‘आधार’ और वोटर सूची को जोड़ने वाला क़ानून: आमजन के लिए एक नई मुसीबत

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सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले जो शिक्षक बच्चों के दाख़िलों व वज़ीफ़ों से जुड़ी ज़िम्मेदारी निभाते हैं वो इस बात से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं कि ढेरों ‘आधार’-कार्डों में ग़लतियाँ होती हैं जिसके चलते यह मज़दूर वर्ग की ज़िंदगी में एक कभी न ख़त्म होने वाला जी का जंजाल बन गया है। अक़सर न सिर्फ़ बच्चों के ‘आधार’ और उनके जन्म-प्रमाण पत्र में दर्ज जानकारी के बीच फ़र्क़ होता है, बल्कि परिवारजनों के ‘आधार’-कार्डों की जानकारी भी मेल नहीं खाती है।

नतीजतन, कभी बच्चों को दाख़िले से वंचित कर दिया जाता है तो कभी वज़ीफ़े के हक़ से या कभी किसी अन्य लाभ से। माता-पिता धक्के खाकर और पैसा-समय गँवाकर ‘आधार’ की जानकारी सही कराने की कोशिश करते हैं तो दोबारा बने कार्डों में नई ग़लतियाँ निकल आती हैं। स्कूली अनुभवों के आधार पर ‘आधार’ को और बढ़ावा देने के प्रस्ताव से सहमत होने का कोई कारण नहीं है।

‘आधार’ नाम की बायोमेट्रिक (शरीर की छाप वाली) पहचान को लाते हुए इसकी ख़ूबी ही यह बताई गई थी कि इसके लिए किसी काग़ज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती और ये उन असहाय लोगों के काम आएगा जो कोई काग़ज़ नहीं बना पाते हैं। इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि बहुत-से लोगों के ‘आधार’ में दर्ज नाम की स्पैलिंग्ज़, उम्र/जन्म-तिथि व पते जैसी पहचान की ग़लत जानकारियाँ उनके मतदाता पहचान पत्र (या किसी अन्य काग़ज़) से मेल नहीं खाएँगी। यह तय है कि परेशान-हाल नागरिकों, उनमें से भी विशेषकर वंचित तबक़ों से आने वालों, को एक नई भागदौड़ में लगना होगा। जैसे एनआरसी की घोषणा यह डर पैदा करती है कि लोग अपनी भारतीय नागरिकता साबित कर पाएँगे या नहीं; वैसे ही, अब वोटर सूची को ‘आधार’ से जोड़ने की घोषणा लोगों के अंदर यह डर पैदा करेगी कि वो मतदाता रह पाएँगे या नहीं। असम में लाखों लोग अभी तक अपनी नागरिकता साबित न कर पाने के कारण काग़ज़ों की जंग में ख़त्म हो रहे हैं।

वैसे भी मेहनत करने वाली आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपना मकान और रहने की जगह बदलते रहने को मजबूर है, जिसके चलते उसे सरकार की योजनाओं से जुड़ने के लिए ‘आधार’ में भी लगातार तब्दीलियाँ करानी पड़ती हैं। इसका मतलब ये है कि ऐसे बहुत-से लोगों के वोटर कार्ड में दर्ज पता उनके ‘आधार’ के पते से मेल नहीं खाएगा। इस नए क़ानून के आने से मतदाता सूची से उनके नाम के कटने का ख़तरा पैदा हो जाएगा। जानकारों का यह भी कहना है कि इस क़ानून से मतदाताओं की निजता भी ख़तरे में पड़ सकती है। सबसे ख़तरनाक यह है कि इस अनंत उथल-पुथल के चलते न सिर्फ़ करोड़ों नागरिकों के वोट करने का हक़ छिन सकता है, बल्कि चुनाव की पूरी प्रक्रिया ही संकट में पड़ सकती है।

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ‘आधार’ को मूलतः व्यक्ति की ‘पहचान’ करने के लिए लाया गया था और क़ानून के हिसाब से यह कोई पते का सबूत नहीं है। इसीलिए तो सरकार यह दावा करती आई है कि ‘आधार’ पूरे देश में कहीं भी इस्तेमाल हो सकता है, यानी आप कहीं भी रहें यह आपकी पहचान करेगा, आपके काम आएगा। जबकि सच्चाई यह है कि शिनाख़्त के लिए तो पहले-से ही कोई भी कार्ड – वोटर कार्ड, पैन कार्ड, विद्यार्थी आई कार्ड, नौकरी का आई कार्ड, पासपोर्ट आदि – पूरे देश में इस्तेमाल होता आया है; उल्टे क़ानून के ख़िलाफ़ जाकर हर जगह और हर काम के लिए ‘आधार’ को माँगने से तो बिना पता बदलवाये ‘आधार’ ही पूरे देश में काम नहीं देता है।

इस चक्कर में लोगों को बार-बार अपने ‘आधार’ के पते में सुधार करवाना पड़ता है। सरकार के दावे और वादे झूठे साबित हुए हैं। क़ानून के नाते इसे वोटर-कार्ड जैसे रिहाइशी दस्तावेज़ के लिए इस्तेमाल करना विरोधाभासी है। असल में तो क़ानून और सरकार की नज़र में ‘आधार’ नागरिकता का प्रमाण है ही नहीं! फिर इसे वोट डालने के लिए क्यों अनिवार्य किया जा रहा है? साथ ही, क्योंकि भारत की बहुत बड़ी आबादी कामकाज, परिवार व शिक्षा के लिए रिहाइश बदलती रहती है, इसलिए वोटर लिस्ट में नाम डालने के लिए ‘आधार’ को अनिवार्य बनाना चुनाव आयोग के प्रशासन व आम लोगों के लिए एक सरदर्द साबित होगा। इस प्रक्रिया से बड़ी संख्या में निरक्षर, अपने गाँव-देहात-शहर से कहीं और जाकर मज़दूरी करने वाले और सामाजिक भेदभाव का निशाना बनाए जाने वाले लोगों के नाम मतदाता सूची से कटने की संभावना बहुत बढ़ जाएगी। 

बल्कि ‘आधार’-वोटर कार्ड को लिंक करने का क़ानून लाकर सरकार अपने ही क़ानून से पलटी है। ‘आधार’ के क़ानून को अदालतों में मिली लंबी चुनौती के चलते ही इसके अनिवार्य इस्तेमाल को पैन कार्ड व सरकारी लाभों तक सीमित किया गया था। साथ ही, ‘आधार’ से जुड़े क़ानूनी दाँव-पेंच में ही सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक फ़ैसला दिया था कि भारत के लोगों को निजता का मौलिक अधिकार प्राप्त है। सरकार ख़ुद ही एक क़ानून लाने को मजबूर हुई थी जिसमें ‘आधार’ को सिर्फ़ इन दो चीज़ों तक सीमित किया गया था। अब इस नए क़ानून से अदालत के फ़ैसले की पिटारी फिर खुल गई है।

होना तो यह चाहिए था कि पैन कार्ड को ‘आधार’ से लिंक करने के क़ानून के अनुभव से सबक़ सीखकर हम ‘आधार’ को थोपने के नए क़ानूनों से बचते। नामों की स्पैलिंग्ज़ की भाषाई विविधता के अलावा तकनीकी तालमेल की कमियों के चलते करोड़ों पैन कार्ड आज तक ‘आधार’ से लिंक नहीं किए जा सके हैं। यानी, ‘आधार’ क़ानून का यह प्रावधान एक असंभव पहेली के बीच लटका हुआ है। और करोड़ों लोग भी! मगर जब कोई सरकार क़ानून लाने से पहले सलाह-मशविरा नहीं करती, लोगों के रास्ते में आने वाली समस्याओं की चिंता नहीं करती, यहाँ तक कि ये भी नहीं देखती कि तकनीकी कारणों से भी क़ानून के प्रावधान पूरी तरह लागू नहीं हो पाएँगे, तो फिर वो क़ानून की कमी को मानने वाली ईमानदारी या साहस भी नहीं ला सकती है। हाँ, या तो लोगों को ऐसे क़ानूनों के नीचे पिसता छोड़ दिया जाता है या क़ानून बनाकर भी उसे ज़मीन पर लागू करने वाले नियम नहीं बनाए जा पाते हैं या फिर कभी, चुनावी अंजाम या आंदोलन से डरकर, जनता को ही नासमझ बताकर क़ानून वापस लेना पड़ता है!  

हमारे परेशान-हाल जीवन में उथल-पुथल मचाने की नित नई चालों को संगठित होकर नाकाम करना होगा 

वोटर-कार्ड को ‘आधार’ से जोड़ने की शर्त ऐसी राष्ट्रीय प्रताड़ना बनेगी जिसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा मेहनतकश वर्गों को चुकाना पड़ेगा। लाए गए क़ानून का एक प्रावधान कहता है कि वोटर-कार्ड से ‘आधार’ लिंक कराना ‘ऐच्छिक’ होगा और अगर कोई व्यक्ति सक्षम अधिकारी को लिंक नहीं करने का कारण बताकर संतुष्ट कर देता है तो उसे छूट दी जाएगी। लेकिन ‘आधार’ का इतिहास गवाह है कि इस प्रावधान को अदालत की आँखों में धूल झोंकने के लिए रखा गया है। प्रशासन के जनविरोधी चरित्र के चलते भी यह महज़ एक कोरा आश्वासन साबित होगा जिसे सत्ता द्वारा मनमाफ़िक़ ढंग से इस्तेमाल किया जाएगा।

जिस तरह से चुनाव सुधार के नाम पर ‘आधार’ और वोटर सूची को जोड़ने के क़ानून को बिना संसदीय समिति को भेजे या सदन में चर्चा-मतदान कराए पास किया गया, उससे इसकी नीयत को लेकर शक मज़बूत होता है। ‘आधार’ के क़ानून (और कृषि से जुड़े क़ानूनों) को भी इसी तरह के छल से पास किया गया था। एक संसदीय लोकतंत्र में क़ानून बनाते समय सिर्फ़ ये दावा पेश करना काफ़ी नहीं था कि बहुत-से लोगों के पास दो जगहों के वोटर-कार्ड हैं। समझदार लोगों के लिए आधुनिक लोकतंत्र का तकाज़ा है कि क़ानून बनाने की प्रक्रिया तथ्यों व आँकड़ों पर आधारित हो, महज़ अफ़वाहों या रटे-रटाए दावों पर नहीं। सरकार को संसद में उन लोगों से जुड़े आँकड़े पेश करने चाहिए थे जो एक से ज़्यादा निर्वाचन क्षेत्र में नामाँकित हैं। इन आँकड़ों को विधेयक के औचित्य में भी शामिल करना चाहिए था। यह भी बताना चाहिए था कि ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई हुई है या होगी।

क़ानून-निर्माण की यह अधकचरी प्रक्रिया भारतीय लोकतंत्र के दावों को शोभा नहीं देती है। सच तो यह है कि जिस लोक प्रतिनिधित्व क़ानून के तहत मतदाता का नाम दर्ज करने, सूची तैयार करने आदि के नियम 70 साल से काम कर रहे हैं, उसमें मतदाता सूची से ऐसे मतदाताओं के नाम हटाने के प्रावधान पहले-से ही मौजूद हैं। यदि असल में इरादा ये है कि बहु-नामांकित मतदाताओं को छांटकर उनके नाम हटाए जाएँ, तो चुनावी क़ानून में मौजूद प्रावधान को सार्थक रूप से बेहतर बनाने के उपाय होने चाहिए थे।

इसके अलावा, चुनावी क़ानून में सार्थक सुधार का मतलब यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि सभी पात्र लोगों, विशेष रूप से निराश्रित और बेघर, का नामांकन बिना अन्यायपूर्ण, महँगी या जटिल दस्तावेज़ीकरण की शर्तों के हो। संविधान निर्माताओं ने मतदान के लिए ऐसी शर्तों की कल्पना नहीं की थी जो अन्यायपूर्ण हों और बहिष्करण को अंजाम देती हों।

अपने लेख ‘चुनावी सुधार विधेयक क्यों एक समस्या है’ में वृंदा भंडारी (द हिन्दू, दिसंबर 23, 2021) लिखती हैं कि ‘चुनावी सुधार विधेयक’ निगरानी और नियंत्रण की प्रक्रिया को अलग ही स्तर के ख़तरे पर ले जाता है। जहाँ सरकार के अधिकांश निर्णयों की अपारदर्शिता बढ़ती जा रही है और आरटीआई याचिकाएँ दीवार से टकराकर वापस आ जाती हैं, वहीं पारदर्शिता का सारा भार नागरिकों पर डाला जा रहा है। जैसे सभी नागरिक अपराधी हों। जबकि लोकतंत्र में सरकार लोगों के अधीन होती है, ऐसे क़ानून सरकार और नागरिकों के बीच ताक़त संबंधों को पलटकर सरकारों को निरंकुश और लोगों को कमज़ोर बनाते हैं।

यह विधेयक लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के मूल अर्थ और मायनों को भी ख़त्म करता है जिसके तहत मतदाता के रूप में नामांकन के लिए आयु या निवास के दस्तावेज़ प्रस्तुत करना अनिवार्य नहीं है। आख़िर कम-से-कम संविधान की नज़र में भारत में सड़क पर रहने वाले करोड़ों लोगों को बेहतर हालातों में रहने वालों के बराबर ही राजनैतिक अधिकार हासिल हैं। यह न्यायसंगत नियम सामाजिक हक़ीक़त की एक ऐसी संवेदनशील और सैद्धांतिक समझ पर आधारित है जहाँ बेघर और बेसहारा लोगों को भी देश के नागरिक माना जाता है।

1950 के मूल क़ानून के पूरी तरह न्यायसंगत और वैध नियम के अनुसार यह स्थानीय चुनाव अधिकारी की ज़िम्मेदारी होती है कि वो उस पते पर जाए जो आवेदक, मतदाता के रूप में नामांकन के लिए, फ़ॉर्म पर लिखकर जमा कराता/ती है। फिर वो ‘लेबर चौक पर पेड़ के नीचे’ और ‘स्कूल के बाहर खोखे में’ का ऐसा पता भी हो सकता जहाँ करोड़ों भारतीय बंधु रहते हैं या रहने को मजबूर हैं।

भौतिक निरीक्षण या पड़ोस में पूछताछ के माध्यम से, उक्त पते पर निवास के दावे को सत्यापित करने के लिए स्थल का दौरा करने का प्रावधान पहले-से ही मौजूद है; विशेष रूप से उन लोगों के मामले में जिनके पास कोई भी निवास-सबूत दस्तावेज़ नहीं हो। इसके विपरीत, कर्मचारियों की कमी के चलते, चुनाव आयोग के दफ़्तरों द्वारा भौतिक सत्यापन करने के बजाय संलग्न दस्तावेज़ों पर ही पूरी तरह से भरोसा करने का चलन बढ़ता जा रहा है। ज़ाहिर है, जो चीज़ आँखों से देखकर साबित होती है, काग़ज़ उसे कभी भी उस हद तक साबित नहीं कर सकते।  

   संयुक्त राज्य अमरीका जैसे देश में इस बात को लेकर बेहद चिंता जताई जाती रही है कि मतदान करने के लिए काग़ज़ों की कठोर शर्तें लगाने से काले, ग़रीब लोग व समाज के हाशिए के वर्ग वोट करने से वंचित कर दिए जाते हैं। लोगों की ज़िंदगी पर अफ़सरशाही की निरंकुश ताक़त कम करने के बदले ऐसे नियम-क़ानून नागरिकों पर राज्य की सत्ता को मज़बूत करते जा रहे हैं।

जहाँ तक ‘आधार’ का सवाल है, आज भी कई राज्यों व क्षेत्रों में, ख़ासतौर से उत्तर-पूर्व में, इसके प्रति एक अस्वीकार की भावना व्याप्त है। कई लोग सैद्धांतिक रूप से एक अपराधी की तरह अपने शरीर की छाप देकर अपनी पहचान या बेगुनाही साबित करने को अपमानजनक व इंसान की गरिमा के ख़िलाफ़ मानते हैं। मताधिकार से वंचित होने का ख़तरा छा जाएगा। इस क़ानून के चलते समस्त क्षेत्रों व समूहों पर गाँधी ने दक्षिण अफ़्रीका में जिस आंदोलन में शिरकत करके अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की थी वो भारतीय मूल के लोगों को अपनी उँगलियों के निशान देने और सार्वजनिक स्थलों पर हमेशा एक शिनाख़्ती कार्ड धारण करने के आदेश के विरुद्ध था। लोग अपराधियों की तरह शरीर के अंगों की छाप देने व कार्ड की पाबंदी को अपमानजनक समझते थे।

जिन्होंने ‘दो आँखें बारह हाथ’ फ़िल्म देखी है उन्हें वो सीन याद होगा जिसमें सुधार-गृह से भागे हुए अपराधियों के वापस लौट आने पर जेलर उनके हाथों की छाप के काग़ज़ों को जला देता है। ऐसा करके वो उन पर विश्वास प्रकट करता है और उन्हें उनकी इंसानी गरिमा लौटाता है। क़ानून में भी अपराधियों की उँगलियों के निशान को एक समय के बाद नष्ट कर देने का नियम रहा है, ताकि वो बिना किसी शर्मिंदगी या कलंक के वापस सामान्य ज़िंदगी बसर कर पाएँ। शरीर की छाप देने पर मजबूर करने का जो नियम एक समय अपराधियों तक के लिए शर्तों के साथ व सीमा में ही मान्य था, आज उसे हमने बिना किसी छूट के सभी लोगों पर, यहाँ तक कि अबोध बच्चों पर भी, अनिवार्य रूप से थोप दिया है। 

हम एक ऐसी अँधेरी दुनिया में धकेले जा रहे हैं जहाँ हम लोगों को तो पार्टियों को मिलने वाले पैसों, सरकार के फ़ैसलों की प्रक्रिया आदि के बारे में कुछ जानकारी नहीं मिलेगी, मगर ‘व्यवस्था को सुधारने’ या ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर सरकार हमारे बारे में 100 प्रतिशत जानकारी रखने की ताक़त रखती है। त्रासदी ये है कि ‘ज़रूरत से ज़्यादा लोकतंत्र’ व ‘कल्याणकारी राज्य’ के ख़िलाफ़ दशकों तक चलाया गया दुष्प्रचार लोगों के एक मुखर हिस्से को ख़ुद लोगों के हक़ों के विरुद्ध खड़ा करने में कामयाब हुआ है।

इसमें कोई हैरानी की बात नहीं होगी कि चुनाव कार्यालयों के चक्कर काटने और काग़ज़ों में सुधार करने की थकाऊ व ख़र्चीली प्रक्रिया में खटने के बदले मेहनतकश लोगों का एक हिस्सा मतदाता सूची से बाहर होने को स्वीकार करने को मजबूर कर दिया जाए। फिर एक दिन हम ख़ुद को इस बात की बधाई देंगे कि हमारे पास ‘आधार’ है, भले ही हम मानव या नागरिकों के मूल अधिकारों से वंचित हों।

अंत में, इस क़ानून को ‘चुनावी सुधार’ का नाम देना ही एक धोखा है क्योंकि यह बड़ी-बड़ी, देशी-विदेशी कंपनियों के उस अनाम मगर बेशर्म चंदे के शिकंजे को, जो लोकतंत्र को खोखला करता जा रहा है, बेनक़ाब करना या तोड़ना तो दूर, ढीला करने के लिए भी कुछ नहीं करता है। यह विधेयक लोगों को एक और उलझाने वाली मुसीबत में डालकर, पहले से ही कम संसाधन वाले प्रशासन पर बोझ बढ़ाएगा और लोगों के जीवन पर नौकरशाही की मनमानी का शिकंजा कसेगा। हमें व्यवस्था की सभी बुराइयों के लिए असहाय लोगों को दोष देने के बजाय बड़ी-बड़ी कंपनियों व धन्ना सेठों से पार्टियों को मिलने वाले चंदे पर नकील कसने और सरकार के कामकाज को जनता के प्रति जवाबदेह व सही मायनों में लोकतांत्रिक बनाने की ज़रूरत है। अब अदालत की ख़ामोशी के रहते लोगों के विरोध की आवाज़ ही लोकतंत्र के ख़िलाफ़ इस संकट से निजात दिला सकती है।

(लेखक फिरोज अहमद सामाजिक कार्यकर्ता हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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