अम्बेडकरवादी चेतना के अफ़सानों का दस्तावेज़: वेटिंग फ़ॉर वीजा

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सवाल पैदा होता है कि अस्पृश्यता के लिए ज़िम्मेदार वर्णव्यवस्था के समर्थक गांधी की आत्मकथा, ‘माई एक्सपेरियंस विथ ट्रुथ’ भारतीयों के बीच पढ़ी जाने वाली सबसे लोकप्रिय आत्मकथा कैसे बन गयी,जबकि उसी दमनकारी वर्णव्यवस्था के ख़िलाफ़ बिगुल फूंकने वाले डॉक्टर अम्बेडकर की आत्मकथा, ‘वेटिंग फ़ॉर वीजा’ को पढ़ने वाले लोगों की संख्या मुट्ठी भर क्यों है?

जिन धर्मों में अस्पृश्यता का बदचलन नहीं हैं, उनका अस्पृश्यता को उस स्तर पर समझ पाना तक़रीबन नामुमकिन है,जिस तरह की अस्पृश्यता को अस्पृश्य क़रार दी गयीं जातियां महसूस करती हैं। ऐसा कर पाना भारत के सभी धर्मों के उन ग़ैर-अस्पृश्य जातियों के लिए भी मुमकिन नहीं है, जो इस अस्पृश्यता के लिए ज़िम्मेदार हैं। विदेशियों के लिए तो इस अस्पृश्यता को समझ पाने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि उनके यहां श्वेत-अश्वेत की फीलिंग्स तो हैं, मगर छू भर जाने से अपवित्र हो जाने की अवधारणा तो वहां बिल्कुल ही नहीं है।

बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की आत्मकथा, ‘वेटिंग फ़ॉर वीजा’ इस लिहाज़ से एक बेहद ज़रूरी आत्मकथा है। उन्होंने इसमें अपने निजी अनुभवों से अस्पृश्यता को उसके तमाम पहलुओं के साथ गहराई से रखा है। अम्बेडकर ने अपनी इस आत्मकथा में अपने एब्सट्रैक्ट विचार नहीं रखे हैं, बल्कि अपनी ज़िंदगी में ख़ुद के साथ और अस्पृश्यों के साथ हुई घटनाओं को ज्यों का त्यों रख दिया है। हालांकि,इस किताब को लिखने का उनका मक़सद था कि विदेशी उस अस्पृश्यता को आसानी से समझ सकें, जिनके यहां अस्पृश्यता जैसी कोई धारणा नहीं है। वे समझ पायें कि इस अस्पृश्यता का दंश क्या होता है और इससे उनके मन पर क्या गुज़रता होगा,जिनके साथ इस अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता है।

उन्होंने अपनी इस आत्मकथा की शुरुआत में ही लिख दिया है कि विदेश में लोगों को इस अस्पृश्यता के बारे में पता तो है,लेकिन उनके जीवन में इस तरह की चीज़ों के नहीं होने से वे इस तरह की बातों को समझ ही नहीं पाते कि यह कितना पीड़ादायक हो सकती है। वह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘विदेशियों के लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि बड़ी संख्या में हिंदुओं के गांव के एक किनारे कुछ अछूत रहते हैं, हर रोज़ गांव का मैला उठाते हैं, हिंदुओं के दरवाज़े पर जाकर भीख मांगते हैं,बनियों की दुकान से मसाले और तेल ख़रीदने के दौरान कुछ दूरी पर उन्हें खड़ा होना होता है। गांव को हर तरह से वे अपना मानते हैं,मगर गांव के किसी सामान को कभी छूते तक नहीं या फिर उसे अपनी परछाईं से भी दूर रखते हैं।’

उन्होंने इसी किताब में आगे लिखा है कि पश्चिम से 1916 में भारत लौटने के बाद उन्हें बड़ौदा नौकरी करने जाना था। यूरोप और अमरीका में पांच साल के प्रवास ने उनके भीतर से यह अहसास मिटा दिया था कि वे भी अछूत हैं और यह भी कि भारत में अछूत जहां कहीं भी जाता है, तो वह ख़ुद अपने और दूसरों के लिए किस तरह मुसीबत बन जाता है। उन्होंने लिखा है, “जब मैं स्टेशन से बाहर आया, तो मेरे दिमाग़ में अब एक ही सवाल मडरा रहा था कि आख़िर मैं कहां जाऊं, मुझे ठहरने की आख़िर जगह कौन देगा। मैं भीतक तक अद्वेलित था। मैं इस बात को जानता था कि विशिष्ट कहे जाने वाले हिंदू होटल तो मुझे जगह देंगे नहीं। वहां रहने का एक ही उपाय था कि मैं वहां झूठ बोलकर रह लूं। लेकिन ऐसा करना मुझे मंज़ूर नहीं था।’

इसी सिलसिले में उन्होंने आगे लिखा है कि जहां-जहां मैं घर तलाशने जाता, हर जगह उन्हें अपनी जाति बताने पर इन्कार मिलता। आख़िरकार एक ठिकाना इसलिए मिल गया, क्योंकि उसने जाति नहीं पूछी और डॉ. अम्बेडकर ने बिना पूछे अपनी तरफ़ से बताया नहीं। वह उस ठिकाने में रहने लगे। किसी सुबह अपने ठिकाने के बाहर लोगों के शोर-गुल सुनाई पड़ी। बाहर नज़र फेरने पर उन्हें हथियार के साथ भीड़ दिखायी पड़ी। वह भीड़ इस बात की मांग कर रही थी कि इस घर में रहने वाले उस शख़्स को बाहर किया जाये। अम्बेडकर को वहां से आख़िरकार निकलना पड़ा। ग़ौरतलब है कि यह ठिकाना पारसियों के लिए था और उन्हें निकालने पर आमादा हथियारबंद लोग पारसी समुदाय से थे।

इसके बाद उन्होंने अपने एक क्रिश्चियन दोस्त के यहां रहने की गुज़ारिश की, लेकिन अपनी ब्राह्मण पत्नी के ऊपर बात फेंकते हुए उसने उन्हें रहने के लिए अपना ठिकाना देने से इन्कार तो नहीं किया, मगर टाल ज़रूर दिया।

अपनी इसी आत्मकथा में अम्बेडकर ने दौलताबाद क़िले की कहानी सुनायी है, जिसमें वह कहते हैं कि वह क़िले के भीतर दाखिल हो गये। यह मुसलमानों के पवित्र रमज़ान का महीना था। सफ़र में धूल-धक्कड़ से पूरा बदन ढक गया था। मुंह साफ़ करने के लिए वह पानी से लबालब भरे एक छोटे से टैंक की तरफ़ बढ़े। मगर एक बूढ़ा मुसलमान आगे बढ़ा और उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। पूछे जाने पर उसने बताया कि इस टैंक के पानी का इस्तेमाल कोई अछूत नहीं कर सकता। वे अवाक थे, मगर ग़ुस्से में थे। उन्होंने ग़ुस्से में आकर सामने रोकने के लिए खड़े एक नौजवान मुसलमान से पूछा कि क्या अगर वह मुसलमान बन जायें, तो तब भी उन्हें पानी पीने से रोक दिया जायेगा। इस पर ख़ामोशी छा गयी। लेकिन, सामने खड़े हथियार बंद सिपाही इस बात के संकेत थे कि अगर उन्होंने ‘गुस्ताख़ी’ की, तो अंजाम का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।

अम्बेडकर के पढ़ने के स्कूल की वह कहानी बहुत मशहूर रही है कि अपने स्कूल में पढ़ने वाले वह एकलौते ‘अछूत’ थे। उनके बैठने की जगह अलग थी और उनके पीने के लिए पानी का मटका भी अलग था। कुछ दिनों के लिए उस अलग मटके को रखने वाला चपरासी स्कूल से कहीं बाहर चला गया और जब तक वह नहीं आया,तब तक अम्बेडकर को स्कूल चलने के दरम्यान प्यासा ही रहना पड़ा था।

ऊपर बतायी गयीं तमाम कहानियां इस बात को दिखाती हैं कि अम्बेडकर महज़ किसी एक धर्म के शिकार नहीं थे, बल्कि इस देश के भीतर तमाम पवित्र माने जाने वाले धर्मों की घृणित जाति व्यवस्था में मौजूद अस्पृश्यता के शिकार थे। उनके लिए हिंदू, भारतीय मुसलमान, पारसी और क्रिश्चियन सभी की जाति संरचना अस्पृश्यों के लिए एक समान दमनकारी थी। हालात थोड़े बदले हैं,मगर बहुत कुछ बदलना बाक़ी है।

ग़ौरतलब है कि अम्बेडकर की यह आत्मकथा महज़ 20 पेज की है, मगर अस्पृश्यों की पीड़ा का यह कोष ग्रन्थ है। इसे अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में तो पढ़ाया जाता है, मगर इसमें जहां की कहानियों का ज़िक़्र है, वहां इस ‘वेटिंग फ़ॉर विजा’ को तक़रीबन लोग जानते तक नहीं। बचपन से लेकर 1934-35 तक के उनके अपमानों को बयान करती यह आत्मकथा बताती है कि अपने ‘अछूत’ जाति में पैदा होने का दंश उन्हें सिर्फ़ हिंदुओं से ही नहीं मिला था, बल्कि मुसलमानों, पारसियों और इसाईयों ने भी उतनी ही भूमिका निभायी थी। अम्बेडकर की यह आत्मकथा भारत के हिंदुओं, मुसलमान, पारसियों और क्रिश्चियनों के घोर जातिवादी होने के सुबूत हैं। यानी मनुवादी सिर्फ़ महज़ हिंदू सवर्ण ही नहीं, मुसलमान, पारसी और क्रिश्चियन सवर्ण भी होते हैं।

ऐसे में सवाल यह भी पैदा होता है कि अस्पृश्यों के लिए ज़िम्मेदार वर्णव्यवस्था के समर्थक गांधी की आत्मकथा, माई एक्सपेरियंस विथ ट्रुथ भारतीयों के बीच पढ़ी जाने वाली सबसे लोकप्रिय आत्मकथा कैसे बन गयी, जबकि उसी दमनकारी वर्णव्यवस्था के ख़िलाफ़ बिगुल फूंकने वाले डॉक्टर अम्बेडकर की आत्मकथा, वेटिंग फ़ॉर वीजा को पढ़ने वाले लोग दुर्लभ क्यों हैं?

(उपेन्द्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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