नरेंद्र मोदी सरकार अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने जा रही है। इस बीच उसने भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं को पंगु बनाने की भरसक कोशिश की है।दरअसल यह देश फासिज्म और क्रोनिज्म के गठजोड़ के विलक्षण दौर से गुज़र रहा है और नरेंद्र मोदी की तथाकथित शक्ति भी इसी गठजोड़ में निहित है जो उन्हें संघ-भाजपा में अग्रणी बनाती है। इसके दो आयाम हैं – पहला , जहां उनके द्वारा जनता के बहुसंख्य समाज को उन्मादी और आत्म मुग्ध बना कर साम्प्रदायिक विघटन किया जाता है और उसे अल्पसंख्यकों और वंचित तबकों के खिलाफ उकसाया जाता है तथा उनमें नफरत भरी जाती है। इस तरह बहुसंख्यक समाज के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये इनकी मान्यता है कि ये सतत सत्तारूढ़ बने रह सकते हैं और इन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता। यही इनका फासिस्ट चरित्र है।
वहीं दूसरी तरफ ये चंद चुनिंदा पूंजीपतियों के हितों को पूरा करने के लिए तमाम नियम-कानूनों को ताक पर रख कर अवैधानिक तरीकों से उन्हें लाभान्वित करते हैं।
क्रोनिज्म या क्रोनी कैपिटलिज्म वह है जहां पूंजीपतियों के व्यापारिक हितों को प्रतिस्पर्धा विहीन सरकारी संरक्षण प्रदान किया जाता है और पक्षधरता व भ्रष्टाचार के माध्यम से लाभान्वित किया जाता है। इसके लिए सत्ता से घनिष्ठ संबंध का सहारा लिया जाता है और मिलीभगत से संगठित लूट को अंजाम दिया जाता है। वर्तमान में अडानी-मोदी की गलबहियां और अडानी द्वारा की गई अथाह लूट इसका बेहतर उदाहरण है।
भारत में इस गठजोड़ की पृष्ठभूमि तलाश करने के लिए हमें 2014 के पूर्ववर्ती वर्षों पर एक सरसरी नज़र डालनी पड़ेगी। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के शुरुआती दौर में भारत ने पूर्व से चली आ रही मिश्रित अर्थव्यवस्था के साथ उसको समायोजित किया और भारतीय राज्य की लोक कल्याणकारी भूमिका के साथ इन वैश्विक चुनौतियों के साथ बेहतर सामंजस्य स्थापित कर वैश्विक मंच पर अपनी अलग पहचान बनाई तथा कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकारों ने इसे बखूबी अंजाम दिया। आगामी दिनों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन( UPA) की सरकारों ने अपनी जनपक्षधरता के सरोकारों को प्राथमिकता देते हुए मनरेगा, सूचना का अधिकार, भूमि अधिग्रहण कानून, भोजन के अधिकार के बतौर खाद्य सुरक्षा कानून जैसे बड़े क्रांतिकारी और ऐतिहासिक फैसले लिए।
यह वह दौर था जब तमाम पूंजीपतियों द्वारा स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन ( सेज ) के नाम पर किसानों की ज़मीनों की खुलेआम लूट की जा रही थी । किसानों के हितों के लिए राहुल गांधी के संघर्षों के बाद कांग्रेस द्वारा लाया गया भूमि अधिग्रहण कानून उनके हितों पर सीधा हमला था । खाद्य सुरक्षा कानून भी उनके हितों की अनदेखी कर रहा था । नतीजतन क्रोनी कैपिटालिस्टों ने अडानी के नेतृत्व में इसी दौर में चंद पूंजीपतियों को ले कर लामबंदी शुरु की। कांग्रेस के खिलाफ अपना स्वयं सत्ता केंद्र स्थापित करने के सचेत प्रयास शुरू हुए।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना केंद्र बना कर उनके द्वारा गुजरात समिट शुरू किया गया, जिसके जरिये गुजरात मॉडल को विकास का मॉडल बताया गया। उन्होंने इसके लिए अकूत धन खर्च कर जहां यूपीए सरकार के खिलाफ झूठे प्रचार अभियान संचालित किये, वहीं नरेंद्र मोदी को सच्चे हिन्दू राष्ट्रनायक के बतौर प्रस्तुत किया । मीडिया को नियंत्रित कर नरेंद्र मोदी को घर – घर पहुंचाने का बीड़ा अडानी के नेतृत्व में इन पूंजीपतियों ने उठाया । सही मायनों में भारत के इतिहास में यह पहला चुनाव था जिसे प्रत्यक्ष रूप से क्रोनी कैपिटलिस्टों ने लड़ा और उसे संचालित किया। इस तरह 2014 में नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के ही तमाम वरिष्ठ और समकक्ष नेताओं पर वरीयता प्राप्त कर सत्ता पाई ।
उम्मीद के अनुरूप ही नरेंद्र मोदी सरकार और क्रोनिज्म के इस गठजोड़ का सर्वाधिक लाभ अडानी ने उठाया और बंदरगाहों, एयरपोर्टों , रेलवे , खदानों , जमीनों , कोयला सहित अन्याय माध्यमों से गैर उत्पादक तरीके से बिना किसी प्रतिस्पर्धा के सत्ता को नियंत्रित कर दोनों हाथों से अकूत लूट को अंजाम दिया और देखते ही देखते वो दुनिया के दो नम्बरी सेठ बन गए। तरीका तो यह था कि अडानी के साथ शामिल अन्य पूंजीपतियों को भी इस लूट में साझेदारी मिलती लेकिन उन्हें कुछ खास हाथ नहीं लगा सिवाय अनिल अंबानी के, जिन्होंने बगैर किसी अनुभव के राफेल डील में लाभ उठा लिया ।
राजनीतिक पटल पर इस अंतर्विरोध की सही शिनाख्त राहुल गांधी ने की और इसकी सबसे कमजोर कड़ी पर चोट कर इस गठजोड़ को सार्वजनिक किया । परिणामस्वरूप बौखलाई मोदी सरकार ने संसद में उनका माइक बंद करने, अडानी पर उनके वक्तव्य को सदन के रिकार्ड से हटाने और अंततः उनकी संसद सदस्यता रद्द करने के हर हथकंडे अपनाए । हाल ही में उन्होंने एक कहानी के जरिये बहुत सटीक टिप्पणी की कि ” राजा (मोदी) की जान तोते (अडानी) में है ” यानि कि तोते को मारने पर राजा स्वयं खत्म हो जायेगा ।
नरेंद्र मोदी जो राज्य सरकारों द्वारा जनता को दी जाने वाली राहतों को तो ‘ रेवड़ियां ‘ कहते हैं जबकि असल में क्रोनी कैपिटलिस्टों को रेवड़ियां बांट कर अपने लिए चुनावी फंड और अन्य अवैध स्रोतों से एकत्र धन के जरिये राजनैतिक एकाधिकार स्थापित करने का असफल प्रयत्न भी कर रहे हैं ।
राहुल गांधी अक्सर अपने वक्तव्य में जिन दो विचारधाराओं की लड़ाई का जिक्र करते हैं वह कांग्रेस और भाजपा -संघ के बीच की यही लड़ाई है ।
जहां कांग्रेस का उद्देश्य सामाजिक समानता कायम कर सरकार के माध्यम से जनता के हितों के अनुरूप नीतियों का निर्माण कर उसे लागू करना है । ऐसी नीतियां जिनसे दलित, आदिवासी, पिछड़े, किसान, मजदूर, छात्र-युवा, महिलाएं, अल्पसंख्यकों सहित अन्य सामाजिक श्रेणियां लाभान्वित हों और राष्ट्र निर्माण में अपना प्रत्यक्ष योगदान सुनिश्चित कर सकें। जहां छोटे-मझोले उद्योगों के जरिये व्यापक रोजगार सुनिश्चित हो और पूंजी के विकेंद्रीकरण का लाभ निर्बाध तरीके से आम जनमानस तक पहुंचे। आम जनमानस की आर्थिक सुरक्षा व उनका गतिशील विकास सुनिश्चित करना जहां प्राथमिक लक्ष्य है।
वहीं दूसरी तरफ भाजपा-संघ की फासिस्ट नीतियां हैं जिसके माध्यम से वे बहुसंख्य हिन्दू समाज के साम्प्रदायीकरण के जरिये सामाजिक विभाजन कर अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों के खिलाफ उन्माद और हिंसा के माध्यम से येन-केन-प्रकारेण सत्ता हस्तगत करना चाहते हैं । उनका उद्देश्य सरकार और सत्ता को क्रोनिज्म की सेवा में प्रस्तुत कर एकाधिकार स्थापित करना है तथा इस एकाधिकार के माध्यम से संवैधानिक संस्थाओं, मीडिया और सम्भव हद तक न्यायपालिका को नियंत्रित कर विपक्ष की आवाज को कुचलना , नियंत्रित करना , लांछित करना व उनका दमन करना है । इस प्रकार से अपने पूंजीपति संरक्षकों को अवैध तरीके से नियमों की अनदेखी कर या उसे बदल कर लाभ पंहुचना है ।
भाजपा-संघ के फासिज्म और क्रोनिज्म के इस गठजोड़ ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस देश को जितना आर्थिक-सामाजिक और राजनैतिक नुकसान पहुंचाया है उसकी भरपाई असम्भव है। नरेंद्र मोदी सरकार के इन दो कार्यकालों में हमने सत्ता और क्रोनिज्म के इस गठजोड़ की परिणति के रूप में अडानी , नीरव मोदी , मेहुल चौकसी , विजय माल्या सहित दर्जनों छोटे – बड़े सेठों को जनता के मेहनत की गाढ़ी कमाई लूट कर भागते और सरकार का मौन और प्रत्यक्ष संरक्षण पाते देखा है जो निरन्तर जारी है ।
लेकिन विगत दिनों में कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनावों में भाजपा-संघ की शिकस्त ने जन आकांक्षाओं को बल दिया है और उनके प्रतिरोध की आवाज को मुखर किया है । वर्तमान में चल रहे पांच प्रदेश के विधानसभा चुनाव में परिवर्तन की आहट सुनाई देने लगी है । आगामी लोकसभा चुनावों के आलोक में इसे देखें तो जनता इस एकाधिकारवादी और विभाजनकारी सत्ता के दौर में उपजी आर्थिक – सामाजिक असुरक्षा से महंगाई , बेरोजगारी , सामाजिक वैमनस्यता और हिंसा से मुक्ति चाहती है ।
राहुल गांधी जिस सत्य की तपस्या कर रहे हैं वह जन पक्षधरता का यही संघर्ष है जिसके लिए वे बार-बार ”डरो मत ” के आह्वान के जरिये इस सत्ता और क्रोनिज्म के गठजोड़ और एकाधिकार निर्णायक चोट करते हैं । उनकी इस चोट से इसकी दीवारें दरकने लगी हैं । ऊपर से देखने पर यह गठजोड़ चाहे जितना भी ताकतवर क्यों न दिखता हो लेकिन जनपक्षधरता के जनराजनीतिक संघर्षों की चोट से यह रेत की दीवार की तरह भरभरा कर गिरने को अभिशप्त है।
हिंदी के प्रख्यात कवि मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो :
प्रतापी सूर्य है , वे सब प्रखर जाज्वल्य
पर, यह क्या ? अंधरे स्याह धब्बे सूर्य के
भीतर बहुत विकराल , धब्बों के अंधेरे विवर तल में से
उभर कर – उमड़ कर , दल बांधे उड़ते आ रहे हैं गिद्घ
पृथ्वी पर झपटते हैं , निकालेंगे नुकीली चोंच से आंखें
कि खाएंगे हमारी दृष्टियां ही वे ! ….
बिना संहार के सर्जन असम्भव है
समन्वय झूठ है
सब सूर्य फूटेंगे
व उनके केंद्र टूटेंगे
उड़ेंगे खण्ड – खण्ड
बिखरेंगे गहन ब्रह्माण्ड में सर्वत्र
उनके नाश में तुम योग दो !!
(क्रांति शुक्ल वर्ल्ड विजन फाउंडेशन के निदेशक और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं।)
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