भाषा महज संवाद का साधन नहीं है, बल्कि यह समाज के भौतिक और ऐतिहासिक विकास से गहराई से जुड़ा हुआ है। मनुष्य के अस्तित्व को उसकी चेतना निर्धारित नहीं करती, बल्कि सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करता है। इसी सिद्धांत का विस्तार भाषा पर भी लागू होता है। भाषा समाज के भौतिक ढांचे, उत्पादन संबंधों और वर्ग संघर्षों का एक परिणाम है, न कि स्वतंत्र रूप से विकसित कोई तटस्थ उपकरण।
भाषा की उत्पत्ति और विकास समाज के आर्थिक आधार से जुड़ा हुआ है। हर सामाजिक संरचना में विरोधाभास मौजूद होता है।भाषा में यह विरोधाभास वर्ग संघर्ष के रूप में प्रकट होता है, जहाँ शासक वर्ग की भाषा को मानक माना जाता है और उत्पीड़ित वर्ग की भाषा को हाशिये पर धकेल दिया जाता है। एंटोनियो ग्राम्शी के ‘सांस्कृतिक वर्चस्व’ (cultural hegemony) के सिद्धांत से स्पष्ट है कि शासक वर्ग अपनी भाषा और संस्कृति को समाज में सामान्य और स्वाभाविक भाषा के तौर पर स्थापित कर देता है। इस तरह भाषा इस सांस्कृतिक वर्चस्व का एक महत्वपूर्ण उपकरण बन जाती है।
भाषा मात्र शब्दों का संगठित रूप नहीं है, बल्कि यह सामाजिक सत्ता का प्रतीक है; इसमें समाज के विचारों और वर्गों का संघर्ष छिपा है।
उदाहरण के तौर पर, भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व एक औपनिवेशिक विरासत है, जो अब भी सामाजिक असमानताओं को बनाए रखने का साधन है। अंग्रेजी के माध्यम से सत्ता के केंद्रों तक पहुंच रखने वाले वर्ग विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं, जबकि ग्रामीण और श्रमिक वर्ग अपनी भाषाओं में विचारों की स्वतंत्रता से वंचित रहते हैं। यह भाषा का वर्गीय विभाजन है, जो श्रमिक वर्ग को सामाजिक विकास से दूर रखने का एक साधन बनता है।
भाषा केवल विचारों की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह विचारों की निर्मिति का हिस्सा भी है। लुडविग फॉयरबाख की आलोचना में मार्क्स और एंगेल्स ने कहा था कि “दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की व्याख्या की है, लेकिन असली मुद्दा इसे बदलने का है।” भाषा इसी परिवर्तन की प्रक्रिया में एक क्रांतिकारी साधन बन सकती है। लेकिन जब भाषा शोषण और सत्ता की सेवा में होती है, तो यह परिवर्तन के बजाय यथास्थिति को बनाए रखने में योगदान करती है।
भाषा सत्ता के रिश्तों का प्रतिबिंब है। जब तक भाषा को शासक वर्ग नियंत्रित करता है, तब तक यह सत्ता के हितों की सेवा करती रहेगी। इसीलिए समाजवादी क्रांति के बाद ही भाषा की वास्तविक मुक्ति हो सकती है, जहाँ यह सभी वर्गों की सेवा में होगी, न कि केवल शासक वर्ग के हितों की। भाषा सत्ता का उपकरण तब तक बनी रहती है जब तक समाज में वर्गीय विभाजन मौजूद है; इसकी स्वतंत्रता तब ही संभव है जब मानव समाज में शोषण का अंत हो।
भाषा विचारधारा की अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन है। विचारधारा को शासक वर्ग अपने हितों के अनुसार गढ़ता है, और भाषा उसी विचारधारा को फैलाने का माध्यम बनती है। इसके जरिए शासक वर्ग अपनी सत्ता को वैधता प्रदान करता है और समाज के भीतर शोषणकारी संबंधों को स्थिर बनाए रखता है। इस संदर्भ में, भाषा का सवाल सिर्फ व्याकरण और शब्दावली का नहीं, बल्कि विचारधारा का भी है।
उदाहरण के लिए, पूंजीवादी समाजों में आर्थिक सफलता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसी अवधारणाओं को भाषा के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि वे सभी के लिए समान रूप से सुलभ दिखाई दें, जबकि वास्तव में यह वर्ग विभाजन और असमानता को छुपाने का साधन है। विचारधारा का सबसे गहरा स्थायित्व भाषा में होता है, क्योंकि भाषा के माध्यम से विचारधारा को सामान्य और स्वाभाविक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
हमारा अंतिम लक्ष्य वर्गहीन समाज की स्थापना होना चाहिए, जहाँ न केवल आर्थिक शोषण का अंत होगा, बल्कि भाषाई असमानता और सांस्कृतिक वर्चस्व का भी अंत होगा। ऐसी स्थिति में भाषाई विविधता को न केवल स्वीकार किया जाएगा, बल्कि इसे संरक्षित और प्रोत्साहित भी किया जाएगा।
समाजवादी समाज में भाषा की भूमिका श्रम और उत्पादन के विभाजन को समाप्त करने, संचार में पारदर्शिता और सहयोग को बढ़ावा देने, और सभी लोगों के लिए समान अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करने में होगी। यह एक ऐसी अवस्था होगी जहाँ भाषा मुक्त होकर समाज के सामूहिक विकास और चेतना के निर्माण का साधन बनेगी। जब भाषा उत्पादन के साधनों के नियंत्रण से मुक्त होगी, तब ही यह मानव चेतना की वास्तविक स्वतंत्रता का माध्यम बन सकेगी।
भाषा का सवाल केवल संवाद का नहीं, बल्कि सत्ता, विचारधारा, और सामाजिक संरचना का प्रश्न है। भाषा के माध्यम से शासक वर्ग अपने हितों की सेवा करता है, लेकिन समाजवादी क्रांति के बाद भाषा का वास्तविक उद्देश्य समाज के सभी वर्गों के सामूहिक विकास में निहित होगा।
हिंदी भाषा और हिंदी दिवस का प्रश्न महज एक भाषाई उत्सव का नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ जुड़े हुए हैं। हिंदी दिवस 14 सितंबर को मनाया जाता है, जब 1949 में संविधान सभा ने हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया था। हालांकि, इस निर्णय का ऐतिहासिक महत्व है, लेकिन मार्क्सवादी दृष्टि से इसे समझने के लिए हमें हिंदी के विकास, भाषा की राजनीति और समाज में इसके प्रभाव को वर्गीय और वैचारिक संघर्षों के संदर्भ में देखना होगा।
किसी भी भाषा का विकास और उसके प्रसार को समाज की आर्थिक संरचना और वर्गीय संबंधों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भारत में हिंदी का प्रसार एक जटिल सामाजिक और आर्थिक प्रक्रिया का परिणाम है। हिंदी को भारत की ‘राजभाषा’ का दर्जा दिए जाने का उद्देश्य देश को एक भाषा के तहत एकजुट करना था, लेकिन इस प्रयास ने भाषाई वर्चस्व और असमानता के नए रूप पैदा कर दिए।
चूंकि भाषा भी सत्ता का साधन है इसलिए जब हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया, तो इससे एक विशेष क्षेत्र और वर्ग को सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व मिला। हिंदी को प्रमुखता देने से उन भाषाई समुदायों में असंतोष पैदा हुआ जिनकी भाषाएं हाशिए पर चली गईं, जैसे तमिल, तेलुगु, बंगाली आदि। यह स्थिति हिंदी और गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों के बीच एक नया वर्गीय विभाजन पैदा करती है, जहां हिंदी भाषी समाज को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लाभ प्राप्त होते हैं, जबकि गैर-हिंदी भाषी समाज अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करता है। भाषा का प्रश्न केवल शब्दों का नहीं, बल्कि सत्ता और सामाजिक वर्चस्व का प्रश्न है; जहाँ एक भाषा का उत्थान दूसरे भाषाई समुदायों के लिए अवमूल्यन का कारण बनता है।
हिंदी दिवस मनाने का एक बड़ा उद्देश्य हिंदी को देश की प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित करना है। लेकिन इसे एक ‘सांस्कृतिक वर्चस्व’ के रूप में देखा जा सकता है, जहां हिंदी को एक ‘राष्ट्रीय पहचान’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। शासक वर्ग जिस भाषा को मुख्यधारा बनाता है, वह बाकी भाषाओं और संस्कृतियों को नीचा दिखाने का काम करती है।
हिंदी दिवस के उत्सव के दौरान हिंदी को जिस तरह से महिमामंडित किया जाता है, वह अन्य भारतीय भाषाओं को हाशिए पर धकेलने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। हिंदी का यह वर्चस्व, एक तरह से, भारतीय समाज में सांस्कृतिक एकरूपता थोपने का प्रयास है, जो पूंजीवादी राज्य के हितों को संरक्षित करता है। जब किसी एक भाषा को राष्ट्र के प्रतीक के रूप में स्थापित किया जाता है, तो वह संस्कृति के बहुरूपता को नष्ट कर सत्ता के केंद्रीकरण को बढ़ावा देती है।
भारत की भाषाई राजनीति को समझने के लिए औपनिवेशिक इतिहास का विश्लेषण भी आवश्यक है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेजी को सत्ता और शिक्षा का प्रमुख माध्यम बनाया गया था। आजादी के बाद हिंदी को अंग्रेजी का विकल्प माना गया, लेकिन यह प्रक्रिया भी पूर्णतः स्वदेशी नहीं थी। हिंदी के प्रसार में औपनिवेशिक भाषा नीति का प्रभाव रहा, जहाँ हिंदी को अंग्रेजी की जगह लेने के लिए तैयार किया गया। यह एक नया भाषाई साम्राज्यवाद था, जिसमें गैर-हिंदी भाषाई क्षेत्रों को उपेक्षित किया गया।
यह स्पष्ट है कि हिंदी का प्रसार भी पूंजीवादी और नव-औपनिवेशिक ढांचे में हुआ। हिंदी ने जिस तरह से शिक्षा, प्रशासन और बाजार में प्रभुत्व हासिल किया, वह आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण का ही एक रूप है। हिंदी भाषी क्षेत्रों को विशेषाधिकार मिलना और बाकी भाषाई क्षेत्रों का हाशिए पर जाना पूंजीवादी राष्ट्र-राज्य की रणनीति का हिस्सा है। भाषा का वर्चस्व केवल भाषाई मामला नहीं है; यह सत्ता के सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्रीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा है, जो अन्य समुदायों और संस्कृतियों को कमजोर करता है।
हिंदी के सवाल का समाधान समाजवादी समाज में निहित है, जहाँ भाषाई विविधता को संजोया जाएगा और भाषा का उपयोग शोषण और सांस्कृतिक प्रभुत्व के लिए नहीं किया जाएगा। भाषा को सत्ता का औजार बनाने के बजाय इसे जनसंघर्षों और सामाजिक मुक्ति का साधन बनाया जाएगा। समाजवादी समाज में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच प्रतिस्पर्धा के बजाय सहयोग का वातावरण होगा। भाषाई एकता को थोपने की बजाए, भाषाओं के सामूहिक विकास और सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा दिया जाएगा।
वास्तविक भाषाई स्वतंत्रता तभी संभव है, जब भाषा का उपयोग सत्ता और शोषण के हितों से मुक्त होकर समाज की सामूहिक चेतना और प्रगति के लिए किया जाए।
हिंदी भाषा और हिंदी दिवस का प्रश्न केवल भाषाई पहचान का नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरे सामाजिक और राजनीतिक आयाम हैं। हिंदी का वर्चस्व और उसका प्रसार भारत के सामाजिक ढांचे में वर्गीय और भाषाई विभाजन को और गहरा करता है। हिंदी को अन्य भाषाओं के साथ समानता और सहयोग के आधार पर विकसित किया जाना चाहिए, न कि सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व के लिए।
(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)