जयंती पर विशेष: गांधी नहीं देखते थे सिनेमा, लेकिन उनके विचारों से फिल्में थीं प्रभावित

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महात्मा गांधी जिनका आज जन्मदिन है, उन्हें अपने पूरे जीवन में कभी फ़िल्में देखने का अवसर नहीं मिला। शायद एक फ़िल्म ‘रामराज्य’ उन्होंने देखी थी, लेकिन उनकी फ़िल्मों में न रुचि थी और न उसे पसंद करते थे। वे उसे एक बुराई की तरह देखते थे। फ़िल्म से जुड़े लेखकों-कलाकारों ने कोशिश भी की कि वे फ़िल्म देखें और अपनी राय बदलें। ख्वाजा अहमद अब्बास ने भी उन्हें एक विस्तृत पत्र लिखा था। लेकिन सिनेमा के बारे में उन्हें अपनी राय बदलने का अवसर नहीं मिल पाया। लेकिन दिलचस्प यह तथ्य भी है कि स्वयं उनके जीवनकाल में फ़िल्मों पर उनके विचारों और कार्यों का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया था।

चार्ली चैप्लिन की ‘मोडर्न टाइम्स’ (1936) में जो मशीनों का मानव जीवन पर कुप्रभाव दिखाया गया है वह कहीं न कहीं महात्मा गांधी के विचारों का प्रभाव भी माना जा सकता है। इसी तरह ‘अछूत कन्या’ (1936), ‘अछूत’ (1940), ‘नीचा नगर’ (1946), ‘धरती के लाल (1946)’ आदि फ़िल्मों पर भी महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के विचारों का असर देखा जा सकता है। लेकिन आज़ादी के बाद की फ़िल्मों पर गांधी के विचारों और कार्यों का प्रभाव ज्यादा गहराई से दिखायी देता है।

हिंदी सिनेमा के लिए महात्मा गांधी अपरिचित नाम नहीं है। गांधी से प्रेरित होकर पचास-साठ के दशक में भी कई फिल्में बन चुकी थीं। भले ही वहां गांधी का नाम सीधे-सीधे न लिया गया हो। वी.शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’ (1957) में अहिंसा का इसी तरह से हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया था जिस तरह ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ (2006) में किया गया है। ‘दो आंखें बारह हाथ’ में जघन्य अपराधों में जेल की सजा भुगत रहे कुछ खूंखार अपराधियों को एक आश्रम में रखकर सुधारने का प्रयत्न जेलर करता है और अपने इस प्रयत्न में वह अंततः कामयाब होता है।

इसी तरह राजकपूर की फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (1960) का नायक भी अहिंसा और सत्य के मार्ग पर चलकर ही डाकुओं को हिंसा का मार्ग छोड़ने और शांति और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर पाता है। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अनाड़ी’ (1959) का नायक भी ऐसा ही है जिसके लिए सच्चाई और ईमानदारी सहज मानवीय मूल्य है और जो अपने लाभ-लोभ के लिए दूसरे को धोखा देना या दूसरे को नुकसान पहुंचाने की सोचना भी पाप समझता है।

ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘बावर्ची’ (1972) में इसी संदेश को घर-परिवार में शांति और सद्भाव कायम करने के लिए इस्तेमाल किया था। इनके अलावा ‘जागृति’ (1954), ‘बूट पालिश’ (1954), ‘मदर इंडिया’ (1957), ‘नया दौर’ (1957),  ‘मुझे जीने दो’ (1963), ‘दोस्ती’ (1964), ‘सत्यकाम’ (1969) आदि कई फिल्मों का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है जिनमें किसी-न-किसी रूप में गांधी के आदर्शों को जीवन में उतारने की कोशिश नज़र आती है।

गांधी के आदर्शों की ओर एक बार फिर आकर्षण नब्बे के दशक में बढ़ा जब एक ओर सांप्रदायिक हिंसा और आतंकवाद ने, तो दूसरी ओर, भूमंडलीकरण की वजह से बढ़ती उपभोक्ता संस्कृति ने सामान्य जनता के जीवन को गहरे आर्थिक, सामाजिक और नैतिक संकट में डाल दिया था। 1984 में बनी ‘सारांश’ और ‘मोहन जोशी हाजिर हो’ तथा 1993 में बनी ‘दामिनी’ ने सत्य के लिए हर कीमत पर संघर्ष करने के गांधी के आदर्श की प्रासंगिकता को रेखांकित किया था। ‘दामिनी’ फिल्म के अंत में जज अपना फैसला सुनाने के दौरान सत्य के लिए दामिनी (मीनाक्षी शेषाद्रि) के संघर्ष की प्रशंसा करते हुए महात्मा गांधी को याद करता है और दामिनी के संघर्ष की तुलना महात्मा गांधी के संघर्ष से करता है।

महात्मा गांधी के जीवन को केंद्र में रखकर बनी रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ (1982) को न सिर्फ लोकप्रियता प्राप्त हुई बल्कि उसे कई ऑस्कर अवार्डों से नवाज़ा गया। गांधी के जीवन को आधार बनाकर बाद में श्याम बेनेगल ने भी ‘दि मेकिंग ऑफ दि महात्मा’ (1996) नामक फिल्म का निर्माण किया था जिसमें महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका के प्रवास को कथा का आधार बनाया गया था।

2000 में कमल हासन ने देश विभाजन को आधार बनाकर ‘हे राम!’ फिल्म का निर्माण किया, जिसमें गांधी न सिर्फ एक पात्र के रूप में मौजूद थे बल्कि गांधी की हत्या को कहानी का आधार बनाया गया था। गांधी की हत्या को रूपक के रूप में इस्तेमाल करते हुए प्रख्यात असमी फिल्मकार जॉन बरुआ ने अपनी पहली हिंदी फिल्म ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ (2005) बनाई और 2006 में राजकुमार हिरानी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ ने गांधी और उनके आदर्शों को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।

सत्तर-अस्सी के दशक में हिंदी सिनेमा में सत्य और अहिंसा पर आधारित आदर्शवाद का प्रभाव कम होने लगा था। गुस्सैल नायक के रूप में अमिताभ बच्चन के आगमन के बाद प्रतिशोध पर आधारित सिनेमा ने हर तरह के आदर्शवाद को नकार दिया। प्रतिशोध की भावना जितनी तीव्र होती गई, फिल्मों में हिंसा की मात्रा भी बढ़ती गई। लोकप्रिय और समांतर दोनों तरह के सिनेमा में हिंसा के कई-कई रूप देखे जा सकते थे। फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा सिनेमा को लोकप्रिय बनाने की प्रविधि नहीं थी। यह समाज में लगातार बढ़ रही हिंसा की ही अभिव्यक्ति थी। इस बढ़ती हिंसा के ठोस राजनीतिक और सामाजिक कारण थे।

लूट, अपराध, जातिवाद, सांप्रदायिक नरसंहार, आतंकवाद और युद्ध आदि आज की एक ध्रुवीय दुनिया की ऐसी हकीकत है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। ऐसे दौर में उन भुला दिए गए आदर्शों की तरफ ध्यान जाना स्वाभाविक है, जिन आदर्शों ने हमारे जैसे उपनिवेश बने देशों को आजादी दिलाई, दुनिया के कुछ हिस्सों से शोषण पर आधारित व्यवस्थाओं को समाप्त कर बराबरी और न्याय पर आधारित व्यवस्थाओं को कायम करना संभव बनाया और इस धारणा को लोकप्रिय बनाया कि सभी मनुष्य बराबर हैं, चाहे उनका रंग, धर्म, लिंग, जाति, नस्ल और भाषा कुछ भी क्यों न हो। विचारों में नितांत दो ध्रुवों पर होते हुए भी आज गांधी और भगत सिंह दोनों ही उन सभी लोगों के लिए प्रासंगिक नज़र आते हैं जो देश की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं।

ऐसा नहीं है कि हिंदी सिनेमा ने गांधी के सिद्धांतों को सहज रूप से स्वीकार कर लिया था। हिंसा और अहिंसा दोनों के प्रति हिंदी सिनेमा का एक-सा आग्रह रहा है। हिंदी सिनेमा ने भगत सिंह और गांधी को समान रूप से स्वीकारा है। यदि आज भगत सिंह के नायकत्व को दुबारा स्थापित करने वाली फिल्म ‘रंग दे बसंती’ (2006) को अपार सफलता मिली है तो गांधी को केंद्र में रखकर बनाई गई फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ को भी वैसी ही सफलता मिल रही है। यदि ध्यान दें तो हिंदी सिनेमा ने दोनों को एक-सा ही नायकत्व प्रदान किया है।

भगत सिंह ने भी देश के लिए वैसे ही अपना बलिदान दिया था जैसे गांधी ने दिया था। लेकिन जनता में भगत सिंह के उस कदम के प्रति भी उतनी ही श्रद्धा है जो सांडर्स की हत्या के रूप में सामने आई थी। सांडर्स लाला लाजपत राय की हत्या का अपराधी था। ‘रंग दे बसंती’ में रक्षामंत्री की हत्या करने वाले युवक इसलिए नायक बन सके क्योंकि देश के एक सिपाही की हत्या करने के लिए जिम्मेदार रक्षामंत्री को उन्होंने सजा दी थी। नतीजतन खुद उन्हें अपने जीवन की आहुति देनी पड़ी। अपने देश और समाज के लिए प्राणों को उत्सर्ग करने वाले भगत सिंह और गांधी दोनों इसीलिए जनता की नज़र में नायक बन सके। 

पिछले तीस सालों में सांप्रदायिकता, आतंकवाद और राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण ने गांधी को एकबार फिर बहस के केंद्र में ला खड़ा किया है। ‘हे राम!’,  ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ और अब ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ फिल्में किसी न किसी रूप में गांधी की प्रासंगिकता को ही बताती हैं। 1992 में संघ परिवार के कथित कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को ध्वंस कर दिया और उसके बाद देश भर में हुए सांप्रदायिक दंगों में निरपराध लोगों को मारा गया, जिनमें भी मरने वाले अधिकतर गरीब मुसलमान ही थे, तो लोगों को देश के विभाजन और उस समय हुए दंगों की याद आना स्वाभाविक था। उसी दौर में गांधी की हत्या भी की गई थी।

धर्मनिरपेक्ष भारत में यकीन करने वाले लोगों को स्वभावतः गांधी की जरूरत महसूस होने लगी। राजनीति के संप्रदायीकरण के भयावह परिणाम उनके सामने आ रहे थे। ऐसा नहीं था कि फिल्मी दुनिया में सभी गांधी की प्रासंगिकता को महसूस कर रहे थे। लेकिन कुछ संवेदनशील फिल्मकारों ने गांधी को एकबार फिर याद करने की जरूरत महसूस की। इसी का नतीजा था कि ‘दि मेकिंग ऑफ दि महात्मा’, ‘हे राम!’, ‘लगान’, ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’, ‘स्वदेश’, ‘स्वराजः दि लिटिल रिपब्लिक’ (2003) जैसी फिल्में बनीं।

‘लगे रहो मुन्ना भाई’ इसी परंपरा की एक कड़ी है। ‘दि मेकिंग ऑफ दि महात्मा’ का मकसद दमनकारी व्यवस्था के विरुद्ध लोकतांत्रिक आंदोलनों में अहिंसा और सत्याग्रह के उपयोग की ऐतिहासिक महत्ता को उजागर करना था। गांधी ने सत्याग्रह जैसे अहिंसात्मक तरीकों का सफलतापूर्वक उपयोग दक्षिण अफ्रीका में किया था। यह फिल्म इसलिए बहुत अधिक कामयाब नहीं हो सकी क्योंकि यह सीधे तौर पर हमारे समकालीन प्रश्नों से नहीं जुड़ती थी। फिल्म को लोकप्रिय विधा में बनाया भी नहीं गया था।

इसी परंपरा में दूसरी फिल्म कमल हासन की ‘हे राम!’ थी, जिसकी कथा-पटकथा हिंदी के प्रख्यात लेखक मनोहर श्याम जोशी ने लिखी थी। ‘हे राम!’ में बंटवारे से पहले कलकत्ता में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान मुस्लिम गुंडों के हाथों अपनी पत्नी के बलात्कार और नृशंस हत्या से आहत एक हिंदू ब्राह्मण साकेत राम (कमल हासन) के हिंदू सांप्रदायिक संगठनों (यहां संकेत आरएसएस और हिंदू महासभा की तरफ है) की गिरफ्त में फंस जाने की कथा कही गई है। जो इन सबके लिए गांधी को जिम्मेदार मानते हैं और जिनका यकीन है कि यदि गांधी को खत्म कर दिया जाए तो इस समस्या का समाधान संभव है।

यह फिल्म साफ तौर पर बताती है कि जिन ताकतों ने गांधी की हत्या की थी वे लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल उनमें नफरत और हिंसा पैदा करने के लिए करते हैं। फिल्म परोक्ष रूप में यह भी बताती है कि जिन्होंने गांधी को मारा था वे ही आज बाबरी मस्जिद के विध्वंस के जिम्मेदार हैं और ये ताकतें अपनी प्रेरणा फासीवाद से लेती हैं। गांधी की हत्या का षड्यंत्र जिस कमरे में होता है वहां सावरकर और हिटलर की तस्वीर साथ-साथ लगी होती है ( जवरीमल्ल पारख, हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र, 2006, ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली, पृ. 219)।

दंगे के दौरान ही साकेत राम की मुठभेड़ अपने पठान दोस्त अकबर (शाहरुख खान) से होती है जो अपनी जान पर खेलकर उसको मुसलिम दंगाइयों से बचाता है। अकबर दंगे में अपने पिता और दूसरे कई रिश्तेदारों को खो चुका है। वहां ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं कि साकेत राम को मुसलमानों की रक्षा में हथियार उठाना पड़ता है। उसकी आंखों के सामने अकबर पर हिंदू सांप्रदायिक गुंडे हमला करते हैं। अकबर की मौत उसे उस उन्माद से बाहर निकाल लाती है।

उसकी मुठभेड़ गांधी से भी होती है जिनके व्यक्तित्व से साकेत राम अभिभूत हो जाता है और उसे महसूस होता है कि वह उन्माद की आंधी में बहकर कितना बड़ा पाप करने जा रहा था। वह गांधी की हत्या करने आया था लेकिन गांधी का मुरीद बन जाता है। यह और बात है कि एक और राम नाथूराम (गोडसे) गांधी की हत्या करने में कामयाब हो जाता है।

गांधी की हत्या के प्रसंग को ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ फिल्म में भी उठाया गया है। यह हिंदी के एक रिटायर्ड प्रोफेसर उत्तम चौधरी (अनुपम खेर) की कहानी है। प्रोफेसर चौधरी एक आदर्शवादी और विद्वान अध्यापक माने जाते रहे हैं। उनकी पत्नी का देहावसान डेढ़ साल पहले हो चुका है और उनका बड़ा बेटा अमरीका में है। उनके पास इकलौती बेटी और छोटा बेटा है। बेटी तृषा (उर्मिला मातोंडकर) ही उनकी देखभाल करती है जो स्वयं एक एनजीओ में काम करती है। छोटा बेटा अभी पढ़ रहा है।

प्रोफेसर चौधरी का परिवार सुखी मध्यवर्गीय परिवार है। लेकिन उसी सुखी परिवार में संकट तब शुरू होता है जब प्रोफेसर चौधरी अपनी याददाश्त खोने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि उनकी पत्नी का देहावसान हो चुका है और वे रिटायर्ड हो चुके हैं। जब वे गांधी का नाम या उनकी तस्वीर देखते हैं तो उन पर विस्मृति का दौरा सा पड़ जाता है और वे बार-बार यह कहते हैं कि उन्होंने गांधी को नहीं मारा था।

प्रोफेसर चौधरी को लगता है कि उनके आसपास के सभी लोग उसे हत्यारा समझते हैं। उन्होंने उन्हें कैद कर रखा है और एक ऐसे अपराध के लिए उन्हें सजा दी जा रही है जो उन्होंने किया ही नहीं। गांधी की हत्या के समय वे महज आठ साल के बच्चे थे लेकिन यह बात भी प्रोफेसर चौधरी भूल चुके हैं। जाहिर है कि गांधी की हत्या से किसी भी तरह का संबंध होना मुमकिन ही नहीं है इसके बावजूद यदि उनके मानस में यह बात बैठी हुई है तो उसके पीछे कोई कारण अवश्य होना चाहिए। डॉक्टर उस कारण की खोज करते हैं और कोर्ट में मुकदमें का नाटक खेलकर उन्हें इस अपराध भावना से मुक्त किया जाता है। लेकिन कहानी प्रोफेसर चौधरी की मानसिक बीमारी की नहीं है जो सतह पर नज़र आती है। वह इससे अधिक गहरी है।

अपनी विस्मृति में प्रोफेसर चौधरी का बार-बार यह कहना कि गांधी को मैंने नहीं मारा दरअसल गांधी की शारीरिक हत्या से अधिक उनके आदर्शों की हत्या की ओर संकेत करता है। यह सही है कि प्रोफेसर चौधरी गांधी के हत्यारे नहीं थे लेकिन आजादी के बाद के साठ सालों में गांधी की हत्या रोज होती रही है। उन्हें तस्वीरों में मढ़कर हर दीवार पर टांग दिया गया है, मूर्ति बनाकर हर चौराहे पर खड़ा कर दिया गया है। संस्थानों, भवनों, सड़कों और बाजारों के नाम उनके नाम पर रख दिए गए हैं। लेकिन उन्हें दिल से और कामों से निकाल दिया गया है। उन आदर्शों को पूरी तरह भूला दिया गया है जिसके गांधी जीवंत प्रतीक थे।

गांधी की इसी प्रासंगिकता को राजकुमार हिरानी ने अपनी फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में बिल्कुल भिन्न ढंग से पेश किया है। राजकुमार हिरानी ने इससे पहले मुन्नाभाई के चरित्र को लेकर ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ फिल्म बनाई थी। हास्य-व्यंग्य शैली में बनाई गई उस फिल्म का नायक मुंबई शहर का एक छोटा-मोटा गुंडा मुरली प्रसाद शर्मा उर्फ मुन्नाभाई (संजय दत्त) होता है। वह गरीबों की बस्ती धोबीघाट पर रहता है और उसका एक छोटा-मोटा गैंग होता है, जिसके बलबूते पर वह दादागिरी के द्वारा लोगों के लेन-देन के मामले सुलझाता है। उसने गांव में रहने वाले माता-पिता (सुनील दत्त और रोहिणी हटगंणी) को यह कह रखा है कि वह मुंबई में डॉक्टर है और वहां एक चैरिटी अस्पताल चलाता है।

उसके माता-पिता अपने पूर्व परिचित डॉ. अस्थाना (बोमन ईरानी) की बेटी सुमन (ग्रेसी सिंह) से, जिसके साथ मुन्ना बचपन में खेल चुका है और जिसकी कई मधुर स्मृतियां उसके पास हैं, उसका रिश्ता करना चाहते हैं। लेकिन उनका यह स्वप्न पूरा नहीं होता। डॉ. अस्थाना को मालूम हो जाता है कि मुन्ना दरअसल एक गुंडा है। वह मुन्ना के माता-पिता को अपमानित कर घर से निकाल देता है। पिता को बेटे की वास्तविकता से इतना आघात लगता है कि वे उसी समय अपनी पत्नी को लेकर गांव चले जाते हैं।

डाॅ. अस्थाना के यहां अपने माता-पिता के अपमान से विचलित होकर मुन्ना डॉक्टर बनने का निर्णय लेता है। स्कूल की फर्जी मार्क्सशीट और प्रमाणपत्र हासिल कर और प्रवेश परीक्षा में किसी डाॅक्टर को जबरन बैठाकर वह मेडिकल कॉलेज में प्रवेश ले लेता है। लेकिन वहां पहले ही दिन जिस दुनिया से वास्ता होता है वह उसकी सहज बुद्धि को स्वीकार्य नहीं होती। वह डॉ अस्थाना जो उस कॉलेज के डीन भी है, के इस सिद्धांत से सहमत नहीं हो पाता कि एक डॉक्टर के लिए मरीज व्यक्ति महज एक बीमार शरीर है। डॉक्टर का उससे किसी तरह का भावनात्मक रिश्ता नहीं होता।

मनुष्य एक शरीर है या एक संवेदनशील प्राणी, यही दरअसल पूरी फिल्म में टकराहट का मुद्दा बनता है। वह मरीजों का इलाज सिर्फ दवाइयों से करने की बजाए उनके साथ इंसानी रिश्ता कायम करता है। जिस मरीज की मौत निश्चित है उसके बचे हुए जीवन को वह हर तरह की खुशियों से भर देना चाहता है। वह अस्पताल में काम करने वाले सफाई कर्मचारियों, चपरासियों, नर्सों, गरीब मरीजों और उनके अभिभावकों से उनकी सामाजिक हैसियत के अनुसार नहीं बल्कि बराबरी का व्यवहार करता है। वह दुखी दिलों को प्यार की झप्पी देकर उनके दुख को बांटने का प्रयत्न करता है। मानो दुख की इस भयावह घड़ी में वह अकेला नहीं है। कोई है जो उसके इस दुख में उसके साथ है, उसके दुख को बांटने और कम करने के लिए।

फिल्म में ऐसे कई प्रसंग हैं। उसका दुखी और बीमार लोगों को झप्पी देना, उनके साथ प्रेम से बात करना, उनकी इच्छाओं को जानकर उनको पूरा करने की कोशिश करना, दवाइयों से कम कारगर साबित नहीं होते। यह सब वह अपनी सहज बुद्धि से करता है। वह जानता है कि वह एक मामूली इंसान है, एक छोटा-मोटा अपराधी। लेकिन वह प्रेम की ताकत को जानता है। वह जानता है कि दुख बांटने से कम होता है। दुखी और पीड़ित व्यक्ति को अपनत्व देने से उसे सांत्वना मिलती है। चूंकि उसे औपचारिक शिक्षा नहीं मिली है इसलिए उसकी सोच किताबों से बंधी नहीं है। वह स्वतंत्र ढंग से सोच सकने की क्षमता रखता है।

यही वजह है कि वह यह समझ पाता है कि मनुष्य कोई मशीन नहीं है कि उसे महज किताबी सिद्धांतों से चलाया या ठीक किया जा सकता है। उसके पास यदि सोचने वाला दिमाग है तो महसूस करने वाला हृदय भी होता है। मुन्ना भाई मनुष्य को मशीन मानने से इन्कार करता है। मनुष्यता के जिस पाठ को मुन्ना भाई गुंडा होकर नहीं भूला, ऊंची शिक्षा प्राप्त डॉ. अस्थाना लगता है, वही पाठ (और उनके जैसे पढ़े-लिखे) भूल गए हैं। मुन्ना भाई ऐसे ही पढ़े-लिखे ‘जाहिलों’ को इंसानियत का पाठ पढ़ाता है।

‘लगे रहो मुन्नाभाई’ का नायक वही मुरलीप्रसाद शर्मा उर्फ मुन्नाभाई (संजय दत्त) है और उसका वही साथी सरकिट (अरशद वारसी) यहां भी मौजूद है। मुन्नाभाई के बारे में पहली फिल्म में बताया गया था कि उसका संबंध गांवों से है। गांवों से रोजगार और बेहतर जिंदगी की आस में शहर आने वाले युवाओं का ही प्रतिनिधित्व मुन्नाभाई करता है। इस फिल्म में हालांकि कहा नहीं गया है लेकिन नायक की अल्प शिक्षा और मवालीगिरी से यही जाहिर होता है कि वह उन गरीब और अल्पशिक्षित युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है जिनके लिए आगे बढ़ने और एक खुशहाल जिंदगी जीने के वैध रास्ते बंद कर दिए गए हैं। यहां भी वह दादागिरी के द्वारा लोगों के लेनदेन के मामले सुलझाता है। बाहुबल ही उसके लिए जिंदगी जीने का इकलौता जरिया होती है।

मुन्नाभाई अपने काम से खुश है और उसकी जिंदगी शांति से व्यतीत हो रही है कि तभी उसकी जिंदगी में एक रेडियो ज़ोकी जाह्न्वी (विद्या बालान) का प्रवेश होता है। मुंबई के एक रेडियो चैनल पर फोन-इन कार्यक्रम के द्वारा वह लोगों को फिल्मी गाने सुनाकर उनका मनोरंजन करती है। मुन्नाभाई उसकी मधुर आवाज पर मोहित हो जाता है। वह सब काम-धंधा छोड़कर उसकी आवाज सुनने के लिए रेडियो सुनता रहता है। दो अक्टूबर से एक दिन पहले जाह्न्वी एक प्रतियोगिता की घोषणा करती है जिसके अनुसार श्रोताओं से गांधीजी के बारे में सवाल पूछे जाएंगे। जो प्रतियोगी सभी प्रश्नों के उत्तर सही देगा उसे स्टूडियो में बुलाया जाएगा।

मुन्ना भाई जाह्न्वी से मिलने का यह मौका नहीं खोना चाहता। लेकिन वह गांधी जी के बारे में कुछ नहीं जानता। वह लाइब्रेरी में जाकर गांधीजी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करता है। गांधी के बारे में उसका यह अध्ययन एक चमत्कार साबित होता है। एक दिन उसके सामने खुद गांधीजी प्रकट होते हैं और उसे आश्वस्त करते हैं कि वह जब भी संकट में होगा तो उसकी मदद करेंगे। वह गांधी के बताए रास्ते के अनुसार खुद भी चलने की कोशिश करता है और दूसरों को भी चलने की सलाह देता है। उसकी यह कोशिश कितनी कामयाब होती है और गांधी से साक्षात्कार उसके जीवन को कितना और किस रूप में बदलता है यही फिल्म की पूरी कहानी है।

जाह्न्वी द्वारा जब पहली बार रेडियो पर मुन्नाभाई का साक्षात्कार लिया जाता है तो वह गांधीवाद की जगह गांधीगिरी शब्द का इस्तेमाल करता है। वह शिक्षित दुनिया की शब्दावली से अपरिचित है। दादागिरी उसका धंधा है और इसी के तोल में वह गांधीगिरी शब्द गढ़ता है। लाइब्रेरी में गांधी से संबंधित पुस्तकें पढ़ने के बावजूद वह इसी गांधीगिरी शब्द का ही इस्तेमाल करता है। दरअसल अब तक वह बाहुबल यानी दादागिरी से समस्या का हल करता रहा है, लेकिन अब वह गांधीगिरी के द्वारा समस्याओं का हल करने की कोशिश करता है।

वह गांधी की इस बात से प्रभावित है कि यदि कोई तुम्हारे गाल पर थप्पड़ मारे तो उसकी तरफ दूसरा गाल भी कर दो। इस शिक्षा के नतीजतन वह बुरा करने वाले को अपराधी नहीं बीमार मानता है। पत्थर बरसाने वाले को वह गुलाब का फूल देने की बात करता है। क्रोध का उत्तर मुस्कान से देने की बात करता है। यानी कि हिंसा का जबाब हिंसा से नहीं प्रेम से देना, सत्य और न्याय पर डटे रहना और अन्याय को बर्दाश्त नहीं करना उसका नया तरीका बन जाता है।

मुन्नाभाई द्वारा बताया गया उपाय दरअसल आदमी को पहचानने का नुस्खा नहीं है। यह एक जीवन दृष्टि है। जिसके अनुसार मेहनतकश लोगों के प्रति रवैए को मनुष्यता की पहचान का आधार माना जाता है। यह दृष्टि गांधीवाद तक सीमित नहीं है और न ही किसी भी मानवतावादी विचारधारा से इसका विरोध हो सकता है। मुन्नाभाई एमबीबीएस में भी मुन्नाभाई सबसे पहले एक सफाई कर्मचारी को ही गले लगाता है। यदि आपका गरीब और मेहनतकश लोगों के प्रति रवैया बराबरी और भाईचारे का नहीं है तो आप समाज में व्याप्त अन्याय का विरोध कभी नहीं कर सकते।

गांधी का यह अध्ययन उसके जीवन को पूरी तरह से बदल देता है। वह गांधी की कुछ बातों को जीवन में पूरी तरह से उतार लेता है। इस प्रकार मुन्ना भाई एक ऐसा चरित्र है जिसे ऊपरी तौर पर अपराधी बताया गया है लेकिन जो आज के अर्थ केंद्रित उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव में अपनी सहज मानवीय संवेदना नहीं गंवा चुका है। यही नहीं उसमें अनुभव प्रेरित काॅमनसेंस है जिसके द्वारा वह अच्छे और बुरे का निर्णय लेता है। दरअसल फिल्म में जिसे गांधीगिरी कहा गया है वह मुन्नाभाई के लिए परंपरागत रूप से अच्छाई की वह संकल्पना है जिसे उसने अपने जीवन में हाशिए पर डाल रखा था।

जाह्न्वी के प्यार से प्रेरित होकर ही वह उन अच्छाइयों को अपने जीवन के केंद्र में ले आता है और इसके लिए गांधी का जीवन और गांधी के विचार उत्प्रेरक बनकर उपस्थित होते हैं। इसलिए मुन्नाभाई को सत्या या कंपनी जैसी फिल्मों के नायकों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इन फिल्मों के नायक अधिक यथार्थवादी हैं जबकि मुन्नाभाई एक काल्पनिक और अयथार्थवादी चरित्र है। लेकिन इस चरित्र को जिन मानवीय संवेदनाओं और विचारों का वाहक बनाकर प्रस्तुत किया गया है और जीवन की जिन निर्मम सच्चाइयों के बीच इस चरित्र को विकसित किया गया है वे इतनी अधिक यथार्थवादी हैं कि मुन्नाभाई का यह कल्पित चरित्र उनके आलोक में जीवंत और सच्चा मालूम देने लगता है। वह धीरे-धीरे एक मिथकीय चरित्र में रूपांतरित होने लगता है।

फिल्म में मुन्नाभाई को दिखने वाले गांधी दरअसल एक प्रविधि की तरह इस्तेमाल किए गए हैं। फिल्मकार ने यह सावधानी बरती है कि उन्हें वास्तविक न समझा जाए इसलिए पहले ही साक्षात्कार में स्वयं गांधी के मुख से कहलाया गया है कि वह ‘आत्मा’ (साॅल) नहीं बल्कि ‘चेतना’ (काशंसनेस) है। यही नहीं प्रेस कान्फ्रेंस में डाॅक्टर द्वारा यह प्रमाणित करना कि दरअसल मुन्नाभाई को गांधी नज़र नहीं आते बल्कि वह ऐसा महसूस करता है कि उसे गांधी दिखते हैं। इसका प्रमाण यह है कि वह गांधी के बारे में उन प्रश्नों का उत्तर देने में अक्षम है जिसे वह नहीं जानता। इस तरह गांधी को एक दिव्य पुरुष के रूप में नहीं बल्कि एक विचार की तरह, एक अवधारणा की तरह पेश किया गया है।

यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राजकुमार हिरानी ने यहां किस गांधी को चुना है। वह गांधी जिसने साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का नेतृत्व किया था, या उस गांधी को जिसने सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी, या उस गांधी को जिन्होंने व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता के कुछ मानदंड रखे थे और अपने जीवन में लगातार उनका पालन किया था। लेकिन इन सब क्षेत्रों में संघर्ष का जो तरीका उन्होंने अपनाया था, वह एक ही था, सत्याग्रह का। सत्य के लिए अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए संघर्ष करना और ऐसा करते हुए हर कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना।

इस फिल्म का गांधी के राजनीतिक कर्मों से कुछ भी लेना-देना नहीं है, जिनको लेकर कई तरह के विवाद भी हैं। गांधी के सभी निर्णय सभी के द्वारा स्वीकार नहीं किए गए थे। इसी तरह दलित प्रश्न पर गांधी की दृष्टि को दलित वर्ग तब भी और अब भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। ट्रस्टीशिप का सिद्धांत और उद्योगीकरण का विरोध जैसे मुद्दे भी गांधी को विवादास्पद बनाते हैं। इन सबके बावजूद गांधी का सत्य के लिए आग्रह, उसके लिए अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए संघर्ष करना और उसके लिए हर कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना गांधी को अपने समकालीनों के ही नहीं बल्कि आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे प्रभावशाली महापुरुष बना देता है। लगे रहो मुन्नाभाई का नायक गांधी को उसकी संपूर्णता में नहीं ग्रहण करता। वह संघर्ष की उनकी पद्धति को अपना आदर्श बनाता है।

‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म को मिली इस व्यापक लोकप्रियता से इस नतीजे पर पहुंचने में कोई हर्ज नहीं है कि गांधी की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता अभी भी व्यापक रूप से स्वीकार्य है। रंग दे बसंती की लोकप्रियता से भी इसी तरह का नतीजा निकाला जा सकता है। लेकिन दोनों फिल्मों की लोकप्रियता से यह नतीजा निकालना उचित नहीं है कि लोगों ने हिंसा और अहिंसा के प्रश्न को हल कर लिया है।

दरअसल, गांधी की अहिंसा और भगतसिंह की हिंसा में तब तक कोई भेद नहीं है, जब तक दोनों अन्याय के प्रतिकार के साधन के रूप में अपने को व्यक्त करते हैं। हिंदी सिनेमा अन्याय के प्रतिकार के रूप में की गई हिंसा को स्वीकृति देता रहा है। वह चाहे रंग दे बसंती में हो या फना में या किसी अन्य फिल्म में। कठिनाई तब सामने आती है जब अन्याय के प्रतिकार के बहाने वैयक्तिक प्रतिशोध और प्रतिहिंसा को सही ठहराने की कोशिश की जाती है।

दरअसल, फिल्म ऐसे किसी भी प्रसंग के बीच गांधी के सत्याग्रह को उपाय के रूप में नहीं रखती जहां सत्याग्रह के नाकामयाब होने की संभावना हो। उदाहरण के लिए, क्या बाबरी मस्जिद तोड़ने वाले सांप्रदायिक फासीवादी, आतंकवाद के नाम पर निर्दोषों की हत्या करने वाले धार्मिक तत्ववादी और दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए हिंसा और युद्ध का इस्तेमाल करने वाले साम्राज्यवादी शासकों को गांधी के सत्य और अहिंसा के मार्ग द्वारा सुधारा जा सकता है। इतिहास की सच्चाई यह है कि गांधी की हत्या एक सांप्रदायिक फासीवादी ने ही की थी।

लगे रहो मुन्नाभाई में भी जिनका ‘हृदय परिवर्तन’ होता है, वे ऐसे साधारण लोग हैं जो अपने छोटे-मोटे फायदे के लिए कदाचरण का इस्तेमाल करने को गलत नहीं मानते। ‘दो आंखें बारह हाथ’ में भी गांधीवादी जेलर (वी. शांताराम) खूंखार अपराधियों का ‘हृदय परिवर्तन’ करने में तो कामयाब हो जाता है लेकिन उस लाला का हृदय परिवर्तन नहीं होता जिसका व्यापार किसानों को ठगने पर ही निर्भर है। ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ का लक्की सिंह भी एक व्यवसायी है। उसका ‘हृदय परिवर्तन’ भी निहायत ही निजी संदर्भ में होता है। लेकिन यह कितना स्थायी हो सकता है, कहना मुश्किल है।

गांधी के इर्दगिर्द रहने वाले उद्योगपतियों ने क्या गांधी के उन नैतिक आचरणों का व्यवसाय में भी इस्तेमाल किया था, जिनका इस्तेमाल करने पर वे अपने व्यवसाय के मालिक नहीं रहते। लेकिन उन उद्योगपतियों ने और उनके परिवार वालों ने गांधी के ट्रस्टीशिप की बात को कभी गंभीरता से नहीं लिया। अपने व्यवसाय से होने वाले लाभ का छोटा-सा अंश भी उस जनता के लिए कभी नहीं छोड़ा जिसका ट्रस्टी गांधीजी उन्हें कहा करते थे।

हिदी के प्रख्यात कथाकार असग़र वजाहत ने आज से लगभग 12 साल पहले एक नाटक लिखा था, ‘गोडसे@गांधी.कॉम’। नाटक इस दौरान कई बार खेला भी गया और कई अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। नाटक में गांधी और गोडसे के बीच संवाद की कल्पना की गयी है जिससे ऐसा कोई भी व्यक्ति जो फासीवाद के चरित्र को जानता और समझता है, कभी सहमत नहीं हो सकता। संवाद में यकीन रखने वाले निहत्थे लोगों पर गोली नहीं चलाते, दंगे नहीं कराते और मस्जिद नहीं गिराते। अभी 25 जनवरी को इस नाटक पर बनी फ़िल्म ‘गांधी-गोडसे एक युद्ध’ प्रदर्शित हुई है और इसके साथ ही इसको लेकर विवाद भी खड़ा हो गया है।

फ़िल्म हिंदी सिनेमा के एक लोकप्रिय फ़िल्मकार राजकुमार संतोषी ने बनायी और निर्देशित की है। ‘गांधी-गोडसे एक युद्ध’ असग़र वजाहत के इसी नाटक ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ पर आधारित है। इसकी पटकथा स्वयं संतोषी ने लिखी है और संवाद लेखन में संतोषी और असग़र वजाहत के नामों का उल्लेख है। स्पष्ट है कि फ़िल्म में नाटक से अलग जो भी बदलाव किये गये हैं, उससे लेखक की भी सहमति रही होगी। गांधी और गोडसे दोनों ऐतिहासिक पात्र हैं। नाथूराम गोडसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध रहा था और हिंदू महासभा का सदस्य था। 30 जनवरी 1948 को जब महात्मा गांधी प्रार्थना सभा में उपस्थित थे, नाथूराम गोडसे ने उनकी छाती पर तीन गोलियां दागकर उनकी हत्या कर दी थी। नाटक और फ़िल्म दोनों का संबंध इस घटना से है।

फ़िल्म की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। यह मानते हुए कहानी गढ़ी गयी है कि अगर नाथूराम गोडसे की गोलियों से गांधीजी की मृत्यु नहीं हुई होती तो क्या होता। नाटक और फ़िल्म में यही होता है। ऑपरेशन के बाद उनके शरीर से गोलियां निकाल ली गयीं और कुछ दिनों बाद वे पूरी तरह से ठीक हो गये। गांधीजी जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल आदि नेताओं के सामने कांग्रेस को भंग करने का प्रस्ताव करते हैं। उनके बीच तर्क-वितर्क होता है। नेहरू आदि नेता कहते हैं कि फैसला हम नहीं ले सकते, कांग्रेस कार्यसमिति ही ले सकती है। वहां प्रस्ताव रखा जाता है और गांधी जी के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया जाता है।

इस बीच गांधीजी जेल में नाथूराम गोडसे से मिलने जाते हैं और उसे बताते हैं कि उन्होंने उसे माफ कर दिया है और ऐसा उन्होंने अदालत को लिखकर भी दे दिया है। गोडसे गांधीजी की बात से प्रभावित नहीं होता। नेहरू आदि कांग्रेस नेताओं से खिन्न होकर गांधी जी ग्राम स्वराज की अपनी संकल्पना को साकार करने के लिए बिहार चले जाते हैं। वहां वे स्वयंभू और स्वतंत्र राज्य की स्थापना करते हैं जिसकी अपनी सरकार होती है, अपनी पुलिस होती है और अपना न्यायालय होता है।

स्वाभाविक है कि उनके इस ‘ग्राम स्वराज’ की टक्कर देश पर शासन करने वाली सरकार से होती है और इस टकराव का परिणाम यह होता है कि नेहरू के आदेश से गांधी जी को ‘देशद्रोह’ के अपराध में जेल में बंद कर दिया जाता है। गांधी मांग करते हैं कि उन्हें उसी जेल में और उसी वार्ड में रखा जाये जिसमें नाथूराम गोडसे को रखा गया है। गांधी जी उसी वार्ड में पहुंच जाते हैं और एकबार फिर से गांधी और गोडसे के बीच कथित संवाद शुरू होता है।

फ़िल्म की इस कहानी के समानांतर सुषमा और नवीन नामक दो युवाओं की कहानी भी चलती है जो आपस में प्रेम करते हैं। सुषमा एक स्वंतत्रता सेनानी की बेटी है और उसका स्वप्न है कि वह गांधी जी के साथ रहकर देश-सेवा करे। गांधी जी दोनों को अपने साथ रखने से इन्कार कर देते हैं। नतीजतन नवीन को लौट जाना पड़ता है। गांधी दोनों के साथ रहने के ही नहीं उनके प्रेम के भी विरुद्ध हैं। वे यह भी नहीं चाहते कि वे आपस में किसी तरह का संपर्क भी रखें।

इस बीच गांधीजी नाथूराम गोडसे से हिंदू राष्ट्र, अखंड भारत, भारत की सांस्कृतिक परंपरा आदि पर कई सवाल करते हैं। उनके किसी भी सवाल का जवाब गोडसे नहीं दे पाता। नाथूराम गोडसे दावा करता है कि वह भगवद्गीता को महान ग्रंथ मानता है। गांधी भी गीता में बहुत विश्वास करते थे। गांधी ने गीता की अहिंसावादी व्याख्या भी की थी जबकि नाथूराम गोडसे उससे युद्ध की प्रेरणा लेता है। वह कहता भी है कि धर्म के मार्ग पर चलकर ही अर्जुन अपने ही सगे-संबंधियों से युद्ध लड़ता है। गांधी कहते हैं कि उन्होंने युद्ध के मैदान में युद्ध लड़ा था, जबकि तुमने तो प्रार्थना सभा में एक निहत्थे पर गोली चलायी थी। नाथूराम गोडसे गांधी की इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाता। 

नाथूराम गोडसे गांधीजी पर आरोप लगाता है कि वे अपनी मर्जी दूसरों पर थोपते रहते हैं। जब कांग्रेस की 12 राज्य समितियों ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में वोट दिया था और केवल तीन ने नेहरू के समर्थन में, तब भी आपने पटेल की जगह नेहरू को प्रधानमंत्री बनवा दिया। देश को आज़ादी कांग्रेस की वजह से ही नहीं मिली थी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद आदि के बलिदान से मिली थी, लेकिन आपने कभी उनके बलिदान को महत्व नहीं दिया। आपने पाकिस्तान जो हमारा शत्रु है उसको 55 करोड़ दिलवा दिये।

गांधीजी इन सबका जवाब यह देते हैं कि उनके अपने लोग ही उनकी नहीं सुनते। नाथूराम गोडसे यह भी दावा करता है कि जब उसने गांधी जी को गोली मारी थी, उससे पहले उनके पांव इसलिए छुए थे क्योंकि देश को आज़ाद कराने के लिए उनके संघर्ष के प्रति उसके मन में सम्मान था। फ़िल्म इस बात का संकेत देती है कि गांधी जी की हत्या की कोशिशें बंद नहीं हुई थी, राजे-रजवाड़े अब भी कोशिश कर रहे थे, उनको मरवाने की। इसी कोशिश में गांधी पर एक बार फिर जेल में हमला होता है लेकिन इस बार नाथूराम गोडसे उनको बचा लेता है।

इस तरह गांधी की हत्या का जो अपराध गोडसे ने किया था, इस काल्पनिक कहानी में गोडसे गांधी को बचाकर पाप मुक्त हो जाता है। इसके बाद दोनों ही- गांधी जी और नाथूराम गोडसे एक साथ जेल से छूटते हैं। बाहर एक तरफ गांधी जी के समर्थक हैं और दूसरी तरफ गोडसे के समर्थक। उनके हाथ में गांधी और गोडसे ज़िंदाबाद के प्लेकार्ड हैं। दोनों तरफ की भीड़ अपने-अपने नेता के ज़िंदाबाद के नारे लगाती हैं। दोनों तरफ की भीड़ के बीच से गांधी और गोडसे एक साथ आगे बढ़ते हैं और पीछे गोडसे ज़िंदाबाद का प्लेकार्ड चमकता है। इसके साथ ही फ़िल्म समाप्त हो जाती है।

यह सही है कि यह फ़िल्म काल्पनिक कथा पर आधारित है। लेखक ने इस काल्पनिक विचार को सामने रखते हुए अपनी कहानी गढ़ी है कि गोडसे की गोली से यदि गांधी नहीं मरते तो क्या होता और अगर गांधी और गोडसे जेल में एक साथ रहते तो उनके बीच किस तरह का संवाद होता। लेखक कुछ भी कल्पना करने और लिखने के लिए स्वतंत्र है और यही बात फ़िल्मकार पर भी लागू होती है। फ़िल्मकार भी अपनी सोच और कल्पना के अनुसार फ़िल्म बना सकता है। लेखक और फ़िल्मकार की स्वतंत्रताओं का सम्मान भी किया जाना चाहिए।

लेकिन यह प्रश्न ज़रूर उठता है कि कहानी कितनी भी काल्पनिक क्यों न हो, यदि आप ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को आधार बनाकर अपनी कल्पना प्रस्तुत करते हैं तो यह सवाल तो जरूर पूछा जायेगा कि आपने उनके साथ किस हद तक और किस वजह से छूट ली है और ठीक इसी समय आप फ़िल्म क्यों बना रहे हैं। कोई भी रचना, कोई भी फ़िल्म समय-निरपेक्ष नहीं होती। दर्शक फ़िल्म को अपने समय से जोड़कर देखेगा ही।

यही नहीं वह यह भी जानना चाहेगा कि क्या यह महज संयोग है कि आज़ादी के आंदोलन और विभाजन के हिंदुस्तान की जो व्याख्या यह फ़िल्म पेश करती है, वह ठीक वही क्यों है जिसे संघ परिवार शुरू से पेश करता रहा है। आज जब गोडसे को देशभक्त मानने वाले और उसे अपना नायक मानने वाले सत्ता में बैठे हैं या जिन्हें सत्ता का संरक्षण प्राप्त हैं, ठीक उस समय आपकी फ़िल्म भी गोडसे को देशभक्त और नायक बनाकर क्यों पेश कर रही है।

गोडसे को फ़िल्म में आरंभ से ही एक साहसी नायक की तरह पेश किया गया है। जबकि वह एक कायर व्यक्ति था। सावरकर जैसे सांप्रदायिक फासीवादी व्यक्ति का अंधभक्त था, जिन्होंने जेल से छूटने के लिए अंग्रेजों से बारबार माफी मांगी थी और जेल से छूटने के बाद जिसने हमेशा अंग्रेजों का साथ दिया था। जब नाथूराम गोडसे ने गांधीजी पर हमला किया था, उसके बाद वह वहां से भागने की कोशिश करने लगा। लेकिन वहां मौजूद लोगों ने उसे पकड़ लिया तब उसने अपने को मुसलमान बताया। ताकि गांधी की हत्या का इल्जाम मुसलमानों पर आये और देश में दंगे भड़क उठें।

लेकिन फ़िल्म में बताया गया है कि वह भागा नहीं बल्कि दोनों हाथ ऊपर करके वहीं खड़ा रहा। एक साहसी व्यक्ति की तरह जैसे भगत सिंह नाटक में सावरकर का उल्लेख कई बार आता है हालांकि वहां भी उनकी आलोचना करने से यथासंभव बचा गया है। लेकिन फ़िल्म में तो सिर्फ एक बार जिक्र आता है और वह भी सिर्फ इतना कि गोडसे के आदर्श सावरकर हैं। नाटक में गांधी गोडसे से पूछते हैं कि सावरकर तो स्वयं हिंदू और मुसलमान को दो अलग राष्ट्र मानते थे और इसलिए विभाजन के पक्षधर थे, तब मुझे क्यों विभाजन का दोषी बता रहे हो। लेकिन यह प्रसंग फ़िल्म से गायब है। क्या यह इसलिए नहीं है ताकि सावरकर भक्त इस सरकार के कोप से बचा जा सके बल्कि सावरकर की जो छवि संघ परिवार निर्मित करता रहा है, उस पर खंरोच तक न आये।

नेहरू सरकार द्वारा गांधी जी को देशद्रोह के अपराध में जेल भिजवाने की आधारहीन कल्पना क्या यह बताने के लिए नहीं है कि आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जो कांग्रेस सरकार बनी वह दरअसल गांधी जी के विचारों की विरोधी सरकार थी और अगर सचमुच गांधी जी जीवित होते तो वह इस सरकार के विरुद्ध आंदोलन करते और उनका वही हश्र होता जो नाटक में दिखाया गया है यानी देशद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिया जाता। इसके विपरीत सच्चाई यह है कि नेहरू चाहते थे कि अंग्रेजों के जमाने का देशद्रोह का कानून समाप्त कर दिया जाय लेकिन पटेल इसके पक्ष में नहीं थे।

यही नहीं गांधी को गिरफ्तार करने के अपराध में केवल नेहरू को नहीं बल्कि अंबेडकर को भी जिम्मेदार बताया गया है जो नेहरू पर दवाब डालते हैं कि गांधी जी के विरुद्ध कानून के अनुसार कार्रवाई की जाये। नेहरू के संदर्भ में देशद्रोह का उल्लेख भी अनायास नहीं है। पिछले आठ साल में इस कानून का सबसे ज्यादा इस्तेमाल मोदी सरकार ने किया है और आज भी इस कानून के तहत कई लोग निरपराध होकर भी जेलों में बंद है। लेकिन यह फ़िल्म देशद्रोह का ठीकरा भी नेहरू के सिर फोड़ती है ताकि लोगों के बीच संदेश यह जाय कि इस कानून को सबसे पहले लागू नेहरू और कांग्रेस ने किया और वह भी गांधी के विरुद्ध।

कांग्रेस को भंग करने वाले प्रसंग का मकसद भी यह बताना है कि नेहरू सहित कांग्रेस के सभी नेता देशभक्त नहीं सत्ता-लोभी थे। नाटक में भी और फ़िल्म में भी दिखाया गया है कि आज़ादी के बाद कांग्रेस जनता का शोषण और उत्पीड़न करने में लग गयी थी और जब गांधीजी ने आवाज़ उठायी तो उन्हें जेल में ठूंस दिया गया। इसके विपरीत गोडसे अपने अखबार द्वारा कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों और कार्रवाइयों का विरोध कर जनता में जागरूकता पैदा कर रहा था। वह लगातार लिखकर सरकार की खबर ले रहा था और उसके लेखने से नेहरू आदि नेता भी घबराये से रहते थे यानी कि गोडसे सच में एक जननायक था। एक सच्चा देशभक्त जो जेल में बैठा-बैठा सरकार की जड़ें हिला रहा था। 

लेकिन सच्चाई यह थी कि गांधी जी की हत्या के बाद एक पार्टी के तौर पर हिंदू महासभा लगभग समाप्ति के कगार पर पहुंच गयी थी। आरएसएस को प्रतिबंध के बाद लिखकर देना पड़ा था कि वह एक सांस्कृतिक संगठन है और उसका राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जब आरएसएस ने एक राजनीतिक दल के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी तो लगभग दो दशकों तक उनको नगण्य सा जनसमर्थन प्राप्त था। लेकिन अंध कांग्रेस विरोध के चलते समाजवादियों ने उन्हें सत्ता के नजदीक तक पहुंचा दिया था। इतिहास की इन सच्चाइयों के विपरीत गोडसे को राजनीतिक रूप से एक सजग और सक्रिय नेता के रूप में दिखाना इतिहास का विकृतिकरण है। और नाटक में तो लेखक ने उन्हें लगभग गांधी की तरह उसे लोकप्रिय बताया है जिसके पास ढेरों चिट्ठियां आती हैं। उसे औरतें स्वेटर बुनकर भेजती हैं।

गोडसे के विपरीत गांधीजी का व्यक्तित्व जो फ़िल्म में चित्रित किया गया है वह एक सनकी, अपनी इच्छाएं दूसरे पर थोपने वाला, स्त्री-विरोधी व्यक्ति है। इतिहास में गांधीजी के जो सबसे बड़े योगदान थे, उन्हें फ़िल्म हाशिए पर भी याद नहीं करती। आज़ादी के आंदोलन में व्यापक जनभागीदारी गांधीजी के प्रयत्नों से शुरू हुई थी। एक फकीर की तरह रहने का वरण गांधी ने इसलिए किया था कि देश के गरीब से गरीब लोग अपने को गांधी से जोड़ सकें। यह उनकी लोकप्रियता ही थी कि उनकी शवयात्रा में दस लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए थे और हिंदू सांप्रदायिक उन्मादियों को छोड़कर जिन्होंने गांधी की हत्या पर लड्डू बांटे थे, सारा देश आंसू बहा रहा था।

इन्हीं गांधीजी ने कांग्रेस को सदैव एक ऐसी पार्टी बनाये रखने के लिए काम किया जो देश के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करे। हिंदू का भी, मुसलमान का भी, सिख का भी, ईसाई का भी। हर भाषा-भाषी का भी, हर जाति और धर्म वाले का भी। यह गांधी ही थे जिन्होंने औरतों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने का आह्वान किया था और उनके आह्वान पर हजारों-हजार औरतें घर की चारदीवारी लांघकर सड़कों पर निकल आयी थीं। गांधी जी ने सदैव हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के लिए काम किया और सांप्रदायिकता के विरुद्ध अपनी जान-जोखिम में डालकर भी जीवन के अंतिम क्षण तक संघर्ष किया।

गांधीजी ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा दलितों के उत्थान में, उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने में लगाया। लेकिन यह सब फ़िल्म से गायब है। इसके बजाय बकरी का दूध पीने वाले, ब्रह्मचर्य को सबसे बड़ा मूल्य मानने वाले, स्त्री-पुरुष प्रेम का सनक की हद तक विरोध करने वाले और अपनी इच्छाएं दूसरों पर थोपने वाले गांधी ही फ़िल्म में दिखते हैं। यानी गांधी के जीवन में जो बातें हाशिए पर थीं, उनसे ही गांधी का चित्र उकेरा गया है। फ़िल्म में नाथूराम गोडसे में ऐसी कोई सनक या बुराई नहीं है। जबकि नाथूराम गोडसे का जिस विचारधारा और भारतीय संस्कृति की जिस रूढ़िवादी परंपरा से संबंध था, उसमें प्रेम और उदारता के लिए कोई जगह नहीं थी और न आज है।

दरअसल यह पूरी फ़िल्म संघ परिवार के राजनीतिक एजेंडे का जाने-अनजाने अनुसरण करती है। कांग्रेस और नेहरू के प्रति जो नफरत संघ परिवार व्यक्त करता रहा है, फ़िल्म उस नफरत को बढ़ाने में ही योग देती है। फ़िल्म पूरी दृढ़ता से यह स्थापित करती है कि नाथूराम गोडसे एक साहसी और सच्चा देशभक्त था। गांधी की हत्या उसने जरूर की जिसके लिए उसे माफ कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि गांधी जी ने तो उसे माफ कर दिया था। लेकिन अगर गांधी जिंदा रहते तो नाथूराम गोडसे नेहरू और कांग्रेस से कहीं ज्यादा गांधी के नजदीक होता और शायद उनका प्रिय भी।

दरअसल यह फ़िल्म गांधी को संघ परिवार में समायोजित करने, नेहरू और कांग्रेस को खलनायक बताने और गोडसे को महान देशभक्त बताकर नायक के रूप में स्थापित करने के संघी अभियान को कामयाब बनाने की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम है। निश्चय ही यह फ़िल्म विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म कश्मीर फाइल्स की तुलना में ज्यादा चालाकी से और बेहतर ढंग से बनायी गयी है। कलाकारों से काम भी बेहतर ढंग से लिया है। लेकिन सोने की प्याली में रखा गया जहर अमृत नहीं हो जाता।

(जवरीमल्ल पारख स्वतंत्र टिप्पणीकार और सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)

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