Sunday, April 28, 2024

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद लोकतंत्र और कानून के राज का भविष्य

पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे आ गए हैं। भाजपा ने हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में जीत हासिल की है।  ऐसे समय में जब किसी को भाजपा के जीत की उम्मीद नहीं थी। चुनाव पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों को निराश हाथ लगी है। इसलिए हमें इस जीत के करको पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

चौतरफा विध्वंस जिसमें जलते मणिपुर, रोती महिला पहलवान, आत्महत्या करते किसान-नौजवान- छात्र और 80 फीसदी आबादी के जीवन के लगातार संकट ग्रस्त होते दौर में भाजपा को जीत का जश्न मनाने का मौका मिला है। तो स्पष्ट है कि जनादेश की इस पद्धति में ही लोकतंत्र के संकट और उसकी जटिलताएं को विश्लेषित करने की जरूरत है।

हमारे समक्ष खुले तथ्य हैं कि पिछले साढ़े 9 वर्षों के मोदी राज की नफरती-विभाजनकारी कार्य पद्धति, सत्ता का नग्न केंद्रीकरण और खुला दुरपयोग व कॉर्पोरेट प्रतिबद्धता के कारण भारत में वाम जनवादी शक्तियों के अलावा अन्य ताकते भी संघ भाजपा के खिलाफ वैचारिक राजनीतिक संघर्ष चला रही हैं।

लोकतंत्र, संविधान और स्वतंत्रता संघर्ष की उपलब्धियां को बचाने के लिए प्रतिबद्ध सभी ताकतें भाजपा विरोधी संघर्ष के दायरे में शामिल होती गई हैं। सामाजिक जीवन में सक्रिय व्यापक जन पक्षधर व्यक्ति और समूह भी भारत के बिगड़ते हुए हालात से चिंतित होकर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने लगे हैं।

‘देश में लोकतंत्र, संविधान और कानून का राज कायम रहना चाहिए’। यह चेतना और चिंता विस्तारित होते हुए नागरिक समाज के अलग-अलग स्तरों, संस्थाओं को भी अपने दायरे में खींच लिया है। इसमें स्वयं सेवी संस्थाएं, मानवाधिकार संगठन, उदार जनतंत्रवादी, पर्यावरणविद, महिला और बाल अधिकार के रक्षकों से लेकर गांधीवादी अस्मिता और सामाजिक न्यायवादी, दलित-आदिवासी हितों के पक्षधर सभी समूह मोदी सरकार की फासिस्ट कॉर्पोरेट हिंदुत्व की नीतियों के खिलाफ धीरे-धीरे एकजुट होने लगे हैं।

जैसे-जैसे लोकतंत्र और संविधान पर हमले तेज हुए हैं। वैसे ही वैसे समाज का एक बड़ा तबका राजनीतिक रूप से सचेत होता गया है। वह अपने आर्थिक सामाजिक सवालों को संबोधित करते हुए आगे बढ़कर लोकतंत्र, संविधान, आजादी और न्यायपूर्ण विकास के सवाल को लेकर सड़कों पर उतर रहा है।

किसान, मजदूर, आदिवासी, छात्र तो पहले से ही इस सरकार के खिलाफ मोर्चा लगाए हुए हैं। अब अन्य वर्ग भी इस दिशा में आगे बढ़ने की स्थिति में पहुंच रहे हैं।   

आप देखेंगे कि मोदी सरकार की नीतियों ने बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों के विध्वंस को अंजाम दिया है। नोटबंदी, जीएसटी जैसी कॉर्पोरेट हितैषी नीतियों से देश में तबाही मची है। जिस बडे स्तर पर मोदी सरकार ने सार्वजनिक संपत्तियों को कौड़ी के भाव मित्र पूंजीपतियों को बेचा है (रेवड़ी की तरह बांटा) और विनिवेश तथा विकास के नाम पर कठिन परिश्रम से निर्मित राजकीय संस्थाओं, उद्योगों कॉरपोरेशन को देसी विदेशी पूंजीपतियों के हाथों में सौपा है।

इसके चलते श्रमिक वर्ग को उत्पादन प्रक्रिया की मुख्य धारा से बाहर फेंक दिया गया है। इन नीतियों के स्वाभाविक परिणाम स्वरूप सरकार के संरक्षण में कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है। जिसने भारत की साख को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित किया है। (अदानी प्रकरण)।

मोदी की सत्ता के केंद्रीय कारण की हवस से देश के बड़े जनमानस में सरकार की मंशा, उद्देश्य और चरित्र को लेकर प्रश्न चिन्ह खड़े हो गये हैं। जिस कारण से समाज की चेतना में निर्णायक और गुणात्मक बदलाव आया है।

‘भाजपा एक अलग चरित्र वाली पार्टी है’ की छवि- जिसे मीडिया द्वारा गढ़ा गया था- दरकने लगी है। चूंकि वर्ण आधारित समाज (जिसे जाति विभाजित समाज पढ़िए) में नागरिक की चेतना को हजार तरीके से प्रदूषित किया जा सकता है। इसलिए धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक गणतंत्र होने के बावजूद मोदी सरकार द्वारा लोकतंत्र के बुनियादी वसूलों को नकारते हुए देश को हिंदू परंपराओं, सांस्कृतिक प्रतीकों और चिंतन पद्धति में खींच लाया गया है।

(सरकारों के क्रिया कलाप शिक्षण संस्थानों से लेकर सरकारी संस्थानों तक हिंदूवादी रीति रिवाज, परंपराओं द्वारा संचालित किए जाते हैं। लेकिन इसे कोई अस्वाभाविक नहीं मानता)।

इस कारण भाजपा के संविधान विरोधी हिंदुत्ववादी क्रियाकलाप और एजेंडा के साथ आक्रामक राजनीति जो “भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के निषेध पर खड़ी है” को समाज के बड़े वर्ग में सहज रूप से स्वीकृति मिल जाती है। भाजपा की हिंदू परस्त राष्ट्रवादी तस्वीर बड़ी मेहनत से गढी गई थी। लेकिन यह आभा मंडल अमेरिकी भक्ति, चीन पर चुप्पी तथा कॉर्पोरेट परस्ती के कारण बिखरने लगा है।

सत्ता प्राप्ति के बाद से संघ के अनुसांगिक संगठनों के हमले कमजोर वर्गों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और खासकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर बढ़ते गए हैं। धीरे-धीरे अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति भाजपा का केंद्रीय एजेंडा बन गई। मोदी और योगी सहित संघ के प्रशिक्षित नेताओं, कार्यकर्ताओं द्वारा मुस्लिम विरोधी राजनीति को देशसेवा और राष्ट्र भक्ति के स्तर तक उन्नत किया जा चुका है।

कानून व्यवस्था के नाम पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई को हर मौके पर क्रूरता पूर्वक अंजाम दिया जाता है। जिससे कानून और न्याय के शासन की धज्जियां उड़ती रहीं। सरकारों के प्रमुख इन कार्रवाइयों पर गर्व महसूस करते रहे और खुलेआम सार्वजनिक मंचों से इन कार्रवाइयों का महिमा मंडल करते हुए देखे गए। बुलडोजरी न्याय को भारत में न्याय और कानून व्यवस्था के प्रतीक में बदल दिया गया।

मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकारें हिंदुत्व की नीतियों को नग्न रूप से संविधान और कानून का उलंघन करते हुए लागू कर रही हैं। उसने विविधता वाले भारत के बहुत बड़े वर्ग को सचेत ही नहीं किया है।बल्कि बीजेपी के खिलाफ खड़ा कर दिया है। आप इस संदर्भ में नॉर्थ ईस्ट, साउथ इंडिया और पश्चिमोत्तर भारत की सीमाओं पर घट रही घटनाओं को देख सकते हैं।

एक और बात आरएसएस के निशाने पर देश के सारे वे संस्थान, संगठन और विचार आ गए हैं। जो भारत में धर्मनिरपेक्ष, संघात्मक, लोकतांत्रिक ढांचे के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। जिसमें गांधीवादी संस्थान, अंबेडकर और फुले के साथ दक्षिण भारत के ब्राह्मणवाद विरोधी सामाजिक सुधारवादी तथा भक्ति कालीन दौर के सूफी और प्रेम समन्वयवादी, मठ, मंदिर, विचार और संस्थान (कबीर गुरु नानक देव रविदास आदि) हैं। जिनका हिंदूकरण कर उन पर कब्जा करने की कोशिश लगातार चल रही है। कम्युनिस्ट तो इनके सर्वकालिक शत्रु के रूप में रहे ही हैं।

इसके साथ ही आजादी के दौर में विकसित किए गए खादी ग्रामोद्योग, लघु और कुटीर उद्योगों को मित्रों के हाथ सौंप दिया गया है। सर्व सेवा संघ, गांधी शांति प्रतिष्ठान जैसी संस्थाएं भी अब हिंदुत्व के निशाने पर हैं। क्योंकि इनके पास भूमि, भवन, शिक्षण संस्थाओं के रूप में भारी संपदा है।

हम जानते हैं कि काशी में सर्व सेवा संघ और गांधी शांति प्रतिष्ठान नामक संस्थाएं जो 1974 में जेपी आंदोलन की केंद्र थीं। जिनका समावेशी धर्मनिरपेक्ष और भाईचारे वाले समाज तथा विचार के कारण उग्र सांप्रदायिक हिंदुत्व से तीखा विरोध है। आज इन सभी संस्थाओं को ध्वस्त कर उनकी संपदा पर संघ और कॉरपोरेट घराने सरकार के संरक्षण में कब्जा करने में लगे हैं। जिसे हमने काशी में क्रूरतम रूप में हाल के दिनों में देखा है। (याद रखें पिछले 70 वर्षों से ये संस्थाए कांग्रेस और वामपंथियों के विरोध में रही हैं)।

2014 के पहले मानवाधिकार संगठन गांधी व लोहिया के अनुयायी सामाजिक न्यायवादी, वामपंथी धडे कांग्रेस विरोध की बुनियादी दिशा पर खड़े थे। वे आज संघ के वैचारिकी से टकरा रहे हैं। उन्हें पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पड़ा है और वे कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ विरोधी संघर्ष के विस्तृत दायरे का आधार बन गये हैं।

सरकारी संस्थानों से लेकर लघु, मध्यम और बड़े उद्योगों में निजीकरण की आंधी चल रही है। एक अनुमान के अनुसार 10 हजार से ज्यादा उद्योग- जिसमें 500 से लेकर 20 हजार तक कर्मचारी काम करते थे- या तो ठेके पर दे दिए गए हैं या उद्योगपतियों के हवाले कर दिए गए हैं। आउटसोर्सिंग के द्वारा ठेके पर कर्मचारियों की नियुक्ति आज मुख्य प्रक्रिया बन गई है।

इसने मध्यमवर्गीय सामाजिक जड़ता को तोड़ने हुए धीरे-धीरे अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर भारत के आत्मनिर्भर विकास के सवाल पर चिंतित दिखने लगे हैं। जो अभी तक हिंदुत्व के बड़े ग्राहक थे। जिस कारण समाज में उद्वेलन की नई गति पैदा हुई है।

उदारीकरण की नीतियों की प्रणेता व निर्माता कांग्रेस पार्टी और उसके नेता रहें हैं। अब संघनीति भाजपा सरकार के समय में ये नीतियां चरम पर जाकर विध्वंसक और विनाशकारी परिणाम देने लगी हैं। जिससे समाज का बहुत बड़ा वर्ग आर्थिक रूप से संकटग्रस्त हुआ है।

बेरोजगारी बढी है तथा दरिद्रता का दायरा विस्तृत होते-होते 80% आबादी को अपने घेरे में ले लिया है। जिससे भारत भूख और कुपोषण के इंडेक्स में लगातार नीचे गिरता जा रहा है। आर्थिक रूप से नीचे की श्रेणी पर स्थित बहुत बड़ा समूह आज रोजी रोटी और जीवन संघर्ष में इस तरह से उलझ चुका है कि उसके सामने कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है।

सरकार की नीतियों से इतिहास की सबसे बड़ी बेरोजगारों की सेना तैयार हो गई है। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी बुनियादी सेवाओं में निजीकरण के बढ़ते जाने से आम आदमी पर आर्थिक बोझ की मार इतनी बढ़ गई है कि वह इन जरूरी सेवाओं का भी उपयोग करने में सक्षम नहीं रहा। जिससे समाज में हताशा का वातावरण तैयार हुआ है।

आत्महत्या करने वालोें का दायरा कोचिंग संस्थानों से लेकर खेत-खलिहानों, छोटे कारोबारियों, फैक्ट्री मजदूरों के साथ सुरक्षा बलों के दायरे तक बढ़ता जा रहा है। यह मोदी के कॉर्पोरेट परस्त नीतियों के कारण फैली हताशा की अभिव्यक्ति है।

अल्पसंख्यकों के अलगाव को जिस तेज गति से सरकार और संघ के अनुशांगिक लंपट गिरोहों के हमलों ने गति दी है। उससे सामाजिक असंतुलन का एक नया दौर शुरू हुआ है। यही सब दलितों, महिलाओं, आदिवासियों के साथ भी घटित हो रहा है।

इस स्थिति में पांच राज्यों के चुनाव हुए हैं। अगर चुनाव के परिणाम समाज के वास्तविक स्थिति को अभिव्यक्त नहीं करते तो स्पष्ट है कि भारतीय समाज के अंदर अंदर जो असंतोष विकसित होगा। वह भारत के सामाजिक स्वस्थ के लिए खतरनाक हो सकता है। कौन नहीं जानता कि भाजपा की नीतियों ने सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संकट को बहुत गहरा किया है। इसके बावजूद हिंदी इलाके में भाजपा के चुनावी जीत ने कुछ बड़े सवालों को पैदा किया है।

फासीवाद की कार्य पद्धति के जानकार यह जानते हैं कि वह चरम दरिद्रता और चरम समृद्धि का समाज निर्मित करता है। इस द्वंदात्मकता के बीच में झूलता हुआ समाज फासीवाद का चारा बनकर रह जाता है और वह राज्य के द्वारा फेके गए टुकड़े पर जिंदा रहने के लिए अभिशप्त हो जाता है। अभाव, दरिद्रता मनुष्य के आत्म सम्मान और गोरव बोध का अपहरण कर लेती है। इसलिए वह लाभार्थी जैसे बदनाम श्रेणी का अंग बन कर भी जी लेता है।

इसलिए जनता के श्रम और संपदा के चरम दोहन पर खड़ा हिंदुत्व-कॉरपोरेट गठजोड जहां एक तरफ सत्ता पर पकड़ को बनाए रखने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण और सामाजिक विभाजन करता है। वहीं वह समाज के वर्गीकरण को भी गति देता है। यही उसके जीत का अमोघ अस्त्र है। अगर उसके साथ पांच फैक्टर और मिला दिया जाए तो यह स्थाई तत्व बन जाता है। (करप्शन, कम्युनलिज्म, कास्ट, क्राइम व कॉरपोरेट कैपिटल पर टिका राज यंत्र।)

इन पांच अस्त्रों के बल पर भाजपा ने नौकरशाही से लेकर सभी संस्थाओं को घुटने पर ला दिया है। इसके साथ नौकरशाही का बड़ा वर्ग कम्युनली चार्ज हो चुका है। चुनाव में इन अस्त्रों के प्रयोग से भारतीय लोकतंत्र का अपहरण किया जा सकता है।

संभवतः पांच राज्यों के चुनावों में (खास तौर से हिंदी पट्टी के छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में) इन हथियारों ने खुलकर भूमिका निभाई है। इसमें हम सर्विलांस राज्य की ताकत को भी जोड़ सकते हैं। यानी हम बनाना राज्य की तरफ बढ़ गए हैं।

यह भविष्य का अशुभ संकेत है। जहां आने वाले समय में राज्य दमन तेज होगा। सरकार पाखंडी उत्सवों में जनता की गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग करते हुए उसे उलझाए रखेगी और कम्युनल विभाजन को भारतीय राजनीति और समाज का मुख्य तत्व बना देगी।

इसके साथ बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, गौ रक्षकों और मोरल पुलिसिंग के गिरोहों के अपराध इस कदर सरकार और राजनीति के साथ घुल मिल जाएंगे कि भारतीय समाज को पूरी तरह से नियंत्रण में लिया जा सके। (चुनाव परिणाम आते ही राजस्थान में एक बाबा के विधायक बनने के तुरंत बाद मुस्लिम विरोधी क्रियाकलाप पर नजर डाल सकते हैं।) साथ ही डरी हुई नौकरशाही, पुलिस, ईडी सीबीआई, आईटी, आईबी का जाल तो है ही। जिससे भारतीय समाज को डरा कर नियंत्रण में किया जा सकता है।

इस परिवेश में लोकतंत्र का अदृश्य अपहरण कर चुनाव जीतकर सत्ता में बैठे तानाशाहों के उदाहरण दुनियाभर में मौजूद हैं। (पूर्व आईएएस अनिल स्वरूप का इंटरव्यू याद रखिए) इस तरह से अनंत काल तक चुनाव जीत कर सत्ता पर काबिज रहा जा सकता है।

भाजपा के पास समस्याओं के समाधान का लोकतांत्रिक रास्ता नहीं है। (अमेरिका और कनाडा के खुलासे के बाद गुजरात मॉडल की असलियत विश्व के समक्ष खुल गई है। सत्ता के आपराधिक  दुरूपयोग से हो सकता है कि बहुत सारे उदारवादी लोग विचलित और हताश होकर शांत बैठ जाएं और जीत का आत्मविश्वास खो बैठें।)

पांच राज्यों का चुनाव फिलहाल जनवादी शक्तियों के एकताबद्ध न हो पाने और स्थितियों के ठोस मूल्यांकन के अभाव के कारण भाजपा ने जीत लिया है। विपक्ष को एकजुट ना कर पाने तथा राज्य आतंक और हिंदुत्व के विस्तृत फलक से राजनीति को खींचकर बाहर न ला पाने की कमजोरी के चलते कांग्रेस भाजपा के समक्ष पराजित हो चुकी है।

उदारवादी हिंदुत्व के प्लेटफार्म पर जाकर कांग्रेस कभी भी भाजपा का मुक़ाबल नहीं कर सकती। कांग्रेस नेतृत्व इसे जितनी जल्दी समझ ले उतना ही देश और लोकतंत्र के हित में अच्छा होगा।

इस चुनाव में एक कांग्रेसी मित्र के अनुसार वामपंथी पार्टियों के कार्यकर्ताओं के साथ जनवादी, सामाजिक सुधारवादी और मानवाधिकार के समर्थक तथा गांधीवादी संस्थाएं, कार्यकर्ता, एनजीओ और पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े लोग ही बुनियादी रूप से चुनाव लड़ रहे थे।

लेकिन इनमें वामपंथियों को छोड़कर किसी का नजरिया राजनीतिक नहीं था। ये संगठन और संस्थाएं गैर राजनीतिक खोल को उतार कर फेंकने के लिए अभी तैयार नहीं हैं। जिस कारण इनके संघर्ष की धार फासीवाद की राजनीति के खिलाफ कमजोर हो जाती है।

इसके साथ ही कांग्रेस गुटों में विभाजित है। आम कांग्रेसी नेताओं, कार्यकर्ताओं में फासीवाद की विध्वंसक ताकत का एहसास भी नहीं है। वहां एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र, प्रतिद्वंदिता इतनी तीव्र है कि राजनीतिक लक्ष्य ओझल हो जाता है।

साथ ही कांग्रेस का संगठन लुंज-पुंज हो चुका है। और जमीनी संगठन का सख्त अभाव है। इसलिए ऊपर से तो कांग्रेस लड़ती हुई दिख रही थी लेकिन नीचे तक उसके पास समर्पित कार्यकर्ताओं का घोर अभाव था। जो जन आक्रोश को ईवीएम तक पहुंचा सकें।

वैसे पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों गुटों का ही समुच्चय होती हैं। जहां निजी स्वार्थ के सामने जनहित और समाज हित गौड़ हो जाते हैं। ऐतिहासिक रूप से अप्रासंगिक हो चुके नेताओं ने राज्यों में कांग्रेस के मंचों को घेर रखा है। जिनमें व्यक्तिगत हितों के मुकाबले लोकतंत्र, संविधान और जनता के हितों की चिंता कम है। तीन राज्यों में कांग्रेस की स्थिति को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।

हमें इस बात को समझना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र का संचालन राजनीतिक पार्टियां नामक संस्थाओं द्वारा होता है। जनता के विचारों को मापने का एकमात्र पैमाना राजनीतिक दलों के पक्ष में पड़े मत होते हैं। जो लोकतंत्र का सबसे कमजोर पक्ष है। नोटा का विकल्प एक नकारात्मक विकल्प है। जो लोकतांत्रिक लड़ाई को गति नहीं देता।

भारत में चुनाव को प्रभावित करने वाले कारक पैसा, ताकत, जाति, धर्म, अपराध और पावर ग्रुप हैं। इसलिए आप जनता की वास्तविक आकांक्षा को चुनावी जीत के बतौर नहीं देख सकते। चुनाव के तत्काल बाद फूट पड़ने वाले जन आक्रोश इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण हैं कि चुनावी विजय वस्तुतः जनता की बुनियादी आकांक्षा का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हिंदी पट्टी में व्याप्त जन आक्रोश को देखते हुए यह बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है।

लेकिन लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है कि वह किसी न किसी राजनीतिक दल का किसी खास मंजिल में समर्थन करें। राजनीतिक दल इस मजबूरी को समझते हैं। वह जानते हैं कि ये ताकतें जो लोकतंत्र, संविधान और सामाजिक न्याय के लिए समर्पित हैं। वह अंततोगत्वा फासीवाद को शिकस्त देने के लिए उनके साथ ही खड़ी होंगी। 

तीन राज्य में भाजपा की विजय से भारतीय लोकतंत्र पर फासीवाद का शिकिंजा थोड़ा और कस गया है। इसलिए समय की मांग है कि लोकतांत्रिक और जन आंदोलन में सक्रिय ताकतें गैर राजनीतिक दृष्टिकोण से (जिसमें राजनीतिक अवसरवाद की भारी गुंजाइश रहती है) मुक्त होकर सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक न्याय के सवाल पर राजनीतिक पहल कदमी लें और भारत के लोकतंत्र, संविधान की सुरक्षा के लिए अपने वैचारिक चिंतन को परिष्कृत करें। पांच राज्यों के चुनाव से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

इस चुनाव के परिणाम देश के लिए विनाशकारी होने वाले हैं। 2024 के चुनाव के पहले ही संघ और भाजपा विहिप और बजरंग दल को आगे करके सांप्रदायिक उन्मादी अभियान की योजना तैयार कर चुके हैं। राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के नाम पर इसे जन जन तक ले जाने की तैयारी है। जिससे देश भर में दिसंबर और जनवरी में उन्मादी-दंगाई माहौल पैदा किया जा सके। चुनाव की जीत ने इन ताकतों के मनोबल को ऊंचा उठा दिया है। इसलिए हमारे सामने चुनौती बहुत बड़ी है।

लेकिन यही तो लोकतंत्र, समाज और देश के प्रति प्रतिबद्ध नागरिकों के परीक्षा की घड़ी है। निश्चय ही हमें इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना होना। इसी पर भारत के लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता का भविष्य निर्भर करता है।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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