Sunday, April 28, 2024

दुनिया भर में बेनकाब होता पूंजीवादी लोकतंत्र, संसदीय गतिरोध में दिखा मोदी सरकार का ‘लोकतंत्र’

यह दौर अपने आप में कितना भयावह है इसकी झलक हम भारत में तो देख ही रहे हैं, लेकिन समूची दुनिया भी इससे दो-चार हो रही है। कल तक पश्चिमी देशों का यही तर्क अपने नागरिकों को अमीर-गरीब के वर्गीय विभेदों के बावजूद आश्वस्त करता था कि कम्युनिस्ट देशों की तुलना में हमारे पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अपने जन-प्रतिनिधियों को चुनने या उन्हें सत्ता से बाहर करने की स्वतंत्रता तो है। लेकिन आज अधिकांश पश्चिमी देशों की जनता बार-बार अपने चुनाव के अधिकार का इस्तेमाल करने के बावजूद हर बदले हुए नेतृत्व को अपने ही खिलाफ काम करते देख माथा पीटने को विवश है। किसी भी देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अब किसी भी नीतिगत फैसले को अपनी मर्जी से लागू करने के लिए स्वतंत्र नहीं है, उसे सिर्फ उन्हीं नीतियों पर चलने की इजाजत है जो उस देश या बिग कॉरपोरेशन के मुनाफे के अनुकूल हो।

हालत यह हो चुकी है कि लोकतंत्र के प्रहसन तक के लिए ये नए सरमायेदार राजी नहीं हैं। पिछले एक सप्ताह से भारतीय संसद में चल रहा प्रकरण इसकी जीती-जागती मिसाल है। सबसे पहले तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा को तालिबानी स्टाइल में सजा मुकर्रर की गई।

राष्ट्रवाद और मर्दाना विदेश नीति का दावा करने वाली सरकार के द्वारा बनाये गये नए संसद में जब कुछ बेरोजगार युवाओं ने अपने आदर्श भगत सिंह की तर्ज पर संसद की बेहद कड़ी सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए अतिक्रमण कर डाला, तो सरकार की सुरक्षा व्यवस्था पर घेरने की कोशिश में जुटे विपक्षी सांसदों को संसद से एक-एक कर निलंबित करने का जो सिलसिला पिछले सप्ताह शुरु हुआ था, वह अब अपने चरम पर पहुंच गया है। पहले 13 सांसदों को निलंबित किया गया।

कल सोमवार को 33 लोकसभा एवं 45 राज्य सभा सासदों को शीतकालीन सत्र से बाहर फेंक दिया गया। आज का ताजा स्कोर 49 है। इस प्रकार कुल 141 विपक्षी सासदों को लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर (मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च क्यों नहीं कहा जाता है?) कहे जाने वाले पार्लियामेंट से निष्काषित कर दिया गया है।

मोदी सरकार को भी भलीभांति मालूम है कि ऐसा करने से विपक्षी एकता पहले से भी अधिक मजबूत ही होने जा रही है, और उसके लिए 2024 की राह में यह एक बड़ी बाधा बनकर उपस्थित होगी। इसके बावजूद यदि वह ऐसा कर रही है, तो इसके पीछे भी देश के चंद कॉर्पोरेट की सीधी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। उनके हित के लिए ताबड़तोड़ कुछ ऐसे विधेयकों को पारित कराना एक बड़ा मकसद हो सकता है, जिन्हें पारित कराकर भारत को एक पुलिस स्टेट में तब्दील किया जा सकता है। यह साहस अचानक से मौजूदा सरकार में नहीं आया है। इसमें देश में मौजूद गोदी मीडिया, पानी भर रही कार्यपालिका (आईएएस, आईपीएस लॉबी) सहित अब न्यायपालिका भी जुड़ गई है।

हाल के दिनों में देश की एकमात्र आस संविधान की रक्षा करने वाली न्यायपालिका पर टिकी हुई थी, लेकिन पिछले कुछ महीनों से उसके मिक्स फैसलों से जो ध्वनित हो रहा है, वह साफ़-साफ़ बताता है कि देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने व्यवस्थापिका प्रमुख से आंखों में आंखें डालकर संविधान की आत्मा को अंतिम क्षण तक बरकारर रखने के अपने कर्तव्य से आँखें चुरा ली हैं। उसके पास कुछ कड़ी मौखिक फटकार और ढेर सारा नैतिक प्रवचन देने के सिवाय कुछ ठोस नहीं है।

अमेरिका: लोकतंत्र का सबसे बड़ा मसीहा

लेकिन यही सब तो हम इजराइल-फिलिस्तीन की जंग में देख रहे हैं। सोशल मीडिया पर एक वीडियो बेहद लोकप्रिय हो रहा है, जिसमें दुनियाभर के अखबारों की कटिंग डालकर दिखाया गया है कि किस प्रकार अमेरिका ब्रिटेन को चीनी 5जी कंपनी हुवे से व्यावसायिक संबंध खत्म करने के लिए दबाव बनाने में सफल रहा, किस प्रकार इटली को उसने चीन के बीआरआई प्रोजेक्ट से बाहर आने के लिए मजबूर कर दिया है, किस प्रकार अमेरिका ने नीदरलैंड के चीन को चिप्स बेचने के कारोबार से दूर रहने के लिए विवश कर दिया है।

इसी प्रकार अमेरिका ने एक अन्य संप्रभु राष्ट्र जापान को चीन के साथ हाई टेक बिजनेस के निर्यात को रोक दिया है। मेक्सिको में चीन की इलेक्ट्रिक कार मैन्युफैक्चरिंग फैसिलिटी को भी अमेरिकी आदेश पर रोक दिया गया है, दक्षिण कोरिया को मेमोरी चिप चीन को बेचने से रोक दिया है। यह सब अमेरिका ने अपने धनबल, सैन्य बल और इन देशों से आयात-निर्यात के साथ-साथ अपनी निवेश की क्षमता का डर दिखाकर कर दिखाया है।

लेकिन उसी अमेरिका से जब सारा विश्व, संयुक्त राष्ट्र संघ और यहां तक कि अमेरिकी नागरिक भी फिलिस्तीनीयों को गाजापट्टी में इजरायली सेना के द्वारा पिछले 2 महीने से जारी नरसंहार को रोकने के लिए तत्काल एक्शन के लिए कहते हैं, तो जानते हैं बाइडेन के आधिकारिक प्रवक्ता जॉन किर्बी क्या जवाब देते हैं? जॉन किर्बी का जवाब था, “हम कैसे इजराइल जैसे किसी संप्रभु राष्ट्र को निर्देशित कर सकते हैं, कि वह हमारे इशारे पर नरसंहार की कार्रवाई बंद कर दे?”

सारी दुनिया जानती है कि आज इजराइल जो कुछ भी करने में सक्षम है, उसके पीछे संयुक्त राज्य अमेरिका न खड़ा हो तो इजराइल का अस्तित्व भी नहीं रहेगा। हमास के हमले के पहले दिन से ही अमेरिका जा जंगी जहाजी बेड़ा भूमध्यसागर पर तैनात है, और इसका काम है इजराइल द्वारा गाजा में फिलिस्तीनियों को अब तक की सबसे क्रूरतम सजा देना। इस क्रूरता को यदि कोई रोकने की हिमाकत करता है तो उसके लिए अमेरिका स्वंय खड़ा है। वरना संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सहित राष्ट्र संघ में बार-बार वोटिंग में अमेरिकी वीटो के इस्तेमाल आखिर वह किस मकसद से कर रहा है? आज इजरायली सेना गाजा में घुसकर हमास और आम फिलिस्तीनियों को अलग-थलग कर चुकी है, लेकिन उसके द्वारा आज भी निरपराध लोगों को बमबारी का शिकार बनाया जा रहा है।

विश्व में मानवाधिकारों पर होने वाले हमलों पर नजर रखने वाली संस्था ह्यूमन राइट्स वाच ने अपने बयान में कहा है कि इजराइली सरकार के द्वारा गाजा में आम नागरिकों को भूखा मार देने की रणनीति का इस्तेमाल हथियार के रूप में किया जा रहा है। इजरायली सेना ने गाजापट्टी के भीतर रसद, पानी, दवाई और आवश्यक ईंधन की सप्लाई को जानबूझकर इतना सीमित कर दिया है कि लोग भूख-प्यास से धीरे-धीरे मर जायें। इसके लिए उसने उत्तरी गाजा के खेत-खलिहानों में जो फसल और पेड़-पौधे थे, उन्हें भी ख़ाक कर डाला है। यह युद्ध अपराध है, और दुनिया के लोकतंत्र का सबसे बड़ा ठेकेदार अमेरिका की सरपरस्ती में इस सबको अंजाम दिया जा रहा है। 19,000 से अधिक फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं। 7,000 से अधिक लोग लापता हैं जिनमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे बताये जा रहे हैं।

पूरी दुनिया में नव-उदारवादी व्यवस्था को लागू करने का दबाव बनाने के पीछे अमेरिका का क्या मकसद था, जिसके लिए अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा 80 के दशक से ही विश्व बैंक और आईएमएफ का सहारा लिया गया। आज दुनिया के अधिकांश देश अपने-अपने देशों में बढ़ते क्रोनी-कैपिटलिस्ट लॉबी के गुलाम बना दिए गये हैं। इन सभी देशों के क्रोनी पूंजीपतियों के तार कहीं न कहीं पश्चिमी देशों के बिग कॉर्पोरेट्स और स्टॉक एक्सचेंज के साथ जुड़े हुए हैं।

गरीब मुल्कों में उपभोक्तावाद इस कदर सर चढ़कर बोल रहा है कि भारत जैसे देश में सार्वजनिक बैंकों द्वारा एनबीएफसी बैंकों को दिए गये ऋणों का अधिकांश उपयोग आईफोन या शेयर मार्केट में जुआ खेलने में करोड़ों युवाओं द्वारा किया जा रहा है। यह सब इतना भयावह है कि आरबीआई को आशंका है कि अब बैंकों का एनपीए कॉर्पोरेट के साथ-साथ पर्सनल लोन लेने वाली इस यंग आबादी से तबाह हो जाने वाला है।

पूरी दुनिया को उधार पर ऐश कराकर अपने मुनाफे को आसमान की बुलंदियों तक ले जाने की हवस में डूबे इन बिग कॉरपोरेट्स ने पूरे विश्व को ग्लोबल वार्मिंग और पूर्ण तबाही के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। सीओपी-28 जैसे वार्षिक जमावड़े में भी यही बिग लॉबी ही आयोजन के स्पांसरों में नजर आई, जिसका अर्थ है दुनिया को खात्मे के लिए जिम्मेदार लोग ही उसे बचाने की नौटंकी के कर्णधार बने बैठे हैं।

अमेरिका की जनता अपनी कमाई और बढ़ते कर्ज की मार में इतना उलझ चुकी है कि उसे अब उच्च शिक्षा और मेडिकल बीमा के बढ़ते प्रीमियम से उबरने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है। लाखों की संख्या में वहां बेघरबार लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यूक्रेन-रूस संघर्ष के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार अमेरिका ने जिस प्रकार से यूरोप को अपने पीछे खड़ा करने के लिए नाटो का इस्तेमाल किया, उसका नतीजा आज समूचा यूरोप भुगत रहा है। रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों की ताबड़तोड़ बरसात का सिला यूरोप की बर्बादी और उसे औद्योगिक रूप से अशक्त कर उसे उत्पादन की दौड़ में अयोग्य बनाकर पूंजी के प्रवाह को अपनी तरफ मोड़ लिया है।

इस सबका आखिर सिला क्या है? यह कुलमिलाकर मुट्ठीभर विश्व के सबसे धनी पूंजीपतियों के हाथों में इन शक्तिशाली देशों की सरकारों के घुटने टेकने की प्रक्रिया है, जिसे वहां की पार्टियां आम लोगों में बढ़ते असंतोष को राष्ट्रवाद, नव-नाजीवाद, इस्लामोफोबिया, रूस और अब चायनीज ड्रैगन के द्वारा उनकी समृद्धि को खत्म किये जाने के विरुद्ध छेड़े गये युद्ध में देखने के लिए अभिशप्त है। इन देशों में कई मौकों पर श्रमिक वर्ग अपने आर्थिक हितों के लिए खड़ा होता है, लेकिन अक्सर उसे वित्तीय पूंजी के पैरोकार मीडिया और राजनीतिक दलों के द्वारा विघटनकारी नैरेटिव के द्वारा अपना शिकार बनाये जाने का सिलसिला थमा नहीं है।

आर्थिक उदारीकरण और हिंदुत्व की बैसाखी पर सवारी गांठे क्रोनी कैपिटल की छलांग

इसके आईने में अब यदि हम एक बार फिर से भारत की ओर लौटते हैं तो हम पाते हैं कि देश में आर्थिक उदारीकरण और हिंदुत्ववादी राजनीति दोनों का सफर लगभग साथ-साथ परवान चढ़ता है। 90 के दशक में तेल आयात के संकट के फलस्वरूप भारत ने नव उदारवादी अर्थनीति की जो राह पकड़ी, उसमें शुरूआती 15-20 वर्षों तक उसे जॉबलेस ग्रोथ के बावजूद आसानी से अपनी नाव खेने के मौके थे। लेकिन इसी दौर में भारतीय एकाधिकार पूंजी की ताकत भी लगातार बढती जा रही थी, और 2011 के बाद विकास की रफ्तार धीमी पड़ने के साथ ही उसे कांग्रेस पार्टी का वैकल्पिक मॉडल बेस्वाद नजर आने लगा।

इसी बीच गुजरात में हिंदुत्व की प्रयोगशाला में क्रोनी पूंजी के लिए अबाध विकास का मॉडल सफलतापूर्वक लांच किया जा चुका था। 2014 में हिंदुत्व के रथ को अडानी के हवाईजहाज पर सबने देखा, लेकिन किसी ने भी यह अंदाजा नहीं लगाया था कि देश के एक बड़े वर्ग को हिंदुत्व के नशे में डालकर क्रोनी पूंजी की ताबड़तोड़ सफलता के लिए इतनी आसानी से सहमत कराना संभव हो सकता है।

आज भारत में 2000-2011 के वर्षों में जो चंद सफलता और कुछ लोगों को निम्न आय वर्ग से मध्य वर्ग में लाने में सफलता हासिल हुई थी, वह नोटबंदी, जीएसटी और कोविड-19 और उसके बाद के वर्षों में उससे भी बड़ी संख्या में आम लोगों को पहले से भी बड़ी संख्या में आर्थिक तौर पर नीचे धकेल चुकी है। इसके बावजूद आज भी बड़ी संख्या में लोग राष्ट्रवाद, मर्दाना विदेशनीति, विश्व में भारत का डंका बजने, अखंड हिंदू राष्ट्र और अब विश्व गुरु बनने के झूठे ख्वाबों के सहारे अपनी आर्थिक दुर्दशा को भूले बैठे हैं।

इस पूरे घटनाक्रम को सफलतापूर्वक अंजाम देने के लिए चुनावी लोकतंत्र का सहारा लिया गया, जिसकी वास्तविकता यह है कि इसमें आम लोगों की भागीदारी अब महज 5 वर्ष में एक बार अपना वोट देने की रह गई है। देश में राष्ट्रीय स्तर की दो पार्टियाँ हैं, जिनमें से कांग्रेस के पास सिर्फ राष्ट्रीय स्तर का ढांचा रह गया है, संख्या नदारद है। उसके सामाजिक आधार पर तमाम क्षेत्रीय पार्टियों ने सेंध लगाकर खत्म कर दिया है, और बचे खुचे आधार को राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप 80% हिंदुओं के मन में बिठाकर भाजपा ने अपने पाले में कर लिया है।

आज बिग कॉर्पोरेट और हिंदुत्व के नशे में चूर लोगों की पहली पसंद भाजपा है, जबकि कांग्रेस पिछले 9 वर्षों से भाजपा के खिलाफ आम लोगों के बीच बढ़ते एंटी-इनकम्बेंसी की आस में लगी हुई थी। लेकिन बड़ी पूंजी के लिए अब कांग्रेस पर दांव खेलने का कोई अर्थ नहीं रह गया है, तो कांग्रेस के लिए भी अब खुद को रिपोजीशन करने और अपने लिए जगह बनाने के लिए नए सिरे से सोचने और एक्शन में आने का समय है। इसीलिए उसकी ओर से जाति-जनगणना से लेकर भारत जोड़ो और अब बेरोजगारी और महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों पर राष्ट्रीय बहस की तैयारी चल रही है।

इस प्रकार हम पाते हैं कि चुनावी लोकतंत्र में कैसे औपनिवेशिक भारत में आजादी की लड़ाई लड़ने वाली पार्टी आजादी मिलने के चार दशक बाद खुद ही अपने द्वारा घोषित राह को छोड़ देशी और विदेशी पूंजी के अबाध विकास के द्वार खोल देती है तो दूसरी तरफ हिंदुत्व और अखंड भारत की बात करने वाली आरएसएस अपनी राजनीतिक पार्टी भाजपा और स्वदेशी जागरण मंच के साथ तब तक नई आर्थिक नीति का विरोध करती है, जब तक वह स्वंय कांग्रेस पार्टी को अपदस्थ कर खुद नई दिल्ली के ताज पर अपने नुमाइंदे को पूर्ण बहुमत के साथ नहीं बिठा लेती। 2014 के बाद तो क्रोनी पूंजी के मुहं में जो खून लग चुका है, उसका तोड़ किसी भी राजनीतिक दल में दूर-दूर तक नजर नहीं आता है। ऐसे में जिस सवाल पर भारत के आम लोगों को बार-बार ध्यान देना चाहिए कि क्या मौजूदा पूंजीवादी लोकतंत्र में सबका साथ, सबका विश्वास सबसे बड़ा मजाक नहीं है।

भारतीय लोकतंत्र बनाम चीन की कम्युनिस्ट तानाशाही में आम आदमी के लिए जगह

भारत की तुलना में चीन और वहां के लोग आज कहाँ खड़े हैं? भारत में सही मायने में मात्र 3 करोड़ लोग ही मध्य वर्ग की श्रेणी में पहुंचने में कामयाब रहे हैं, जबकि चीन में यह संख्या 10 गुने से भी अधिक है। चीन में भी विदेशी कंपनियों को बेहद सस्ते दर पर अपने श्रमिक वर्ग की सेवाएं मुहैया कराई गई थीं, लेकिन आज चीन के पास भारत, बांग्लादेश की तरह सस्ता श्रम उपलब्ध नहीं है। उसकी उत्पादकता और श्रमिकों का स्किल उस स्तर पर पहुंच चुका है कि उसे भारत के श्रमिकों की तुलना में 5-6 गुना दाम हासिल है।

दुनिया के सबसे धनी और सबसे बड़ी आबादी वाले लोकतांत्रिक देश अमेरिका और भारत में गरीबों और बेघरबार लोग पाए जाते रहेंगे, लेकिन चीन जिसे पश्चिमी देश वन पार्टी रुल के कारण अलोकतांत्रिक और तानशाह साबित करता आया है, में गरीबी को समूल नष्ट करने में सफलता कैसे हासिल कर सका?

भारत जैसे देश में आज तमाम विद्वान एक पार्टी के बहुमत के बजाय गठबंधन सरकार को लोकतंत्र के जरुरी बता रहे हैं, क्योंकि उनके विचार में किसी एक दल के हाथ में पूर्ण बहुमत के अभाव में ही इस लोकतंत्र को बचाए रखा जा सकता है और आम लोगों के हितों को ध्यान में रखने वाली नीतियों पर काम संभव है।

ऐसी शर्तों और पैबंद लगे लोकतंत्र में 5 किलो प्रति माह अनाज पर खुद को जिंदा रखने वाले 82 करोड़ लोगों के वोटों को अपनी ओर आकृष्ट करने या साफ़ कहें तो खरीदने के लिए देश के बिग कैपिटल के कार्टेल के लिए अपने राजनीतिक प्रतिनिधि पार्टी को खुलकर खेलने से रोकने के लिए हमारा संविधान शेष 140 करोड़ के कितना जवाबदेह है? अगर नहीं है तो यह तो देश के धनिक तंत्र के पक्ष में ‘खुला खेल फर्रुखाबादी’ की तर्ज पर इकतरफा झुका हुआ है, जिसमें देश के गरीबों को हर 5 साल में मूर्ख बनाने के लिए हिंदू-मुसलमान, बाबरी-राम जन्म भूमि या पुलवामा की तर्ज पर कोई न कोई सर्जिकल स्ट्राइक करना कौन सा बड़ा काम है?

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।) 

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