मजदूर दिवस पर विशेष: क्या मज़दूर वर्ग की परिभाषा बदल रही है?

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सुबह-सुबह दो कामगार निकलते हैं,
एक के कंधे पर कुदाल,
दूसरे पर लैपटॉप,
कुदाल वाला तो,
शाम होते-होते घर लौट आता है,
लेकिन लैपटॉप वाले का
घर आने का कोई समय नहीं है।
(बाबूराम वागले)

एक मराठी कवि की यह छोटी सी कविता आज मज़दूर वर्ग की स्थिति का जीवन्त चित्रण प्रस्तुत करती है। आज दुनिया भर के पूंजीवादी और अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि “मार्क्स की मज़दूर वर्ग तथा क्रांति की अवधारणा इसलिए असफल हो गई है, क्योंकि अब वो क्रांतिकारी मज़दूर वर्ग नहीं रहा, जिसके बारे में मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में कहा था कि “मज़दूरों के पास खोने के लिए केवल अपनी जंजीरें हैं और पाने के लिए सारी दुनिया।”

मार्क्स ने मज़दूर वर्ग को सबसे क्रांतिकारी माना था। उनका यह मानना था कि “समाज में केवल दो ही वर्ग रहेंगे–एक मज़दूर वर्ग, दूसरा पूंजीपति वर्ग। मध्यवर्ग धीरे-धीरे समाप्त होकर मज़दूर वर्ग में शामिल हो जाएगा।” लेकिन आज मध्यवर्ग का तेज़ी से विस्तार हो रहा है। कम्प्यूटर और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने बड़े पैमाने पर पुराने उद्योग-धंधों को बदल दिया है। आज केवल पांच से सात प्रतिशत ही मज़दूर संगठित क्षेत्र में काम करते हैं, बाकी असंगठित क्षेत्रों में। सेवा क्षेत्र का बहुत तेज़ी से विस्तार हो रहा है। अब हम देखेंगे, कि पुराने उद्योग-धंधों से विस्थापित हुए मज़दूर कहां गए?

इस सम्बन्ध में जाने-माने अर्थशास्त्री और मंथली रिव्यू पत्रिका के एसोसिएट एडिटर माइकल डी येट्स अपनी पुस्तक ‘क्या मज़दूर दुनिया को बदल सकता है?’ में लिखा है, “किसानों की ज़मीन से बेदखली उन्हें दुनिया भर के शहरों की ओर धकेलती है। जब पूरे यूरोप में औद्योगिक क्रांति आगे बढ़ रही थी, तब भारी संख्या में भूमिहीन किसान अमेरिका पलायित हुए थे। वहां उसको राष्ट्र के सबसे बड़े पूंजीपतियों के मालिकाने वाली ‘यूनाइटेड स्टेट्स स्टील’ और ‘फोर्ड मोटर कम्पनी’ जैसी विराट कम्पनियों ने खपा लिया था। जबकि आज वे सभी उजड़े हुए किसान पूंजीपतियों के लिए सीधे शोषण योग्य कामगार नहीं हो सकते, क्योंकि आधुनिक उत्पादन के साधनों में अत्यधिक मशीन के इस्तेमाल के मतलब है, कम मज़दूरों की ज़रूरत।

सभी पूंजीवादी देशों में इस्तेमाल होने वाला मशीनीकरण अब ग़रीब देशों के पूंजीपतियों द्वारा काम में लाया जा रहा है। 10 करोड़ से भी ज़्यादा कामगारों के साथ चीन विनिर्माण उत्पादन का एक प्रमुख केन्द्र है। वहां इस बात के संकेत मिल रहे हैं, कि आधुनिक कॉरपोरेट दक्षता और मशीनीकरण की तकनीक के चलते वहां कार्यबल का विकास बहुत धीमा हो रहा है, चूंकि यह होना लाज़िमी है, इसलिए चीन में आरक्षित श्रमिकों की सेना बढ़ेगी और इसके सदस्यों को औपचारिक तरीके की नौकरियों में खपाना कठिन होगा।” (पृष्ठ 14,हिन्दी संस्करण)

गैरज़रूरी हो गए इन किसानों पर क्या गुजरती है? वे बेरोज़गारों की आरक्षित सेना के सदस्य बन जाते हैं, उनके लिए यथासंभव गुजारे भर कोई जीविका हासिल करना ज़रूरी होता है। विद्वान मार्था एलेन चेन; जो अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ हैं, उन्होंने वैश्विक अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र में मज़दूरों के कुछ किस्मों का वर्णन किया है:-मैक्सिको शहर में फेरीवाले, औरन्यूयार्क शहर में हाथठेले पर सामान बेचने वाले, कोलकाता में रिक्शा वाले, मनीला में सस्ती बसों के चालक, बोगोटा में कूड़ा जमा करने वाले और डर्बन में सड़क पर बैठने वाले नाई; जो लोग सड़क पर या खुली हवा में काम करते हैं, वे सबसे ज़्यादा दिखाई देने वाले अनौपचारिक मज़दूर हैं।

दूसरे अनौपचारिक मज़दूर छोटी दुकानों या वर्कशॉप में काम करते हैं, वहां साइकिलों या मोटरसाइकिलों की मरम्मत करते हैं। धातु के कबाड़ को दुबारा काम लायक बनाते हैं, फर्नीचर और धातु के पुर्जे बनाते हैं, चमड़ा पकाते हैं और जूते सिलते हैं, कपड़ों की बुनाई, रंगाई और छपाई करते हैं। हीरा और दूसरे कीमती पत्थर तराशते हैं और उन पर कसीदा करते हैं, पुराने कपड़े, काग़ज़, धातु के कबाड़ छांटते और बेचते हैं, ऐसे ही तमाम तरह के काम करते हैं। कम दिखाई देने वाले औपचारिक मज़दूर; जिनमें अधिसंख्यक महिलाएं हैं, वेअपने घर से काम करती हैं। घर काम करने वाले मज़दूर दुनिया भर में मिल जाएंगे;- उनमें टोरंटो के पोशाक बनाने वाले मज़दूर,मैडियरा टापू के कसीदाकारी करने वाले, मैड्रिड में जूता बनाने वाले और लीड्स में इलेक्ट्रॉनिक पुर्जे जोड़ने वाले शामिल हैं।

दूसरी श्रेणियों के काम; जिनको विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों में किया जाता है,उनमें रेस्तरां और होटल के अस्थायी मज़दूर, ठेकेदारों के अधीन चौकीदार और सिक्योरिटी गार्ड, निर्माण कार्य और खेती में लगे दिहाड़ी मज़दूर और फैक्ट्रियों में पीस रेट पर काम करने वाले मज़दूर, अस्थायी कार्यालय सहायक या ऑफिस के बाहर डाटा प्रोसेसिंग करने वाले शामिल हैं।” (मार्था एलेन चेन,द इन्फार्मल इकोनामी : डेफिनेशन थ्योरीज़ एण्ड पॉलिसीज़,2012)

दुनिया भर में करोड़ों स्त्री, पुरुष और बच्चे इसी तरह के काम में लगे हुए हैं। यह लम्बा उदाहरण मुझे यह बताने के लिए देना पड़ा, कि आज किस तरह मज़दूर वर्ग की परिभाषा बदल रही है। जाने-माने अर्थशास्त्री समीर अमीन का कहना है, “आज दुनिया में तीन अरब किसान हैं। अमेरिका के किसान अधिकार संगठन ला विया कम्पेसीना कहता है, इस दुनिया के आधे लोग किसान हैं।

आज दुनिया भर में कॉरपोरेट किसानों की ज़मीन छीनकर उन्हें मज़दूर में बदल रहा है। दुनिया भर में ज़मीन की ऐसी चोरी सरकार की मदद और कॉरपोरेट धमकियों, हिंसा और संदेहास्पद कानूनी फ़रमानों के जरिए आज भी जारी है। इन कार्यवाइयों ने किसानों को उनकी ज़मीन से उजाड़कर कंगाली और बग़ावत की ओर ढकेल दिया है। कई देशों में यहां तक कि धनी देशों में भी किसान आत्महत्या करते आ रहे हैं।

एक अनुमान के अनुसार भारत में हर दिन 47 किसान आत्महत्या करते हैं, जिसका कारण उनका क़र्ज़ में दबा होना, ख़राब मौसम, फ़सलों की गिरती कीमतें तथा देसी और वैश्विक कॉरपोरेट की लूट की हवस है, जो उनकी ज़मीनों के बड़े-बड़े टुकड़े खरीदते हैं या जबरन क़ब्ज़ा कर लेते हैं। वे उन ज़मीनपर उन्नत तकनीक और कम लागत से खेती करते हैं और किसानों की प्रतिस्पर्धा क्षमता को खोखला कर देते हैं।”

पिछले दिनों हमने भारत में तीन कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ एक बड़े आंदोलन को देखा है। किसानों के बहादुराना संघर्ष के कारण भले ही तात्कालिक रूप से भारत में कृषि का कॉरपोरेटीकरण रुक गया हो, लेकिन भारत सहित सम्पूर्ण तीसरी दुनिया में यह ख़तरा अभी बरकरार है। यही कारण है कि औद्योगिक श्रमिकों के साथ-साथ आज किसान भी बड़ा क्रांतिकारी वर्ग बना गया है।

आज दुनिया भर में बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट ने ऑनलाइन व्यापार का बड़ा नेटवर्क फैलाया है, जिसमें घर बैठे आपको मिनटों में खाने-पीने के सामान सहित सभी चीज़ें उपलब्ध हो जाती है। जोमैटो, मैकडोनाल्ड और ब्लिंकिट जैसी कम्पनियां इस क्षेत्र में काम कर रही हैं। घर-घर में सामान पहुँचाने वाले डिलीवरी ब्वाय; उनका शोषण हमारे आँखों के सामने से अदृश्य रहता है। जोमैटो और ब्लिंकिट जैसी कम्पनियाँ बहुत चालाकी से अपने यहां काम करने वाले इन कर्मचारियों को अपना कर्मचारी न मानकर उन्हें कम्पनी का पार्टनर मानते हैं, जिससे उनके ऊपर कोई श्रम कानून लागू नहीं होता, वे बारह से चौदह घंटे तक काम करते हैं। जल्दी सामान पहुंचाने की होड़ में अनेकों बार दुर्घटनाएं भी होती हैं, लेकिन कम्पनियाँ इसकी कोई क्षतिपूर्ति नहीं देती हैं। कम्पनियां उन्हें चुपचाप काम से हटा देती हैं। अब यह मांग भी तेज़ी से उठ रही है कि अगर वे पार्टनर या कम्पनी के साझेदार हैं, तो मुनाफ़े में हिस्से के दावेदार हैं।

दुनिया भर में इसी तरह की बातें ओला-उबर जैसी अनेकों कैब-ड्राइवरों के बारे में भी कही जा सकती है। कम्पनियां यह कहती हैं कि “ये ड्राइवर उसके कर्मचारी नहीं हैं,क्योंकि वे उनसे लोन पर गाड़ी लेते हैं और कम्पनी को मुनाफ़ा देते हैं।”

यह विडम्बना ही है कि न्यूयॉर्क के 18 हज़ार कैब ड्राइवर ‘न्यूयॉर्क टैक्सी वर्कर्स एलाइंस’ में शामिल हुए हैं,जिनकी मांग बेहतर तनख्वाह,काम की दशा और अन्य लाभ हैं, यह कहीं से भी स्वतंत्र कारोबारियों के समूह जैसा नहीं लगता। इसके अलावा जब वे गाड़ी चला रहे होते हैं, तब उनके वास्तविक मालिक सावधानी से इलेक्ट्रॉनिक यन्त्रों की मदद से उनकी निगरानी करते रहते हैं।

मई दिवस के जुलूस में शामिल बैंगलुरू के एक सूचना तकनीक पेशेवर नौजवान की तख्ती पर लिखा था–“1917 ने हमें राह दिखाई”। इस जुलूस के अधिकांश नौजवान जोसेफ स्टालिन की फोटो लगी लाल टीशर्ट पहने हुए थे और उनके हाथों में लाल झंडे थे, ये कोई आम मज़दूर नहीं थे बल्कि वैश्वीकरण के बाद आज सूचना तकनीक उद्योग के पेशेवर थे, जिन्हें बिना कारण बताए उनकी कम्पनियों ने नौकरी से निकाल दिया। उन्हें ‘व्हाइट कॉलर’ नौकरी करने वाला कहा जाता है। ख़ुद को मज़दूर नहीं पेशेवर मानने वाले ये नौजवान आख़िर बैंगलुरू, पुणे, दिल्ली और हैदराबाद जैसे सूचना तकनीक उद्योग के केन्द्रों में सड़क पर क्यों उतर आए और वह भी ऐसे ख़तरनाक नारों के साथ? क्या वे उस भयानक शब्द राजनीति को पसन्द करने लगे हैं,जिनसे दूर रहने की चेतावनी उन्हें स्कूल-कॉलेज हर जगह दी जा चुकी है।

दुनिया की मशहूर सलाहकार संस्था ‘मैकिंसे एण्ड कम्पनी’ ने 2017 में भारत के सूचना तकनीक उद्योगपतियों के संगठन ‘नैस्कॉम’ के सामने एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि अगले तीन-चार सालों में सूचना तकनीक क्षेत्र में तकनीकि प्रगति के चलते पचास फीसदी लोग गैरज़रूरी हो जाएँगे। इसको बैंगलुरू की एक संस्था ‘हेड हंटर्स इंडिया’ ने सीधे शब्दों में समझाया था कि अगले तीन साल में 2 लाख कर्मचारियों को हर साल नौकरी से निकाला जाएगा, यह प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है।

सीधे शब्दों में कहें तो सूचना तकनीक क्षेत्र में 18 लाख लोगों की छंटनी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस क्षेत्र के आंकड़े बताते हैं कि सूचना तकनीक उद्योग कम्पनियों की सालाना औसत आय 8.47 फीसदी की दर से बढ़ रही है। वित्त वर्ष 2015 में भारतीय कम्पनियों ने 32.2 अरब डॉलर की कमाई की थी, जो 2016 में बढ़कर 143.4 अरब डॉलर हो गई थी। कोरोना महामारी तथा वैश्विक आर्थिक मंदी के बावजूद 2023 में इन कम्पनियों की आय 10 फीसदी तक बढ़ गई। इस वित्तीय वर्ष 2024 में भी उनकी औसत आय इससे कम होने वाली नहीं है अपितु बढ़ सकती है।

दरअसल छंटनी का मुख्य कारण इस क्षेत्र में विकसित हुई नयी तकनीकें हैं। कम्पनियां अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए नयी तकनीक का इस्तेमाल करके अपने कर्मचारियों की संख्या घटा रही हैं। सूचना तकनीक कर्मचारियों की यह लड़ाई सिर्फ़ उनके ख़िलाफ़ नहीं है,जो उन्हें नौकरी से निकालने के बहाने ढूँढते फिर रहे हैं बल्कि उनके ख़िलाफ़ भी है,जो आर्थिक वृद्धि दर,निवेश में वृद्धि आदि शब्दों का इस्तेमाल कर रोज़ मज़दूरों तथा हर नागरिक के हितों पर हमला कर रहे हैं।

निष्कर्ष के तौर पर हम यह कह सकते हैं,कि अगर पारम्परिक फैक्ट्रियों तथा मज़दूर केन्द्रों पर अगर मज़दूरों की संख्या बहुत कम दिखलाई पड़ रही है, तो इसका कदापि अर्थ यह नहीं कि मज़दूर अब समाप्त हो गए हैं, जैसा कि आज पूंजीवादी अर्थशास्त्री कह रहे हैं। सच्चाई यह है कि मज़दूरों का स्वरूप आज बहुत तेज़ी से बदल रहा है तथा इन नये किस्म के मज़दूरों को एक झंडे के नीचे संगठित करके उन्हें व्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़ा करना आज एक बड़ी चुनौती है, लेकिन इसके सिवा और कोई विकल्प नहीं है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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