विश्वास और सजा के बीच जन विश्वास 2.0 और 3.0 तैयार करेगा बीच का रास्ता

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अच्छे कानून अच्छे समाज का निर्माण करते हैं। हाल ही में केंद्र सरकार के स्तर पर घोषित जन विश्वास विधेयक 2.0, जिसके बाद विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जन विश्वास 3.0 विधेयक जल्द ही पेश किए जाएंगे, इस कहावत को साकार करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा बनाया गया एक नया डेटाबेस 174 वर्षों के विधायी अधिनियमों पर प्रकाश डालता है, जिसमें 882 केंद्रीय कानून शामिल हैं। इसके तहत 7,305 अपराधों के लिए केवल 370 के पास आपराधिक प्रावधान हैं। इन अपराधों में से 5,333 के लिए जेल की सजा है, 982 के लिए अनिवार्य न्यूनतम जेल की सजा है, 433 के लिए आजीवन कारावास है, और 301 के लिए मृत्युदंड है। भारतीय न्याय संहिता, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम जैसे आपराधिक न्याय कानून केवल लगभग 25 प्रतिशत अपराधों को कवर करते हैं। बाकी वे कानून हैं जो सामान्य जीवन के कई पहलुओं को नियंत्रित करते हैं, जैसे माता-पिता और बच्चे की देखभाल, सभा में एकत्र होना और गतिशीलता।

भारत ने बिजनस सुगमता में सुधार के अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में लगातार प्रगति की है और नियोक्ताओं के अपराधीकरण को कम करने पर काम कर रहा है। परिवर्तन का अगला चरण हमारे 1.4 अरब नागरिकों के लिए जीवन की सुगमता को बढ़ाना है, इसके लिए ऐसे मानवीय कानून बनाना जो पालन करने और लागू करने में आसान हों।

मौजूदा समय में, हमारे नागरिकों के लिए आपराधिक प्रावधानों की अधिकता निस्संदेह बहुत ज्यादा है;  सड़क पर गाय या भैंस का दूध निकालने, किसी जानवर की मृत्यु की सूचना तीन घंटे के भीतर न देने, निर्धारित मार्गों से अलग शव को ले जाने, पालतू कुत्ते को उचित व्यायाम न कराने, स्तनपान न करा पाने वाली माँ को भी फीडिंग बोतल वितरित करने, और केवल ई-सिगरेट संग्रह करने के लिए भी आपको गिरफ्तार किया जा सकता है। 

ये कुछ ऐसे अस्पष्ट रूप से कठोर दंड हैं जो गंभीर सार्वजनिक नुकसान न पहुंचाने के बावजूद सामान्य मानवीय कमियों के लिए दिए जाते हैं। इन प्रावधानों का उपयोग करके मामले शायद ही दर्ज किए जाते हैं और देखा गया है कि वे अक्सर अदालतों तक नहीं पहुँचते। फिर भी, कानून में ऐसे प्रावधानों का होना शक्ति के मनमाने प्रयोग की आशंका को तो बढ़ा ही देता है।

वर्तमान व्यवस्था मामूली उल्लंघनों और गंभीर अपराधों के बीच की रेखा को धुंधला कर देती है। यह गंभीर अपराधों के लिए कम सजा और छोटे अपराधों के लिए कठोर सजा दे सकती है। उदाहरण के लिए, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 में रिकॉर्ड रखने और रिपोर्टिंग दायित्वों को पूरा न करने के लिए छह महीने की जेल की सजा निर्धारित है। यह उतनी ही अवधि की जेल की सजा की सिफारिश उसके लिए करता है जो मरीज और बोर्ड की सहमति के बगैर किसी मानसिक बीमारी के लिए मस्तिष्क की सर्जरी कर देता है।

इसी तरह, ड्राइविंग करते समय लाल बत्ती तोड़ने की सजा उतनी ही हो सकती है जितनी किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के खिलाफ मजदूरी करने के लिए मजबूर करने की। अपराध और सजा के बीच यह असमानता समाज में प्रोत्साहन को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।

अक्सर नागरिकों को यह भी नहीं पता होता कि इन सभी कानूनों में जेल की सजा और जुर्माने जैसे प्रावधान मौजूद हैं। इससे भ्रष्ट सार्वजनिक अधिकारियों को इन्हें गायब करने का एक सुविधाजनक तरीका मिल जाता है। जैसा कि विष्णु सहस्रनाम में अनुमान लगाया गया था: सह-स्रार्चि सप्त-जिह्वाः सप्त-धा सप्त-वाहनः, अमूर्ति रणघो चिन्त्यो भय-कृद्भय-नाशनः (लब्बोलुआब अनुवाद: भय इसलिए बनाया गया ताकि उसे दूर किया जा सके)। इसमें आश्चर्य नहीं कि आजकल नागरिक डिजिटल गिरफ्तारी जैसे घोटालों के शिकार हो जाते हैं, जैसा कि हाल ही में देखा गया, जहाँ डरे हुए नागरिकों ने उन अपराधों के लिए भुगतान किया जो उन्होंने किए ही नहीं थे।

हाल ही में विधि द्वारा आयोजित एक बहु-हितधारक परामर्श ने स्पष्ट कर दिया कि अपराधीकरण को हटाने का रास्ता कितना कठिन हो सकता है। प्रतिभागियों ने उदाहरण देकर बताए कि कैसे कठोर प्रावधान गरीब लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। सजा की दर कम है; प्रक्रिया ही सजा बन जाती है। अदालतें ऐसी सजाएँ देने में हिचकिचाती हैं जो सामान्य समझ की परीक्षा को पास करने में असफल रहें। सबसे महत्वपूर्ण बात यह चिन्हित की गई कि शासन में अपराधीकरण पर अत्यधिक निर्भरता एक प्राचीन सभ्यता पर आधुनिक राज्य थोपने की कुंठाओं को दर्शाती है। यह केवल सरकार या राज्य-स्वीकृत व्यवस्था है, न कि समाज-स्वीकृत प्रक्रिया, और इसलिए इसके असफल होने की आशंका ज्यादा है।

प्रस्तावित जन विश्वास 2.0 विधेयक राष्ट्र के लिए एक शक्तिशाली उपहार हो सकता है। इसे संस्करण 1.0 के ढांचे से आगे बढ़ना होगा, जहाँ सिविल सेवकों से जेल प्रावधानों को छोड़ने के लिए कहने से मामूली परिणाम मिले थे। कहा जाता है कि कोई भी अपनी छड़ी स्वेच्छा से नहीं छोड़ता; इसे छीनना पड़ता है।

यदि हम स्पष्ट, संक्षिप्त, सुसंगत, समझने योग्य और लागू करने योग्य कानून लिखने के बारे में गंभीर हैं, और यदि हम असमान सजाओं वाले मौजूदा कानूनों को अपराधमुक्त करना चाहते हैं, तो हमें मूल्यों और सुरक्षा कवच के एक नवीनतम ढांचे के आसपास सार्वजनिक सहमति की आवश्यकता है।

विधि रिपोर्ट चार सिद्धांतों का प्रस्ताव करती है, जिनमें से कुछ पहले से ही आपराधिक कानून को निर्देशित करते हैं। पहला, मूल्य की रक्षा (अपराधीकरण को समाज के एक विशिष्ट मूल्य की रक्षा करनी चाहिए जो समाज के अस्तित्व और व्यापक सार्वजनिक हित के लिए आवश्यक है)। दूसरा, स्पष्ट, पहचान योग्य और पर्याप्त नुकसान से संरक्षण (अपराधीकरण को केवल नुकसान की प्रत्यक्ष और उचित आशंका से ही उचित ठहराया जाना चाहिए)। तीसरा, प्रभावी और कुशल समाधान ( अपराधीकरण को कानून के वैध उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एकमात्र साधन के रूप में उपयोग करना चाहिए)। अंत में, समानुपातिक प्रतिक्रिया (अपराधीकरण नुकसान की गंभीरता के आधार पर समानुपातिक प्रतिक्रिया होनी चाहिए)।

जन विश्वास 2.0 के इन चार सिद्धांतों को अपनाने के बाद, प्रत्येक आपराधिक प्रावधान का मानवाधिकारों, समाज, वित्तीय प्रभाव और न्याय प्रणाली की क्षमता पर प्रभाव के लिए भी आकलन करना होगा।

आपराधिक कानून का नागरिकों के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, चाहे वे इसे पहचानें या नहीं। खराब कानून गरीब लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं, क्योंकि वे पुलिस और छोटी अदालतों की शक्ति के प्रति सबसे अधिक असुरक्षित होते हैं। निश्चित रूप से, कुछ अपराध हमेशा ऐसे होंगे जिनके लिए लोगों को जेल में डालना जरूरी होगा।

फिर भी, एक न्याय प्रणाली का लक्ष्य प्रतिशोधी होने के बजाय पुनर्स्थापनात्मक और पुनर्वासकारी होना चाहिए। जैसा कि आधुनिक चिकित्सा के संस्थापकों में से एक पैरासेल्सस ने कहा था, “खुराक ही जहर बनाती है।” जो कुछ भी मदद करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली है, वह नुकसान पहुँचाने की शक्ति भी रखता है। भारत में, जेल के 75 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं; उन्हें उस कथित अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया गया है जिसके कारण वे जेल गए। हमारे पास विभिन्न कानूनों में पहचाने गए 5,333 अपराधों से उत्पन्न होने वाले 3.5 करोड़ लंबित आपराधिक मामले हैं।

जैसा कि हम भारत @100 तक विकसित भारत की ओर देखते हैं, यह हमारे नागरिकों के लिए जीवन की सुगमता पर ध्यान केंद्रित करने का सही समय है। हमें विश्वास है कि जन विश्वास 2.0 और जन विश्वास 3.0 नागरिकों पर भरोसा करने और उन्हें दंडित करने के बीच मध्यम मार्ग खोजेंगे।

(रोहिणी नीलेकनी समाजसेवी हैं और मनीष सभरवाल एक उद्यमी हैं। यह लेखक इंडियन एक्सप्रेस से साभार लिया गया है।)

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