Friday, April 26, 2024

मनुवादी राजसत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए संकल्पित योद्धा: मान्यवर कांशीराम

डॉ. आंबेडकर, ई.वी. रामासामी पेरियार, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद, चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’जैसे बहुजन नायकों का एक स्वर से मानना था कि आजादी के बाद भारत में स्थापित राजसत्ता मूलत: ब्राह्मणवादी राजसत्ता है। डॉ. आंबेडकर और पेरियार ने इसे ब्राह्मण-बनिया राज के रूप में परिभाषित किया था और चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने इसे ब्राह्मणशाही नाम दिया था। आज के समय की भारत की ही नहीं, बल्कि दुनिया की प्रसिद्ध विदुषी अरुंधति रॉय भी भारत की राजसत्ता को कार्पोरेट अपर हिंदू राजसत्ता के रूप में परिभाषित करती हैं।
सच तो यह है कि आजादी के पहले पूरे भारत में कभी ब्राह्मणवादी राजसत्ता इतनी मजबूती से और व्यापक तौर पर स्थापित नहीं हुई थी। पुष्यमित शुंग और पेशवाई जैसे ब्राह्मणों के कट्टर ब्राह्मणवादी राज भी एक क्षेत्र विशेष के एक छोटे दायरे में सीमित थे। पूरे भारत में क्षत्रियों के राज की बात भी मिथक अधिक हकीकत बहुत कम रही है। भारत में करीब सभी बड़े साम्राज्यों के संस्थापक गैर-ब्राह्मण और गैर क्षत्रिय रहे हैं। सच यह है कि ब्रिटिश शासन से आजादी के बाद ही भारत में सही अर्थों में और व्यापक स्तर पर ब्राह्मणवादी राजसत्ता की सुव्यवस्थित स्थापना हुई। यह मात्र संयोग नहीं था कि आजादी के बाद भारत के प्रधानमंत्री से लेकर अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री ब्राह्मण बने।
इस ब्राह्मणवादी राज को चुनौती देने और बहुजनों के राज की स्थापना के लिए डॉ. आंबेडकर ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के गठन की रूपरेखा प्रस्तुत की। दक्षिण भारत में गैर-ब्राह्मण पार्टी के रूप में डीएमके जैसी पार्टियों का उदय हुआ और उसने तमिलनाडु में अपनी राजनीतिक सत्ता कायम की। उत्तर भारत में जगदेव प्रसाद और रामस्वरूप वर्मा ने ‘शोषित समाज दल’ जैसी पार्टी का गठन कर गैर-ब्राह्मणवादी राजनीतिक सत्ता कायम करने की कोशिश की। लेकिन पेरियार के तमिलनाडु को छोड़कर कहीं भी पूरी तरह गैर-ब्राह्मण राजसत्ता कायम करने में सफलता नहीं मिली।
जिस व्यक्ति ने उत्तर भारत के एक बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणवादी-मनुवादी राजनीतिक सत्ता की जगह बहुजन सत्ता की स्थापना के स्वप्न को साकार कर दिया और पूरे उत्तर भारत में बहुजनों को एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया, उस व्यक्तित्व का नाम कांशीराम है, जिन्हें बहुजन समाज सम्मान के साथ मान्यवर कांशीराम कहकर पुकारता है।
उनके जन्मदिन 15 मार्च को बहुजन समाज प्रेरणा दिवस के रूप में मनाता है। कांशीराम के संकल्प, रणनीति और कार्यनीति का परिणाम था कि उत्तर भारत में 1984 में बसपा जैसी राजनीतिक शक्ति का उदय हुआ,जिसने एक लंबे समय तक द्विज राजनीति के समीकरण को काफी हद तक बिगाड़ दिया। भाजपा-कांग्रेस जैसे दलों को बसपा के सामने कई बार घुटने टेकने पड़े।
1 जून 1995 को एक दलित महिला मायावती को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर मान्यवर कांशीराम ने वह करिश्मा कर दिया, जिसकी कल्पना करना भी बहुतों के लिए मुश्किल था। एक दलित महिला के मुख्यमंत्री बनने पर भारत की तथाकथित उच्च जातियों ने किस तरह की कटु प्रतिक्रियाएं प्रकट की थी, इसके लिखित दस्तावेज भरे पड़े हैं। आज बसपा का जो हश्र है, उससे कांशीराम की बसपा को समझने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। कांशीराम ने लाखों बहुजन कार्यकर्ताओं और नेताओं की एक ऐसी टीम खड़ी कर दी थी, जो भाजपा या कांग्रेस के राजनीतिक चमचे नहीं थे, उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व था। 6 दिसंबर 1978 को बामसेफ की स्थापना करके उन्होंने बहुजन आंदोलन की वैचारिक और सांगठिनक नींव डाली थी। जिसने वैचारिक और सांस्कृतिक तौर पर मनुवादी व्यवस्था को सशक्त चुनौती दी। विभिन्न रूपों में बामसेफ आज भी मनुवाद को चुनौती देनी वाली एक शक्ति बना हुआ है।
डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि सामाजिक और आर्थिक समता प्राप्त करने की कुंजी राजनतीकि सत्ता है। कांशीराम अपनी मातृभाषा पंजाबी में इसे ‘गुरु किल्ली’(मास्टर कुंजी) कहते थे। उन्होंने बहुजनों-ओबीसी,दलित,आदिवासी, पसमांदा मुसलमान- के हाथ यह गुरु किल्ली सौंपने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। 1965 में नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने कभी भी पीछे मुंडकर नहीं देखा। आखिरकर उन्हें करीब 32 वर्षों के अनथक संघर्ष और कुर्बानी के बाद आंशिक सफलता मिली और वे 1995 में मायावती जी को मुख्यमंत्री बनाने में सफल रहे। मायावती जी भारत की पहली दलित मुख्यमंत्री थीं। आजादी के बाद के करीब 48 वर्षों के इतिहास में इसके पहले कोई दलित किसी भी प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बना था।
बहुजन समाज, विशेषकर दलितों को स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बनाने का श्रेय मान्यवर कांशीराम को ही जाता है। कांशीराम कहते थे कि भले ही देश स्वतंत्र हो गया हो,लेकिन बहुजन समाज तो सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी मामलों में उच्च जातियों पर निर्भर है यानी परतंत्र है। उनका सपना था कि बहुजन समाज की उच्च जातियों पर यह निर्भरता पूरी तरह खत्म हो और वे स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर बने। इस आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी वे राजनीति स्वतंत्रता या आत्मनिर्भरता मानते थे।
उनका कहना था कि आजादी के बाद, विशेषकर डॉ. आंबेडकर के निधन के बाद कांग्रेस और अन्य विभिन्न पार्टियों ने बहुजनों-विशेषकर दलितों का इस्तेमाल अपने चमचों के रूप में किया है, इन चमचों के माध्मय से वे दलित-बहुजनों का वोट जुटाते हैं, लेकिन चमचों का कोई स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व नहीं है।
1982 में लिखी अपनी किताब ‘ दी चमचा एज: एन एरा ऑफ स्टूजेज’ ( चमचा युग: कठपुतलियों का समय) उन्होंने डॉ. आंबेडकर के निधन के बाद की दलित-बहुजन राजनीति को चमचा युग के रूप में परिभाषित किया। वे इस पूरी स्थिति को उलट कर बहुजनों को स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बनाना चाहते और राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना चाहते। जिसका इस्तेमाल वे बहुजनों की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मुक्ति के लिए करना चाहते थे। वे गुरु किल्ली ( मास्टर की) को एक ऐसी चाबी के रूप में इस्तेमाल करना चाहते, जिस चाबी से बहुजनों की हर तरह की मुक्ति का ताला खोल सकें और मनुवादी शक्तियों पर उनकी हर तरह की निर्भरता को खत्म कर सकें।
मान्यवर कांशीराम की सबसे बड़ी सफलता यह नहीं थी कि उन्होंने बहुजनों की खुद की पार्टी बसपा का गठन किया, उसे एक राजनीतिक शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया और गाय पट्टी के केंद्र उत्तर प्रदेश में एक दलित महिला को मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित कर दिया। उनकी सबसे बड़ी सफलता यह थी कि उन्होंने बहुजनों- विशेषकर दलितों और अति पिछड़ी जातियों में राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने की एक ललक पैदा किया और उन्हें उनके अंदर यह आत्मविश्वास भर दिया कि वे अपने दम पर राजनीतिक सत्ता हासिल कर सकते हैं और इस सत्ता का इस्तेमाल अपने समाज की बेहतरी के लिए कर सकते हैं।
दलितों और अति पिछड़ी जातियों के बीच समता की जो आक्रामक चेतना आज दिखाई देती है, उसका बड़ा श्रेय उत्तर भारत में कांशीराम को जाता है। संघ-भाजपा जैसे मनुवादी संगठन-पार्टी को अपने प्रधानमंत्री के रूप में एक पिछड़ी जाति के व्यक्ति को चुनना पड़ा और राष्ट्रपति एक दलित को बनाना पड़ा इस परिघटना की कल्पना करना कांशीराम की बहुजन राजनीति के सफल प्रयोग के बिना शायद संभव नहीं होता।
कांशीराम का मुख्य नारा था कि “ जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” चूंकि बहुजन इस देश में 85 प्रतिशत है, इसी आधार पर उनका कहना था कि “वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा”। असल में कांशीराम देश में मनुवादी द्विजों की सत्ता को उखाड़ फेंकर बहुजनों की सत्ता स्थापित करना चाहते। इस मिशन के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया, नौकरी छोड़ दी और घर-परिवार से भी नाता तोड़ लिया।
आज देश में मनुवादी सत्ता फिर पूरी तरह स्थापित हो गई और बहुजन या तो राजनीतिक सत्ता के हाशिए पर फेंक दिए गए या मनुवादियों के चमचे बन गए हैं। कांशीराम के शब्दों में कहे तो भले चमचे के रूप में उन्हें देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का पद ही क्यों न प्राप्त हो गया हो,लेकिन हैं वे मनुवादियों ( संघ) के चमचे ही। कांशीराम बहुजनों को मनुवादियों का चमचा नहीं, स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल करना चाहते थे।
राजनीतिक सत्ता उनके लिए पहला लक्ष्य था, लेकिन अंतिम नहीं। इस राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल वे बहुजनों की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मुक्त का मार्ग प्रशस्त करने के लिए करना चाहते थे। उनके जन्मदिन पर उनके प्रति सबसे बडी़ श्रद्धांजलि यह होगी कि इस तथ्य गंभीरता से विचार किया जाए आखिर कैसे देश में फिर से पूरी तरह मनुवादियों की सत्ता स्थापित हो गई और कैसे इस सत्ता को उखाड़ फेंक कर बहुजनों की सत्ता स्थापित की जाए।
(डॉ. सिद्धार्थ रामू फारवर्ड प्रेस के संपादक हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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