Saturday, April 27, 2024

दलित स्त्री-3: स्त्रीवाद और दलित स्त्री/भ्रामक अवधारणा बनाम वास्तविक संघर्ष

1841 में भारत के वर्तमान महाराष्ट्र प्रांत में एक महार दलित परिवार में पैदा हुई मुक्ता साल्वे, जो जोतिबा फुले और सावित्री बाई फुले द्वारा स्थापित स्कूल में पढ़ती थी, ने 1855 में एक निबंध लिखा जो कि दो भागों में अहमद नगर से निकलने वाली पत्रिका ज्ञानोदय में छपा। इस निबंध को ज्ञानोदय पत्रिका के शताब्दी अंक (जो 1942 में वी. पी. हिवले के संपादन में प्रकाशित हुआ था) में दुबारा प्रकाशित किया गया।

इस निर्भीक असाधारण महिला दलित बच्ची के जीवन में आगे क्या हुआ, क्या उन्होंने कुछ और लिखा? इसका कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता, लेकिन जिस सुस्पष्टता, तार्किकता और निर्भीकता के साथ मुक्ता का लेखन दिखाई देता है, यह आशंका भी बलवती होती है कि कहीं उनके साथ कुछ अप्रिय ना हो गया हो। क्या उन्हें डरा दिया गया था या कुछ और बहुत अप्रिय उनके साथ हुआ था। हम नहीं जानते लेकिन 13- 14 साल की उम्र में उन्होंने जिस समझ और तेवर के साथ लिखा है वह एक जलती हुई मशाल की मानिंद दिखाई देती हैं जो अपने आप तो नहीं बुझ सकती, वह कहती हैं..

” ओ विद्वान ब्राह्मणों अपनी खोखली बुद्धि की स्वार्थी बकवास को किनारे रखो और जो मैं कह रही हूं उसे सुनो”(संदर्भ: विमेन राइटिंग इन इंडिया वॉल्यूम 1, 600 बीसी टू अर्ली 20th  सेंचुरी, एडिटर-सुसी थारू, के. ललिता, पेज 215)

मुक्ता साल्वे का लेखन किसी मजबूत हथौड़े की चोट की तरह बिलबिला देने वाला है।

” सुनो बता रही हूं कि हम मनुष्यों को गाय-भैंसों से भी नीच माना है इन लोगों ने। जिस समय बाजीराव का राज था उस समय हमें गधों के बराबर माना जाता था। आप देखिए लंगड़े गधे को भी मारने पर उसका मालिक भी उसकी ऐसी तैसी के बिना नहीं रहेगा, लेकिन मांग,महारों को मत मारो ऐसे कहने वाला भला एक भी आदमी नहीं था। उस समय मांग,महार गलती से भी तालीम खाने के सामने से यदि गुजर जाए, गुलपहाड़ी के मैदान में उनके सर को काटकर उसकी गेंद बनाकर और तलवार से बल्ला बनाकर खेला” जाता था ”(संदर्भ: दलित लेखिका मुक्ता साल्वे की वेदना और आक्रोश, डॉसिद्धार्थरामू, फॉरवर्ड प्रेस का ऑन लाइन लेख 14 फरवरी 2020) मुक्ता अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के स्रोत के रूप में, ब्राह्मण धर्म की शिनाख्त करती हैं। मुक्ता का लेखन तार्किक, और बहुत ही तीव्र चोट करने वाला है अपने उक्त निबंध के पहले हिस्से में मुक्ता कहती हैं.

” यदि कोई ब्राह्मणों के तर्क का वेदों के आधार पर खंडन करने का प्रयास करें तो यह पेटू लोग जो अपने आप को हमसे उच्च मानते हैं, और हम से घृणा करते हैं। तर्क देते हैं कि वेद केवल उनके अपने लिए ही है। अगर यह वेद केवल ब्राह्मणों के लिए ही है तो यह तय है कि वह हमारे लिए बिल्कुल भी नहीं हैं”(संदर्भ: विमेन राइटिंग इन इंडिया वॉल्यूम वन, 600 बीसी टू अर्ली 20th सेंचुरी, एडिटर: सुसी थारू & के ललिता,पेज 215)

मुक्ता साल्वे का लेखन हालांकि उनके एक मात्र निबंध के रूप में मिलता है लेकिन वह भारतीय जाति व्यवस्था की जटिलता को बहुत गहराई से उद्घाटित करता है, मुक्ता साल्वे स्तरीकृत असमानता और अन्याय पर आधारित एक पूरी प्रणाली को सामने लाती है। जिसमें उन्होंने यह भी उद्घाटित किया है कि, कैसे पेशवा के संपर्क में आने से महार जाति के दलित जो की मांग जाति के दलितों की तरह ही अछूत है, स्वयं को मांग लोगों से उच्च समझने लगे हैं। वो लिखती हैं..

” लेकिन महार, जो कि मांगों से कम अछूत नहीं है, उसकी (पेशवा की) खूबियों को उसके संपर्क से अपनाकर अपने आप को मांगों से श्रेष्ठ समझने लगे हैं “(संदर्भ: विमन राइटिंग इन इंडिया, पृष्ठ-215)

इस तरह हम देखते हैं कि मुक्ता साल्वे का लेखन जाति व्यवस्था की जटिलताओं को बड़े स्पष्ट तरीके से सामने लाता है। 13- 14 साल की किशोरी के लेखन में इस तरह की परिपक्वता देखना चौंकाने वाला है।

इसी तरह औपनिवेशिक काल में ब्रेस्ट टैक्स का निचली जाति की स्त्रियों द्वारा किये  गये  प्रतिरोध की कहानी भी एक संवेदनशील व्यक्ति को कई रातों तक जगाने के लिए पर्याप्त है। 28 जुलाई 2016 को बीबीसी में प्रकाशित दिव्या आर्य द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अंश इस प्रकार हैं- “‘स्तन-कर’ तत्कालीन त्रावणकोर राज्य के राजा द्वारा लगाया गया था, जो ब्रिटिश शासित भारत में मौजूद 550 रियासतों में से एक था।

निचली जातियों की महिलाओं को अपने स्तनों को ढंकने की अनुमति नहीं थी, और ऐसा करने पर उन पर भारी कर लगाया जाता था। केरल के श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय में लैंगिक पारिस्थितिकी और दलित अध्ययन की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. शीबा के.एम ने कहा, “स्तन-कर का उद्देश्य जाति संरचना को बनाए रखना था।”

कपड़ों पर सामाजिक रीति-रिवाजों को किसी व्यक्ति की जाति स्थिति के अनुरूप बनाया गया था, जिसका अर्थ था कि उनकी पहचान केवल उनके कपड़े पहनने के तरीके से की जा सकती है।

नंगेली एझावा जाति की थी। उसके समुदाय को थिया, नादर और दलित समुदायों जैसी अन्य निचली जातियों के साथ कर का भुगतान करना पड़ता था। लेकिन, ग्रामीणों का कहना है, उसने स्तन-कर का भुगतान किए बिना अपनी छाती को ढंक कर विरोध करने का फैसला किया-निचली जाति की स्थिति की महिला के लिए 1900 के दशक की शुरुआत में ये एक साहसी कदम था। हमारे ऑटो रिक्शा चालक मोहनन नारायण हमें उस मोहल्ले में ले जाते हैं जहां नंगेली रहते थे।

“जब कर निरीक्षक ने सुना कि वह कर का भुगतान करने से इनकार कर रही है, तो वह उसके घर गया और उससे कानून तोड़ने से रोकने के लिए कहा। लेकिन उसने फिर भी कर का भुगतान करने से इनकार कर दिया, और इसके बजाय विरोध में अपने स्तन काट लिए,” उन्होंने हमें बताया।

स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार, अत्यधिक खून बहने से नंगेली की मृत्यु हो गई, जबकि उसके व्याकुल पति ने उसकी चिता में कूदकर आत्महत्या कर ली। दंपति की  कोई संतान नहीं थी। उसके रिश्तेदार मुलाछीपुरम से आसपास के कस्बों और बस्तियों में चले गए।” (संदर्भ 28 जुलाई 2016 का बीबीसी में दिव्या आर्य का ऑनलाइन लेख, अनुवाद- लेखक)

बीबीसी की ये स्टोरी जब संचारित हुई तो उसके बाद कुछ साफ़ ज़ाहिर लेकिन छुपाये गये या अनकहे कारणों के चलते केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने दिसम्बर 2016 में ही नंगेली के संघर्ष की कहानी को पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला किया। असल में 2006-2007 में ‘कास्ट कॉन्फलिक्ट एंड ड्रेस चेंज’ नाम से इस सेक्शन में इस आंदोलन में जोड़ा गया था। उस आंदोलन के बारे में किताबों में बताए जाने पर कई संगठनों ने आपत्ति की थी। (संदर्भ https://hindi.oneindia.com/news/india/cbse-removes-nadar-women-struggle-from-the-textbook-393001.html)

वास्तविकता को सामने देखते हुए भी स्वीकार न करना भारतीय समाज की पाखंडी प्रवृत्ति रही है। लेकिन दलित स्त्रियों का संघर्ष अपने विशिष्ट स्वरूप में वर्तमान समय में भी जारी है।

दलित स्त्री: स्त्रीवाद और दलित स्त्री

मुख्यधारा के स्त्रीवाद और दलित स्त्रीवाद के बीच संवाद एक ज़रूरत है लेकिन दोनों के बीच के सैद्धांतिक मतभेदों को छुपाकर यह संवाद सम्भव नहीं है शर्मिला रेगे का यह अवलोकन देखें-

“मैं प्रसिद्ध दलित नारीवादी लेखिका उर्मिला पवार द्वारा सुनाई गई एक घटना के साथ शुरू करती हूं जो उन्होंने अपने संस्मरण ‘ द वेव ऑफ माय लाइफ’ में दर्ज की है। मुंबई के प्रसिद्ध संस्थान में दलित स्त्री के  मुद्दे पर संगोष्ठी में एक महिला प्रोफेसर का दावा था कि डॉ.आंबेडकर ने महिलाओं के लिए कुछ नहीं किया, हिंदू कोड बिल एक राजनीतिक स्टंट था। उन्होंने कभी अपनी पत्नी को आगे नहीं बढ़ाया, फुले की तरह उन्होंने उसे शिक्षित नहीं किया।

अन्य नारीवादी विद्वानों द्वारा इस कोई प्रतिक्रिया न आने से पवार चौंक गई। उनके स्तब्ध चेहरे को देखकर केवल एक मित्र की हंसी छूट गई थी। एक गंभीर मुद्दे के ऐसे तुच्छीकरण से हैरान हो गई कि विद्वानों का जमावड़ा उस अंतर को नहीं समझ सका है जो व्यक्तियों के सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक स्तर में बदलाव आने से जीवन में आता है।

पवार का ब्यौरा  बताता है कि कैसे ठेठ तरीकों से नारीवादी, आंबेडकर के नारीवाद को दिए गये राजनीतिक योगदान को नकारते हैं। यह व्यक्तिगत क्षेत्र का जिक्र करते हुए या कभी-कभी उनके योगदान को केवल दलित महिलाओं के विशिष्ट सामाजिक सशक्तिकरण के रूप में लेबल करके किया जाता है। इससे उन तरीकों की खोज के महत्व पर भी ध्यान जाता है।

जिसमें विविध सामाजिक लोकेशंस में व्यक्तियों के सार्वजनिक और व्यक्तिगत स्थान अलग-अलग हो सकते हैं। इसलिए ‘व्यक्तिगत’ और ‘राजनीतिक’ (भूमिकाओं) पर चर्चा कम से कम दो कारणों से महत्वपूर्ण हो जाती है। सबसे पहले यह आवश्यक है कि आंबेडकर के राजनीतिक योगदान के चुनिंदा और गलत तरीके से व्यक्तिगत क्षेत्र में संदर्भित नारीवादी खंडन के विरोधाभास को करके समझा जाए। दूसरे, घरेलू और समुदाय की सार्वजनिक और निजी जगहों के लिए अलग-अलग अर्थों को खोलना ज़रूरी है क्योंकि वे आंबेडकर आंदोलन द्वारा प्रचलन में आ गए थे जो भारत में आधुनिकता की ज़्यादा अनुकरणीय अवधारणा हैं।” (संदर्भ :अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु ,बी. आर. अम्बेडकर्स राइटिंग्स ऑन ब्राह्म्निकल पैट्रीआर्की ,शर्मिला रेगे पृष्ठ 24 अनुवाद-लेखक)

इस उदाहरण से साफ़ है कि मुख्य धारा के नारीवादियों की समझ ब्राह्म्निकल पैट्रीआर्की के विरूद्ध संघर्षरत आंबेडकर के योगदान के प्रति संकुचित है। साथ ही दलित स्त्री के वर्ग जाति और जेंडर के तिहरे शोषण के प्रति उनके यहां या फिर हमारे सामान्य सार्वजनिक जीवन में भी पर्याप्त संवेदनशीलता नहीं दिखाई देती है।

प्रसिद्ध लेखिका अरुंधती राय अपनी किताब ‘एक था डॉ. एक था संत’ की शुरुआत मलाला यूसुफजई और सुरेखा भोतमांगे की तुलना से करती है वह दिखाती हैं कि मलाला की तरह सुरेखा 17 साल की बेटी प्रियंका उसके दो बेटे एक संगठित करना अपराध का शिकार होते हैं। मलाला के साथ तो पूरी दुनिया के उदारवादी लोग बड़ी-बड़ी राजनेता और प्रसिद्ध हस्तियां खड़ी हो जाती हैं।(मलाला को बाद में शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिलता है) लेकिन अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली नव बौद्ध सुरेखा के दलित होने की वजह से उसकी बेटी और उसके अपने साथ हुए बलात्कार और दो बेटों सहित नृशंस हत्या कोई हलचल पैदा नहीं करती और न्यायालय की जातीय विद्वेष के कारण होने वाली इस घटना की मूल वजह को नजरअंदाज कर देता है। सुरेखा के लिए संयुक्त राष्ट्र ‘मैं हूं मलाला’ की तर्ज पर ‘मैं हूं सुरेखा’ कोई याचिका भारत सरकार को नहीं भेजता।

लेखिका लिखती हैं कि सुरेखा को मलाला की तरह कोई तवज्जो नहीं मिलती जबकि हम लोग एक उदारवादी बाजार तंत्र में रहते हैं इस तरह की कई टिप्पणियों के सहारे लेखिका ने अपनी किताब में  स्थापित किया है कि पूंजीवादी विकास ने जाति को समाप्त नहीं किया है यह उनकी पुस्तक का केंद्रीय तत्व है जो रंगनायकम्मा (एक प्रसिद्ध मार्क्सवादी लेखिका जिन्होंने जाति प्रश्न पर आंबेडकर की आलोचना की है देखें ‘फॉर द सोल्यूशन ऑफ़ कास्ट क्वेस्चन’) और इसीलिए कार्ल मार्क्स के जाति व्यवस्था पर दिए गए सूत्रों की सीमा को दर्शाता है। (सन्दर्भ उपरोक्त)

ये दोनों उदाहरण  मुख्य धारा के भारतीय स्त्रीवादियों (जिनका अधिकांश हिस्सा अपर कास्ट और अपर मिडिल क्लास का है) के विचार और सक्रियता दोनों की सीमाओं के साथ दलित स्त्रीवाद के सैद्धांतिक और क्रियाशील दोनों पहलुओं की प्रासंगिकता को स्थापित करते हैं।

इसके अलावा एक अन्य मुद्दा स्त्रियों के लिए लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण का है। मुख्यधारा के स्त्री वादी अपने जाति और वर्ग के आग्रहों के चलते इस बात को समझने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं कि प्रस्तावित प्रारूप में बिल लोकसभा और विधानसभाओं में उच्च जातीय और वर्गीय महिलाओं और इस तरह सवर्ण प्रतिनिधित्व को उनकी आबादी की संख्या के अनुपात से कहीं अधिक बढ़ा देगा और संवैधानिक रास्ते से केवल सवर्ण हितों का संरक्षक हो जाएगा ये समझना मुश्किल है कि अगर मुख्यधारा के स्त्रीवादी लोकसभा और विधानसभाओं में स्त्री प्रतिनिधित्व ही चाहते हैं तो उन्हें पंचायत के मॉडल वाले स्त्री आरक्षण से क्या दिक्क़त हो सकती है जिसमे सभी समुदायों की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है। यहां पर मुख्यधारा के स्त्रीवादियों का विमर्श न केवल दोषपूर्ण नज़र आता है बल्कि संदिग्ध भी लगने लगता है।

जैसा कि शर्मिला रेगे ने लिखा है

“महिला आरक्षण बिल पर चल रही बहस ने साफ़ किया है कि कैसे स्त्रियों और जाति के बीच झूठी बाइनरी हमारे राजनीतिक पार्टियों के भीतर विभिन्न जातियों और पिछड़े वर्गों की महिलाओं राजनीतिक आकांक्षाओं को समाप्त करने की रणनीति हो सकती है। हमारे राजनीतिक अतीत के साथ वर्तमान से आने वाले ये ऐतिहासिक विरोध के रूप स्त्रियों के और निचली जातियों के अधिकारों को एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी के रूप पेश करती है। इससे  भारत में जाति और जेंडर के सवालों की टकराव से निपटने की आवश्यकता साफ़ होती है और साथ ही हम आंबेडकर के नारीवादी अध्ययन कि ज़रूरत से रूबरू होते है” (संदर्भ: ‘अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु, बी. आर. अम्बेडकर्स राइटिंग्स ऑन ब्राह्म्निकल पैट्रीआर्की, शर्मिला रेगे, पृष्ठ-18 अनुवाद-लेखक

अन्य तमाम मतभेदों के साथ दोनों के बीच एक मुख्य सैद्धांतिक अंतर स्त्री की यौनिकता और दैहिक स्वायत्तता की वैयक्तिक और संरचनागत समझदारी के दो आयामों के बारे में है जो कि एक गहरा और गम्भीर मतभेद है- प्रसिद्ध नारीवादी निवेदिता मेनन का कथन देखें-

“एक से अधिक घरों में घरेलू नौकर के रूप में थोड़े से पैसे में काम करने और ठेकेदारों के माध्यम से शोषित होते हुए हुए न्यूनतम गरिमा के साथ कठिन से कठिन निर्माण कार्यों में संलग्न होने की तुलना में सेक्स वर्क (व्यवसाय के बतौर या अन्य कामों के साथ) को एक स्वयं अपने लिए व्यवसाय के रूप में ‘चुनने’ की स्थिति में कम या अधिक अभिकृतत्त्व (एजेंसी) शामिल नहीं होता।” (सन्दर्भ: दलित फेमिनिस्ट थ्योरी सम्पादक सुनैना आर्या/आकाश सिंह राठौर पृष्ठ-3, अनुवाद-लेखक)

लगभग ऐसा ही रुख मुख्यधारा की स्त्री वादियों द्वारा उस समय भी दिखाया गया जब महाराष्ट्र सरकार ने बार डांस पर प्रतिबंध लगा दिया था। स्त्री वादियों ने इसे स्त्री यौनिकिता देह और पेशा चुनने की स्वतंत्रता के खिलाफ बताया जबकि दलित स्त्री वादियों ने महाराष्ट्र सरकार के इस कदम का स्वागत किया।

असल में मुख्यधारा के स्त्रीवादी इस बात को समझने में नाकाम रहे हैं कि सेक्स वर्कर या बार डांसर के बतौर दलित वर्ग की स्त्रियों की अवस्थिति उनका खुद का चयन नहीं होता है। स्त्री विमर्श में स्त्री यौनिकता और यौन स्वायत्तता का प्रश्न एक केन्द्रीय प्रश्न है। लेकिन ये वर्ग और जाति आधारित समाज में मौजूद वास्तविक और क्रियाशील ढांचों से अप्रभावित या निरपेक्ष नहीं रह सकता है।

सेक्स वर्क के विषय में दलित फेमिनिस्ट समझदारी को देखें-

बाबासाहेब आंबेडकर ने सूत्र दिया-“caste is not just a division of labour, it is division of labourers”

“जाति केवल श्रम विभाजन नहीं वो श्रमिकों का विभाजन है” (सन्दर्भ)

अंम्बेडकराइट दलित फेमिनिस्ट शर्मिला रेगे ने सूत्र दिया -” caste determines the division  of  labour, sexual division of labour and division of sexual labour”

“जाति के द्वारा श्रम विभाजन, श्रम का यौन आधारित विभाजन और यौन श्रम का विभाजन निर्धारित होता है “(सन्दर्भ: दलित फेमिनिस्ट थ्योरी सम्पादक सुनैना आर्या/आकाश सिंह राठौर पृष्ठ 4, अनुवाद लेखक)

शर्मिला का यह सूत्र अकेले बहुत सारी परतों को खोल कर रख देता है ये एक शानदार आर्गेनिक बौद्धिक की ख़ासियत है। उनके इस सूत्र की जड़ें आंबेडकर के सूत्र के भीतर ही हैं।

ये दोनों सूत्र लिबरल वामपंथियों मार्क्सवादियों और मुख्य धारा के फेमिनिस्ट आन्दोलन के भी होने चाहिए थे, लेकिन ये सूत्र उनके पास नहीं हैं और साथ ही वह अपनी विशिष्ट पोजीशन में कई बार इनके विरुद्ध खड़े नज़र आते हैं।

इसलिए राहुल सांकृत्यायन दलितों से अस्वच्छ पेशों को न छोड़ने की बात करते हैं और कहते हैं कि इससे उनका आर्थिक नुकसान होगा।

लोकसंस्कृति के तमाम पैरोकार कथित वामपंथी मार्क्सवादी वंशानुगत दलित पेशों को कला मानकर उनका संरक्षण करने की बात करते हैं, वो अन्य तमाम जगह मार्क्सवादी होते हैं और दलित पेशों पर कलावादी हो जाते हैं। अपर कास्टलिबरल और कई मार्क्सिस्ट फेमिनिस्ट वैश्यावृत्ति को देह और यौनिकता की स्वतंत्रता के साथ जोड़कर उसे वैध बनाये जाने की बात करते हैं जैसा कि निवेदिता मेनन का तर्क है।

वो ये नहीं देख पाते कि देवदासी,  दलित, आदिवासी और जाति उत्पीड़ित तबकों की स्त्रियों के लिए वैश्यावृत्ति च्वॉइस का नहीं बल्कि सतत शोषण का मसला है, और ह्यूमन ट्रैफिकिंग का मसला है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि उनके पास कई विकल्प थे और उन्होने अपनी इच्छा से वैश्यावृत्ति को चुना है। सवर्ण पुरुषों की सत्ता के नियंत्रण वाले समाज में वैश्यावृति कभी भी सम्मानजनक या गरिमापूर्ण पेशा नहीं हो सकता।

हिमालय दलित है में एक कविता है – “जिस संस्कृति में रहेगी/एक भी/नाचने वाली औरत/याद रखना/उस संस्कृति में एक भी औरत/कभी नाच  नहीं पायेगी”

दलित स्त्रियों की नाचने वाली स्त्री (यहां बार डांसर का सन्दर्भ भी इससे जुड़ता है) के बतौर मौजूदगी नृत्य के स्वाभाविक कृत्य को भी टैबू बना देती है।

भारत के वर्ग और जाति आधारित समाज में देह व्यापार चयन का मसला नहीं है और जब वंशानुगत पेशों, ह्यूमन ट्रैफिकिंग, बलात वेश्यावृत्ति आदि के ज़रिये दलित स्त्रियों का संस्थागत शोषण व्यवस्था के रग रेशे में समाया हुआ हो तो उनके लिए सेक्स वर्क अपने आप चुना हुआ पेशा नहीं रह जाता। वैश्यावृति  को औपचारिक या विधिक मान्यता देना कई सामाजिक स्तरों पर होने वाले स्त्रियों के संरचनात्मक दैहिक शोषण को और भी गहरा संस्थागत रूप देना है।

दलित स्त्री वादियों और यदि मुख्य धारा के स्त्रीवादियों के बीच संवाद तब ही सही दिशा में बढ़ सकता है, जबकि स्त्रीवादियों द्वारा ब्राह्मणीय पितृसत्ता को समझा जाय लेकिन उनके द्वारा इसे गलत रूप में ब्राह्मण पुरुषों की पितृसत्ता समझ कर इसके बरक्स ‘दलित पितृसत्ता’ का टर्म इस्तेमाल किया जाता है। ‘दलित पितृसत्ता’ एक अंतर्विरोधी टर्म है। और ‘दलितवाद’ जैसे अस्पष्ट और अनुचित टर्म की तरह ही यह एक भ्रामक शब्द है।

यहां इस बात को गहराई से समझने की आवश्यकता है कि दलित पुरुषों की पितृसत्ता ‘दलित पितृसत्ता’ नहीं होती उनकी पितृसत्ता भी ‘ब्राह्मणीय पितृसत्ता’ ही होती है। ब्राह्मण संस्कृति आचारतंत्र और उसके साथ अन्योन्य रूप से पल्लवित भौतिक आर्थिक जीवन के प्रभाव से पैदा हर पितृसत्ता ‘ब्राह्मणीय पितृसत्ता’ ही होती है। हमें शब्दों के चयन में पर्याप्त सावधानी बरतनी चाहिए।        

दलित स्त्री : पहाड़ी स्त्री बनाम दलित स्त्री, भ्रामक अवधारणा बनाम वास्तविक संघर्ष

मेरी यह बात अतिवादी लग सकती है कि उत्तराखंड के पहाड़ों में दलित स्त्री आंदोलन तो कुछ हद तक रहा भी है लेकिन स्त्री आंदोलन नहीं। बल्कि कुछ मामलों में तो स्त्री आंदोलन बताया गया आंदोलन दलित विरोधी आंदोलन और इसीलिए दलित स्त्री विरोधी आंदोलन भी रहा है। चलिए इस बात को कुछ समझने की कोशिश करते हैं।

सबसे पहले बात करें उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन की, 1994 में मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के चलते अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधानों के खिलाफ भड़का आंदोलन पृथक राज्य आंदोलन में तब्दील हुआ जिसमें जगह-जगह पर दलितों पर हमले हुए इन हमलों का विवरण पत्रकार कुंवर प्रसून इस्लाम हुसैन के लेखन में देखा जा सकता है।

उत्तराखंड का स्त्री संगठन प्रगतिशील महिला मंच आरक्षण विरोधी आंदोलन में शामिल था उस समय की तस्वीरों में संगठन के पोस्टरों में ‘आरक्षण का एक इलाज पृथक राज्य पृथक राज्य’ जैसे नारे देखे जा सकते हैं। यह बात सही है कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान तत्कालीन तंत्र द्वारा स्त्री आंदोलनकारियों पर अत्याचार और ज्यादतियां हुई। लेकिन इस बात से उत्तराखंड राज्य आंदोलन के मूल दलित विरोधी इसीलिए दलित स्त्री विरोधी चरित्र की अनदेखी नहीं की जा सकती। उत्तराखंड के सवर्ण स्त्रियों के नेतृत्व वाले संगठनों की इस तरह की भूमिका को देखकर प्रसिद्ध नारीवादी उमा चक्रवर्ती का यह अवलोकन ध्यान हो आता है।

“ऊंची जाति के विद्यार्थियों के नेतृत्व में मंडल विरोधी प्रदर्शन (जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय के कई नामी समाजशास्त्री उचित ठहरा रहे थे) जब अपनी ऊंचाई पर था। मेरी निगाह अखबार की एक तस्वीर पर अटक गई। तस्वीर में प्रदर्शन कर रही छात्राएं थी उनके हाथों में प्लेकार्ड थे जिन पर लिखा था हम बेरोजगार पति नहीं चाहते।

इसमें निहित विडंबना पर अंग्रेजी अखबार पढ़ने वालों (प्रायः उच्च जाति के. वही छात्राएं भी प्रदर्शन करती दिखीं लेकिन छात्राएं खुद के लिए नहीं बल्कि अपने भावी पतियों के लिए विरोध जता रही थी। प्ले कार्ड पर लिखे नारों का मतलब था- वह ऊंची जाति के आईएएस पतियों से वंचित रह जाएंगी यानी अन्य पिछड़ी जाति के पुरुष अथवा दलित ही) का ध्यान नहीं गया होगा कारण प्रदर्शनकारियों की सोच से वे सहमत थे।

विरोध प्रदर्शन का कारण था सरकार द्वारा अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की घोषणा। इस वजह से सेवाओं में ऊंची जाति की हिस्सेदारी कम होने जा रही थी। विरोध में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावासों के छात्र सड़क पर उतर आए और भारी उत्पात मचाया पुरुष जो कि आरक्षण की वजह से आईएएस बनेंगे वे उनके पति हो ही नहीं सकते थे। लेकिन उनसे यह किसने कहा कि दलित या निम्न जाति के आईएएस से वे विवाह नहीं कर सकती।

कानून में तो यह पाबंदी नहीं लगाई गई थी। ऊंची जाति के बीच छात्राएं अपने पैरों में खुद ही बंधन डाल रही थी। दरअसल जाति व्यवस्था के बने रहने में कई कारकों में से जिस एक कारक की सबसे अहम भूमिका रही है वह है सजातीय विवाह की अनिवार्यता। यानी अपनी जातियां उपजाति के दायरे में ही विवाह। इसे इन छात्राओं ने इस हद तक अभ्यांतरीकृत कर रखा था कि वह इसे अपने ऊपर लागू कर रही थी। इसके साथ ही मुझे यह लगा कि वे निम्न जाति के पुरुषों के प्रति नफरत भी व्यक्त कर रही थीं (संदर्भ : जाति समाज में पितृसत्ता उमा चक्रवर्ती भूमिका)

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में वास्तविक स्त्री प्रश्न किस हद तक उपेक्षित रहा है और क्षेत्रीयता के विमर्श में किस तरह स्त्री हितों की उपेक्षा की गई है, इसका एक आधार इस अतार्किक बात से भी मिलता है कि आंदोलनकारी और अन्य सामान्य स्त्रियों का मैदान की स्त्रियों के प्रति एक विशेष किस्म की उपेक्षा और उलाहना का भाव था। पहाड़ की स्त्रियां यह मानकर चल रही थी पहाड़ी स्त्रियां शारीरिक रूप से मजबूत होती हैं क्योंकि वह मेहनती होती हैं और मैदान की स्त्रियां आलसी मोटी और अस्वस्थ होती हैं। (Source: Anti-reservation protests and the uttrakhand pro- autonomy movement: caste and regional identities in the indian Himalayas- Joanne Moller, sage publications, South Asia research 20,2000,New Delhi / thousand oaks/ london )(Source: Anti-reservation protests and the uttrakhand pro- autonomy movement: caste and regional identities)

पहाड़ की स्त्रियां इस तरह की समझ से अपनी अभावग्रस्तता का महिमामंडन कर रही हैं, यह किसी भी तरह से ही एक सम्यक स्त्री समझदारी नहीं की जा सकती। इसी तरह शराब विरोधी आंदोलन का मसला भी है। अगर गौर करें तो स्त्रियों के नेतृत्व वाला शराब विरोधी आंदोलन स्त्रियों द्वारा परिवार नाम की संस्था को बचाए जाने का आंदोलन है। उनकी नजर से यह एक जरूरी आंदोलन हो सकता है। इसे फेमिनिस्ट आंदोलन या स्त्री आंदोलन नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह परिवार के भीतर संसाधनों एवं संपत्ति में स्त्री के अपने अधिकार से जुड़ा हुआ नहीं है।

स्त्री नेतृत्व वाले पर्यावरण आंदोलन को भी इसी तरह देखा जाना चाहिए कि वह प्राकृतिक संसाधनों पर समुदाय के नियंत्रण का आंदोलन है उस समुदाय के नियंत्रण का जिसमें स्त्री की स्थिति संरचनात्मक रूप से दोयम दर्ज़े की है। जिस तरह देशों के बीच युद्ध में किसानों के बेटों की सैनिकों के रूप में लड़ने से यह किसानों की लड़ाई नहीं हो जाती उसी तरह किसी आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी से वह स्त्री आंदोलन नहीं हो जाता। स्त्री आंदोलन की पहली बुनियादी शर्त है उसे पितृसत्ता और मर्दवाद के ख़िलाफ होना चाहिए जो कि पहाड़ों में अब तक दिखाई नहीं देता है।

मुझे तो अपना यह बोध भी साफ-साफ जाहिर करना चाहिए कि यह लेख मूल रूप से जिस स्त्री पत्रिका ‘उत्तरा’ के लिए लिखा जा  रहा था उस पत्रिका के शीर्षक से मेरी गहरी नाइत्तेफ़ाकी है, क्योंकि इससे किसी सुनिश्चित स्त्री विचार का बोध नहीं होता जैसे कि एक एनी स्त्री पत्रिका ‘वामा’ से होता है। वामा से विचार का बोध होता है और ‘उत्तरा’ से ऐसा लगता है कि उत्तर क्षेत्र की सभी स्त्रियों की प्रतिनिधि पत्रिका जबकि यह एक गलत वैचारिक अवस्थिति होगी। क्योंकि उत्तर का होना कोई वैचारिक पोजीशन नहीं है और इससे इस क्षेत्र विशेष की स्त्रियों के वर्ग और जाति के अंतर्विरोध पूरी तरह ढंक जाते हैं।

उत्तराखंड के पहाड़ों  मे स्त्री विषयक एक कहावत है- ‘मुख लगी डुमड़ी गुस्याड़ी लूण’ इसका मतलब है एक दास दलित स्त्री को अगर उसकी अपर कास्ट मालकिन अपने ज्यादा नजदीक लाए या मुंह लगाए तो वह अपनी हदें पार कर देती है। यह कहावत अपने आप में पहाड़ में स्त्रियों के जाति आधारित स्तरीकरण को दिखाती है। यहां अधिक विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है बस इतना कहा जा सकता है कि पहाड़ में ब्राह्मणीय पितृसत्ता अपने सबसे ख़राब रूप में मौजूद है।

‘हिमालय दलित है’ में शामिल एक कविता कहती है

“गांव में पंथाड़ी होती है/गांव में हुडक्याड़ी होती है”

और उत्तरा शीर्षक पंथाड़ी और हुडक्याड़ी के बीच मौजूद वास्तविक भौतिक अंतर्विरोधों को छुपा देता है। और यहां केवल पंथाड़ी और हुडक्याड़ी के बीच के अंतर्विरोधों की ही बात नहीं है। उत्तराखंड जीवन में खेत मजदूरी या औद्योगिक मजदूरी करने वाली गरीब दलित स्त्रियां हैं। तो उच्च हिमालयी और तराई की जनजातीय समाज की ब्राह्मणीय पितृसत्ता के सबसे खतरनाक प्रभावों से बची हुई (आंशिक रूप से ही सही लेकिन बची हुई) स्त्रियां भी हैं गांवों देहातों और शहरों के सार्वजनिक सांस्कृतिक जीवन और संस्थानों में भी अपने सवर्ण प्रिवलेज का फायदा लेने के साथ परिवार के भीतर पितृसत्ता की मार झेलने वाली लेकिन दलित स्त्रियों से सायास दूरी रखने वाली अपर कास्ट स्त्रियां हैं।

तो एक ख़ास परायेपन के बोध के साथ जीने वाली धार्मिक अल्पसंख्यक स्त्रियां भी है। क्या कोई विचार कर पायेगा कि राज्य की लगभग 14% मुस्लिम आबादी से आने वाली स्त्रियां या तराई में रहने वाली बंगाली पंजाबी समुदाय की स्त्रियां या कुछ ख़ास जगहों में बहुत कम संख्या में रहने वाली बौद्ध स्त्रियां उत्तरा के शीर्षक या पहाड़ी महिला विमर्श के साथ अपने आप को कैसे जोड़ पाएंगी। अगर मैं कहूं कि उत्तरा से केवल पहाड़ की अपर कास्ट स्त्रियों की अस्मिता और चिंताओं का बोध होता है। तो ये बात किस आधार पर गलत ठहराई जा सकती है।

अन्य वंचनाओं या अस्मिताओ को छोड़कर केवल क्षेत्र की भी बात करें तो उत्तरा की पहाड़ी स्त्री से किस स्त्री का बोध होता है। उच्च हिमालय स्त्री और देहरादून की किसी मध्य वर्गीय अपर कास्ट पहाड़ी स्त्री की अस्मिताएं क्या एक ही हैं। शीर्षक की बात नहीं कोई भी गंभीर पाठक पत्रिका की सामग्री का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना चाहे तो वह पाएगा कि एक ही अंक में क्रांतिकारी स्त्री स्वर की कविताएं भी हैं और उसी अंक में गुलामी को सुनिश्चित करने वाले शकुन आखर पेशागत गायन और धर्म व अंधविश्वासों को बढ़ावा देने वाली सामग्री भी है।

इन तमाम बातों के मद्देनजर यह साफ है कि पहाड़ में कोई वास्तविकता स्त्री आंदोलन सड़क पर तो क्या विश्वविद्यालयों और बौद्धिक जगत मे भी नहीं है। जहां तक दलित स्त्री आंदोलन का प्रश्न है हम कह सकते हैं कि आजादी से पहले खंड में दलित स्त्री का प्रश्न कुछ हद तक सतह पर आ आया है। औपनिवेशिक काल की शुरुआत मे ब्राह्मणवादी कवि लोकरत्न पंत ‘गुमानी’ की दुराग्रह से भरी हुई कविताओं में दलित स्त्री के विषय में कहा गया है कि-

“लट्ठा कमरख मद्राजो की छीट गजी से सस्ती है/टके सेर के मेवे ख़ासे डुमडी में भी मस्ती है”।(संदर्भ- कहै गुमानी उमा भट्ट)

इसी तरह- “चूहड़े और चमार धनंधर बामण बनिये कंगले हैं/ चोखी पातर एक नहीं सब कंचनियों के दंगले हैं”।(संदर्भ: वही)

लेकिन बीसवीं सदी में हरिप्रसाद टम्टा के नेतृत्व वाले दलित आंदोलन की सबसे खास बात यह रही कि इस आंदोलन से लक्ष्मी टमटा जैसी सशक्त दलित स्त्री का उदय हुआ जो कुमाऊं की पहली स्त्री ग्रेजुएट थी। और मोहनदास नैमिशराय के मुताबिक वह पूरे भारत मैं हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में पहली महिला संपादक थीं। उन्होंने दलित अधिकारों के पत्र समता का 1935 में विशेष संपादन किया और कई लेख लिखे। औपनिवेशिक समय में राष्ट्रवादियों द्वारा संचालित पत्र शक्ति में पर्दा प्रथा के विषय में जनवरी 1931 में एक लेख छपा जिसकी लेखिका का नाम लक्ष्मी लिखा गया है। मैं निश्चित तौर पर तो नहीं कह सकता लेकिन मेरा अनुमान है कि लक्ष्मी टम्टा का लिखा हुआ हो सकता है एक अंश देखें-

“इस समय भारतवर्ष में ऐसा कोई भी घर ना होगा जहां की परदे के विषय में प्रश्न ना उठता हो। हर्ष की बात है कि बहुत से शिक्षित पुरुष पर्दे के विरुद्ध हो गए हैं। परंतु ऐसे मनुष्यों की संख्या 5% से अधिक नहीं है। भारतवर्ष में पर्दे को हटाने के लिए अभी 95% लोगों की और आवश्यकता है। बड़े हर्ष की बात है कि कुमाऊं में दूसरे प्रांतों से कम पर्दा है लेकिन खेद की बात है कि यहां पढ़े-लिखे लोगों में पर्दा है।

देहात में बहुत कम पर्दा इसी कारण देहात की स्त्रियां शहर की स्त्रियों से अधिक आरोग्य होती हैं। पर फिर भी अक्षय की कुमाऊं में स्त्रियों का बहुत अनादर किया जाता है और स्त्री पैर की जूती समझी जाती है। मैं बहनों से निवेदन करती हूं कि वह बहुत पर्दा ना करें और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें उन्हें चाहिए कि वे स्वयं उठने का प्रयत्न करें क्योंकि जब तक हम स्वयं अपनी उन्नति का प्रयत्न नहीं करेंगे हमारा उठना असंभव है भगवान भी उनकी ही सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं”। (संदर्भ- शक्ति के तीन दशक: उत्तराखंड में राष्ट्रवादी पत्रकारिता का अध्ययन- ज्योति साह पृष्ठ 186)

हरिप्रसाद टम्टा के स्वायत्त दलित आंदोलन की एक और ख़ासियत यह भी थी कि सबसे पहले उनके संगठन कुमाऊं शिल्पकार सभा ने 1935 में परिसीमन आयोग के सम्मुख मांग रखी की कुमाऊं की एक सीट स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी जाए।(संदर्भ -international Journal of Scientific and Research Publications, Volume 11, Issue 7, July 2021 306 ISSN 2250-3153 This publication is licensed under Creative Commons Attribution CC BY. http://dx.doi.org/10.29322/IJSRP.11.07.2021.p11538 www.ijsrp.org ‘Him Shilpi’ “Father of Shilpkar Revolution” Hariprasad Tamta (26 August 1887-23 February 1960) Sandeep Kumar Assistant Professor History, G.D.C. BALUWAKOTE, PITHORAGARH)

इस तरह हम देखते हैं कि स्वायत्त दलित आंदोलन के चलते दलित स्त्री प्रश्न औपनिवेशिक काल में निश्चित ही सामाजिक गतिकी के दायरे में रहा है। दलित स्त्री: अंतर्विरोधी सामाजिक गतिकी के साथ आकार लेती हुई एक क्रांतिकारी सम्भावना।

कार्ल मार्क्स कहते है– “जब कोई विचार जनता में पैठ बना लेता है तो वो भौतिक शक्ति बन जाता है”

क्योंकि जाति या ब्राह्मणीय पितृसत्ता के विचार का जनता द्वारा स्वीकृत विचार है यानि एक भौतिक शक्ति है। एक संस्कृति है। वो एक व्यापक जीवन पद्धति है। यहां से जाति या ब्राह्मणीय पितृसत्ताविरोधी संघर्ष  संस्कृति के व्यापक दायरे में प्रवेश करता है। ये समझ आंबेडकर से मिलती है कि जाति या ब्राह्मणीय पितृसत्ता की समाप्ति का रास्ता बिना किसी समझौते के पूरी कठोरता के साथ ब्राह्मण धर्म, ब्राह्मण संस्कृति, ब्राह्मण पर्व, ब्राह्मण संस्कार और ब्राह्मण जीवन पद्धति के नकार, निरोध,  विरोध, निषेध और उसका  सांस्कृतिक विकल्प तैयार करने का रास्ता है। कम से कम सांस्कृतिक संदर्भ में तो ये कहा ही जा सकता है।

हमने इस लेख में देखा कि दलित स्त्री को ब्राह्मणीय पितृसत्ता और आधुनिकता  दोनों के संदर्भ में समझना होगा।

ऐसा लगता है कि भारतीय समाज में ब्राह्मणीय पितृसत्ता और आधुनिकता के मूल्यों के बीच एक दौड़ भी है और साथ ही ये दोनों कई जगह एक दूसरे को रास्ता देते हुए दिखाई देते हैं। उत्तराखंड के खस समुदाय की स्त्रियों के जो वास्तविक विशिष्ट अधिकार ‘झटेला’ और ‘टेकुआ’ (विस्तार के लिए देखें खस फैमिली लॉ, एल डी जोशी) जैसी संस्थाओं के माध्यम से आज से एक सदी पहले मौजूद थे आज वो लुप्त हो चुके हैं यानि आधुनिकीकरण के बावजूद अगर स्त्री अधिकार समाप्त होते चले गये हैं तो यह साफ़ है कि ब्राह्मणीकरण का प्रभाव आधुनिकता पर समग्रता में हावी रहा है।

उच्चहिमालयी क्षेत्र की इन जनजातियों के संदर्भ में के एस सिंह के पीपुल  ऑफ इंडिया में दिलचस्प बात लिखी गई है-

“भोटिया लोगों में जाड़ समुदाय बौद्धमत का अनुयायी है। जोहारी, जेठोरा, तोलछा, और मारछा, हिन्दू मत को मानते हैं। जब कि दारमी ब्यासी और चौदासी अपने परम्परागत धर्म से हिन्दूमत की ओर संक्रमण की स्थिति में हैं”।(देखें पीपुल ऑफ इंडिया, the scheduled tribes वॉल्यूम, पेज-151, सम्पादन: k s singh)

संस्कृति से वर्चस्व किस तरह आकार लेता इसे यहां साफ़-साफ़ देख जा सकता है। असल में ब्राह्मण व्यक्ति की बजाय ब्राह्मण विचार ज़्यादा निर्धारक है। और पूर्व मध्यकाल में कई कबीलाई भू-संपत्तिधारक सरदारों ने ब्राह्मणों को जमीनें दान देकर उनसे अपनी वंशावली आप पुनः तैयार करवाई गई और स्वयं को क्षत्रिय वर्ण का घोषित करवाया गया समाजशास्त्री हरमन कुलके ने इस प्रक्रिया को क्षत्रियकरण कहा है। (संदर्भ: हरमन कुलके किंग एंडकल्ट्स स्टेट फॉरमेशन एंड लेजिटीमेशन इन इंडिया एंड साउथईस्ट एशिया 1993)

जो परिघटना पूर्वमध्यकाल में क्षत्रियकरण के रूप में दिखी उससे मिलती-जुलती सामाजिक गतिकी आजादी के बाद संस्कृतिकरण जिसे ब्राम्हणीकरण कहना ज्यादा उचित होगा आम समाज में दिखाई देती है, जिसके कारण ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मणीय पितृसत्ता उन समाजों की आम संस्कृति बनते चले जा रहे है। जो अतीत में उसके प्रभाव से बाहर रहे। इसके कारण आधुनिकता के मूल्यों के साथ-साथ ब्राह्मणीय पितृसत्ता भी व्यापक हो रही है।

यानि दलित स्त्री आधुनिकता से सशक्त हो रही है तो उनके परिवारों पर ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव बढ़ने से दलित पुरुषों का उन पर नियंत्रण बढ़ रहा है। और इसीलिये दलित पुरुषों की पितृसत्ता भी ब्राह्मणीय पितृसत्ता ही है दलित पितृसत्ता नही। इस तरह का अन्तर्विरोध क्यों है! इसके पीछे ब्राह्मण संस्कृति के अभिभावी होने के अलावा भारतीय आधुनिकता अपना अधूरापन भी ज़िम्मेदार है इसीलिए आंबेडकर जाति या ब्राह्मणीय पितृसत्ता के समूल नाश के  काम को  किसीआधुनिकता या आप कथित लोकतंत्र की जिम्मेदारी पर नहीं छोड़ते।

वह जाति को पैदा करने वाले धर्म ग्रंथों में डायनामाइट लगाने की बात करते हैं। कथित आधुनिकता या लोकतंत्र में भी  इस बात को अभी स्वीकारा नहीं जा सका है अब बात करें आधुनिकता सीमा की, हमें ध्यान में रखना होगा कि भारत में आधुनिकता और लोकतंत्र भारत की भूमि के अपने आंतरिक उथल-पुथल और अंतर्विरोध के चलते पैदा नहीं हुई हैं बल्कि औपनिवेशिक शासन के द्वारा यहां आयातित है। जिसने कई चीजें तोड़ी तो कई जगह वर्चस्व शाली जातियों और तबकों के साथ सामंजस्य भी बनाए रखा .इसलिए यहां लोकतंत्र दोषपूर्ण है जैसा कि डॉ. आंबेडकर कहते हैं-(“constitutional morality is not a natural sentiment it has to be cultivated.we must realize that our people have yet to learn it. democracy in India is only a top dressing to the Indian soil which is essentially undemocratic”) (Dr.Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches volume -13 page -61)

यहां आधुनिकता भी दोषपूर्ण है इस अधूरी और दोषपूर्ण आधुनिकता व लोकतंत्रसे बहुत अधिक उम्मीद नहीं करनी चाहिए जबकि उत्पादन और संस्कृति पैदा करने वाले समस्त संस्थान अपरकास्ट के कब्जे में है। और यह कब्ज़ा 21वीं सदी में हिंदू फासिस्ट शक्तियों के उभार के साथ और भी संस्थागत होता जा रहा है। और साथ ही दलित स्त्री संरचनागत संकटग्रस्तता भी बढ़ती जा रही है। जो उसे अनिवार्यतः एक निर्णायक संघर्ष के रास्ते में ले जा सकती है।

ऐसे में यही समझ में आता है कि ब्राह्मणीय पितृसत्ता के विरुद्ध समझौता विहीन संघर्ष की संभावना वाला कोई नेतृत्वकारी वर्ग हो सकता है तो वह दलित स्त्री ही है। साथ ही यहां यह साफ़ करना भी ज़रूरी है कि दलित स्त्री की अनोखी संकटग्रस्तता और इसीलिये उसकी अनिवार्य नेतृत्वकारी भूमिका को रेखांकित करने का तात्पर्य या उद्देश्य अन्य स्त्रीवादियों या शोषण की अन्य संस्थाओं के विरुद्ध संघर्षरत समूहों या वर्गों से उसकी विपरीतता अलगाव या किसी वैमनस्य को जबरन स्थापित करना नही है। यहां उद्देश्य यह है कि इस समस्त अन्याय के स्रोत यानि ब्राह्मणीय पितृसत्ता को दलित स्त्री की निगाह से ठीक से देखा और समझा जाता है और ब्राह्मणीय पितृसत्ता से अलग-अलग स्तरों पर पीड़ित स्त्रियों सहित प्रत्येक मानव समूह को इस सांस्कृतिक सामाजिक, राजनीतिक, लैंगिक और आर्थिक संस्थागत वर्चस्व की वास्तविकता से परिचित कराया जाय और साथ ही इससे सर्वाधिक पीड़ित दलित स्त्री के नेतृत्व में इसके विरुद्ध समस्त उत्पीड़ितों की एक मजबूत प्रतिरोध की संभावनाओं को तलाशा जाय।

(मोहन मुक्त का लेख)

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