Saturday, April 27, 2024

विपक्ष अपने जनकल्याण के वायदे पहुंचा सका, तो भाजपा के लिए बहुमत पाना कठिन हो जाएगा

आज़ाद भारत का सबसे फैसलाकुन चुनाव सामने है। जाहिर है इसके नतीजों पर पूरी दुनिया की निगाह है, क्योंकि यह चुनाव तय करेगा कि भारत में लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा। आज यह चुनाव पूरी तरह अनिश्चितता के भंवर में फंस गया है। यह अब बिल्कुल साफ है कि चुनाव में हर हाल में बहुमत हासिल करने के लिए भाजपा किसी भी हद तक जाएगी-उसके लिए हर सम्भव तिकड़म द्वारा विपक्ष को पंगु बना देने में वह कुछ भी उठा नहीं रख रही है।

पहले हेमन्त सोरेन, फिर केजरीवाल की गिरफ्तारी और कांग्रेस के खातों का फ्रीज किया जाना इसी दिशा में उठाये गए कदम हैं। जाहिर है आगे इस दिशा पर बढ़ना वह जारी रखेगी। लेकिन अगर तब भी बहुमत पाने के बारे में वह आश्वस्त नहीं हो पाती, फिर क्या कदम उठाएगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में है और हमारे लोकतंत्र के लिए बेहद अशुभ आशंकाओं से भरा हुआ है। क्या चुनाव टाले जाएंगे? यदि जनादेश प्रतिकूल हुआ तो क्या सत्ता का सहज ट्रांसफर होने दिया जाएगा? क्या देश एक नंगी तानाशाही की ओर बढ़ रहा है ?

यह चुनाव कैसे होगा, अपने अंजाम तक पहुंचेगा या नहीं, स्वतंत्र जनादेश लागू होने दिया जाएगा और उसका सम्मान होगा कि नहीं, यह आज कोई नहीं जानता।

दरअसल, मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा ने 400 पार का मनोवैज्ञानिक युद्ध भले छेड़ रखा है और उसे तमाम प्रायोजित सर्वे और ओपिनियन पोल के माध्यम से गोदी मीडिया द्वारा आगे किया जा रहा है, लेकिन यह उस सच को ढकने के लिए है जो इस समय सत्ताधारियों को बेचैन किये हुए है-चुनाव अगर नार्मल माहौल में हुए तो भाजपा बहुमत नहीं हासिल कर पायेगी।

आखिर भाजपा 2019 के चुनाव में पुलवामा हादसे तथा बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के बावजूद बहुमत से महज 31 सीट ही अधिक पाई थी। जाहिर है आज वह माहौल नहीं है। आज की राजनीतिक परिस्थिति बिल्कुल अलग है- 2024, 2019 नहीं है। आइए देखें-

सर्वोपरि तो यह कि तब मोदी के पहले कार्यकाल के बाद आम लोगों में अच्छे दिन की उम्मीदें अभी बची थीं और लोग उन्हें एक और कार्यकाल देना चाहते थे। नोटबन्दी जैसी असफलता के बावजूद- लोगों ने सारी कठिनाई सह कर भी नोटबन्दी को भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी जी के जेहाद का हिस्सा मान लिया था। ऐन चुनाव के पहले पुलवामा हादसे के गम में देश जब डूबा हुआ था, उस समय सर्जिकल स्ट्राइक के उन्माद द्वारा मोदी ने ‘राष्ट्रवाद’ और हिंदुत्व के महानायक के बतौर अपनी छवि को आसमान की ऊंचाई तक पहुंचा दिया।

अब इसकी तुलना आज की परिस्थिति से करिए। दो कार्यकाल के बाद अच्छे दिन की कोई नई उम्मीद अब शायद ही किसी के मन में बची हो। विकसित भारत और 5वीं, 3सरी अर्थव्यवस्था का सपना अब शायद ही किसी को गुदगुदाता हो। बेरोजगारी, महंगाई की मार ने आम लोगों को अंदर से तोड़ दिया है। धारा 370 से लेकर, समान नागरिक संहिता, नागरिक संशोधन कानून (CAA) तक के सारे टोटके आजमा लिए गए, लेकिन भक्तमंडली को छोड़कर आम लोगों पर इन सब का कोई ऐसा असर नहीं है कि वे अगर कोई मजबूत तर्क हो तब भी विपक्ष को हर हाल में नकार ही दें, क्योंकि इन मुद्दों से तात्कालिक भावनात्मक उद्वेलन से इतर उनके जीवन मे कोई ठोस बेहतरी तो आयी नहीं।

जनता के बदले हुए मूड और माहौल का ही लक्षण है कि 22 जनवरी के जिस अयोध्या कार्यक्रम को इन्होंने इस चुनाव के लिए ट्रम्प कार्ड समझा था-2019 की सर्जिकल स्ट्राइक का 2024 संस्करण, वह पूरी तरह फुस्स हो चुका है। मोदी-भाजपा इस सच्चाई को समझ चुके हैं, इसका इससे बड़ा सुबूत क्या हो सकता है कि निराशा में वे अब जीतने के लिए हर सम्भव कुटिल चाल चल रहे हैं जो खुद उनके अपने अब तक के रेकॉर्ड और पैमाने से भी अभूतपूर्व हैं। मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी इसका सबसे बड़ा नमूना है। इस निराशा में शायद वे इसका भी ठंडे दिमाग से आकलन नहीं कर पा रहे हैं कि इससे उन्हें फायदा हो रहा है कि नुकसान। तमाम विश्लेषक, यहां तक कि उनके समर्थक और सहानुभूति रखने वाले भी, इस बात पर लगभग एक राय हैं कि विशेषकर केजरीवाल की गिरफ्तारी से इस चुनाव में भाजपा को कोई लाभ होने की बजाय नुकसान होने के ही आसार हैं।

ऐन चुनाव की घोषणा के समय सर्वोच्च न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर अपने बड़े फैसले से विपक्ष को ऐसा विस्फोटक मुद्दा दे दिया है, जो दरअसल चुनाव में गेम चेंजर साबित हो सकता है और उसके परिणाम बेहद गम्भीर और दूरगामी महत्व के हो सकते हैं। क्योंकि जो खुलासे हुए हैं, वे quid pro quo के माध्यम से भ्रष्टाचार की ओर इशारा करते हैं और इसकी जब भी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच होगी, तो आज जो तमाम बड़े पदों पर बैठे लोग हैं, उन पर गाज गिरना तय है।

इलेक्टोरल बॉन्ड पर फैसला भले ही देर से आया है, लेकिन चुनाव के ठीक पहले आया यह फैसला आम लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। दरअसल 10 साल में यह पहली बार हो रहा है कि मोदी की अब तक बचा कर रखी गयी छवि पर डेंट लगा है। जो बात पहले अमूर्त आरोपों के रूप में कही जा रही थी, वह अब ठोस सबूतों के साथ पूरे देश के सामने साफ है कि तमाम भ्रष्ट कॉर्पोरेट घरानों को ब्लैकमेल करके अथवा उन्हें बड़े पैमाने पर लाखों करोड़ के सरकारी कॉन्ट्रैक्ट लुटाकर अथवा उनके हित में आयात-निर्यात जैसी सरकारी नीतियों को बदलकर उनसे अरबो-खरबों धन की वसूली की गयी है।

कॉर्पोरेटपरस्ती और भ्रष्टाचार का जो आरोप मोदी पर अब तक चिपकता नहीं था, वह अब चिपकने लगा है। सरकार इस पर जितना हताश होकर छिपाव और बचाव की कोशिश कर रही थी, वह उतना ही और बेनकाब होती गयी। सरकार इतनी विचलित थी कि देश के सबसे महंगे वकीलों की फौज खड़ी करके वह SBI और चुनाव आयोग के मध्यम से हरचंद कोशिश में लगी रही कि किसी तरह इन खुलासों को रोका जाय लेकिन कामयाब न हो सकी।

जाहिर है उन भक्तमंडली पर अब भी कोई असर नहीं पड़ेगा जो मोदी और हिंदुत्व के मिशन के लिए सब कुछ जायज मानते हैं। लेकिन समाज का वह तबका जो उन्हें सबसे अच्छा, ईमानदार, देश के लिए समर्पित नेता मानकर जुड़ा है, उसके मन में जरूर शायद पहली बार मोदी को लेकर शक पैदा हो गया है। इसे अन्य तमाम कारण आने वाले दिनों में बढ़ा सकते हैं और उनका मत विपक्ष के खाते में जा सकता है।

विपक्ष इस मुद्दे को युद्धस्तर पर उठाकर मोदी की ईमानदारी और जनता के प्रति पूरी तरह समर्पित होने की उनकी छवि की हवा निकाल सकता है और उनकी सरकार को भ्रष्ट कॉर्पोरेटपरस्त सरकार के बतौर जनता के सामने नंगा कर सकता है।

2019 के बिखराव की तुलना में विपक्षी एकता का सूचकांक निर्विवाद रूप से इस बार बेहद ऊंचा है और वह जिस तैयारी और नैरेटिव के साथ इस बार चुनाव में उतर रहा है, उसकी 2019 से कोई तुलना नहीं है। तमाम राज्यों से आ रही रपटें विपक्ष की साफ बढ़त दिखा रही हैं। कर्नाटक, तेलंगाना, हरियाणा-दिल्ली पट्टी में भारी उलटफेर के संकेत हैं। यहां तक कि उत्तरप्रदेश जो शायद इकलौता राज्य है जहां भाजपा अपनी सीटें घटने की बजाय बढ़ाने की उम्मीद कर रही थी, वहां से भी जमीनी स्तर पर तमाम क्षेत्रों से उसके लिए उत्साहवर्धक संकेत नहीं हैं।

आज जनता के तमाम तबके युवा, किसान, श्रमिक, महिलाएं, नागरिक समाज और हाशिये के वंचित तबके अपने ज्वलन्त सवालों को चुनाव का मुद्दा बनाने के लिए लड़ रहे हैं।

इस संदर्भ में कांग्रेस और विपक्ष द्वारा प्रस्तावित 5 न्याय और 25 गारंटियां ऐसी हैं कि उनमें से कोई एक ही चुनाव का रुख बदलने के लिए पर्याप्त है। अतीत के चुनावों में बिहार में तेजस्वी का 10 लाख नौकरी का वायदा या हिमाचल में OPS का वायदा, कर्नाटक-तेलंगाना में कांग्रेस की गारंटियों, राजस्थान की चिरंजीवी स्वास्थ्य योजना, मध्य प्रदेश में शिवराज की लाडली बहना का असर पूरा देश देख चुका है। यहां तो पूरी 25 गारंटियां हैं समाज के सभी तबकों वर्गों समूहों को छूती हुई।

ये मोदी के 5 किलो अनाज जैसी योजनाओं पर बहुत भारी पड़ सकती हैं। खुद चाहे जितना गाना गायें, मोदी की गारंटियों का आकर्षण और विश्वसनीयता खत्म ही चुकी है।

पूरा विपक्ष युद्धस्तर पर इन वायदों को जन-जन तक पहुंचा सका तो मोदी-शाह की कोई जुमलेबाजी और बाजीगरी युवाओं-महिलाओं-किसानों-मजदूरों और सामाजिक न्याय की इन बेहद आकर्षक गारंटियों की काट नहीं कर सकेगी।

क्या एकजुट विपक्ष यह कर पायेगा ?

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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