” हमारे लोगों का पूरा इतिहास गैर-आदिवासियों के अंतहीन उत्पीड़न और बेदखली को रोकने के लिए किए गये विद्रोहों का इतिहास है। मैं आप सब के कहे हुए पर विश्वास कर रहा हूँ की हम लोग एक नए अध्याय की शुरुआत करने जा रहे हैं। जहाँ सभी सामान होंगे, सबको बराबर का अवसर मिलेगा और एक भी नागरिक उपेक्षित नहीं होगा “- जयपाल सिंह मुंडा, (19 दिसंबर 1946, संविधान सभा में)
आदिवासी समाज में स्वशासन की परम्परा रही है लेकिन खरसावाँ और सरायकेला क्षेत्र में 17वीं सदी के मध्य में दिकुओ ने आदिवासी बाहुल्य इलाकों में धोखाधड़ी करके अपने रजवाड़े स्थापित कर लिए और जमीनों एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों के मालिक-राजा बन बैठे। अंग्रेजी हुकूमत के दौर में इन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर ली। हालाँकि आदिवासी समाज का प्रातिरोध (तिलका माझी का विद्रोह) इन इलाकों में दिकुओं के प्रवेश के साथ ही शुरू हो गया था।
आजादी की घोषणा और स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (भाग-7।सी) के अनुसार आदिवासी इलाकों में रियासतों के अधिकार समाप्त हो गये थे और देश के एकीकरण और रियासतों के विलय की प्रक्रिया आरम्भ हो गयी। खरसावाँ नरसंहार इसी प्रष्ठभूमि में है। देश के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देशी रियासतों को मिलाकर देश के एकीकरण की प्रक्रिया शुरू की। तमाम रियासतों को 3 श्रेणियों अ- बड़ी रियासतें, बी- मध्यम और सी श्रेणी में छोटी रियासतों को बांटा गया। खरसावाँ और सरायकेला छोटी रियासत थी। एकीकरण और रियासतों के विलय की प्रक्रिया में खरसावाँ, सरायकेला रियासत प्रमुखों ने उड़ीसा के साथ अपने विलय को मंजूरी दे दी थी और 1 जनवरी 1948 का दिन औपचारिक तौर पर सत्ता हस्तांतरण के दिन के रूप में निर्धारित किया था।
लेकिन हो, भूमिज, मुंडा, संथाल और अन्य आदिवासी इस विलय के खिलाफ थे वे अपने लिए एक अलग आदिवासी बाहुल्य राज्य- झारखण्ड की मांग कर रहे थे। 25 दिसंबर 1947 को चन्द्रपुर-जोजोडीह में नदी किनारे आयोजित सभा रियासतों के विलय के खिलाफ आदिवासियों बाहुल्य क्षेत्रों को मिलाकर आदिवासी राज्य की मांग पर आदिवासियों को एकजुट करने और 1 जनवरी को साप्ताहिक हाट के दिन खरसावाँ बाजार मैदान में सभा करने का फैसला किया गया जहाँ मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा के द्वारा संबोधित किया जाना तय हुआ।
संविधान सभा के सदस्य, ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और आदिवासी महासभा के प्रमुख जयपाल सिंह मुंडा के आगमन की सूचना आदिवासियों के मध्य जैसे ही पहुंची। उन्हें सुनने-देखने के लिए रांची, चक्रधरपुर, चाईबासा, करंडीह, परसुडीह, तमाड़, वुंडू, जमशेदपुर, खरसावाँ, सरायकेला के स्थानीय आदिवासी बच्चे, बूढ़े, नौजवान, औरत, मर्द सभी कई दिनों की तैयारी के साथ सर पर गठरी, खाने पीने के सामान और परम्परागत हथियारों- कुल्हाड़ी, तीर धनुष, ढोल नगाड़े से लैस हो कर पैदल ही सभा स्थल की ओर चल पड़े।
गुरूवार साप्ताहिक हाट का दिन होने के चलते सामान्य से अधिक लोग बाजार के मैदान और उसके आस पास मौजूद थे। सभा के लिए लोगों का आना जारी था। आजादी के गीत, आदिवासी एकता के नारे, अलग राज्य- जय झारखण्ड की मांग, रियासतों के विलय के निर्णय और ओड़िसा मुख्यमंत्री के खिलाफ नारे लगाये जा रहे थे। 50000 से अधिक लोगों के सभा स्थल पर पहुंचने से ये अंदाजा हो गया था की रियासतों के विलय के निर्णय ने पूरा आदिवासी बाहुल्य इलाके को सुलगा दिया था।
ओड़िसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय पाणी किसी भी तरह के विरोध को बलपूर्वक कुचलने के लिए पहले से ही तैयार थे लिहाजा उन्होंने पूर्व में ही अपनी तैयारी कर ली थी। उड़ीसा सशस्त्र सुरक्षा बल और पुलिस के जवानों को सभा के आयोजन से 2 हफ्ते पहले 18 दिसंबर 1947 को जंगल के रास्ते खरसावाँ भेज दिया गया था। इनमें 3 हथियारबंद कंपनी शामिल थी जिन्हें खरसावाँ के स्कूल में ठहराया गया था।
“झारखण्ड आबुव: उड़ीसा जरी कबुव: रोटी पकौड़ी तेल में विजय पाणी जेल में” का नारा आसमान में गूंजने लगा। जुलूस की लम्बी लम्बी कतारें चलने लगीं, जुलूस दोपहर बाद हाट मैदान में जा कर सभा में तब्दील हो गया। आदिवासी महासभा के नेताओं ने दूर दराज से आये आदिवासियों को संबोधित किया। लेकिन मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा खरसावाँ की सभा में शामिल नहीं हो सके। आदिवासियों का एक जत्था खरसावाँ के तत्कालीन राजा से मिलना चाहता था ताकि विलय निर्णय पर पुनर्विचार का अनुरोध किया जा सके लेकिन संभव नहीं हुआ।
सभा के समाप्त होने के कुछ ही देर बाद अचानक बिना किसी तरह की चेतावनी के ओड़िसा सरकार के आदेश पर आधुनिक हथियारों से लैस ओड़िसा सुरक्षा बल और पुलिस ने आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। लोग जान बचाने के लिए इधर से उधर भागने लगे, कुछ जमीन पर लेट गये, कुछ मैदान में स्थित कुआँ में कूद गये, कुछ भगदड़ में मारे गये। जिनमें बच्चे, बुजुर्ग और महिलाओं की तादाद सबसे अधिक थी। पूरा मैदान लाशों से पट गया था और अब मैदान को ओड़िसा मिलिट्री और पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया। घायलों को न तो मैदान से बाहर जाने दिया गया और न इलाज के लिए अस्पताल ले लाया गया। सेना और पुलिस के जवानों ने लाशों को ट्रकों में भरकर सारंडा के जंगलों में फेंक दिया गया। मैदान स्थित लाशों से भरे कुएं को रात में ही स्थायी रूप से बंद कर दिया गया। भारत सरकार ने भी अपनी ओर से कोई जांच नहीं बैठायी।
उड़ीसा सरकार ने आदिवासियों के इस नरसंहार को छुपाने के लिए पत्रकारों के घटना स्थल पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। यहां तक कि बिहार सरकार द्वारा भेजे गए चिकित्सा दल और सेवा दल को वापस कर दिया गया। आजादी के मात्र 133 दिन बाद ही खरसावाँ में कर्फ्यू लगा दिया गया। अंग्रेजी अख़बार द स्टेट्समैन ने 3 जनवरी को घटना की रिपोर्ट करते हुए 35 आदिवासियों के मारे जाने की सूचना दी, ओड़िसा सरकार के अनुसार 32 और बिहार सरकार के आंकड़ों के अनुसार मरने वालों की संख्या 48 थी लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार इनकी संख्या कई हजारों में थी प्रताप केशरी देव अपनी पुस्तक मेमोरी ऑफ़ बाईगोन एरा में मरने वालो की संख्या 2 हजार से अधिक बताते हैं।
“यह दूसरा जलियांवाला बाग है। जलियांवाला बाग गोलीकांड को पूरा भारत स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण पृष्ठ के रूप में जानता है। जहाँ पर विदेशी शासक और विदेशी जनरल डायर ने गोलियां चलाई थी आज़ाद भारत की ओड़िसा सरकार जो अपने ही देशवासियों की थी। खरसावाँ में अपने ही देशवासियों पर गोली चलाई। इससे शर्मनाक और अफसोस और अफ़सोस की बात क्या हो सकती है ” – डॉ राममनोहर लोहिया (द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़ जयपाल सिंह मुंडा-संतोष किरो)
हजारों आदिवासियों ने अपनी शहादत दे कर आदिवासी बाहुल्य इलाकों का उड़ीसा में विलय को रोक दिया था यही वो दौर था जब आदिवासियों के लिए अलग राज्य “झारखण्ड” की मांग अपने चरम पर थी। खरसावाँ नरसंहार के बाद 28 फरवरी 1948 को आदिवासी महासभा ने अपनी स्थापना दिवस (30- 31 मई 1938) के अवसर पर “छोटा नागपुर और संथाल परगना को मिलकर नए आदिवासी बाहुल्य प्रान्त का गठन” और “आदिवासी पूर्ण स्वराज से एक कदम पीछे नहीं हटेंगे” के संकल्प को दोहराया। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों को बंगाल, उड़ीसा और मध्यप्रदेश में सम्मिलित किये जाने का विरोध किया गया। परिणाम स्वरुप आदिवासी महासभा ने अपने आप को राजनैतिक संगठन “झारखंड पार्टी” में परिवर्तित कर लिया।
मतय हेंब्रम, हरी सरदार, मानकी पा, खेरसे पूर्ति, मड़की सोय, लखन हेंब्रम, धनेश्वर बानरा, कुंबर डांगिल, रघुनाथ पांडया, सुभाष हेंब्रम, बिटू राम सोय, मोराराम हेंब्रम, सूरा बोदरा, बुधराम सांडिल इत्यादी वो गिने चुने नाम हैं जिनकी पहचान हो पाई। ज्यादातर शहीदों की लाशें कभी बरामद ही नहीं हुईं। नरसंहार में सरकारी गोली के शिकार आदिवासियों को शहीद का दर्जा भी नहीं दिया गया, यहां तक कि एफ़आईआर तक दर्ज नहीं किया गया। न किसी को इस घटना में सजा दी गयी। बिहार सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह ने ओड़िसा सरकार की इस पुलिस कार्यवाही पर केंद्र सरकार से दखल देने की मांग की और दोनों रियासतों का उड़ीसा में विलय रोक दिया गया। इस नरसंहार पर एक जांच कमेटी का गठन भी किया लेकिन कभी उसकी रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं की गयी और न उस रिपोर्ट पर कभी चर्चा की गयी, केंद्र सरकार ने बुधकर आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर सरायकेला और खरसावाँ रियासतों का 18 मई 1948 को बिहार में विलय कर दिया।
खरसावाँ नरसंहार से मात्र 133 दिन पूर्व आजादी की पूर्व संध्या पर संविधान सभा की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने कहा – ” कई वर्षों पहले हमने नियति के साथ वादा किया था और अब समय आ गया है कि हम अपने उस वादे को निभाएं, आज आधी रात को जब पूरी दुनिया सो रही होगी तब भारत जिंदगी और आज़ादी के साथ उठेगा”। लेकिन आदिवासी समाज को आज़ादी की ये सुबह उतनी खुशनुमा नहीं थी जितनी बाकियों के लिए थी। आजादी का जश्न आदिवासी समाज मना नहीं पाया, स्थिति आज भी बदस्तूर जारी है।
खरसावाँ नरसंहार के 74 वर्ष बाद आदिवासियों के जख्म अभी भी ताजा हैं। आदिवासी आज भी एक जनवरी नये साल के रूप में नहीं बल्कि काला-शोक दिवस के रूप में याद करते हैं। प्रतिवर्ष घटना स्थल पर शहीदों का “दुल सुनुम” श्राद्ध का आयोजन करके शहीदों को याद किया जाता है। जलियांवाला बाग़ को भारतीय इतिहास में जो स्थान प्राप्त हुआ वह खरसावाँ नरसंहार को नहीं दिया गया। उसे छुपाने की कोशिशें आज भी जारी हैं। लेकिन आदिवासियों की स्मृतियों, कहानियों, गीतों में आज भी यह नरसंहार जीवंत है। यह पहला आदिवासी हत्याकांड नहीं है जिसे इतिहास की किताबों से दूर किया गया बल्कि इसी तरह मानगढ़ (1913, राजस्थान ) नरसंहार को भी उचित स्थान नहीं दिया गया।
(डॉ. जितेंद्र मीना दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में अध्यापक हैं।)
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