Sunday, April 28, 2024

विपक्ष के सामने सिर्फ एक ही रास्ता: एकता करो या मिटो!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका व फ्रांस समेत दो-दो विदेश यात्राओं के पंचम स्वर में डंकों की पृष्ठभूमि में देश की मुख्यधारा के करीब दो दर्ज़न विपक्षी दल 17 व 18 जुलाई को बंगलुरु में मिलने जा रहे हैं। सत्तारूढ़ दल के सियासी आतंकी माहौल के बावजूद देश के करीब 16-17 दलों ने संयुक्त रूप से अपनी एकता यात्रा की शुरुआत 23 जून को पटना से की थी। विरोधी दलों के प्रमुख  बत्तीस नेताओं ने एक जाजिम पर- एक कनात तले 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के ख़िलाफ़ एकताबद्ध हो कर चुनाव लड़ने का संकल्प लिया था। पटना बैठक एकता यात्रा का पहला पड़ाव था। अब एकता यात्रा का दूसरा अहम पड़ाव है बंगलुरु बैठक। पटना से आरम्भ इस एकता यात्रा में अब और अधिक विरोधी दलों ने शामिल होने की इच्छा जताई है। यह संख्या 24 तक जा सकती है।

हालांकि आप पार्टी ने शामिल होने के लिए शर्त भी लगा दी है। शर्त पुरानी है। पार्टी के संयोजक व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल चाहते हैं कि उनकी सरकार के विरुद्ध केंद्र के अध्यादेश के संबंध में कांग्रेस अपना निर्णय स्पष्ट करे। पटना की बैठक के अवसर पर भी इस पार्टी ने यही मांग रखी थी। लेख को लिखते समय तक इस पर कांग्रेस ने कोई फैसला नहीं लिया है। केजरीवाल के अड़ियल रवैये के बावज़ूद विपक्ष ने अपनी एकता यात्रा को ज़ारी ही नहीं रखा, बल्कि इसका विस्तार भी किया है। उत्तर व दक्षिण की छोटी-बड़ी पार्टियों और उनके नेताओं को एकता यात्रा में शामिल होने के लिए सफलतापूर्वक तैयार भी किया।

यह बैठक ऐसे नाज़ुक  वक़्त में भी हो रही है जब भाजपा ने देश के वरिष्ठतम नेता शरद पवार को संगठनात्मक आघात पहुंचाया है। उनके भतीजे अजित पवार के नेतृत्व में राष्ट्रवादी कांग्रेस के कुछ विधायकों ने भाजपा से हाथ मिला कर महाराष्ट्र सरकार में मंत्री पद झटक लिए हैं। एक यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि पटना से बंगलुरु की यात्रा-अवधि में कांग्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

पटना बैठक में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुखर भूमिका निभाई थी। लेकिन यात्रा के दूसरे पड़ाव में कांग्रेस नेतृत्व अधिक सक्रिय रहा है। इस दृष्टि से पार्टी अध्यक्ष खड़गे साहब काफी सक्रिय रहे हैं। पार्टी की पूर्व अध्यक्षा सोनिया गांधी भी बंगलुरु-बैठक में मौज़ूद रहेंगी। कर्णाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया विपक्षी नेताओं की मेहमाननवाज़ी करेंगे। वैसे पहले यह बैठक कांग्रेस शासित हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में होने वाली थी। लेकिन कतिपय कारणों से स्थान व तिथियों में परिवर्तन किया गया।

गैर भाजपा दलों के सम्भावी महागठबंधन के सन्दर्भ में इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भाजपा ने भी विगत में गैर कांग्रेस दलों का महागठबंधन बनाया था। भाजपा ने इसकी सफलतापूर्वक कवायद 1998 और 1999 में की थी। नतीज़तन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में दो दफे भाजपा सरकारें बनी थीं। इससे पहले 1989 में कांग्रेस से टूटे विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में गैर कांग्रेस दल एकजुट हुए और चुनावों में कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार को सत्ता से बेदख़ल किया था।

छठे दशक में देश के समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में भी ‘गैर-कांग्रेसवाद’ अभियान चला था। 1967 के चुनावों में कांग्रेस के हाथों से 13 राज्य फिसल गए थे और केंद्र में भी वह लड़खड़ाते हुए अपनी सरकार बचा सकी। वह 283 सीटों पर विजयी रही, लेकिन उसे 78 सीटों का नुकसान भी झेलना पड़ा था। इसलिए मोदी-शाह की जोड़ी के नेतृत्व में भाजपा के विरुद्ध  विपक्ष के गठबंधन का प्रयोग नया नहीं है।

लेकिन पिछली सदी की राजनैतिक स्थितियां बिलकुल भिन्न थी। सार्वजनिक क्षेत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष के मध्य मोटे-तौर पर खेल-नियम तय थे। राजनैतिक नैतिकता को बनाये रखने का ध्यान रखा जाता था। कमर-तले हमलों से बचा जाता था। फेंकूं व गोदी अपसंस्कृति लगभग नहीं थी। प्रधानमंत्री पद की गरिमा हुआ करती थी। राजनीति की लगाम पूंजी की मुट्ठियों में नहीं हुआ करती थी। सारांश में, दोनों पक्ष पूंजीवादी व उदारवादी लोकतंत्र की रक्षा के प्रति सचेत थे। दोनों ही पक्षों के नेता कम-अधिक संवैधानिक संस्थाओं और पदों के प्रति संवेदनशील हुआ करते थे। 

देश की लोकतंत्र यात्रा में 1975 का आपातकाल ज़रूर अपवाद रहा है। लेकिन 1977 में जनता पार्टी शासन में लोकतंत्र पटरी पर आ गया था। पर इस दौर में अघोषित आपातकाल व सेंसरशिप का माहौल है। देश में निर्वाचित तानाशाही का एहसाह होने लगता है। सब-कुछ उलट चुका है। इस परिदृश्य में विपक्ष के लिए महागठबंधन की ईमारत की ईंटें रखना भी किसी महा चुनौती से कम नहीं है।

अतः जहां महाराष्ट्र में भाजपा की दल-बदल हरक़तों से विपक्ष को झटका लगा है, वहीं पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव परिणामों से केंद्र के सत्तारूढ़ दल को भी ज़बर्दस्त झटका लगा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस से भाजपा को अकल्पनीय शिकस्त मिली है। इस पृष्ठभूमि में विरोधी दलों का एक मंच पर मिलना और भाजपा के विरुद्ध गोलबंद होकर चुनाव लड़ना अकस्मात नहीं हो रहा है। यह लम्बे विचार विमर्श के सिलसिले का परिणाम है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पहले कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही। जब वह इसमें पूरी तरह से सफल नहीं हो सकी तब उसने ‘विपक्ष मुक्त’ माहौल बनाने की कोशिशें शुरू की।

कांग्रेस समेत विरोधी दलों के इर्द-गिर्द सरकारी संस्थाओं- ईडी, सीबीआई आदि के भय का वातावरण बनाया गया। नेताओं के यहां छापेमारी की गई। विभिन्न कानूनी प्रावधानों के तहत नेताओं-मंत्रियों को जेलों में ठूंसा भी गया। महाराष्ट्र की गैर-भाजपा सरकार में दल-बदल कराकर उसके स्थान पर भाजपा नेतृत्व की सरकार क़ायम की गई। इससे पहले दूसरे राज्यों में भी भाजपा अपने लोकतंत्र विरोधी करतबों का प्रदर्शन कर चुकी है। लेकिन, भाजपा के ‘डबल इंजन’ की छुक-छुक पहले कर्नाटक के चुनावों में ख़ामोश हुई। अब मणिपुर के हिंसा-वातावरण में यह इंजन ही पटरी से उतर चुका है। ज़ाहिर है, भाजपा की केंद्रीय सरकार व राज्य सरकार के समक्ष ज़बर्दस्त राजनैतिक व प्रशासकीय चुनौती खड़ी हो गई है।

याद यह भी रखना होगा कि पिछले नौ वर्षी मोदी राज में परम्परागत शासन शैली में कई आधारभूत परिवर्तन हुए हैं। धर्म का ज़म  कर दोहन हुआ है। समाज का ध्रुवीकरण तेज़ रफ़्तार से चला है। अतः विपक्षी महागठबंधन के सामने भाजपा को हराने की ही चुनौती नहीं है, बल्कि देश के सामाजिक व सांस्कृतिक ताने-बाने को जोड़ने और राजनैतिक व्यवस्था और शासन प्रबंध को फिर से पटरी पर लाने की भी महाचुनौती रहेगी। यह सही है, राजनीति सम्भावना + आशंका का खेल है। लेकिन इस खेल का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति ही नहीं होना चाहिए। इस खेल के माध्यम से देश के वर्तमान निर्वाचित अधिनायकवादी वातावरण में गुणात्मक परिवर्तन भी लाया जाना चाहिए।

इसलिए यह ज़रूरी है कि एकता के दूसरे पड़ाव में विरोधी दलों के नेताओं को दूरगामी समझदारी और उदारता का परिचय देना होगा। इस बात को भी याद रखना होगा कि अगले तीन-चार महीनों में हिंदी पट्टी के तीन प्रमुख प्रदेशों (राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) के विधानसभा चुनाव होंगे। इन तीन प्रदेशों में से दो प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारें हैं और मध्य प्रदेश में दल-बदल द्वारा स्थापित भाजपा की सरकार है।

याद रहे, 2018 में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन, तत्कालीन कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में बीस से अधिक कांग्रेस विधायकों ने दल-बदल किया था। फलस्वरूप कांग्रेस की कमलनाथ सरकार का पतन हो गया और  शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा सरकार अस्तित्व में आई।

इसलिए, 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले तीनों राज्यों के चुनावों में ‘विपक्षी एकता, ईमानदारी और लोकतंत्र व संविधान के प्रति प्रतिबद्धता’ की अग्नि परीक्षा होगी। तीनों ही राज्यों में मुख्यरूप से कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने हैं। वैसे छोटे-मोटे तीन-चार गैर-भाजपा दल भी हैं।

बेशक़, भाजपा हिंदुत्व का कार्ड खेलेगी और प्रधानमंत्री के चेहरे पर चुनाव लड़ेगी। डबल इंजन का नारा फिर से उछाला जायेगा। मोदी-शाह जोड़ी रोड शो करेगी। आप पार्टी भी अपनी क़िस्मत आजमाएगी। गोवा व गुजरात में यह अपने करतब दिखा चुकी है। दिल्ली के साथ साथ पंजाब में भी इसकी सरकार है। इसलिए इसके मंसूबों को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए। प्रदेश चुनावों में गैर भाजपा वोटों का बिखराव न हो, इसकी हरचंद कोशिश होनी चाहिए।

बंगलुरु बैठक में कुछ बुनियादी बातों पर जरूर फैसले लिये जाने चाहिए। मसलन, 1. साझा न्यून्तम कार्यक्रम, 2. वोट विभाजन की रोकथाम और परस्पर लचीले रुख को प्रोत्साहन, 3. भाजपा के विरुद्ध साझा उम्मीदवार खड़ा करने की कसौटियां, 4. नेताओं द्वारा साझा प्रचार मंच, 5. साझा घोषणापत्र, 6. तर्कसंगत यथार्थवादी वादे, 7. रचनात्मक कार्यक्रमों पर ज़ोर, 8. जनता के सामने भाजपा के ध्रुवीकरण नैरेटिव के समानांतर वैकल्पिक सकारात्मक नैरेटिव को रखना, 9. दलों के विभिन्न झंडों के अलावा विपक्ष के साझा परचम पर भी चिंतन, 10. साफ़-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों को टिकट देना और 11. नेताओं को अपनी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाना।

भारत की लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक व्यवस्था की दृष्टि से अगले वर्ष के आम चुनाव बेहद निर्णायक माने जा रहे हैं। विपक्षी दलों की थोड़ी सी असावधानी, हठधर्मिता और प्रभुत्ववादी संकीर्णता देश की जनता के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकती है। यध्यपि, आगामी बैठक में सभी सवालों का जवाब मिल जाएगा, ऐसा सोचना भी महागठबंधन के सूत्रधारों के साथ नाइंसाफी होगी। चुनाव तक कई औपचारिक व अनौपचारिक बैठकों के दौर चलेंगे। कुछ विपक्षी साथी टूटेंगे, नए साथी जुड़ेंगे भी। लेकिन एक आम धारण यह बनी हुई है कि यदि आगामी आम चुनावों में कट्टरवादी सियासी ताक़तें जीतती हैं तो बड़े व्यापक स्तर पर संवैधानिक परिवर्तनों की आशंकाएं निरंतर बनी रहेगी। धारणा यह भी है कि शायद वर्तमान रूप में 2024 के चुनाव अंतिम रहें।

याद रखना होगा कि भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी आयु के सौ वर्ष 2025 पूरा करेगा। ज़ाहिर है वह इस अवसर पर अपने राजनीतिक शस्त्र (भाजपा) के माध्यम से पूर्व घोषित एजेंडे को सम्पूर्ण रूप से लागू करने की भी कोशिश करेगा। अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण भी पूरा हो जाएगा। संघ और भाजपा विश्व गुरु, अखंड भारत, हिन्दू राष्ट्र और हिंदुत्व की जयघोष यात्रा पर और अधिक आक्रामकता के साथ निकल पड़ेंगे।

यदि ऐसा होता है तो उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय लोकतंत्र की अवसान यात्रा भी शुरू हो जायेगी। भारतीय राष्ट्र राज्य का परम्परागत चरित्र पूरी तरह से बदल जायेगा। ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ की अकाल मृत्यु हो जायेगी। इतिहास में देश के विपक्षी नेता ही इसके महा अपराधी के रूप में दर्ज़ होंगे। इसीलिए, जनता की नज़रें बंगलुरु बैठक के परिणामों पर गहनता के साथ गड़ी हुई हैं।

‘भारत के विचार’ की रक्षा के लिए महागठबंधन के पास सकारात्मक भूमिका निभाने के अलावा कोई अन्य विकल्प शेष नहीं रह गया है: गैर-भाजपा विपक्षी दलों के सामने जेन्युइन महागठबंधन के लिए ‘एकता करो या मिटो’ में से किसी एक के चुनाव का रास्ता ही खुला हुआ है।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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