बलिदान और पाखंड के दोराहे पर खड़ा लोकतंत्र

Estimated read time 1 min read

पाखंड और बलिदान में जो अंतर नहीं कर पाते वो किसान अंदोलन को समझ ही नहीं  पाएंगे। यह आंदोलन जन चेतना का परिणाम है, जहां आम जनमानस ने अपने अंतरविरोधों और आकांक्षाओं को एक लंबे समय तक बाहरी विश्वास पे परखा है और खुद को अत्यंत ठगा हुआ ही पाया है। यह आंदोलन एक वर्ग विशेष का नहीं बल्कि सामूहिक अस्मिता का प्रतीक बन कर उभरा है। जिस तरह से भ्रम टूट रहे हैं, समाज के अन्य वर्ग भी इस आंदोलन में अपने अस्तित्व की खोज में जुड़ते जाएंगे।

आम ग्रामीण जीवन सांप्रदायिकता, धर्मांधता की परिधि से बाहर आपसी सहयोग से  फलित होता है। वर्तमान में भी समाज के निर्माण के इसी मूल सिद्धांत को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। लोकतंत्र सामंजस्य से प्रेरित होता है। हठधर्मिता ने लोकतंत्र की आत्मा को हमेशा विक्षिप्त ही किया है। सरकार की नीतियों और कानूनों ने ही आम जनमानस को अपने विरोध में खड़ा कर लिया है। यह लोकतंत्र के बदलते हुए स्वरूप को ही परिभाषित करता है।

सिंघु बार्डर पर पहुंचे हुए पंजाब-हरियाणा के किसान मां-बहन, बेटियां, बच्चे, बुजुर्ग, युवा उन ‘बालिदानों के ज़िंदा शिलालेख’ हैं जो इनके पूर्वजों ने बाहर से आने वाले लुटेरों आकरांताओं, आक्रमणकारियों से समूचे भारत की रक्षा करने में दिए हैं। आज एक बार फिर से पूरे भारत में जीविका के आधार  जल, जंगल, ज़मीन की रक्षा के लिए ये हौसले, हिम्मत और निश्चय की मशाल लिए सकारात्मक संघर्ष में खड़े हैं।

यहां संघर्ष केवल विचारधारा का नहीं, ज़मीर का है, जो लोग अपने आत्मसम्मान को  गिरवी रखे हुए हैं, वो किसानों को समझा  रहे हैं कि क्या सही है। आज सता में बैठे  सियासतदां-हुकमरान जाने किस के कल्याण की बातों को समझाने के प्रयासों में मूल से कटे हुए हैं।

देश में एक नए भ्रम की स्थिति उभर रही है या हाशिये पर जाते हुए कदमों की आहटें हैं। आस्था से इतर ज़िंदगी की बुनियादी जरूरतों के लिए लोग मुखर हुए हैं और पूंजीवादी व्यवस्थाओं के प्रति एक तरह का आक्रोश अब धरातल पे आ रहा है।

अपेक्षाओं के विपरीत जिस तरह आम जनता ने संक्रमण काल को भुगता है और जिस तरह से राजनीतिक विपक्ष की असहाय स्थिति सामने है, उसने ही आमजन को विपक्ष की भूमिका में ला खड़ा किया है।

सरकार कृषि कानूनों को वापस लेने के मामले में फंस गई है। राजनीतिक लाभ-हानि को जानते हुए भी वापस नहीं लेगी, क्योंकि अगर ये कानून वापस लिए तो फिर सरकार घिर जाएगी। अन्य कानून जो इस सरकार ने लागू किए हैं। उन पे सवाल उठना लाजिम हो जाएगा और उन में से कुछ कानून को भी वापस लेने की मांग अन्य क्षेत्रों से उठने का दबाव बढ़ जाएगा, जो ये सरकार अब बिलकुल नहीं चाहेगी।

सता के गलियारों में जब ज्ञान के दीप में तर्क की बाती बुझने लगती है, यहीं विवेक पर भी विराम लगता है। यहीं पर वास्तविकता के उजालों के विपरीत अंधकार की यात्रा आरंभ होती है। भ्रम का एहसास हमेशा सुखद लगता है और एक नए कारोबार की शुरुआत होती है, जहां मुनाफा ही उद्देश्य होता है, कीमत का कोई औचित्य नहीं।

(जगदीप सिंह सिंधु वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

please wait...

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments