Friday, March 29, 2024

पूर्वाग्रहों और अंतर्विरोधों से भरी शिक्षा नीति

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 चौंतीस वर्षों के अंतराल के बाद आई इस सदी की पहली संपूर्ण शैक्षिक नीति है। किसी भी नीतिगत दस्तावेज से हमें उस समय की सरकार की नीतियों और नीयत दोनों का पता चलता है। ऐसे दस्तावेज़ों को पढ़ते हुए हमें शब्दशः पढ़ने के अलावा उसके निहितार्थों में भी समझना चाहिए। ऐसे दस्तावेज शून्य में रहकर, आह्लादित या अभिभूत होकर नहीं पढ़े जाने चाहिये। इनमें बहुत कुछ लिखे में तो बहुत कुछ छोड़ दिए गये में समाहित होता है। कुछ तो जानबूझकर इशारे में ही स्थापित किया जाता है। बहुत सी तार्किक और आलोचनात्मक कसौटियां हैं जिन पर कसकर ही नीतिगत दस्तावेज़ों पर अपने विचार बनाने होंगे।

इस शिक्षा नीति को पढ़ते हुए भी मेरी समझ से यह बातें लागू होती हैं। इसे पूर्ववर्ती शिक्षा नीतियों के संदर्भ में देखते हुए यह समझना होगा कि यह नीति किस तरह उनसे अलग है या एक समान है? यह कौन सी नई जमीन तैयार करती है या तोड़ती है? इसके शब्दों और वाक्यों में नीति और नीयत का कैसा घालमेल है? इन सबको देखे बिना शैक्षिक दस्तावेज़ों को पढ़ना महज पढ़ना है।

इस दस्तावेज़ को शब्दशः और ‘बिटविन द लाइन’ पढ़ते हुए एक बार यह समझ फिर पुख़्ता हुई कि अन्य मसलों की तरह शिक्षा भी अंततः राजनीतिक मसला ही है। यह अपने समय की वर्चस्वशाली शासकीय विचारधारा और हितों को बखूबी अभिव्यक्त करती है। वैसे जब हम ऐसी नीतियों में विविध हितों के प्रतिनिधित्व और उन्हें समाहित करने के लिए आवाज उठाते हैं तब यह लोकतांत्रिक प्रयास भी अंततः राजनीतिक ही होते हैं। 

स्कूली शिक्षा के संदर्भ में इस नीतिगत दस्तावेज़ को उसके सामाजिक-राजनीतिक आयामों में देखना रुचिकर है। इसे पढ़ते हुए इसकी भाषा मन को मोहती है। इसे अब तक विकसित हुई प्रगतिशील शैक्षिक समझ की शब्दावली में लिखा गया है, जो पढ़ने में बहुत अच्छी लगती है। पूर्ववर्ती शैक्षिक नीतियों की बहुत सी आलोचना उनकी भाषा को लेकर भी होती थी। यह पूरी नीति बार-बार महान राष्ट्रीय विरासत, विविधता पूर्ण संस्कृति, लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्यों की दुहाई देते हुए आगे बढ़ती है।

ट्रांसजेंडर, ‘दिव्यांग’ (विकलांग) जैसे हाशियाई समूहों व पहचानों की चिंता भी करती है। जो बहुत अच्छी और लुभावनी बात है। पर जैसे ही गहराई से इस नीति में लिखे शब्दों और उनके बीच छोड़ दिए गये या इशारे में कही गई बातों पर ध्यान जाता है, पूरी स्थिति स्पष्ट होती है। समझ में आता है कि कैसे चालाकी से प्रगतिशील लोकतांत्रिक शब्दावली के बीच गैर प्रगतिशील, बाजारवादी, संकीर्ण राजनीतिक एजेंडे को इसमें पिरोया गया है।

उदाहरण के लिए कोठारी कमीशन से लेकर अब तक के दस्तावेज़ों में शिक्षा को समता और न्याय आधारित समाज बनाने का प्रभावी साधन माना गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 भी कहती है कि, ‘शिक्षा, सामाजिक न्याय और समानता प्राप्त करने का एकमात्र और सबसे प्रभावी साधन है। समता मूलक और समावेशी शिक्षा न सिर्फ़ स्वयं में एक आवश्यक लक्ष्य है, बल्कि समता मूलक और समावेशी समाज निर्माण के लिए भी अनिवार्य कदम है, जिसमें प्रत्येक नागरिक को सपने संजोने, विकास करने और राष्ट्र हित में योगदान करने का अवसर उपलब्ध हों।’ (पैरा. 6.1, पृष्ठ 38) पिछले दस्तावेजों में इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्वयं शिक्षा व्यवस्था को भी समता आधारित बनाने के लिए ‘काॅमन स्कूल सिस्टम’ विकसित करने की बात की जाती थी (भले ही व्यवहारिक रूप से यह संभव न हो पाया हो)।

जैसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के पैरा. 3.2 में स्पष्ट रूप से कहा गया कि, ‘1968 की नीति में अनुशंसित सामान्य स्कूल प्रणाली को क्रियान्वित करने की दिशा में प्रभावी कदम उठाए जाएंगे।’ पर इस दस्तावेज़ में इस आदर्श और सपने से पीछा छुड़ाकर राजनीतिक व्यवस्था ने स्वयं को इस नैतिक दबाव से मुक्त कर लिया है। ‘समान स्कूली व्यवस्था’ से मिलते-जुलते जुमले दस्तावेज़ में नत्थी करके वर्तमान असमान व्यवस्था को एक तरह से वैध बना दिया गया है। पृष्ठ संख्या 4 पर जहाँ यह कहा जा रहा है कि, ‘2040 तक एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य होना चाहिए जो कि किसी से पीछे नहीं है, एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था जहाँ किसी भी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले शिक्षार्थियों को समान रूप से सर्वोच्च गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध हो।’ वहीं, आधार सिद्धांतों तक आते-आते असमान प्रणाली को ही घुमा-फिराकर परोस दिया गया है।

अंतिम आधार सिद्धांत में कहा गया है कि, ‘एक मजबूत, जीवंत सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में पर्याप्त निवेश- साथ ही सच्चे परोपकारी निजी और सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहन और सुविधा।’ निजी स्कूलों को लेकर ऐसी स्वीकार्यता संभवतः पहली बार किसी दस्तावेज़ में दिखाई देती है, वो भी बिना इसकी बाजारवादी, लूट आधारित संरचना पर सवाल उठाए। जहाँ ‘सच्चे परोपकारी निजी’ स्कूलों को कहीं परिभाषित नहीं किया गया है वहीं आगे बहुत सी जगहों पर ऐसे विशेषण हटाकर सीधे निजी स्कूलों के अस्तित्व को स्वीकार कर उनसे सह योजित और संबद्ध होकर आगे बढ़ने की बात कही गई है। (पृष्ठ 16, 22, 26, 47) कौन नहीं जानता कि असमान व्यवस्था पर टिके ये निजी स्कूल सिर्फ़ विषमता को ही पुनर्उत्पादित करते हैं। 

नीतिगत दस्तावेज़ में हर कहे-अनकहे का अपना महत्व है। जहाँ एक ओर पृष्ठ 44 पर कहा गया है कि, ‘स्कूल के पाठ्यक्रम में किसी भी पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता को हटा दिया जाएगा, और ऐसी सामग्री को अधिकता में शामिल किया जाएगा जो सभी समुदायों के लिए प्रासंगिक और संबंधित हैं।’ वहीं यह दस्तावेज खुद में ही ऐसी सदाशयता नहीं दिखा पाया है। इसे इसकी अतीत दृष्टि और भाषा नीति में खुले तौर पर महसूस किया जा सकता है। नीति बार-बार भारत के गौरवशाली अतीत की बात को उठाकर न केवल उससे प्रेरणा लेने की बात करती है, बल्कि उसे पाठ्यचर्या में समाहित करने पर भी बल देती है।

कमोबेश पिछली नीतियाँ भी अतीत से प्रेरणा लेने की बात करती रहीं हैं। पर यहाँ अतीत को स्पष्ट रूप से ‘प्राचीन भारत’ की संस्कृति, दर्शन, विरासत और उपलब्धि से ही जोड़ा गया है। जाहिर सी बात है कि अतीत या इतिहास का मोटा विभाजन प्राचीन से होकर मध्यकालीन और आधुनिक या समकालीन समय तक फैला हुआ है। यहाँ इसे प्राचीन की सीमा तक सीमित करके समझा गया है। यह सीमा समय के फैलाव को लेकर ही नहीं प्राचीन की एकल पहचान आधारित समझ को लेकर भी है।

नीति उद्घोष करती है कि, ‘प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में यह नीति तैयार की गई है।’ साथ ही प्राचीन शैक्षिक संस्थानों के नाम गिनाते हुए इस व्यवस्था से निकले विभूतियों के नाम सम्मान पूर्वक गिनाए गये हैं। इनमें ‘चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वाराहमिहिर, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, चक्रपाणि दत्ता, माधव, पाणिनि, पतंजलि, नागार्जुन, गौतम, पिंगला, शंकरदेव, मैत्रेयी, गार्गी और थिरुवल्लुवर’ के नाम हैं। (पृष्ठ 4, 5) गौरतलब है कि शंकरदेव, थिरुवल्लुवर जैसे कुछ नामों को छोड़कर ये सभी नाम उत्तर भारतीय हैं। इनमें भी बुद्ध, महावीर, चार्वाक जैसे उस काल के उत्तर भारतीयों के नाम जिनके विचारों ने पूरी दुनिया में जगह बनाई, भी गायब हैं। संभवतः यह प्राचीन की एकरंगी समझ का परिणाम है। इसमें भौगोलिक प्रतिनिधित्व के लिहाज़ से भी उत्तरपूर्व, दक्षिण के नामों की घोर कमी है। आधार सिद्धांतों में भी प्राचीन के प्रति इस दृष्टिकोण को दुहराते हुए आधुनिक संस्कृति का जिक्र मात्र करके छोड़ दिया गया है। 

इसके अलावा समृद्ध मध्यकालीन और स्वतंत्रता संघर्ष के आंदोलन से जुड़े अतीत को पूरी तरह से छोड़ते हुए इन पर चुप्पी बरती गई है। यह बात चुभने वाली है। आखिर हमारी संस्कृति और समाज पर मध्यकालीन अतीत का गहरा प्रभाव है। यह प्रभाव स्थापत्य कला, संगीत, खान-पान, पहनावे जैसे जीवन के विविध क्षेत्रों में सहज रूप से दिखता है। ऐसे चयन और बहिष्करण के पीछे कहीं औपनिवेशिक समझ से निकली वह सरलीकृत समझ तो नहीं कि भारत का प्राचीन काल हिंदू भारत और मध्यकालीन काल मुस्लिम भारत था। अगर ऐसा है तो यह समझने की जरूरत है कि ऐसा समरूप भारत कभी नहीं था।

प्राचीन काल में भी जहाँ बौद्ध-जैन समुदायों की सशक्त उपस्थिति थी वहीं जिसे आज हम हिंदू धर्म के नाम से जानते हैं वह भी शैव-वैष्णव जैसी अनेक धाराओं में उपस्थित था। इसी तरह मध्यकाल में उत्तर में सशक्त मुस्लिम साम्राज्य के साथ-साथ पश्चिमोत्तर व दक्षिण भारत में हिंदू राजशाहियों का दबदबा था। वैसे भी किसी काल को शासक वर्ग के धर्म या फिर सिर्फ धर्म के आधार पर देखना संकीर्ण समझ है। हालाँकि दस्तावेज़ में कहीं भी धर्म का इस रूप में जिक्र भी नहीं है।

चयन और बहिष्करण में निहित संभावित कारणों का यह मात्र अनुमान ही है। संवैधानिक मूल्यों का कई स्थानों पर जिक्र करते हुए भी इनको निर्मित करने वाले स्वतंत्रता संघर्ष के साझे आंदोलन का कहीं जिक्र तक नहीं किया गया है। जबकि 1986 की शिक्षा नीति में बहुत स्पष्ट तरीके से घोषित किया गया था कि, ‘पाठ्यचर्या के काॅमन कोर (सामान्य केन्द्रिक) में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, संवैधानिक जिम्मेदारियों तथा राष्ट्रीय अस्मिता से संबंधित अनिवार्य तत्व शामिल होंगे। ये मुद्दे किसी एक विषय का हिस्सा न होकर लगभग सभी विषयों में पिरोए जाएंगे।’ (भाग-3)

इसी तरह के कुछ पूार्वग्रह और अंतर्विरोध दस्तावेज़ में व्यक्त भाषा की नीति में भी दिखाई देती है। इसमें कहा गया है कि, ‘जहाँ तक संभव हो, कम से कम ग्रेड 5 तक लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड 8 और उससे आगे तक भी हो, शिक्षा का माध्यम, घर की भाषा/ मातृभाषा/ स्थानीय भाषा/ क्षेत्रीय भाषा होगी।’ (पैरा. 4.11, पृष्ठ 19) मातृभाषा में पढ़ाई को पूरी दुनिया के शिक्षाविद् अच्छा कदम मानते हैं लेकिन यदि उच्च शिक्षा अंग्रेजी में ही बनी रहती है और इन भाषाओं में पढ़ाई के विकल्प नहीं खुलते तो बहुत से शिक्षार्थी जिन्हें अंग्रेजी सीखने का अवसर कम मिल पाएगा, बाकियों से पिछड़ जाएंगे।

त्रि-भाषा फाॅर्मूले को लागू रखे जाने की बात कही गई है। (पैरा. 4.13) लेकिन इन सबके बीच संस्कृत को लेकर नीति अतिरिक्त झुकाव भी दर्शाती है। इसे ‘त्रि-भाषा के मुख्यधारा विकल्प के साथ, स्कूल और उच्चतर शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण, समृद्ध विकल्प के रूप में पेश’ (पैरा. 417) करने की बात स्पष्ट रूप से कही गई है। जबकि ऐसा आश्वासन अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर नहीं दिया गया है। त्रिभाषा में दो भारतीय भाषाएँ लेने की बाध्यता में फिर से उत्तर भारत के विद्यार्थी हिंदी के बाद संस्कृत तक ही सीमित रहेंगे। यही उपयुक्त समय था कि उत्तर में दक्षिण की भाषाओं को पढ़ने के लिए प्रेरित करने को कुछ कहा जाता। इससे दक्षिण में सद्भावना बढ़ती और हिंदी को लेकर दुराव भी दूर होता। लगता है एक महत्वपूर्ण अवसर को छोड़ दिया गया है।

दस्तावेज़ में भारतीय भाषाओं की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि, ‘भारत की भाषाएँ दुनिया की सबसे समृद्ध, सबसे वैज्ञानिक, सबसे सुंदर और सबसे अधिक अभिव्यंजक भाषा में से हैं, जिसमें प्राचीन और आधुनिक साहित्य (गद्य और कविता दोनों) के विशाल भंडार हैं।’ (पैरा. 4.15, पृष्ठ 21) यहाँ तक तो बात ठीक है। पर दस्तावेज में इससे आगे बढ़ते हुए संस्कृत को लेकर ऐसा तुलनात्मक दावा किया गया है जो विश्व की अन्य क्लासिकल भाषाओं के लिए अपमानजनक है और उन्हें हीनतर घोषित करती है। पैरा. 4.17 में कहा गया है कि, ‘संस्कृत, संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्णित एक महत्वपूर्ण आधुनिक भाषा होते हुए भी, इसका शास्त्रीय साहित्य इतना विशाल है कि सारे लैटिन और ग्रीक साहित्य को भी यदि मिलाकर इसकी तुलना की जाए तो भी इसकी बराबरी नहीं कर सकता।’ (पृष्ठ 21)

इसे पढ़ते हुए लगता है कि जैसे मैकाले के उस झूठे दावे को पलटकर इस नीति में बदला लिया गया है जिसमें उसने कहा था कि पूरब का अब तक का लिखित साहित्य पश्चिम की एक आलमारी के बराबर भी नहीं है। ऐसी तुलनाएं हमेशा गलत होती हैं। नीतिगत दस्तावेज़ों में ऐसे हल्के वक्तव्यों की उम्मीद नहीं की जाती। संस्कृत सहित अन्य भारतीय भाषाओं के पास ऐसी दंभपूर्ण तुलना के अलावा भी गर्व करने को बहुत कुछ है। इसे पढ़ते हुए कहीं पढ़ी गई एक बात याद आ गई। कहा जाता है कि संविधान सभा में राष्ट्र गान और गीत को लेकर जब बहस चल रही थी तब इकबाल द्वारा लिखे तराने ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ पर भी चर्चा हुई।

इस गीत का दावा मजबूत था। लेकिन कुछ सदस्यों ने इस ओर ध्यान दिलाया कि इसमें आई कुछ पंक्तियों में अपने देश की तुलना दूसरे देशों से करते हुए खुद को श्रेष्ठ घोषित किया गया है। ऐसे संदर्भ विदेश नीति और दूसरे देशों से हमारे संबंधों पर असर डालेंगे। वह पंक्ति थी ‘यूनान-मिस्र-रोमा सब मिट गये जहाँ से/ कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’ इस आधार पर इस लोकप्रिय गीत का दावा निरस्त हो गया। क्या दस्तावेज में आया यह नया संदर्भ कुछ ऐसा ही नहीं है?

अन्य भारतीय शास्त्रीय भाषाओं जैसे तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, ओडिया आदि तथा पालि, फारसी, प्राकृत की भी प्रशंसा करते हुए उनके साहित्य को संरक्षित किए जाने की बात एक साथ कही गई है। पर जहाँ संस्कृत को शिक्षा व्यवस्था में हर स्तर पर बढ़ाने की बात कही गई है वहीं इन्हें लेकर टाल-मटोल की स्थिति है। यह कहकर इन्हें भविष्य के हाथों सौंप दिया गया लगता है कि, ‘जैसे ही भारत पूरी तरह से विकसित देश बनेगा, अगली पीढ़ी भारत के व्यापक और सुंदर शास्त्रीय साहित्य के अध्ययन में भाग लेना और इंसान के रूप में समृद्ध बनना चाहेगी।’ (पृष्ठ 22) इसके लिए ऑनलाइन माॅड्यूल विकसित करने को कहा गया है। हालाँकि फिर इसी पेज पर सार्वजनिक या निजी सभी स्कूलों में सभी विद्यार्थियों के पास, भारत की शास्त्रीय भाषाओं और उससे जुड़े साहित्य को कम से कम दो साल सीखने के विकल्प की बात भी कही गई है।

दस्तावेज़ द्वारा छोड़ दिए गये ऐसे संदर्भ भी जो पूर्ववर्ती शैक्षिक नीतियों में महत्वपूर्ण रूप से स्थान बनाते रहे हैं, बहुत कुछ इशारा करते हैं। 1968 और 1986 की शिक्षा नीतियों में धर्मनिरपेक्षता को एक केंद्रीय मूल्य के रूप में स्थान प्राप्त था जिसे शिक्षा द्वारा समाज में स्थापित किया जाना था। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में कहा गया था कि, ‘शिक्षा हमारे संविधान में प्रतिष्ठित समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के लक्ष्यों की प्राप्ति में अग्रसर होने में हमें सहायता करती है।’ (पृष्ठ 2) वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे केन्द्रीय संवैधानिक मूल्यों को लगता है तिरोहित कर दिया गया है।

ये ढूँढे नहीं मिलते। नीति में कई जगह संवैधानिक मूल्यों का जिक्र है पर इसे हमेशा नैतिक और मानवीय मूल्यों की सूची के साथ संबद्ध करके ही बढ़ाया गया है। जैसे मूलभूत आधार सिद्धांतों में कहा गया है कि, ’नैतिकता, मानवीय और संवैधानिक मूल्य जैसे- सहानुभूति, दूसरों के लिए सम्मान, स्वच्छता, शिष्टाचार, लोकतांत्रिक भावना, सेवा की भावना, सार्वजनिक संपत्ति के लिए सम्मान, वैज्ञानिक चिंतन, स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, बहुलतावाद, समानता और न्याय’।

गौरतलब है कि लगभग यही सूची अन्य जगहों पर भी दुहराई गई है। (पृष्ठ 9, 24, 44 आदि) पर इनमें कहीं भी धर्मनिरपेक्षता जैसे केंद्रीय संवैधानिक मूल्य का जिक्र नहीं है। इसके बरक्स 1986 की नीति स्पष्ट घोषणा करती थी कि, ‘यह सुनिश्चित किया जाएगा कि सभी शैक्षिक कार्यक्रम धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के अनुरूप ही आयोजित हों।’ (भाग-3) तो क्या अब इस दस्तावेज़ को इसके त्याग दिए जाने के रूप में पढ़ा या समझा जाए।

नीति यह भी नहीं कहती। हालाँकि उपेक्षा का भी अपना संदेश होता है। मूल्यों की इन सूचियों में बहुत से नैतिक, मानवीय मूल्य तो अस्पष्ट भी हैं। जैसे शिष्टाचार, जिम्मेदारी, सेवाभाव आदि को कौन निर्धारित करेगा। यह संदर्भ और दृष्टिकोण के अनुसार भिन्न होते हैं। छोड़ देने की इस प्रवृत्ति की शिकार भाषाओं की सूची में उर्दू और आरक्षण जैसे मुद्दे भी हुए हैं। इन पर पूर्ववर्ती नीतियाँ स्पष्ट रही हैं।

नीति में कक्षा 6 से ही व्यवसायिक शिल्प जैसे कि ‘बढ़ईगीरी, बिजली का काम, धातु का काम, बागवानी, मिट्टी के बर्तनों के निर्माण’ (पृष्ठ 23,24) पर जोर देने से एक आशंका यह भी पैदा होती है कि 12वीं तक पहुँचते-पहुँचते अधिकतर विद्यार्थियों के शिक्षा से बाहर हो जाने की प्रवृत्ति को देखते हुए यह सस्ते और जरूरी कुशल-अर्धकुशल श्रमिक पैदा करने की चिंता से उपजा मामला तो नहीं। साथ ही यह प्रावधान परंपरागत पेशों में विद्यार्थियों व अभिभावकों में कुछ हद तक सहजता व झुकाव होने से कहीं जातीय व्यवस्था को पुनर्स्थापित और पुनर्उत्पादित करने का जरिया न बन जाए।

दस्तावेज़ में विश्वविद्यालयों में समान प्रवेश प्रणाली स्थापित करने जैसे विविधता और संघवाद की भावना के प्रतिकूल प्रावधान हैं तो शिक्षक भर्ती में इंटरव्यू जैसे भ्रष्टाचार अनुकूल उपबंध भी। इन पर सोचे जाने की जरूरत है। ऐसे विद्यालय जहाँ बच्चों की संख्या कम है, उनके समेकन की नीति (पृष्ठ 47) की बात करके बजाय परिस्थितियों को सुधारने के पहली बार नीतिगत रूप से उन्हें बंद करने के रास्ते खोले गये हैं। हालाँकि दस्तावेज में सार्वजनिक पुस्तकालयों की उपलब्धता बढ़ाने (पृष्ठ 13), मध्यान्ह भोजन के साथ पौष्टिक नाश्ता या ब्रेकफास्ट की व्यवस्था करने (पृष्ठ 14), शिक्षकों के गैर जरूरी स्थानांतरण की नीति पर अंकुश लगाने (पृष्ठ 31), परफार्मेंस आधारित शैक्षिक पदोन्नति करने पर जोर (पृष्ठ 34) और लड़कियों और ट्रांस जेंडर छात्रों को गुणवत्तापूर्ण और न्यायसंगत शिक्षा प्रदान करने के लिए क्षमता विकास हेतु एक ‘जेंडर समावेशी निधि’ के गठन (पृष्ठ 40) जैसी महत्वपूर्ण, प्रगतिशील और अच्छी बातें भी शामिल हैं।

किंतु अपनी संपूर्णता में यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति कई सवालों के घेरे में है। इसका जवाब जहाँ केवल सरकार दे सकती है वहीं आने वाले समय में इसके आधार पर निर्मित होने वाली राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, पाठ्यपुस्तकें, विभिन्न एजेंसियां और उनकी कार्यप्रणाली भी इसे स्पष्ट करेंगी। एक सजग नागरिक के रूप हमें इस पर नजर बनाए रखना होगा।

(आलोक कुमार मिश्रा राजधानी दिल्ली में रह कर अध्यापन का काम करते हैं।)       

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