सात महीने तक जेल में अवैध रूप से रखे जाने के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर डॉ. कफील खान यूपी की फासिस्ट सरकार की जेल से आजाद हो गए। जेल से निकलने के बाद उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखने और फासिस्ट सरकार के आगे न झुकने का एलान किया है। यहां तक तो सब सुखद है, लेकिन जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उसके मुताबिक डॉ. कफ़ील खान अब अपनी राजनीतिक पारी शुरू करना चाहते हैं। उन्होंने सभी राजनीतिक दलों को मदद के लिए शुक्रिया भी अदा किया है। हालांकि अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में वो राजनीति में जाने की बात का खंडन कर चुके हैं, लेकिन उनकी गतिविधियां और हावभाव कुछ और गवाही देते हैं।
राजनीति बुरी चीज नहीं है, लेकिन डॉ. कफील के लिए यह अच्छी और बुरी दोनों है। उनके पास विकल्प सीमित हैं। यूपी में यादव पार्टी यानी समाजवादी पार्टी (सपा) अंतिम सांसें गिन रही है। उनके संगठन का शीराजा बिखर चुका है। अल्पसंख्यक समुदाय यादव पार्टी से दूर जा चुका है। पूर्व मंत्री आजम खान के मामले में यादव पार्टी का जो रवैया रहा है, उसकी वजह से अल्पसंख्यकों का सपा से मोहभंग हो चुका है, इसलिए डॉ. कफील सपा में जाने से रहे।
बसपा पहले से ही भाजपा की अघोषित सहयोगी पार्टी के रूप में काम कर रही है। बसपा सुप्रीमो अपनी मौजूदा रणनीति से भाजपा को खुश करती रहेंगी। बसपा जैसी पार्टी में डॉ. कफील क्यों जाना चाहेंगे। अब कम्युनिस्टों पर आते हैं। सीपीएम और सीपीआई का यूपी में किसी तरह का कहीं कोई जनाधार बचा नहीं है। थोड़े बहुत पॉकेट्स हैं तो वो भी बहुत बिखरे हुए हैं। सारी अच्छाइयों के बावजूद जब जनाधार न हो तो कोई इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों में क्यों जाना चाहेगा।
अलबत्ता बैरिस्टर डॉ. असददुद्दीन ओवैसी की आल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) ने डॉ. कफील खान को खुला न्यौता पार्टी में शामिल होने का दिया है, लेकिन इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में तमाम व्यावहारिक दिक्कतें हैं, जिसमें सबसे बड़ी दिक्कत है, भारत के आम मुसलमानों ने इसे अपनी पार्टी के रूप में स्वीकार नहीं किया है। डॉ. खान ऐसी पार्टी में क्यों जाना चाहेंगे, जिसकी राजनीति सिर्फ हैदराबाद या ज्यादा से ज्यादा मुंबई तक सिमटी हो, या जिस पर मुसलमानों के वोट काटने का आरोप हो।
अंत में बचती है कांग्रेस, जिसमें शामिल होकर या उसके बाहर रहकर कांग्रेस की लाइन के आधार पर डॉ. कफील अपनी राजनीति कर सकते हैं। पर इसके खतरे बड़े हैं। इस पर चर्चा बाद में। पहले कुछ जरूरी बातें।
देश में तमाम सामाजिक संगठनों, एनजीओ, व्यक्तिगत तौर पर हमारे-आप जैसे लोगों के अलावा कांग्रेस के अल्पसंख्यक विभाग ने डॉ. खान की रिहाई के लिए अभियान चलाया। कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग का आधिकारिक अभियान पिछले तीन महीने से बहुत ही जोरशोर से चल रहा था। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने 3 सितंबर 2020 को सुबह डॉ. खान से फ़ोन पर बात भी की।
इससे पहले भी डॉ. खान को क़ाबिल वकीलों की मदद दिलाने में कांग्रेस ने अच्छी भूमिका निभाई है। इसके लिए ख़ासतौर पर कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग के चेयरमैन नदीम जावेद की रणनीति कामयाब रही। वहां से रिहा होने के बाद डॉ. कफील खान कांग्रेस शासित राजस्थान में कुछ दिन आराम भी करेंगे।
डॉ कफील खान के कांग्रेस में जाने के खतरे और जोखिम भी कम नहीं हैं। कांग्रेस एक बड़ा समुद्र है। उनके जैसा समझदार शख्स वहां जाकर गुम हो सकता है। वहां के घाघ नेता उन्हें डंप कर सकते हैं। अगर पार्टी उनका ठीक तरह से दोहन नहीं कर सकी तो वो भी दूसरे गुलाब नबी आजाद टाइप नेता या ज्यादा से ज्यादा कहीं से राज्यसभा में जाने का जुगाड़ भर कर पाएंगे। कांग्रेस उन्हें किस रूप में पेश करेगी, उसके नेताओं को खुद भी कुछ पता नहीं है। डॉ. खान की ऊर्जा का इस्तेमाल कांग्रेस पार्टी किस तरह करेगी, यह स्थिति पहले से साफ होनी चाहिए। कांग्रेस में जाने पर वह इस पार्टी की उस तरह से आलोचना नहीं कर पाएंगे, जिस तरह वह अब तक थोड़ी-बहुत करते रहे हैं।
बहरहाल, डॉ कफ़ील खान के कांग्रेस में जाने से अगर यूपी में उस पार्टी में जान पड़ जाती है तो इस क़दम में कोई बुराई नहीं है, लेकिन कांग्रेस में जाने से पहले डॉ. खान को उस पार्टी से राजनीतिक डील लिखित में करनी चाहिए। डॉ. खान को वो सारी शर्तें कांग्रेस के सामने रखनी चाहिए जो वह विभिन्न मंचों पर अपने भाषण में कहते रहे हैं। क्या कांग्रेस डॉ. खान को उनके सिद्धांतों और उनके विजन के साथ अपनाने को तैयार है। दो बार जेल काट चुके डॉ. खान अब महज गोरखपुर के डॉक्टर नहीं रह गए हैं। फासिस्ट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के चक्कर में उन्हें राष्ट्रीय हीरो बना दिया है। डॉ. कफील खान के साथ उनकी यह छवि अब साथ-साथ चलेगी।
एक बात और।
कांग्रेस से विभिन्न समुदायों, समूहों और संगठनों से यह डील का समय है। डॉ. कफील खान, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव के अलावा जेल में बंद संजीव भट्ट, वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुम्बडे, गौतम नवलखा समेत तमाम लोग इस डील के अगुआकार बन सकते हैं। इसे हम ‘राष्ट्रीय जनहित डील’ कह सकते हैं। कांग्रेस जब भी सत्ता में वापसी करेगी, उसके पास आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, बेरोजगार युवकों, किसानों, मजदूरों, गरीबों के लिए क्या ठोस विजन है।
‘राष्ट्रीय जनहित डील’ के जरिए कांग्रेस अपना नजरिया देश को बता सकती है। कांग्रेस इन तमाम लोगों को गवाह बनाकर वादा करेगी कि वह अतीत को भूलकर अब नए सिरे से एक ऐसे भारत के नवनिर्माण में जुटेगी, जिसका सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक तानाबाना मोदी सरकार ने छिन्न-भिन्न कर दिया है। यह स्थिति शायद भारत की जनता को भी सोचने को मजबूर करे। चूंकि लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं, इसलिए कांग्रेस शायद इस पर ध्यान न दे।
सच तो यह है कि अकेले राहुल गांधी के खरा-खरा बोलने या उनके भाजपा-आरएसएस से मोर्चा लेने से काम नहीं चलने वाला। कांग्रेस के पास किसी भी समुदाय के लिए कोई ब्लूप्रिंट और रोडमैप नहीं है। उसे बहुसंख्यकों के लिए तो कोई ब्लूप्रिंट बनाना नहीं है। वह उससे वैसे भी दूर जा चुका है। अभी तो बहुसंख्यक समुदाय का बड़ा तबका मंदिर निर्माण में इतना मस्त है कि उसे रोटी-रोजी या रसातल में जा रही भारतीय अर्थव्यवस्था की तरफ देखने की फुरसत नहीं है।
कांग्रेस की विडम्बना यह है कि वह अपनी ऐतिहासिक भूमिका को भूलकर भाजपा-आरएसएस के एजेंडे पर या चलने लगती है या उन्हीं की पिच पर खेलने लगती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सॉफ्ट हिन्दुत्व को लेकर उनका नजरिया है। कांग्रेस अगर पूरी तरह खुद को भाजपा घोषित कर दे तो भी बहुसंख्यक समुदाय का एक बड़ा तबका उसे वोट नहीं देने जा रहा है, इसलिए उसे अपने सिद्धांतों पर वापस आकर काम करना चाहिए। नतीजा आएगा, देर जितनी भी लगे। इसके लिए उसे अनगिनत डॉ. कफील खान जैसे लोग चाहिए होंगे।
कांग्रेस ने अतीत में किसके लिए क्या किया उसे दोहराने का कोई फ़ायदा नहीं है और न कांग्रेस के नेताओं को ही उसे दोहराना चाहिए। उसे नई परिस्थितियों में नए हथियार से लैस होकर आना होगा। कांग्रेस के पास मौक़ा है कि वह डॉ. कफील खान के बाद अब संजीव भट्ट, सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, आनंद तेलतुम्बडे आदि की रिहाई के लिए बड़ा आंदोलन गांधी जी की शैली में छेड़े। यह उचित मौका है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)