शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी के बीच कई अंतरालों में वार्ताओं के लंबे दौर के बाद अब लगता है, जैसे महाराष्ट्र में सरकार बनाने के रास्ते की बाधाएं कुछ दूर हो गई हैं। कौन मुख्यमंत्री होगा, कौन उप-मुख्यमंत्री और कौन कहां कितने समय तक रहेगा, इन सबका खाका अब जल्द ही सामने आ जाएगा, जिन्हें राजनीति की जरूरी बातों के बावजूद सबसे प्रमुख बात नहीं माना जाता है। यद्यपि इधर के समय में भाजपा की कथित ‘चाणक्य’ नीति के तमाम चाटुकार विश्लेषक राजनीति के विषयों को महज सत्ता में पदों की बंदरबाट तक सीमित करके देखने के रोग के शिकार हैं।
कांग्रेस और शरद पवार के बीच का रिश्ता तो बहुत पुराना है, दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन इनके साथ शिव सेना का जुड़ना उतना सरल और सहज काम नहीं था। शिव सेना की राजनीति का अपना एक लंबा इतिहास रहा है। उसका कांग्रेस-एनसीपी से मेल बैठना अथवा कांग्रेस-एनसीपी का शिव सेना से मेल बैठना तभी संभव था जब दोनों पक्ष समय की जरूरत के पहलू को अच्छी तरह से समझ लें और अपने में एक ऐसा लचीलापन तैयार कर लें जो इस नये प्रयोग के महत्व को आत्मसात करने में सक्षम हो।
राजनीति में जिसे कार्यनीति कहते हैं, उसका मूल लक्ष्य यही होता है कि अभीष्ट की दिशा में आगे बढ़ने के रास्ते की बाधाओं को, जो आपके बाहर की होती है तो आपके अंदर की भी हो सकती है, वक्त की जरूरतों को समझते हुए दूर किया जाए। किसी के भी सोच में समय की भूमिका को अवसर देने का इसके अलावा दूसरा कोई तरीका नहीं होता है। शैव गुरु अभिनव गुप्त तंत्र शास्त्र में व्यक्ति के द्वारा अपनी चेतना और ऊर्जा के विस्तार के प्रयत्नों में मदद देने के लिए जिस पद्धति के प्रयोग करने की बात कहते हैं, उसमें बहुत साफ शब्दों में कहते हैं कि कि किसी के भी अपने संस्कारों में बिना किसी प्रकार की बाधा बने उसे थोड़ा नर्म हो कर झुकने की जगह दी जानी चाहिए, ताकि अंत में उसके अंतर की बाधा को उखाड़ कर उसके स्वतंत्र प्रवाह को संभव बनाया जा सके। किसी भी कार्यनीति का मूल अर्थ ही यही होता है।
प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जॉक लकान ने अपने चिकित्सकीय कामों में मनोरोगी के साथ एक ही बैठक में सब कुछ तय कर देने के बजाय कई अंतरालों में अनेक बैठकों की पद्धति पर बल दिया था। उनका मानना था कि एक झटके में कोई काम पूरा करने के बजाये रुक-रुक कर करने से रोगी के बारे में कहीं ज्यादा जरूरी सामग्री मिला करती है। संगीत में बीच में किसी धुन को तोड़ कर अकसर ज्यादा असर पैदा होता है, वही कलाकार का अपना कर्तृत्व कहलाता है। एक तान में शुरू से अंत तक बजाते जाना उबाता है। किसी के पास एक से गीतों के दो टेप होने पर जब उसकी उम्मीद के अनुसार एक के बाद दूसरा गीत एक ही क्रम में नहीं आता है, तो वह उसे हमेशा चौंकाता है। लकान किसी को भी उसके आचरण के बारे में, नीति-नैतिकता के बारे में भाषण पिलाने, अर्थात् उपदेशों से उसके ‘संस्कारों’ को दुरुस्त करने से परहेज किया करते थे। आदमी के अंतर की बाधाओं से पार पाने के लिए, बैठक के अगले सत्र के लिए अपने को तैयार करने का रोगी को मौका देने के लिए इस प्रकार के अंतरालों का प्रयोग बहुत मूल्यवान होता है।
बैठकों के लंबे सिलसिले के वातावरण में हमेशा एक प्रकार का तनाव बना रहता है, क्योंकि यह सिलसिला कब खत्म होगा, कोई नहीं जानता है, लेकिन यही तनाव वास्तव में कई नयी बातों को सामने लाता है और वार्ता में शामिल पक्षों के अंदर के बाधा के चिर-परिचित स्वरूप को खारिज करके आगे बढ़ने का रास्ता बनाता है। यह वक्त की जरूरत को आत्मसात करने की एक प्रक्रिया है। इसके अंतिम परिणाम सचमुच चौंकाने वाले, कुछ परेशान करने वाले और कभी-कभी पूरी तरह से अनपेक्षित होते हैं।
यही वजह है कि कांग्रेस-एनसीपी और शिव सेना के बीच बैठकों का सिलसिला हर लिहाज से राजनीतिक तौर पर एक उचित और जरूरी सिलसिला कहलाएगा। राजनीतिक शुचिता के मानदंडों पर भी यही उचित था। इसमें किसी शार्टकट की तलाश पूरे विषय के महत्व को आत्मसात करने के बजाये एक शुद्ध अवसरवादी रास्ता होता, जैसा कि आज तक भाजपा करती आई है। पीडीपी जैसी पार्टी के साथ सत्ता की भागीदारी में उसने एक मिनट का समय जाया नहीं किया था। पूरा उत्तर-पूर्व आज भाजपा की इसी अवसरवादी राजनीति के दुष्परिणामों को भुगत रहा है, वह पूरा क्षेत्र एक जीवित ज्वालामुखी बना हुआ है।
महाराष्ट्र के चुनाव पर इस लेखक की पहली प्रतिक्रिया थी कि ‘हवा से फुलाए गए मोदी के डरावने रूप में सुई चुभाने का एक ऐतिहासिक काम कर सकती है शिव सेना। पर वह ऐसा कुछ करेगी, नहीं कहा जा सकता है!’ लेकिन सचमुच, यथार्थ का विश्लेषण कभी भी बहुत साफ-साफ संभव नहीं होता है। किसी भी निश्चित कालखंड के लिए कार्यनीति के स्वरूप को बांध देने और उससे चालित होने की जड़ सूत्रवादी पद्धति ऐसे मौकों पर पूरी तरह से बेकार साबित होती है। यह कार्यनीति के नाम पर कार्यनीति के अस्तित्व से इंकार करने की पद्धति किसी को भी कार्यनीति-विहीन बनाने, अर्थात् समकालीन संदर्भों में हस्तक्षेप करने में असमर्थ बनाने की आत्म-हंता पद्धति है। यह शिव सेना के लिए इतिहास-प्रदत्त वह क्षण है, जिसकी चुनौतियों को स्वीकार कर ही वह अपने को आगे क़ायम रख सकती है। एक केंद्रीभूत सत्ता इसी प्रकार अपना स्वाभाविक विलोम का निर्माण करती है।
(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं। आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)
+ There are no comments
Add yours