पीएम मोदी और शाह से मुक्ति की राजनीति इंडिया गठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी!

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सबसे पहले तो कांग्रेस को अपने बारे में मंथन करने की जरूरत है और अगर वह बीजेपी के सामने चुनाव का सामना नहीं कर सकती तो फिर से छोटी पार्टियों के साथ मिलकर और उसके आश्रय ही चुनाव लड़ने की कोशिश करनी चाहिए। कांग्रेस को अब यह मान लेने की जरूरत है कि वह भले ही देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी है लेकिन समय के साथ उसकी राजनीति भोथरी हो गई है और जनता से कट भी गई है। कांग्रेस को यह भी मान लेने से कोई गुरेज करने की जरूरत नहीं है कि अभी भी वह एक गठबंधन की बड़ी पार्टी है और उसके इशारे पर ही गठबंधन आगे बढ़ सकता है।

कांग्रेस को यह भी मान लेना चाहिए कि उसकी नीतियों और एजेंडे पर चलकर इंडिया गठबंधन का भी भला नहीं हो सकता और जिस लक्ष्य को लेकर इंडिया गठबंधन की तैयारी हुई वह लक्ष्य भी कभी पूरा नहीं होगा क्योंकि जो कांग्रेस देश भर के कई इलाकों में सीधे बीजेपी के सामने खड़ी होती है, बीजेपी से वह परास्त हो जाती है और बीजेपी को वह कोई चुनौती देने की बजाय बीजेपी को और भी ताकतवर बना देती है।

कांग्रेस पर ऐसे कई और सवाल किये जा सकते हैं और ये सारे सवाल इसलिए कि जिस लोकतंत्र और संविधान की बात राहुल गांधी और कांग्रेस वाले करते हैं उसमें यही दर्ज है कि लोकतंत्र को मजबूत रखने के लिए मजबूत और आक्रामक विपक्ष की जरूरत है ताकि जनता और देश को खुशहाल रखा जाए और देश कल्याणकारी राह पर दौड़ता रहे।

लेकिन पिछले कुछ समय से सैलून की राजनीतिक कहानियों को अगर देखा जाए तो साफ लगता है कि इंडिया गठबंधन में शामिल तमाम दल जहां अपनी पूरी ताकत के साथ अपना परिणाम दे रहे हैं वहीं कांग्रेस इस गठबंधन का कथित अगुआ बनकर भी बीजेपी के सामने पस्त दिख रही है। ऐसे में तो बड़ा सवाल यही है कि कांग्रेस को सबसे पहले इंडिया गठबंधन की कमान किसी और नेता के हवाले कर देना चाहिए और राहुल गांधी को खुद की कांग्रेस पार्टी को मजबूत करने का काम शुरू करना चाहिए। संभव है आने वाले दिनों में इसके बेहतर परिणाम भी मिले।

इससे पहले इंडिया गठबंधन पर कुछ चर्चा जरूरी है। जिस तरह से महाराष्ट्र और हरियाणा में गठबंधन की हार हुई है उससे साफ हो गया है कि इस गठबंधन का कोई बड़ा उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य सिर्फ यही है कि चाहे कैसे भी पीएम मोदी और गृह मंत्री शाह को राजनीति से बेदखल किया जाये। इंडिया गठबंधन की पूरी राजनीति गुजरात लॉबी से लेकर अडानी और अम्बानी पर जा टिकी है। लेकिन इस राजनीति का सबसे बेकार पक्ष तो यही है कि इंडिया गठबंधन को बने डेढ़ साल से ज्यादा हो गए लेकिन आज तक इस गठबंधन के न तो कोई उद्देश्य तय हैं और न ही कोई साझा एजेंडा ही। बड़ी बात तो यह भी है कि आज तक इस गठबंधन के लिए कोई कन्वेनर भी नहीं चुना गया।

अगर इसके गठन के समय ही नीतीश कुमार को समन्वयक बना दिया जाता तो संभव था कि आज इस गठबंधन का इतना बुरा हाल नहीं होता। यह भी संभव था कि आज केंद्र में इंडिया गठबंधन की सरकार होती और यह भी संभव था कि हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक गठबंधन की सरकार होती। लेकिन यह सब नहीं हुआ। अब इसमें कांग्रेस की परेशानी मानी जाए या फिर राहुल गाँधी की जिद को रखा जाए लेकिन इतना तो साफ है कि कांग्रेस की वजह से ही इंडिया गठबंधन की हार होती जा रही है और इस पर तुरंत काबू नहीं पाया गया तो इंडिया का चाहे जो भी हश्र हो वह टूट जाये या फिर कहीं और चले जाए लेकिन कांग्रेस का जमींदोज होना निश्चित है। इसलिए कांग्रेस को सबसे पहले इन बातों पर ही मंथन करने की जरूरत है।

चुनाव के दौरान ऊपर से भले ही इंडिया गठबंधन के भीतर सब कुछ ठीक ठाक चलता दिखता है लेकिन सच यही है कि हर चुनाव से पहले शामिल दलों के बीच सीटों को लेकर धींगामुश्ती, मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा पेश कर पाने के मुद्दे पर मतभेद और चुनाव अभियान में समन्वय का अभाव आम कहानी बन गया है। गठबंधन बनने के बाद नवंबर- दिसंबर 2023 में जब पहले चुनाव हुए, तो दलों का मनमुटाव खुल कर जाहिर हुआ।

लोकसभा चुनाव में ज़रूर चीजें कुछ संभलती नजर आईं, लेकिन जैसे ही बात हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड की आई, पुरानी खींचतान उभर आई। किसी साझा न्यूनतम कार्यक्रम की जरूरत तो गठबंधन ने आरंभ से ही नहीं समझी।और अब तो आम लोग भी कहने लगे हैं कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह से मुक्ति की चाहत के अलावा इंडिया के बीच किसी मुद्दे और सहमति की तलाश करना कठिन बन रहा है। ऐसी नकारात्मक राजनीति कभी कारगर हो पायेगी?

लोकसभा चुनाव में बिजली चमकने जैसी उम्मीद जगी, तो उसके पीछे भी उनके अपने प्रयासों का कम ही योगदान था। अब ऐसा लगता है कि तब जो नुकसान हुआ, अपनी ध्रुवीकरण एवं समीकरण साधने की सियासत से भाजपा ने उसे काफी हद तक संभाल लिया है।

इसका बड़ा कारण यह है कि इंडिया गठबंधन यह संदेश देने में नाकाम है कि उसके पास देश के विकास एवं आम जन की बेहतरी का कोई बेहतर एजेंडा है। इसके अभाव में गठबंधन महज सीटों के तालमेल का माध्यम बन कर रह जाता है।

इस रूप में कुछ खास परिस्थितियों में यह प्रयास लाभदायक हो सकता है, लेकिन सत्ता पक्ष के लिए कोई गठबंधन कोई निर्णायक चुनौती पेश नहीं कर पाएगा। महाराष्ट्र का चुनाव नतीजा आने के बाद गठबंधन के अंदर की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस आलोचना के केंद्र में आई है, तो उसकी भी ठोस वजहें हैं।

बड़ी पार्टी होने का सिर्फ लाभ नहीं होता, बल्कि जिम्मेदारियां भी होती हैं, इसे अब भी कांग्रेस नेतृत्व नहीं समझ पाया, तो पार्टी की भूमिका पर सवाल गहराते जाएंगे। वैसे अपनी-अपनी भूमिका से जुड़ा सवाल गठबंधन में शामिल सभी दलों के सामने है।

2020 के बिहार विधान सभा चुनाव में बिहार में महागठबंधन की सरकार बन सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विश्लेषण से पता चलता है कि कांग्रेस की जिद की वजह से उसे ज्यादा सीटें चुनाव लड़ने के लिए दी गई लेकिन कांग्रेस का परफॉर्मेंस काफी कमजोर रही। नतीजा यह हुआ कि महागठबंधन सरकार बनाने से चूक गया।

बड़ी बात तो यह थी कि माले जैसी छोटी पार्टी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया और आज भी उसका प्रदर्शन जारी है। इसी पार्टी ने बाद के दिनों में लोकसभा चुनाव भी लड़ा और बिहार में दो सीटें इसे मिल गई। अभी झारखण्ड में भी इसकी दो सीटों पर जीत हुई है। यह जीत इसलिए हुई है क्योंकि इसका संगठन मजबूत है और इसके नेता अभी घपले-घोटाले से दूर हैं और जनता के प्रति समर्पित भी। कांग्रेस वालों को कम से कम माले से ही सीख लेनी चाहिए।

बिहार चुनाव के बाद कई और चुनाव हुए जहाँ कांग्रेस की बड़ी हार हुई है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से लेकर राजस्थान के परिणाम बताते हैं कि कांग्रेस जिन मुद्दों को लेकर आगे बढ़ रही थी वह मुद्दा जनता को ही नहीं भा रहा था। लगता है कि कांग्रेस अभी भी जनता के मन और मिजाज को पढ़ नहीं पाई है कि वह क्या चाहती है और उसे पाने का उपाय क्या है। हरियाणा में जो हुआ, उसकी तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। वहां भी बीजेपी और कांग्रेस आमने-सामने ही थी।

बीजेपी के खिलाफ सब कुछ थे, सारे समीकरण भी बीजेपी के खिलाफ थे, किसान से लेकर युवा और सेना के लोग भी बीजेपी के खिलाफ थे लेकिन कांग्रेस हार गई। क्यों हारी यह बता सकती है कांग्रेस। संभव है कि मशीनी ताकत से बीजेपी खेल कर रही हो लेकिन अगर ऐसा है तो कांग्रेस वाले विधायक पूरी ताकत से इस खेल के विरोध में क्यों नहीं जाते और हिम्मत करके इस्तीफा देते हुए उस चुनाव का बहिष्कार क्यों नहीं करते। यही बात  महाराष्ट्र के संदर्भ में भी कही जा सकती है।

सबसे आश्चर्य का विषय तो यह है कि महाराष्ट्र में जिस तरह से मुस्लिम बहुल इलाकों में बीजेपी की भारी जीत हुई है, उससे कई और भी सवाल उठने लगे हैं। चुनाव के आंकड़ों के मुताबिक राज्य की मुस्लिम बहुत सीटों पर कांग्रेस या उसके गठबंधन के मुकाबले भाजपा और उसके गठबंधन को ज्यादा सीटें मिली हैं। इसका मतलब है कि इन सीटों पर ध्रुवीकरण की भाजपा की योजना कारगर रही है।

आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र की 38 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जिन पर मुस्लिम आबादी 20 फीसदी या उससे ज्यादा है। उनमें से 14 सीटें अकेले भाजपा ने जीती है। उसकी सहयोगी एकनाथ शिंदे की शिव सेना ने छह और अजित पवार की एनसीपी ने दो सीटें जीती हैं। यानी 20 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाली 38 में से 22 सीटें महायुति ने जीती है।

कांग्रेस को सिर्फ पांच सीटें मिली हैं। उद्धव ठाकरे की शिव सेना को छह सीट मिली है। भाजपा ने जो मुस्लिम बहुल सीटें जीती हैं उनमें कई मुंबई ठाणे इलाके की हैं। बांद्रा पश्चिम, भिवंडी पश्चिम, अंधेरी पश्चिम आदि का नाम लिया जा सकता है। अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी मानखुर्द शिवाजी नगर और भिवंडी पूर्वी सीट बचाने में कामयाब रही है। ओवैसी की पार्टी को एक मालेगांव सेंट्रल की सीट मिली है। शरद पवार की पार्टी दो सीटों पर जीती है।

जाहिर है इंडिया गठबंधन के भीतर अब कई सवाल उठने लगे हैं। महाराष्ट्र की हार का असर अब इंडिया के भीतर देखने को मिल रहा है। टीएमसी के नेता कल्याण बनर्जी ने जिस तरह राहुल गाँधी पर सवाल उठाया है उससे साफ लगता है कि राहुल गाँधी अगर अभी भी जिद पर अड़े रहे तो कांग्रेस तो समाप्त होगी ही इंडिया गठबंधन भी बिखर जाएगा और ऐसा हुआ तो यह मोदी की राजनीति की चरम जीत हो सकती है और फिर लोकतंत्र और संविधान की सभी बातें गर्त में चली जाएंगी। 

टीएमसी नेता कल्याण बनर्जी ने राहुल गांधी को इंडिया गठबंधन का कमजोर नेता बताया है और कहा है कि “कांग्रेस हरियाणा या महाराष्ट्र में इच्छानुसार नतीजे पाने में विफल रही है। हमें कांग्रेस से बहुत उम्मीद थी कि वे बेहतर प्रदर्शन करेंगे। परिणाम प्राप्त करने में कांग्रेस की ओर से बड़ी विफलता है। आज अगर आप बीजेपी के खिलाफ लड़ना चाहते हैं तो यह जरूरी है कि इंडिया गठबंधन मजबूत हो और इसे मजबूत बनाने के लिए एक नेता की जरूरत है। अब नेता कौन हो सकता है? यही मूल प्रश्न है। कांग्रेस ने यह कर दिखाया है। सभी प्रयोग किए गए हैं, लेकिन वे विफल रहे हैं। “

जाहिर सी बात है कि इंडिया गठबंधन के भीतर अब नए नेता की मांग हो रही है और जिस तरह से ममता बनर्जी बीजेपी के खिलाफ खड़ी हैं और बीजेपी से मुकाबला भी कर रही हैं ऐसे में ममता बनर्जी को अगर नेता बनाने की मांग भी हो रही है तो इसमें कांग्रेस को कोई गुरेज होना चाहिए और कांग्रेस ऐसा नहीं करती है तो वह खुद भी जाएगी और इंडिया को भी ले डूबेगी।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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