इजराइल ने दांव पर लगा दिया है अपने वजूद को

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इजराइल के मंत्रिमंडल ने अपनी सेना को ईरान के एक अक्टूबर के हमले का बदला लेने और उसे सबक सिखाने के लिए अधिकृत कर दिया है। अब इजराइली सेना अपनी सुविधा से चुने गए समय पर ईरान पर हमला करेगी। यह हमला कितना बड़ा होगा, इसको लेकर फिलहाल कयास लगाए जा रहे हैं।

चर्चा का प्रमुख बिंदु यह है कि क्या इजराइल सचमुच ईरान के अंदर दूर तक मार करेगा और उसे नुकसान पहुंचाएगा अथवा वह अपनी जनता को संतुष्ट करने लायक प्रतीकात्मक हमला करेगा?

यह सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इस पर ही निर्भर करता है कि इजराइल और ईरान के बीच प्रत्यक्ष युद्ध छिड़ जाएगा या बात सीमित टकराव तक ही बनी रहेगी।

ईरान ने चेतावनी दे रखी है कि इजराइल ने उस पर अगला हमला किया, तो अगली बार अधिक ताकत के साथ वह आक्रमण करेगा, जिसमें इजराइल के ऊर्जा स्रोतों, आम इन्फ्रास्ट्रक्चर और अर्थव्यवस्था के खास ठिकानों को भी वह निशाना बनाएगा।

एक अक्टूबर के हमले में ईरान अपनी ताकत दिखा चुका है। उस रोज वह इजराइल के बहुचर्चित मिसाइल कवच, ‘आयरन डोम’ को भेदने और मिसाइलों एवं ड्रोन से तय निशानों तक पहुंचने में कामयाब रहा।

इस बीच इजराइल ने लेबनान के खिलाफ भी मोर्चा खोल रखा है। हवाई बमबारियों से वह अवश्य ही लेबनान के अंदर तबाही मचाने में सफल दिखता है। इस हद तक कि लेबनान स्थित अर्धसैनिक समूह हिज्बुल्लाह के टॉप लीडरशिप की हत्या करने में वह सफल रहा।

इसके अलावा बड़ी संख्या में लेबनानी पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, रिहाइशी इलाकों आदि पर उसने कहर ढाया है और निहत्थे नागरिकों की बलि ली है। लेकिन जब मुकाबला जमीन पर हुआ है, तो अभी तक उसके लगभग सभी जमीनी हमले नाकाम रहे हैं।

इन हमलों में दर्जनों इजराइली सैनिकों की जान गई है, जबकि उसके अनेक टैंक और दूसरे हथियार नष्ट हुए हैं। जाहिर यह हुआ है कि हिज्बुल्लाह ने जमीनी लड़ाई की ठोस तैयारी कर रखी है।

इस बीच हिज्बुल्लाह के मिसाइल और ड्रोन हमले भी आयरन डोम को भेजने और इजराइल के अंदर कई ठिकानों को क्षति पहुंचाने में सफल हो रहे हैं। इसके बावजूद इजराइल ने सीरिया और यमन स्थित अंसारुल्लाह (हूती) के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। सीरिया में वह लगभग रोजमर्रा के स्तर पर हवाई हमले कर रहा है।    

चूंकि इस युद्ध में पश्चिमी देश और वहां का मुख्यधारा मीडिया पूरी तरह से इजराइल के साथ हैं, इसलिए अक्सर इजराइल को होने वाले नुकसान की खबरें उस तरह प्रचारित नहीं होतीं, जितनी इजराइली हमलों में फिलस्तीनियों, हिज्बुल्लाह, सीरिया स्थित समूहों या अंसारुल्लाह को होने वाले नुकसान की खबरें फैलती हैं।

यह भी एक कारण है, जिसकी वजह से इजराइल के अभेद्य होने, उसकी खुफिया एजेंसियों की निगाह से कुछ भी ना छिपा रहने और उसकी सेना के बेमुकाबिल होने जैसे कई भ्रम दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बने हुए हैं।

खासकर भारत जैसे देशों में तो ऐसे भ्रम इतने व्यापक हैं कि इनसे मेल ना खाने वाली ठोस सूचनाओं पर यकीन करना ज्यादातर लोगों के लिए मुश्किल बना रहता है। जबकि सात अक्टूबर 2023 से ऐसे अनेक भ्रम टूटते गए हैं।

सात अक्टूबर 2023 के हमास के हमले की पहली बरसी पर युद्ध के एक साल का लेखा-जोखा विभिन्न स्रोतों से सामने आया है। उनसे इजराइल की बढ़ती मुश्किलों पर नज़र गई है।

मसलन, दुनिया इस बात से अब ज्यादा वाकिफ है कि इजराइली अर्थव्यवस्था घोर संकट में पहुंच चुकी है। हालांकि काफी समय से खुद इजराइल सरकार के जुड़े रहे अर्थशास्त्री देश की अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहे वित्तीय एवं आर्थिक खतरों की चेतावनी दे रहे हैं और इजराइली मीडिया में इसकी खूब चर्चा रही है, (Israel faces a looming financial crisis if it fails to act, former chief economist warns | The Times of Israel), (Economy is the next front of Israel’s existential war, and it’s losing – Israel Politics – The Jerusalem Post (jpost.com)) और पश्चिमी मीडिया में भी गाहे-बगाहे इस पर बात हुई है (Israel: 11 months of war have battered the country’s economy (theconversation.com)), (‘We need a miracle’ – Israeli and Palestinian economies battered by war (bbc.com)), लेकिन आम तौर पर यह पहलू चर्चा के केंद्र में अब जाकर आया है।

इजराइल के वित्त मंत्रालय से संबंधित दो पूर्व मुख्य अर्थशास्त्रियों, योवेल नावेह और लेव ड्रकर ने हाल में एक साझा शोध पत्र में यह महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की ‘प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के बयान, 2025 के बजट पर विचार-विमर्श का अभाव, और 2024 के बजट ढांचे के फिर उल्लंघन (यह तीसरा उल्लंघन था) से जाहिर होता है कि सरकार को उसके सामने मौजूद आर्थिक समस्याओं के दायरे का अनुमान नहीं है।

इसके विपरीत उसने उन खतरों को नजरअंदाज करने का नजरिया अपनाया है, जिनसे अर्थव्यवस्था को गहरा नुकसान हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय सुरक्षा भी खतरे में पड़ रही है।’

यह तो सामान्य जानकारी की बात है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की रीढ़ अर्थव्यवस्था होती है। कमजोर अर्थव्यवस्था के साथ कोई देश राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता। युद्ध को सपोर्ट करने के लिए अर्थव्यवस्था में जान होना जरूरी है। जबकि इजराइली अर्थव्यवस्था बे-जान होती जा रही है।

इजराइल के जाने-माने अर्थशास्त्री शीर हावेर (जो फिलहाल जर्मनी में रह रहे हैं) ने हाल में तुर्किये की समाचार एजेंसी अनादोलू को दिए एक इंटरव्यू में कहाः ‘इजराइल की अर्थव्यवस्था लगातार आपातकालीन स्थिति में बनी हुई है’ (1 year of Gaza genocide: Is Israel’s economy ‘in a process of collapse’? (aa.com.tr))।

उन्होंने चेतावनी दी कि गज़ा को नष्ट करने में इजराइल ने जो अरबों डॉलर खर्च किए हैं, वह खर्च इजराइल को बहुत महंगा पड़ सकता है। इससे इजराइली अर्थव्यवस्था का संकट और बढ़ने जा रहा है।

विशेषज्ञों ने जो बताया है, उससे ये तथ्य सामने आए हैः

  • शीर हावेर ने दावा किया है कि इजराइल पिछले एक साल से जारी युद्ध पर 63 बिलियन डॉलर खर्च कर चुका है।
  • अन्य आंकड़ों के मुताबिक इस वर्ष अगस्त तक जीडीपी की तुलना में इजराइल का बजट घाटा 8.1 फीसदी तक पहुंच चुका था।
  • इजराइल में महंगाई बढ़ती चली गई है, जिससे इजराइली मुद्रा की कीमत गिरी है, जबकि आम लोगों का जीवन स्तर घटा है।
  • पर्यटन उद्योग इजराइली अर्थव्यवस्था का बड़ा सहारा है, लेकिन वह फिलहाल लगभग ठप है।
  • विदेशी निवेश लगभग शून्य हो चुका है और साल भर में 85 हजार लोग अपनी नौकरी गवां चुके हैं।
  • 46 हजार कंपनियां गुजरे एक साल में दिवालिया हो चुकी हैं।
  • युद्ध के कारण देश के अंदर ढाई लाख लोग अपने मकान और ठिकानों से विस्थापित हुए हैं। हाल में लेबनान से लगी सीमा के करीब रहने वाले लोगों का विस्थापन तेज हुआ है। इन सब लोगों के देखभाल की अतिरिक्त जिम्मेदारी सरकार पर आई है।
  • शीर हावेर ने कहाः बड़ी संख्या में इजराइली देश छोड़ कर जा रहे हैं। जिस बड़ी संख्या में लोग बाहर जा रहे हैं, वह इजराइल के इतिहास में अभूतपूर्व है। बहुत से लोग ऐसा अपने परिवार की सुरक्षा के लिए कर रहे हैं। देश में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनकी राय में इजराइल ढह जाने (collapse) के करीब है।
  • हावेर ने कहाः ‘ये तो आर्थिक संकेतकों की बात है। लेकिन ये संकेतक पूरी कहानी नहीं बताते। पूरी कथा भविष्य के बारे में लोगों की धारणा से जाहिर होती है। आज लोगों को यह महसूस नहीं हो रहा है कि उनका कोई भविष्य है। ऐसे लोग हैं, जो मानते हैं कि इजराइल कभी इस संकट से उबर नहीं पाएगा। इसलिए लोग निवेश नहीं कर रहे हैं। वे इजराइल में अपने बाल-बच्चों को नहीं रखना चाहते।
  • वे वहां नौकरी की तलाश और पढ़ाई करना नहीं चाहते। इसका मतलब यह है कि आर्थिक संकट बद से बदतर होता जाएगा। सुधार की कोई संभावना नहीं है।’ (https://youtu.be/u7J2SA8U7Fk?si=YsP5pzb0YcIaXisM)
  • हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के इस वर्ष मई में आए अंतरिम फैसले ने चिंता और बढ़ा दी है। न्यायालय ने संकेत दिया था कि वह गज़ा में इजराइली हमलों को ‘मानव संहार’ की श्रेणी में रखता है। अंतिम फैसले में मानव संहार की पुष्टि कर दी गई, तो इजराइल के बहुत से समर्थक देशों के लिए भी उसे हथियारों की मदद जारी रखना कठिन हो जाएगा। तब इजराइल को दी गई हर मदद मानव संहार में सहायता करने की श्रेणी में आएगी और इसके लिए वहां की सरकारों पर खुद उन देशों की अदालतों में या अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा किया जा सकेगा।

वैसे भी अमेरिका और यूरोप के देशों में जनमत तेजी से इजराइली मानव संहार के खिलाफ होता गया है। सात अक्टूबर के मौके पर इन देशों में लाखों लोगों ने अपनी सरकारों के रुख के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया।

जर्मनी जैसे देश में हाल के प्रांतीय चुनावों में सत्ताधारी गठबंधन में शामिल दलों की बुरी हार हुई है। इसे यूक्रेन और इजराइल-फिलस्तीन युद्धों के प्रति उन सरकारों के नजरिए पर बढ़ते जन विरोध को इसका एक प्रमुख कारण माना गया है।

समझा जाता है कि अमेरिका में अगले पांच नवंबर को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेट उम्मीदवार कमला हैरिस को कई राज्यों में इजराइल समर्थक रुख की महंगी कीमत चुकानी पड़ सकती है। डेमोक्रेटिक पार्टी के परंपरागत समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा इन महत्त्वपूर्ण राज्यों में जिल स्टीन या प्रो. कॉर्नेल वेस्ट जैसे किसी तीसरे दल/समूह के उम्मीदवार का समर्थन करते नजर आ रहा है।

इन स्थितियों के बावजूद बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार मानव संहारी हमलों का विस्तार कर रही है, तो उसके पीछे दो प्रमुख कारण माने जाते हैं। इनमें एक तो खुद नेतन्याहू का अपने को बचाने से जुड़ा स्वार्थ है, तथा दूसरा उनके गठबंधन में शामिल कट्टरपंथी दलों का दबाव है।

ये दल विवेक और तर्क से परे कट्टरपंथी यहूदी मान्यताओं से संचालित हैं। रक्षा मंत्री ने ईरान के खिलाफ जवाबी हमले संबंधी फैसले की जानकारी देते हुए कहा कि ‘ईश्वर हमारे साथ है, हमारी जीत होगी।’

ये बात याद रखनी चाहिए कि युद्ध शुरू होने से पहले नेतन्याहू घोर राजनीतिक चुनौती का सामना कर रहे थे। कट्टरपंथी दलों के दबाव में उनकी सरकार ने न्यायपालिका को नियंत्रित करने और महिला अधिकारों को संकुचित करने वाले कानून पारित कराए थे।

उनके खिलाफ लाखों लोग सड़कों पर उतरे थे। आज भी जनमत सर्वेक्षणों मे नेतन्याहू और उनकी सरकार की लोकप्रियता बेहद न्यून है।

नेतन्याहू की समझ है कि युद्ध खत्म हुआ, तो देश का ध्यान इन समस्याओं पर केंद्रित होगा और उनका सियासी करियर दांव पर लग जाएगा। वैसे बात सिर्फ करियर तक सीमित नहीं है।

नेतन्याहू भ्रष्टाचार के आरोप में सजायाफ्ता हो चुके हैं और कई मामलों की तलवार उनके सिर पर लटक रही है। तो उनकी ये आशंका वास्तविक है कि युद्ध थमा तो उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है।

संभवतः ऐसे स्वार्थ और साथी दलों की अंधश्रद्धा के कारण नेतन्याहू सरकार मानव संहार और युद्ध अपराधों को आगे बढ़ा रही है। इसके साथ ही वह अपने देश को भी बर्बादी की तरफ ले गई है। आज दुनिया में इजराइल जितना अलग-थलग है, उतना पहले कभी नहीं था।

उसे समर्थन देकर अमेरिका और यूरोपीय देशों ने अपनी प्रतिष्ठा और अख़लाक को जिस हद तक गंवाया है, वह भी अभूतपर्व है। इसकी क्या और कितनी कीमत होगी, दुनिया की निगाहें उसे देखने के इंतजार में हैं।  

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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