तथ्यों से परे है कच्चाथीवु पर विवाद और नेताओं की बयानबाजी 

एक वक्त था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दक्षिण तट के दोनों ओर मछुआरों के मुद्दों का समाधान चाहते थे। कम से कम 2015 में अपनी श्रीलंका की आधिकारिक यात्रा के दौरान तो उन्होंने यही बताया और जताया था। इस दौरान उन्होंने दोनों ओर के मछुआरों की आजीविका और मानवीय पक्षों पर चिंता व्यक्त करते हुए दीर्घकालिक समाधान की बात की थी। इस मामले में उन्होंने भारत और श्रीलंका के फिशरमेन एसोसिएशन को आपसी सहमति से एक बेहतर व्यवस्था बनाने की की चर्चा की थी और कहा था कि इन समाधानों पर दोनों सरकारें काम करेंगी ताकि इस वर्ग की समस्याओं का पूरी तरह समाधान हो सके।

आज स्थिति उलट है, उनके हाल के ट्वीट से तो कम से कम यही पता चलता है। आज नौ वर्षों बाद एक बार फिर से कच्चाथीवु का मुद्दा उठा तो लोगों का ध्यान उस ओर गया। इस बार यह मुद्दा समस्याओं के समाधान के लिए या किसी मानवीय चिंता के लिए नहीं बल्कि चुनावी रणनीति के तहत उठाया गया है। दक्षिणी राज्यों में अपनी पैठ बनाने को बेताब बीजेपी को कुछ और नहीं मिला तो यह पैंतरा चल दिया। कच्चाथीवु का यह ‘भावनात्मक जाल’ वहां की समस्याओं के समाधान के लिए नहीं बल्कि वोटर्स को फंसाने के लिए फेंका गया है।   

प्रधानमंत्री के ट्वीट के मुताबिक सत्तर के दशक में कांग्रेस ने कच्चाथीवु द्वीप श्रीलंका को दे दिया था। उनके मुताबिक यह घटना डीएमके के दोगलेपन को उजागर करता है। इस ट्वीट के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि इस मुद्दे पर तमिलनाडु के लोगों को गुमराह किया गया है। तमिलनाडु में तटीय मछुआरा समुदाय प्रधानमंत्री की नेहरू और कांग्रेस विरोधी बयानबाजी से प्रभावित हो या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा लेकिन फिलहाल उनका एक ही सवाल होगा कि सरकार की ‘आजीविका’, ‘मानवीय चिंताओं’ और समस्याओं के ‘दीर्घकालिक समाधानों’ की वह तलाश कहां तक पहुंची जो नौ वर्षों पूर्व शुरू हुई थी।

द्वीप का जाना इस समुदाय के लिए इतना मायने नहीं रखता जितना की उनकी समस्याएं। उनका एक ही सवाल है कि मोदी और उनकी सरकार ने पिछले दशक में मछुआरों के ‘जटिल मुद्दों’ पर क्या किया। इस सवाल का जवाब आरोप प्रत्यारोपों में नहीं बल्कि इतिहास के उन पन्नों में मिलेगा जिसमें समुद्री सीमा तय करने वाले समझौतों का जिक्र है। यह समझौते भारत और श्रीलंका के बीच 1974 और 1976 में हुए थे। उसी इतिहास में यह भी मिलेगा कि कच्चाथीवु पर अपना दावा छोड़ने के बदले में भारत को क्या मिला था। 

एक नजर इतिहास पर  

कच्चाथीवु तमिलनाडु में रामेश्वरम के उत्तर-पूर्व और श्रीलंका के डेल्फ़्ट द्वीप के दक्षिण-पश्चिम में है। इसकी लंबाई 1.6 किमी से अधिक नहीं है और इसकी अधिकतम चौड़ाई तकरीबन 300 मीटर है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1960 में संसद में कहा था कि यह द्वीप पंबन से 18 मील पूर्व में है और पंबन कहां है उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी। कच्चाथीवु का विवाद पहली बार 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी और श्रीलंका के बीच उभरा था। उस दौरान दोनों ही तरफ ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार का शासन था। दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों ने अक्टूबर में कोलंबो में पाक जलडमरूमध्य और मन्नार की खाड़ी के परिसीमन पर चर्चा के लिए एक सम्मेलन किया। सीलोन प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व उस समय सीमा शुल्क के प्रमुख कलेक्टर बी हॉर्सबर्ग ने किया था।

उनका कहना था कि दोनों तरफ की भूमि से मध्य रेखा की दूरी समान होने के कारण परिसीमन मध्य रेखा के साथ होना चाहिए। कच्चाथीवु को शामिल करने के लिए तीन मील पश्चिम की ओर मुड़ना होगा। ऐसे में उन्होंने कहा कि द्वीप पर श्रीलंकाई दावा भारत सरकार के साथ पिछले पत्राचार का हिस्सा था और भारतीय पक्ष ने इसका विरोध नहीं किया था। उस समय मद्रास प्रेसीडेंसी के अधिकारियों ने बताया कि द्वीप रामनाद के राजा की जमींदारी में था और इसके पट्टे से उन्हें किराया मिल रहा था।

हालांकि उनके पास इस दावे का आगे किसी प्रकार के विरोध करने या खंडन करने का कोई निर्देश नहीं था। ऐसे में अधिकारी समझौता करने पर सहमत हुए और श्रीलंकाई पक्ष की मांग के अनुसार मध्य रेखा में विचलन पर सहमति दे दी। हालांकि राज्य सचिव ने इसे वैध नहीं माना और यह समझौता कभी लागू नहीं हुआ। 

अगस्त 1947 में भारत और फरवरी 1948 में श्रीलंका को आजादी मिलने के बाद भी दोनों तरफ से अनिर्धारित पानी में मछली पकड़ना जारी रहा। समय-समय पर बंजर द्वीप पर दावा दोनों तरफ से पेश किया जाता रहा। फिर नए स्वतंत्र सीलोन की पहली सरकार के कारण भारतीय मूल के तमिलों के लिए नागरिकता एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ गई। इस नई सरकार ने भारतीय मूल के तमिलों को राज्य विहीन कर दिया था। इस मुद्दे ने दो नए देशों के बीच संबंधों में कड़वाहट पैदा कर दी थी। नेहरू ने 1954 में कहा था कि दुर्भाग्य है कि सीलोन में कुछ राजनेता और कुछ समूह न तो समझदारी से बात करते हैं और न ही काम करते हैं और बार-बार मैत्रीपूर्ण समझौते के रास्ते में आते हैं।

श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरिमाओ भंडारनायके बीजिंग की करीबी थीं।1974 और 1976 के समझौतों में श्रीलंका को कच्चाथीवु से विचलन की अनुमति देते हुए यह भी सुनिश्चित किया गया था कि भारत और श्रीलंका के अलावा कोई तीसरा पक्ष इस अशांत जल में मछली नहीं पकड़ेगा। इसका कारण था कि पाक जलडमरूमध्य दोनों देशों के इकोनॉमिक जोन में विभाजित था। 1974 में कच्चाथीवु पर समझौते के आसपास ही इंदिरा गांधी और भंडारनायके ने इंदिरा-सिरिमाओ समझौते पर हस्ताक्षर किए।

राज्यविहीन भारतीय मूल के तमिलों के मुद्दे का हल निकलाने की दिशा में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक प्रक्रिया की शुरुआत की थी जिसे इंदिरा गांधी ने पूरा किया था। डीएमके और कच्चाथीवु पर मोदी की बयानबाजी एक आरटीआई की जानकारी पर आधारित है जो कि कथित रूप से तमिलनाडु भाजपा प्रमुख के अन्नामलाई ने प्राप्त की है। आरोपों के विपरीत जानकारी से पता चलता है कि राज्य सरकार को तत्कालीन विदेश सचिव केवल सिंह द्वारा इंदिरा गांधी के फैसले के बारे में सूचित किया गया था और सहमत होने के लिए कहा गया था।

कच्चाथीवु को ‘सौंपना’ ठीक वैसा ही होगा जैसा 370 को हटाना 

 45 साल पहले की इस घटना को ठीक उसी तरह देखा जा सकता है जैसे अनुच्छेद 370 को कश्मीर और कश्मीरियों के लिए। ठीक उसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना किसी से राय मशविरे या पूर्व सूचना के 370 को हटा दिया था। उस दौर में इंदिरा गांधी ने मुख्यमंत्री एम करुणानिधि को अगले आठ महीनों के लिए जेल नहीं भेजा और द्रमुक को विरोध करने की अनुमति दी गई थी। कुछ लोगों ने तर्क दिया है कि करुणानिधि को इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाना चाहिए था, जैसे बीसी रॉय ने पश्चिम बंगाल में बेरुबारी के लिए किया था।

नेहरू बेरुबारी को पूर्वी पाकिस्तान में स्थानांतरित करना चाहते थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि संवैधानिक संशोधन के बिना किसी अन्य देश में क्षेत्र का हस्तांतरण अवैध था। बेरुबारी के विपरीत, कच्चाथीवु कभी भी आधिकारिक तौर पर किसी भी भारतीय मानचित्र का हिस्सा नहीं था। द्रमुक सरकार कई वर्षों बाद अदालत में गई, जब तत्कालीन विपक्ष में अन्नाद्रमुक नेता जे जयललिता ने कानूनी चुनौती पेश की।

बदले में मिला वेज बैंक

अब जिज्ञासा यह होती है कि इस द्वीप के बदले दिल्ली को क्या मिला तो बता दें कि  कच्चाथीवु  के बदले श्रीलंका ने वेज बैंक पर अपना दावा छोड़ दिया और कन्याकुमारी के पास समुद्र के एक हिस्से पर भारतीय संप्रभुता स्वीकार कर ली। पाक जलडमरूमध्य में एक निर्जन द्वीप की तुलना में बेहतर था। मोदी सरकार इसका जिक्र नहीं करती। कच्चाथीवु संधियों में भूवैज्ञानिक विशेषज्ञों ने वेज बैंक में समुद्र के नीचे तेल और गैस भंडार की संभावना की ओर इशारा किया था।

1974 और 1976 के समझौतों में नियम और शर्तें निर्धारित की गई थीं कि दोनों पक्ष पाक जलडमरूमध्य और विशेष रूप से वेज बैंक में तेल, गैस या खनिज भंडार से कैसे डील करेगा। वेज बैंक तेज धाराओं और लहरों से सुरक्षित महासागर का उपजाऊ और समृद्ध जैव विविधता वाला हिस्सा है। कहा जाता है कि दुनिया भर में केवल 20 वेज बैंक मौजूद हैं।

कहां है वेज बैंक 

कन्याकुमारी का एक हिस्सा भारत के दक्षिणी सिरे के महाद्विपीय शेल्फ का एक हिस्सा है। यह हिस्सा केप कोमोरिन से लगभग 50 मील समुद्र की ओर फैला हुआ है। 1955 में एक गहन अध्ययन के अनुसार केप कोमोरिन का वेज बैंक पूर्वी देशांतर 77° और 78° 10′ के बीच स्थित है जो लगभग 3,000 वर्ग किमी है और कोलंबो से लगभग 189 किमी दूर है।

1974-76 के समझौतों से पहले इस क्षेत्र का उपयोग दोनों देशों के मछुआरे कर रहे थे। यह क्षेत्र समुद्री संसाधनों से बेहद समृद्ध था। भारत ने सद्भावना दिखाते हुए 1974 की संधि लागू होने के बाद तीन साल तक श्रीलंकाई नौकाओं को क्षेत्र में मछली पकड़ने की अनुमति देने पर सहमति व्यक्त की। अवधि खत्म होने के बाद भारत पांच वर्षों के लिए श्रीलंका को ताजा मछली आपूर्ति पर सहमत हुआ। जब तक वेज बैंक में जीवाश्म ईंधन की खोज शुरू नहीं हुई यह समुद्री जीवन का एक विशाल भंडार रहा है।

केरल और तमिलनाडु में मछुआरों के लिए जीवन रेखा है। इस साल जनवरी में, मोदी सरकार ने वेज बैंक में तेल और गैस की खोज के लिए निविदाएं आमंत्रित की जिससे दोनों राज्यों में मछुआरों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। मछुआरों का मानना है कि इससे क्षेत्र के समुद्री संसाधनों और उनकी आजीविका पर खतरा पैदा हो जाएगा। पिछले साल से मछुआरे भी विझिनजाम बंदरगाह से आने-जाने वाले यातायात से वेज बैंक के लिए खतरे को चिह्नित कर रहे हैं।

ऐसे ही भारतीय मानचित्र का हिस्सा नहीं बना वेज बैंक

मोदी और जयशंकर दोनों ही इस बात को बखूबी जानते हैं कि कच्चाथीवु  को “सौंपा” नहीं गया था। चूंकि इसे कभी भी आधिकारिक तौर पर भारत के हिस्से के रूप में सीमांकित नहीं किया गया था। यह हमेशा से विवादित क्षेत्र रहा है। उनके अपने कानूनी अधिकारियों ने अदालत में और एक आरटीआई जवाब में यह बात कही है। इसे छोड़ दिया गया था। भारतीय मानचित्र पर वेज बैंक का होना दर्शाता है कि इसके पीछे ज़रूर कोई कारण रहा होगा। वह कारण कोई और नहीं बल्कि निश्चित रूप से यह  कच्चाथीवु ही था जिसे आज मुद्दा बनाया जा रहा है।

मछुआरों की वास्तविक समस्याओं का समाधान कठिन है और दोषारोपण करके उस पर वाहवाही बटोरना और जनता की नजरों में आना आसान। मोदी और जयशंकर फिलहाल यही कर रहे हैं। वैसे भी यदि क्षेत्र इतना ही महत्वपूर्ण है तो फिर उसे क्या कहेंगे जब भाजपा ने 2020 में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी पीएलए द्वारा स्थानांतरित क्षेत्र को बफर जोन समझौते में सौंप दिया। लद्दाख के लोगों को शिकायत है जिस चारागाह का इस्तेमाल वे दो साल पहले भी करते थे आज चीनी सैनिक उन्हें अपनी भेड़ों को चरागाह भूमि पर ले जाने से रोकते हैं। 

(निरुपमा सुब्रम्णयम का ये लेख न्यूज़ लॉन्ड्री में प्रकाशित हुआ था जहां से साभार लेकर इसका अनुवाद कराया गया है।)

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