन में दुविधा और कई बार बहानेबाजी की सुविधा के लिए भी जगह बन जाती है।

आदेश की ऐकिकता (Unity of Command)‎ के लिए राजा की सत्ता बनी रही। सत्ता यानी आदेश करने की शक्ति और आदेश का अनुपालन प्रजा का परम पावन कर्तव्य बन गया। राजा की शक्ति और प्रजा के कर्तव्य को नैतिकता और धार्मिकता की आभा से जोर दिया। दंड से बचने और पुरस्कार योग्य समझे जाने के लिए ‘गर्दन काटने और कटानेवाले’ वफादारी साबित करने के लिए राजा के आदेश की वैधता की नैतिकता और धार्मिकता के मानदंडों पर जांच-परख किये बिना कुछ भी करने के लिए आमादा ‘आदेश पालकों’ का दल हाजिर रहने लगा। कुछ भी करने के लिए आमादा ‘आदेश पालकों’ ‎की मनमानी और प्रजा की न्यायपूर्ण जरूरतों, मांगों, गुहारों को समझने और पूरा करने में आनाकानी के कारण प्रजा का बड़ा हिस्सा त्रस्त और पस्त रहता था। इसलिए, राजा के आदेश में नैतिकता और धार्मिकता के अपर्याप्त होने और भ्रामक तत्वों के पर्याप्त होने के कारण उत्पन्न असंतोष को दूर करने के लिए ‘वैधानिकता’ की जरूरत हुई। विधान या कानून बनाने के लिए विचार-विमर्श, की जरूरत हुई। लिखित या अलिखित संविधान की जरूरत हुई। कुल मिलाकर संवैधानिक शासन व्यवस्था और लोकतंत्र के विभिन्न रूपों की अवधाराणाओं का जन्म हुआ। लगभग पूरी दुनिया से राजतंत्र की ‎विदाई हुई। 

भारत में संवैधानिक लोकतंत्र है। लोकतंत्र ‘समान में से कोई एक’ के सिद्धांत पर चलता है। इस ‘कोई एक’ का निर्धारण चुनाव के माध्यम से होता है। पहली बार चुनाव के माध्यम से चुनकर उस ‎‘कोई एक’ ‎में अपने अद्वितीय और अवतारी होने का भ्रम पैदा हो गया है। इसका बहुत बुरा अनुक्रमिक असर हमारे लोकतंत्र पर पड़ा है। उनमें से एक असर है लोकतंत्र में मदर्दवादी रुझान। पहले से व्याप्त रुझान इन दिनों उग्रतर रूप में दिखने लगा है। चुनाव प्रचार की सामान्य मौखिक भाषा हो, गाली-गलौज हो, जनविद्वेषी बयानबाजी (Hate Speech) हो, सत्ता-समर्थित युद्धोन्माद  इन सब का कारण निश्चित रूप से सत्ता और समाज के मदर्दवादी रुझान में है।  

जीवन पद्धति के रूप में मनुष्य जाति और व्यक्ति की गरिमा, इच्छा, आत्म-‎निर्णय और ‎अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यावहारिक सम्मान अर्थात हर प्रकार की जोर ‎जबरदस्ती का ‎कानूनी निषेध लोकतंत्र का लक्ष्य है। मदर्दवादी रुझान के कारण लोकतंत्र के सारे लक्ष्य नकारात्मक रूप से दुष्प्रभावित होते हैं। इसलिए राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र ‎के मदर्दवादी रुझान को लोकतंत्र के बड़े संकट के रूप में चिह्नित‎ किया जा सकता है, लेकिन किया नहीं जाता है। महिला सशक्तिकरण, आरक्षण, अर्थ सहयोग आदि की बात तो की जाती है। घरेलू हिंसा से स्त्री के बचाव के लिए कानून तो बने हैं, कुछ हद तक कारगर भी हैं। लेकिन ऐसे कानूनों से स्त्री की गरिमा, इच्छा, आत्म-‎निर्णय, ‎अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ‎स्त्री-पुरुष के बीच अधिकार और आदेश क्षमता की असमान स्थितियों ‎ पर कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ता है। 

असल में मदर्दवादी रुझान सिर्फ लोकतंत्र का ही नहीं, जीवन, परिवार और समाज का अर्थात सभ्यता का सब से संवेदनशील संकट है। मुसीबत यह है कि संवेदनशील ढंग से इस संवेदनशील संकट को दूर करने का कोई प्रयास नहीं है, न राजनीतिक स्तर पर न सामाजिक स्तर पर। यह दुखद स्थिति है। विश्वास और आस्था से अधिक से सत्य को महत्व दिया जाना जरूरी है। सभ्यता में सक्रिय मर्दवादी रुझान को संवेदनशील ढंग से निष्क्रिय किये बिना, न लोकतंत्र सफल हो सकता है, न सभ्यता मनोरम हो सकती है। तो फिर सभ्यता के इस अंधेरे कोनों तक पहुंच के लिए प्रकाश पथ क्या है!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)           

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