एक महीने के अंदर भारत एक नए राष्ट्रपति को देखेगा। तब तक इस लेख के प्रकाशन का शायद कोई औचित्य भी नहीं रहेगा। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल 24 जुलाई को खत्म हो जाएगा और चुनाव आयोग ने 18 जुलाई 2022 के दिन को राष्ट्रपति चुनाव के लिए निर्धारित कर दी है। अब लगभग सारे नामांकन भी हो चुके हैं। कुछ अभ्यर्थियों ने पहले ही दिन अपना नामांकन भर दिया। पर सभी की निगाहें सत्ता पक्ष और विपक्ष द्वारा मनोनीत उम्मीदवारों पर थीं। खैर, सस्पेंस अब खत्म हो गया है। भाजपा और उसके सहयोगियों ने झारखंड की पूर्व राज्यपाल रहीं द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाया है, जबकि विपक्ष ने पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को मैदान में उतारा है। उम्मीदवारी के घोषणा के कुछ ही पलों में ही सोशल मीडिया पर एक आदिवासी महिला को उम्मीदवार बनाने के वास्ते सत्तारूढ़ पार्टी की प्रशंसा करने वाले पोस्ट की बाढ़ सी आ गई।
इसके साथ ही रणनीति के तौर पर उनका एक मंदिर के फर्श पर झाड़ू लगाते हुए एक वीडियो वायरल हो गया है। राष्ट्रपति जैसे औपचारिक पद के लिए द्रौपदी मुर्मू का चयन केवल प्रतिनिधि प्रतीकवाद का कार्य नहीं है, बल्कि यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की मूल राजनीतिक और भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की परियोजना की साफ़-साफ़ उद्घोषणा है।
आरएसएस-भाजपा द्वारा द्रौपदी मुर्मू को उनके आदिवासी पहचान के अलावा उन्हें किस तरह आदिवासी-मूलनिवासियों के मूल आंदोलन जल, जंगल, जमीन, संसाधन इत्यादि को निरस्त करने में उपयोग किया जाएगा, इसकी भी दूरगामी दृष्टि दिखाई देती है। इन संसाधनों को कॉर्पोरेट के हाथों में सौंपने के खिलाफ यदि कोई समुदाय आड़े आता है, तो वह है आदिवासी। यही वजह है कि झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में कई दशकों से इन मुद्दों पर जबरदस्त आंदोलन चलता आया है। यह भी स्पष्ट है कि वर्तमान में आरएसएस द्वारा संचालित जनजाति सुरक्षा मंच जिस डिलिस्टिंग के आंदोलन को तूल दे रहा है, उसके लिए एक ऐसे व्यक्तित्व का सर्वोच्च संवैधानिक पद पर रहना भी जरूरी है जो स्वयं उसी समुदाय से ताल्लुक रखता हो।
यह सच है कि द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से हैं। आदिवासी समुदायों के बीच चल रहे तमाम संसाधन आधारित बहसों के बीच एक तरफ भाजपा इन समुदायों में अपने सामाजिक आधार को व्यापक बनाने की कोशिश कर रही है। दूसरी ओर कई आदिवासी संगठन लगभग दो दशक से आदिवासियों के लिए अलग धर्म-कोड की पुरजोर मांग कर रहे हैं। जिससे हिंदुत्व के प्रोजेक्ट के लिए विराट खतरा पैदा हो गया है। उदाहरण के लिए झारखंड और झारखंडी आदिवासियों ने अपने लिए अलग ‘सरना धर्म कोड’ को शामिल करने की मांग की है। इसी तरह अन्य राज्यों में भी आदिवासी धर्म कोड की बात उठी है। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन और वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने खुलकर इस मांग का समर्थन किया है। हाल ही के वर्षों में हेमंत सोरेन ने कई बार दृढ़ता के साथ दावा किया है कि “आदिवासी कभी हिंदू ना थे, और ना होंगे।”
इस कथन का भाजपा पुरजोर विरोध करती आ रही है। अलग धर्म कोड की बात ने आरएसएस के हिंदुत्व के प्रोजेक्ट को अंदर से हिला दिया होगा। ऐसी परिस्थिति दुनिया के अनेक देशों के आदिवासी-मूलनिवासियों के साथ भी है। उनमें से अधिकतर देशों में वहां की सरकारों ने इन मांगों को स्वीकार भी कर लिया है। इस मसले पर अन्तरराष्ट्रीय मूलनिवासी संगठन और संयुक्त राष्ट्र के कई संगठनों ने भी अपना समर्थन जताया है। इन तमाम कारणों से इस खतरे को कमजोर करना बहुत जरूरी है, जिसके बिना हिंदू राष्ट्र की घोषणा करना असंभव है, क्योंकि ऐसा करने से विश्व स्तर पर भारत का बड़ा विरोध होगा।
यानी जल, जंगल, जमीन, खनिज, संसाधन को कॉर्पोरेट घरानों को देना, डिलिस्टिंग के द्वारा आदिवासियों की जनसंख्या घटाना, आदिवासी इलाकों को सामान्य घोषित करना, इन इलाकों में चुनाव के माध्यम से आदिवासियों की जगह गैर-आदिवासी यानी किसी ऊंची जाति के उम्मीदवार को खड़ा करना, आदिवासियों को देश के हिंदू समाज के अनुसार वश में करना और भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करना; यह सब इस समुचित प्रोजेक्ट का व्यापक हिस्सा है। आदिवासियों को हिंदुत्व के व्यापक प्रोजेक्ट में शामिल करना इन तमाम कारणों से अनिवार्य है और द्रौपदी मुर्मू जो मंदिर में झाड़ू लगाने वाली वीडियो में दिख रही हैं उन्हें उन आदिवासी समुदायों के साथ पुल बाँधने में भाजपा सरकार अवश्य उपयोग में ला सकती है।
यह शायद ही मायने रखता है कि राष्ट्रपति उम्मीदवार किस विशेष समुदाय से है। एक स्वच्छ जनतंत्र में ऐसे बड़े संवैधानिक पदों पर बैठने वाला व्यक्ति एक दलित, आदिवासी, पिछड़ा, मुसलमान या ईसाई हो या नहीं, इसका भी कोई मायने नहीं रखता। कोई भी चुनाव एक जटिल संख्या का खेल होता है। जो इसमें चलाने में सक्षम है, वही विजेता भी होता है। पर यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि यह एक बड़ी रणनीति का अहम हिस्सा है कि इसमें ऐसे समुदाय के लोगों के नाम को उछाला जाये जिसके बलबूते पर आगे की योजना को कारगर रूप से कार्यान्वित किया जा सके।
संघ परिवार के द्वारा संचालित केंद्र की भाजपा सरकार दुनिया को ऐसा महसूस करवाने के प्रयास में है कि वे भारत के वंचित, शोषित, पीड़ित और हाशिए के लोगों के सबसे बड़े हितैषी हैं। इस संदर्भ में एक और बात यहां रखना जरुरी है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अपनी पत्नी के साथ 18 मार्च 2018 को ओडिशा के पुरी जगन्नाथ मंदिर गए थे। वे जब गर्भगृह के रास्ते पर थे, तब उनके तथाकथित निचली जाति से होने की वजह से कुछ पण्डों ने उनका रास्ता रोका और कुछ ने उनकी पत्नी के साथ धक्का-मुक्की भी की। पण्डों की इस हरकत पर राष्ट्रपति भवन ने कड़ी आपत्ति जताते हुए अगले दिन 19 मार्च को पुरी के ज़िला अधिकारी अरविंद अग्रवाल को पत्र भेजा। इसी तरह राष्ट्रपति 15 मई, 2018 को राजस्थान के पुष्कर में स्थित ब्रह्मा मंदिर गए थे।
मीडिया के माध्यम से मिली जानकारी के अनुसार यहां भी राष्ट्रपति को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था, जिसके चलते उन्होंने मंदिर की सीढ़ियों पर पूजा की थी। इस घटना का न आरएसएस, न संघ के किसी संगठन या फिर कोई अन्य हिंदू संगठन ने इसका कोई विरोध किया। इसमें कोई दो मत नहीं है कि यह सब दलित होने की वजह से ही होता चला और सरकार और उसके तंत्र की भी इसमें मौन हामी है। अन्यथा इस देश के प्रथम नागरिक को मंदिर प्रवेश करने से रोकने की हिम्मत किसी को कैसे हो सकती है? इन मामलों में केंद्र और राज्य सरकारें दोनों ही दोषी हैं।
शायद यही कारण हैं कि द्रौपदी मुर्मू का मंदिर में झाड़ू लगाने वाला वीडियो सबसे पहले वायरल हुआ ताकि लोग ऐसा महसूस करें की हिंदू धर्मं को कंधे में लेकर चलने वाली आदिवासी महिला होगी भाजपा का अगला राष्ट्रपति। आदिवासियों का ईसाई धर्म में धर्मांतरण और जनसांख्यिकी में हुए परिवर्तन अब आरएसएस के लिए एक बड़ा चुनौती बन गई है। विगत चार-पांच दशकों में उत्तरपूर्व के नागालैंड, मिजोरम और मेघालय जैसे राज्य 80-90 फ़ीसदी ईसाई हैं। वहीं मणिपुर में लगभग 50 प्रतिशत और त्रिपुरा एवं अरुणाचल में 20 से अधिक फ़ीसदी ईसाई जनसंख्या है। यह सारे इंडीजेनस समुदाय के हैं। ऐसे ईसाई बहुल इलाके की निर्मिति हिंदू राष्ट्र परियोजना के ठीक विपरीत है। आरएसएस को डर है कि आदिवासी धर्मांतरण का असर शेष भारत पर पड़ेगा।
भारत में ईसाई मिशनरियों का काम 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के आरंभ में शुरू हुआ। बावजूद इसके आदिवासी बहुल राज्य जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में इनकी संख्या बहुत कम है। लेकिन संघ परिवार ने तो धर्मांतरण को रोकने के साथ-साथ हिंदू राष्ट्र की घोषणा को एक मिशन की तरह ले लिया है। और इसके लिए तमाम पैंतरा भी खेला जा रहा है। आरंभ में कोशिश भी यह रही है कि ईसाई मिशनरियों के समानांतर शिक्षण और स्वास्थ्य की सुविधा को बनाये रखें। तमाम प्रयासों के बावजूद वनवासी कल्याण आश्रम मिशनरी स्कूल या कॉलेज के आसपास भी नहीं भटक सका। यही हाल आरएसएस के द्वारा आरंभ किये गए, स्वास्थ्य सेवाओं का भी रहा है। तब फिर धर्म, संस्कृति, परंपरा, इत्यादि का सवाल भी एक के बाद एक सामने आने लगा जिसके आधार पर हिंदुत्व को बढ़ावा देने के लिए कई प्रयास किए गए। प्रोफेसर बद्री नारायण के मुताबिक आदिवासी क्षेत्रों में हिन्दुओं और आदिवासियों के बीच एक तालमेल बनाने के वास्ते आदिवासी देवी-देवताओं को हिंदू मंदिरों के अंदर प्रतिष्ठित करते देखा है।
हाल के दशक में हिंदू संगठनों द्वारा चर्चों और आदिवासियों के बीच काम करने वाले मिशनरियों के खिलाफ बेलगाम हिंसा की काफी बढ़ोत्तरी हुई, विशेषकर आदिवासी समुदायों से ताल्लुक रखनेवालों पर। लेकिन यह अब शायद मुद्दा ही नहीं बनेगा क्योंकि जब राष्ट्रपति भवन में एक संथाल हिंदू आदिवासी महिला तमाम अंतर्द्वंद को बिना उभारे संभाल लेगी तब फिर हिंदुत्व को साकार करना बहुत हद तक संभव हो जायेगा।
वैचारिक और सैद्धांतिक तौर पर यदि इस देश में कोई मूलत: जनवादी और धर्मनिरपेक्ष है, यानी हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के खिलाफ है तो वह दलित और आदिवासी ही हैं। कुछ एक इनके सहयोगी मित्र भी इसके हिस्सेदार हैं। तिलका मांझी, सिद्धू-कान्हू मुर्मू, फुले, बिरसा मुंडा, आंबेडकर, पेरियार, जयपाल सिंह मुंडा आदि लोगों ने इसी विचारधारा को आगे बढ़ाया और गुलामी से मुक्ति का मार्ग दिखाया। बाकी के ईसाई और मुसलमान अपने काम बनाने और स्वयं की स्वतंत्रता तक ही सीमित हैं। केवल दलित और आदिवासी ही ऐसे समुदाय हैं, जो इस देश के एक-दूसरे के सवालों के अलावा पिछड़ा वर्ग, मुसलमान और ईसाई के सवालों पर उनके साथ खड़ा होता है। लेकिन यह विपरीत क्रम में कम ही नजर आती है। और यदि आया भी तो वे मुसलमान और ईसाई मूलतः दलित और आदिवासी वर्ग में से ही होंगे। यदि दलित और आदिवासियों के बीच से कोई इस तरह की प्रगतिशील आवाज उठे तो उसका वैचारिक और वास्तविक रूप से गला घोंटना अब और आसान हो जायेगा।
यह कोई पहली मर्तबा नहीं कि आरएसएस ने द्रौपदी मुर्मू जैसी उम्मीदवार पर दांव खेला हो। जब वाजपेयी प्रधानमंत्री रहे, तब भी भाजपा ने अपने धर्मनिरपेक्ष होने का संकेत देते हुए अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति के रूप में खड़ा किया था। इसी तरह वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी भाजपा के तमाम रणनीतिक योजना में सही बैठे। एक था मुसलमान और दूसरा दलित – दोनों आंकड़ों के गणित में सटीक बैठा। अब इस गठजोड़ में बचा आदिवासी। यदि उसमें महिला जुड़ जाये तो फिर सोने पे सुहागा होगा। इस तरह एक तीर में दर्जनों पक्षी को गिराने की उत्तम योजना। सांकेतिकता की राजनीति के मामले में आरएसएस और भाजपा से आज कोई और आगे नहीं बढ़ पाया है। अब शीघ्र ही हिंदुत्व ब्रिगेड का एक बड़ा बयान होगा कि वह हिंदू जनजातियों को सत्ता संरचनाओं में समायोजित करने के लिए तैयार है। पर आने वाली पीढ़ी इस इतिहास को भी कभी नहीं भूलेगी कि इस ब्राह्मणवादी समाज ने एक को मंदिर प्रवेश नहीं करने दिया तो दूसरी मंदिर का झाड़ू लगा रही थी।
(डॉ. गोल्डी एम जॉर्ज पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं और आजकल रायपुर में रहते हैं।)