नैतिकता के पैमाने क्या अपनी सुविधा के अनुसार तय होते हैं योर ऑनर?

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“बतौर एक संस्था पारदर्शिता जिसकी पहचान है, उस उच्चतम न्यायालय  में बड़ी ज़िम्मेदारी निभा रहे जजों से इतनी उम्मीद तो की जाती है कि वे किसी केस की सुनवाई से अलग होने की वजह बताएं ताकि लोगों के दिमाग़ में ग़लतफ़हमी न पैदा हो। “नेशनल ज्यूडिशियल एप्वॉयंटमेट्स कमीशन ऐक्ट को असंवैधानिक क़रार देने वाले जजमेंट में जस्टिस जोसेफ़ कुरियन ने जब ये लिखा था तो इसकी उम्मीद कम ही लोगों को रही होगी कि एक दिन उसी उच्चतम न्यायालय में गौतम नवलखा का मामला आएगा और ये सवाल फिर से सबके सामने होगा कि आख़िर जज बिना कोई वजह बताए क्यों सुनवाई से अलग हो रहे हैं। लेकिन आप बताएं क्या उच्चतम न्यायालय के माननीयों ने आज तक बताया कि वे सामजिक कार्यकर्त्ता गौतम नवलखा के मामले में सुनवाई से क्यों अलग हुए? क्या यह नैतिकता के आधार पर किया गया अथवा इस मामले में वास्तविक न्याय होने पर उन्हें किसी अज्ञात शक्ति का भय था ?

मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा के मामले की सुनवाई से एक के बाद एक 5 जजों/3 जजों के ख़ुद को अलग कर लेने से नया सवाल उठ खड़ा हुआ है। अवकाशप्राप्त जस्टिस  मदन बी लोकुर का मानना है कि किसी भी मामले की सुनवाई से किसी न्यायाधीश के ख़ुद को अलग करने की एक प्रक्रिया तय होनी चाहिए। जस्टिस लोकुर ने इसकी वजह बताते हुए कहा कि आजकल इस तरह के मामले बढ़ रहे हैं, इसलिए इसके लिए भी एक नियम होना चाहिए ताकि कोई न्यायाधीश  ख़ुद को किसी मामले से अलग करे तो पीठ में शामिल दूसरे जजों के लिए असहज स्थिति न पैदा हो।

जस्टिस लोकुर की यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट के जज एस रवींद्र भट ने गौतम नवलखा की याचिका पर सुनवाई करने से इनकार करते हुए खुद को उस बेंच से अलग कर लिया, जिसका गठन इस सुनवाई के लिए किया गया था। नवलखा ने भीमा कोरेगांव मामले में ख़ुद के ख़िलाफ़ दायर प्राथमिकी खारिज करने के लिए याचिका दायर की है। उन्होंने याचिका में निजी स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार की रक्षा करने की गुहार लगाई है।

ज्यूडिशियल प्रोपराइटी (न्यायिक मापदंड) के स्टैंडर्ड पहले से बने हुए हैं। वास्तव में न्यायिक नैतिकता का तकाजा है कि किसी भी मामले की सुनवाई  से ख़ुद को अलग करते समय इसकी वजह बताई जानी चाहिए। इसकी एक वजह हितों का टकराव हो सकता है। कई बार जज अतीत में बतौर वकील किसी पार्टी के लिए पैरवी कर चुके होते हैं। अगर जज को किसी क़िस्म का कोई ख़तरा महसूस हो रहा है या किसी केस से किसी तरह का जुड़ाव या मामले से जुड़ी किसी पार्टी से कोई संबंध हो तो इनमें से कोई भी वजह होती है। न्यायाधीशों से ये उम्मीद की जाती है कि अगर वे पार्टी या केस से किसी तरह से जुड़े हुए हैं तो वे इसके बारे में पहले ही बता दें या ख़ुद को मामले से अलग कर लें। इंसाफ़ न केवल होना चाहिए बल्कि होते हुए भी दिखना चाहिए।

चीफ जस्टिस गोगोई सहित  उच्चतम न्यायालय के 5 न्यायाधीशों ने एक्टिविस्ट गौतम नवलखा की जमानत याचिका पर सुनवाई से अपने को अलग कर लिया है। हांलाकि उच्चतम न्यायालय स्पष्ट किया है कि 5 नहीं 3 न्यायाधीशों ने सुनवाई से अपने को अलग कर लिया है। लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि जब वास्तव में उन्हें किसी मामले से स्वयं हटना चाहिए होता है, तब वे हटते नहीं और सम्बन्धित वकील द्वारा हटने का आग्रह करने पर  भी इनकार कर देते हैं। भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में अपने खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द कराने के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा द्वारा दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के सुनवाई से अलग हटने को लेकर किसी भी न्यायाधीश ने ये नहीं बताया है कि वह मामले की सुनवाई क्यों नहीं कर सकता या उसे सुनवाई क्यों नहीं करनी चाहिए।

चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने असम के हिरासत केंद्रों में लोगों को ‘अमानवीय’ परिस्थितियों में रखे जाने के मुद्दे पर एक जनहित याचिका की सुनवाई से भी खुद को अलग करने से इनकार कर दिया था। उन्होंने उन्हें केस से अलग रखने का आग्रह करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर से कहा था कि उनकी याचिका में उच्चतम न्यायालय की संस्था को नुकसान पहुंचाने की भारी क्षमता है  और चीफ जस्टिस के मामले से अलग होने का मतलब होगा संस्था का विध्वंस। यही नहीं चीफ जस्टिस गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने  मामले में याचिकाकर्ता मंदर की जगह उच्चतम न्यायालय कानूनी सेवा प्राधिकरण को मुख्य वादी बना दिया।

इसी मामले की तरह असम में एनआरसी का मामला है और चीफ जस्टिस गोगोई न केवल असम से आते हैं बल्कि उनका परिवार असम का प्रमुख राजनितिक परिवार माना जाता है। ऐसे में इन दोनों मामलों में हितों का टकराव प्रथम दृष्टया बनता हुआ दिखता है। इसमें तो किसी ने उन्हें अलग होने के लिए नहीं कहा पर न्यायिक नैतिकता का सवाल तो उठता ही है।  

जब सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व महिला कर्मचारी ने चीफ जस्टिस गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, तो चीफ जस्टिस ने इस केस की सुनवाई खुद करने का फैसला किया। ऐसा कर उन्होंने खुद को और न्यायपालिका को भी कानून और नैतिकता की दृष्टि से गलत होने के आरोपों का निशाना बना छोड़ा। इस मामले की सुनवाई करने वाली पीठ के मुख्य जज के तौर पर चीफ जस्टिस गोगोई ने कई दावे किए और खुद को एक तरह से क्लीन चिट दे दिया। 

जहां कई मामलों से खुद को अलग करने से इनकार करते हुए चीफ जस्टिस गोगोई ने ‘न्यायपालिका चरमरा जाएगी’ जैसे कारण गिनाए थे, उसी चीफ जस्टिस के गौतम नवलखा मामले की सुनवाई से खुद को अलग करने में ‘संस्था के विनाश’ का खतरा नहीं दिखा। इस बार उन्होंने कोई वजह बताने की ज़रूरत नहीं समझी कि आखिर क्यों वे नवलखा की ज़मानत याचिका की सुनवाई से अलग हो रहे हैं।

एक अन्य मामला इंटरनेशनल सेंटर फॉर अल्टर्नेटिव डिस्प्यूट रिज़ॉल्यूशन (आईसीएडीआर) के केंद्र द्वारा अधिग्रहण का है। इस मामले में आईसीएडीआर के वकील राजीव धवन ने आग्रह किया था कि चीफ जस्टिस गोगोई सुनवाई करने वाली खंडपीठ से अलग हो जाएं क्योंकि वह इस केंद्र के पदेन अध्यक्ष थे। लेकिन सीजेआई गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की खंडपीठ ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि ‘उक्त कथन सही है तो भी, खंडपीठ जो आदेश पारित करने पर विचार कर रही है।  उसके मद्देनज़र हम मौजूदा विशेष अनुमति याचिका पर इस अदालत में विचार किए जाने में कोई बाधा या समस्या नहीं देखते। उसके बाद खंडपीठ ने याचिका को खारिज कर दिया।

चीफ जस्टिस गोगोई के पूर्ववर्ती चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा का भी खुद के मामलों की सुनवाई नहीं करने की न्यायिक मर्यादा का पालन करने में कोई बेहतर रिकॉर्ड नहीं था। वकील प्रशांत भूषण ने चीफ जस्टिस मिश्रा से आग्रह किया था कि वे मेडिकल कॉलेज घोटाला मामले से खुद को अलग कर लें। उस मामले में एक पूर्व जज पर भी आरोप लगाए गए थे और चीफ जस्टिस का खुद का आचरण भी संदेहों के घेरे में था। पर चीफ जस्टिस मिश्रा ने भूषण की अपील को खारिज कर दिया।

इसी तरह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) मामले में सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील फली नरीमन ने तब अगला सीजेआई बनने की कतार में सबसे आगे जस्टिस जगदीश सिंह खेहर से सुनवाई से अलग होने की अपील की थी, क्योंकि वे कॉलेजियम के सदस्य थे। पर सुनवाई करने वाली खंडपीठ ने सर्वसम्मति से याचिका को खारिज कर दिया। जस्टिस खेहर ने स्वयं लिखा कि यदि मैं सुनवाई से खुद को अलग करने के आग्रह को मान लेता हूं तो मैं एक गलत प्रथा शुरू करूंगा, एक गलत मिसाल पेश करूंगा।

कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट में फार्मा कंपनी नोवार्टिस केस पर सुनवाई से पहले जस्टिस मार्कंडेय काटजू और बाद में जस्टिस दलवीर भंडारी ने ख़ुद को अलग कर लिया था। तब नोवार्टिस केस में जस्टिस काटजू के एक पुराने लेख का ज़िक्र आया था, जिसमें उन्होंने बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को उदारता से फार्मा पेटेंट दिए जाने का विरोध किया था। इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन के एक इंटरनेशन कॉन्फ़्रेंस में जस्टिस भंडारी के भाग लेने के कारण उन्हें स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना करना पड़ा था। दरअसल, नोवार्टिस इस एसोसिएशन का हिस्सा था।

(लेखक जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ कानूनी मामलों के जानकार भी हैं।)

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