Saturday, April 27, 2024

कॉर्पोरेट पूंजी के हित में पीएम मोदी का संवैधानिक मूल्यों एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला

कुछ दिन पहले पाकिस्तान के मशहूर प्रगतिशील शायर अहमद फराज का एक पुराना साक्षात्कार देख रहा था। उस साक्षात्कार में फराज शाहब कहते हैं कि संभवतः (जगह मुझे ठीक से याद नहीं है) लाहौर एक मुशायरे में शिरकत करने आए थे। मुशायरे के बाद जब वह होटल वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि लाबी में सेना और स्थानीय पुलिस के अफसरान खड़े हैं। जब वह रिसेप्शन की तरफ बढ़े तो एक अधिकारी पीछे से आया। उसने सलाम करते हुए कहा सर आपसे साहब कुछ बात करना चाहते हैं। वे पीछे मुड़े तो देखा कि सेना और स्थानीय पुलिस के अधिकारियों का एक झुंड खड़ा है। सबसे सीनियर अफसर ने कहा कि सर आपसे कुछ बात करनी है। उन्होंने सोचा कि लॉबी में खड़ा होकर बात करने से गलत संदेश जाएगा, लोग समझेंगे कि कोई अवांछनीय या संदिग्ध व्यक्ति है। जिसके लिए इतने अधिकारी एक साथ आए हैं।

फराज ने कहा कि मैं कमरे में चल रहा हूं वहीं आप लोग आ जाइए और वहीं बात करते हैं। वे कमरे में पहुंचते हैं और तीन अधिकारी उनके कमरे में आते हैं। वे कहते हैं कि सर आपसे से जियाउल हक साहब मिलना चाहते हैं। आप सुबह 5 बजे तैयार हो सकते हैं। इन्होंने कहा अभी तो मैं थका हुआ आ रहा हूं। रात के 1:00 बजे है। मैं सुबह 6:00 के बाद तैयार हो जाऊंगा। उन्होंने पूछा क्या कोई खास बात है। ज़बाब था सर वहां पहुंचने पर ही मालूम होगा कि आपसे जनरल साहब क्या बात करना चाहते हैं। इसके बाद अधिकारी चले गये। फराज‌ साहब ने रिसेप्शन पर फोन करके पूछा क्या वे लोग जा चुके हैं। पता चला कि नहीं सभी यहां लाइन में बैठे हैं और दो आपके कमरे के सामने ड्यूटी दे रहे हैं।

सुबह 5:00 बजे उनके दरवाजे पर दस्तक हुई। उन्होंने कहा अभी मैं सो रहा हूं 5:30 बजे के बाद  मैं उठूंगा। फ्रेश होऊंगा और चाय काफी करके ही मैं चल सकता हूं। अधिकारियों ने अनुरोध किया है सर आप 6  बजे तक अवश्य तैयार हो जाइए। खैर वे 6 बजे तक तैयार होकर निकले और उन्हें गाड़ी में रावलपिंडी सीधे में जनरल जिया उल हक के चैंबर में ले जाया गया। वहां जिया के अधीनस्थ सेना के कई अधिकारी और अन्य बड़े अपसरान मौजूद थे। जनरल जिया उल हक ने गर्म जोशी से उनका स्वागत किया। इधर-उधर की बातें होती रही। चाय कॉफी मिठाइयां खूब चली और उन्होंने ठीक-ठाक नाश्ता कर लिया।

जनरल जिया उल हक जुल्फिकार अली भुट्टो की तारीफ में कसीदे पढ़े जा रहे हैं। जिया उल हक साहब का कहना था कि जुल्फिकार अली भुट्टो स्वप्नदर्शी व्यक्ति हैं। उनके पास पाकिस्तान को आगे ले जाने का बेहतरीन विजन और दृष्टि है। पाकिस्तान की तारीख में पहली बार एक महान दृष्टि संपन्न नेता पाकिस्तान‌ को मिला है। वह प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की तारीफ के पुल बांधे जा रहे थे। जैसे लगता हो कि भुट्टो साहब की योग्यता और क्षमता के वे मुरीद हो गए हों। वह भुट्टो के पक्के वफादार और बड़े अनुयाई होने का बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे थे है।

जनरल जिया उल हक के अनुसार कायदे आजम जिन्ना से भी महान लीडर जुल्फिकार अली भुट्टो हैं। जिया साहब ने प्रधानमंत्री भुट्टो के लिए “ग्रेट विजनरी मैंन ऑफ द पाकिस्तानी हिस्ट्री” शब्द का प्रयोग किया। लगातार भुट्टो की प्रशंसा किया जाना फ़राज़ साहब के समझ में नहीं आ रहा था। खैर अंत में उन्होंने कहा कि बताइए मुझसे मिलने की तकलीफ आपने क्यों उठाई। जनरल जिया तब भी मुस्कुराते रहे और इधर-उधर की बातें करते हुए उनकी प्रशंसा करते रहे। इतने में खुफिया विभाग का अधिकारी आया और उसने फराज साहब से कहा कि सर आप अब पाकिस्तान में नहीं रह सकते। आप विदेश चले जाइए जहां आपकी इच्छा हो। यह लंदन का टिकट है आप चाहे तो वहां जा सकते हैं। वह आश्चर्यचकित थे। उन्होंने जिया उल हक से पूछा कि मुझसे ऐसी क्या परेशानी है कि मैं अपने मुल्क में नहीं रह सकता। मैं यहां का शहरी हूं और मुझे क्यों देश से निकाल जा रहा है?

इसके बाद जनरल जिया उल हक ने जो बात कही वह बहुत ही गंभीर है। उससे दुनिया भर के तरक्कीपसंद और सभी को न्याय चाहने वाले सेकुलर लोकतांत्रिक और जनपक्षधर व्यक्तियों नेताओं संगठनों को अवश्य सबक लेना चाहिए।

जनरल जिया की टिप्पणी थी कि रोटी-रोजी और जिंदगी किसी तरह से गुजारने, सड़क गलियों व‌ आफिसों में काम करने वालों से मुझे और मुल्क को कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत आप जैसे बुद्धिजीवियों, सचेत नागरिकों और समाज के प्रति प्रतिबद्ध लोगों से है। हमें डर आप जैसे बुद्धिजीवियों व प्रगतिशील सोच वाले लेखकों- कलाकारों और व्यक्तियों से हैं। बाकी उन लोगों से नहीं जो किसी तरह से जिंदगी जी लेने की जुगाड़ में लगे हैं। इसलिए कृपया आप इस आदेश का पालन कीजिए। फराज साहब थोड़ी सी चिंता में पड़ गए। लंदन में तो कोई परिचित भी नहीं है। कहां जाएंगे। खैर उस समय उन्हें ख्याल आया कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ बेवतन किये जाने के बाद इस समय लंदन में है। यह सोचकर उन्हें थोड़ा तसल्ली मिली।

भारत में आप प्रो. कलवुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पंसारे, गौरी लंकेश और भीमा कोरेगांव के आनंद तेलतुम्बड़े से लेकर गौतम नौलखा जैसे लोगों का हस्र और सैकड़ों बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों को उत्पीड़ित कर जेल में डालने जैसी घटनाओं के संदर्भ आप इस छोटी सी कहानी से समझ सकते हैं।

फराज साहब ने आगे कहा कि पाकिस्तान से लंदन पहुंचने के कुछ ही दिन बाद खबर आई कि जनरल जिया उल हक ने जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्तापलट कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया है। फराज साहब हैरान थे कि यह वही जिया उल हक हैं जो जुल्फिकार अली भुट्टो के व्यक्तित्व की गरिमा में कसीदे पढ़े जा रहे थे। ऐसा लगता था कि वे भुट्टो साहब को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ नेताओं की श्रेणी में रख रहे हों और उनके लिए किसी हद तक जाने के लिए तैयार हो। यह दोगलापन देखकर वह हैरान थे। भूट्टो‌ को सत्ता से अपदस्त करने के बाद जिया उल हक मजहब कि शरण में चले गए। जिससे अपने सैनिक शासन को वैधता प्रदान कर सकें। साम्राज्यवादी दौर में पूंजी के जर खरीद गुलाम  नेता इसी दोगलेपन के बल पर ही तो दुनिया पर राज कर रहे हैं।

विश्व साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के क्रूरतम रक्षक तानाशाहों की प्रवृत्ति और फितरत एक जैसी होती है। इसलिए उनकी कथनी और करनी में साम्यता तलाशना स्वयं को धोखे में रखना होगा। वाणी और वचन के ठीक विपरीत आचरण करना उनकी वर्गीय प्रवृत्ति होती है। भारत में इसके सबसे सटीक प्रतिनिधि के रूप में हम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को देख सकते हैं। जिसका आचरण उसकी प्रतिज्ञा, संकल्प, वचन और घोषणा के ठीक विपरीत होता है। जैसे उसका कहना कि वह एक सांस्कृतिक संगठन है और राजनीति से कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन हम जानते हैं कि भारत में नकारात्मक और विभाजनकारी राजनीति का एकमात्र केंद्र संघ ही है। इसको समझने के लिए हमें संघ द्वारा संचालित भाजपा सरकार के कारनामे को समझना होगा।

कुछ दिन पहले भारत के प्रधानमंत्री हरियाणा में थे और वहां उन्होंने मनोहर लाल खट्टर के साथ अपने पुराने संबंधों की खूब चर्चा की। कैसे जब हरियाणा आते थे तो खट्टर साहब की मोटरसाइकिल पर बैठकर हरियाणा का भ्रमण किया करते थे। एक साथ चटाई पर सोना खाना और रहना उनकी दिनचर्या हुआ करती थी। किसे पता था कि आत्मीयता के इस प्रदर्शन के पीछे खट्टर की सत्ता से विदाई की स्क्रिप्ट लिखी जा रही थी।

अब आप समझ सकते हैं कि चौकीदार प्रधान सेवक, फकीर, भिक्षाटन और जनता की जिंदगी को बेहतर बनाने की गारंटी के अर्थ किस तरह से सत्ता के परकोटा पर पहुंचते ही बदल जाया करते हैं। लुभावनी भाषा की आड़ लेकर सत्ता की कुर्सी पर बैठने वालों के चरित्र के अंदर छिपे दोहरेपन को समझने के लिए हमें आरएसएस और भाजपा के नेतृत्व और संगठन के क्रियाकलाप को समझना ही काफी होगा। देश, संस्कृति-समाज के गौरव को पुनर्स्थापित करने तथा विकास की आंधी बहा देने के दावे की आड़ में कुछ मित्र कॉर्पोरेट घराने दुनिया के सबसे ताकतवर धन्ना सेठों में बदल जाते हैं।

पहली बार चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री मोदी जब संसद की सीढ़ियां चढ़ रहे थे तो उनके द्वारा किए गए शानदार ड्रामे को पूरी दुनिया ने देखा था। वे संसद की सीढ़ियों पर अपना माथा टेककर दुनिया को दिखाना चाहते थे कि संसद जो “लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था है” उनकी निगाह में सर्वोच्च और सम्मानजनक व पवित्र है। लेकिन उनके 10 वर्ष के कार्यकाल में संसद और संसदीय परंपराओं का जिस तरह से अनादर,अवहेलना, अवमूल्यन करते हुए उसे खोखला किया गया है, यह उस‌ पाखंडी प्रदर्शन की स्वाभाविक परिणीति है, जो उन्होंने संसद की सीढ़ियों पर माथा टेककर प्रदर्शित किया था।

आज संसद अपनी गरिमा खोकर कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के क्रूर स्वार्थों की हिफाजत करने वाली संस्था में बदल दी गई है। जहां से लोकतंत्र के एक-एक रेशे को खंडित करने का प्रयास संसदीय बहुमत के बुलडोजर द्वारा किया जा रहा है। साथ ही सांसद देश में विपक्ष की आवाज को दबाने कुचलने वाले हथियार में‌ बदल गई है। जिसका प्रयोग कर नागरिकों संवैधानिक अधिकारों और संविधान की आत्मा को ही कुचलना की हर संभव कोशिश जारी है।

ठीक उसी तरह जब दोबारा मोदी जी जीत कर आए तो संसद के हाल में रखी हुई संविधान की मूल प्रति के समक्ष नतमस्तक हुए थे। उसी समय बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों ने कहना शुरू कर दिया था कि अब संविधान की बारी है। विगत 5 वर्षों में संविधान की मूल आत्मा को कमजोर करते हुए इतने तरह के अमेंडमेंट कर दिए गए हैं कि हमारा लोकतंत्र अब वस्तुतः एक फासीवादी तंत्र में बदलने की मंजिल पर पहुंच गया है।

अब तो मोदी द्वारा 2024 के महान निर्वाचन द्वारा संविधान बदलने के लिए 400 सीटों की मांग जनता से की जा रही है। (संघ के प्रशिक्षित स्वयंसेवक अनंत हेगड़े का बयान)। वैसे ही संविधान की मूल लोकतांत्रिक आत्मा को संवैधानिक रास्ते से ही कुशलते हुए इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी कायम करने में संसद का खूबसूरती से इस्तेमाल हो‌ चुका है। सीआरपीसी, आईपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में जो संशोधन विपक्ष की अनुपस्थिति में किए गए हैं वे नागरिकों के अधिकारों के खात्में की घोषणा है।

इस समय पूंजीवादी लोकतांत्रिक दुनिया में दक्षिणपंथी विचारों की आधी चल रही है। जिससे तानाशाहों की एक पूरी जमात दुनिया के राजनीतिक क्षितिज पर तेजी से उभरी है। जिन्होंने बहुत से स्थापित डेमोक्रेसिओं को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हाल में ही दुनिया के सबसे ताकतवर जनतंत्र कहे जाने वाले अमेरिका में ट्रंप जैसे तानाशाहों का अभ्युदय निश्चित ही प्रेक्षकों से गंभीर विश्लेषण की मांग करता है।

चुनाव हार जाने के बाद भी ट्रंप अभी भी अमेरिका के सबसे पिछड़े राज्यों में लोकप्रिय नेता बने हुए है। हो सकता है आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में वह दोबारा जीत कर अमेरिका के सर्वोच्च नागरिक बन जाए और अमेरिकी लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट कर निर्मम कॉर्पोरेट पूंजी की तानाशाही कायम करने में कामयाब हो जायें। अमेरिकी नेतृत्व की यह घोषणा की दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र है। हवा-हवाई साबित होने जा रही है।

अभी दो दिन पहले पुर्तगाल में भी इतिहास अपने को दोहराया है। यूरोप के कई लोकतांत्रिक देश तानाशाहों की ताजपोशी के लिए लगभग तैयार सा दिखाई दे रहे हैं। जिसमें फ्रांस और जर्मनी इस स्थिति के बहुत निकट हैं। हमें इस दौर के पूंजीवाद के संकट को अवश्य समझना चाहिए। यह स्पष्ट है कि जब तक दुनिया में साम्राज्यवाद रहेगा युद्ध और तनाव जारी रहेगा। क्योंकि वित्तीय पूंजी विध्वंस और युद्ध के बिना जीवित नहीं रह सकती है।

रूस-यूक्रेन युद्ध का लंबा खिंचना तथा स्वेज नहर क्षेत्र में फिलिस्तीनी कौम और राष्ट्र को दुनिया के नक्शे से मिटा देने के लिए इजरायल द्वारा किए जा रहे नरसंहार में शायद संकटग्रस्त वित्तीय पूंजी अपनी जीवनी शक्ति तलाश रहा है। विश्व पटल पर पेंटागन अपनी दानवी युद्ध क्षमता के द्वारा शांति-सद्भावना, लोकतंत्र, मानवाधिकार और राष्ट्रों की संप्रभुता का दावा जिस तरह से करता रहा है आज फिलिस्तीन की धरती पर अमेरिका और यूरोपीय देशों के पाखंड‌‌ की पोल खुल गई है। ये तथाकथित लोकतांत्रिक देश वस्तुतः पूंजी की (बहुराष्ट्रीय निगमों) तानाशाही के अलावा और कुछ नहीं है।

सोवियत संघ के विघटन के बाद इतिहास के अंत और पूंजीवाद को सभ्यता के विकास की सर्वोच्च मंजिल कहने वाले लोग आज बगले झांक रहे हैं। पूंजीवादी जनतंत्र की शाश्वतता का ऐलान करने वाला अनैतिहासिक पाखंड क्या अब स्वयं अपने अंत की प्रतीक्षा कर रहा है। 90 वर्ष पहले पूंजीवाद के गर्व से निकले हुए नाजी और फांसीवादी विचारों के विध्वंसक अनुभव से गुजरने के बाद स्वयं पूंजीवाद हजारों तरह की कसम खा चुका था कि वह दुनिया में ऐसे तानाशाहों को विकसित होने का मौका नहीं देगा।

लेकिन ऐसा लगता है कि कॉर्पोरेट पूंजी के नियंत्रण के इस दौर में पूंजीवाद ने अपने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा है। वह स्वयं के लिए स्वयं के ही हाथों नए किस्म के फासिस्ट तानाशाहों, धर्म ध्वजाधारियों, पाखंडियों की जमात को संरक्षण देने मे जुटा है और उन्हें पाल-पोस कर ताकतवर बना रहा है। जिससे वह घटते मुनाफे सिकुड़ते बाजार के संकट से अपने को उबार सकें और  मानव श्रम की लूट को सुनिश्चित करने के लिए स्थाई निरंकुश राजनीतिक ढांचे का निर्माण कर सके। इसलिए 1930 के दशक के इतिहास को दोहराते हुए वह दुनिया के अनेक इलाकों में फासिस्ट तानाशाही को प्रश्रय दे रहा है। ‌यानी अपने ही इतिहास के सबसे क्रूर और अमानवीय विध्वंसक अनुभवों को दोहराने के लिए तैयार है।

विगत 30 वर्षों से हम भारत के लोग एक ऐसे विनाशकारी वैचारिक संगठन के उभार से जूझ रहे हैं जो हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के 200 वर्षों के इतिहास को नकारते हुए आजादी के बाद बने लोकतांत्रिक ढांचे को निगल जाने पर आमदा है। लोकतंत्र के अंदर से विकसित होती हुई भारत की तानाशाही दुनिया के लिए एक नए तरह का सबक है। जिसने लोकतंत्र संविधान और विकास का नाम लेकर हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को अंदर से खोखला कर उन पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया। आज भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएं और 140 करोड़ जन गण इस विकराल संकट से जूझ रहे हैं।

हम एक बिल्कुल भिन्न तरह के वैचारिक संगठन के बहु प्रणाली सिस्टम से जूझ रहे है। जो मूलतः अल्पसंख्यकों के खिलाफ केंद्रित होते हुए भी भारतीय जाति व्यवस्था से अपनी जीवनी शक्ति ग्रहण करता है। चूंकि भारतीय जाति व्यवस्था अपने में ही एक गैर बराबरी मूलक तानाशाही लिए हुए सामाजिक दमन और विभाजन पर खड़ी है। इसलिए भारतीय मार्का फासीवाद का चरित्र सर्वथा भिन्न है।

9 दशक से चलाए गए विभाजनकारी अनैतिहासिक पाखंडी अभियान के द्वारा भारत की विविधता को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करते हुए विध्वंसक अभियान चलाकर बड़ी सफलता हासिल कर ली है। 90 के दशक की शुरुआत में इसने लोकतंत्र और संवैधानिक नियमों के पालन की दुहाई देते हुए अंततः उन्मादी भीड़ तंत्र‌ को खड़ा कर सभी तरह के लोकतांत्रिक मूल्य और संस्थाओं को ध्वस्त करते हुए बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर  भारतीय राज्य के संपूर्ण ढांचे पर अपना दहशत भरा चिन्ह चस्पा कर दिया था।

वर्ण व्यवस्था के दमनकारी तंत्र का प्रयोग करते हुए अंत में 21वीं सदी में कॉर्पोरेट पूंजी के साथ गठबंधन कायम कर लिया है। भारतीय लोकतंत्र के ढांचे में धर्म, पूंजी और भीड़ तंत्र के संयुक्त तंत्र के घाल मेल द्वारा एक ऐसा गठजोड़ कायम हुआ है जो क्रूर, अवैज्ञानिक, अमानवीय, अलोकतांत्रिक और पाखंडी है। इसलिए यह लगातार 75 वर्षों में निर्मित हुए भारत के सभी संस्थानों जैसे (रेल, भेल, सेल, गेल, एयरलाइन, दूरसंचार, बिजली वितरण उत्पादन, हवाई अड्डे, बंदरगाह, सैनिक साज-सामान के उत्पादन वितरण, शिक्षा, स्वास्थ, इंजीनियरिंग के संस्थान तथा खनिज और प्राकृतिक संपदा) विकास और कल्याणकारी तंत्र तथा संवैधानिक ढांचे लोकतांत्रिक संस्थाओं को निगलता जा रहा है।

हमारा देश 10 वर्ष से एक ऐसी पार्टी और उसके नेतृत्व से जूझ रहा है जो पाखंड को गौरवान्वित करता है और दोहरे चरित्र का केंद्र है। 2014 में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, महिलाओं की इज्जत, काला धन और देश के गौरव को ऊंचा उठाने की कसम खाते हुए सत्ता की सीढ़ियां चढ़ा। कॉर्पोरेट पूंजी की ताकत और कॉर्पोरेट नियंत्रित मीडिया के धुआंधार प्रचार से बने आभामंडल के द्वारा भारत की जनता के मन मस्तिष्क को हिप्नोटाइज करते हुए सत्ता पर पहुंच गया।

लेकिन सरकार बनाने के बाद पिछले 10 वर्षों में उसके द्वारा किए आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक अपराध आज धीरे-धीरे मवाद की तरह से भारतीय लोकतंत्र की शिराओं और धमनियों से बाहर आने लगा है। लोकतंत्र की सभी नियामक संस्थाओं के मुहाने पर लगे लौह कर्टन के बाद भी ज्वालामुखी की तरह से बन रहे अपराधों के गुबार का वेग इतना तीखा है कि जबरदस्त पहरेदारी के बावजूद जगह-जगह फूटकर निकालने के लिए मजबूर है। न्यायपालिका से लेकर चुनावी मशीनरी तक उसके द्वारा दबाये और सताए गए लोगों की एक ऐसी जमात है जो न चाहते हुए भी निष्क्रिय या‌ सक्रिय प्रतिरोध के लिए मजबूर हो चुकी है।

पारदर्शिता, भ्रष्टाचार मुक्त विकसित समाज के सारे दावे हवा-हवाई हो चुके हैं। शब्दों की बाजीगरी तो कोई इनसे सीखे।जब देश रसातल की तरफ जा रहा था। महामारी में कीड़े मकोड़े की तरह लोग मर रहे थे तो यह अमृत काल की बांसुरी बजा रहे थे। लोकतंत्र उनकी जीवन शैली है और लोकतंत्र जीते हैं, ओढते -बिछाते है। जाति विभाजित समाज में ऐसा दावा कोई बेशर्म तानाशाह ही कर सकता हैं। जहां 10-10 वर्षों से लोग बिना मुकदमा चलाएं और अकारण जेल में सड़ाये जा रहे हो और हत्यारे खुले आम सड़कों पर घूम रहे हो।

महिला उत्पीड़न के सवाल पर 156 देश में हमारा देश 146वें स्थान पर है। इस समय जब मणिपुर की नृशंस घटना को पूरी दुनिया ने अपने आंखों से देखा हो तो भारत का प्रधानमंत्री मंच से किस साहस के साथ यह कह रहा है कि मैं मातृशक्ति के लिए अपनी जिंदगी की बाजी लगा दूंगा। जिस महिला पहलवान को प्रधानमंत्री ने अपने घर का बताया हो, जब वह अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के लिए सड़कों पर उतरी तो एक शब्द भी प्रधानमंत्री के मुंह से नहीं फूटा।

इसके बाद आप खुद समझिए कि जिया उल हक सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं होते। हमारे जैसे इस महान मुल्क में भी हो सकते है। देश को लूटने और लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट करने के बावजूद मोदी जी 2047 तक भारत को दुनिया के सबसे विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में ले जाने का स्वप्न दिखा रहे हैं, आश्चर्य है। विश्व गुरु और विश्व नेता होने की बात कहने का बेशर्मी भरा साहस कौन लोग कर सकते हैं। शायद ही दुनिया में कोई देश ऐसा दावा करने की हिम्मत जुटा पाए और दुनिया में कोई ऐसा नेता, संगठन, पार्टी हो जो इस तरह के बकवास भरे दावे को उछालने की हिम्मत कर सके।

राजशाही यानी सामंती प्रणाली को पराजित कर पूंजीवाद ने अपनी सत्ता कायम की है। हजारों तरह के पिछड़ेपन और असमानता के बावजूद राजाओं में एक नैतिकता होती थी। जहां कहा जाता था कि “प्राण जाए पर वचन न जाई”। लेकिन रामराज्य की दुहाई देते हुए भारतीय शासक वर्ग कितना पाखंडी, धूर्त और क्रूर हो सकता है। यह हमने अपने अनुभव से देखा है। प्रसन्नता की बात है कि 10 वर्षों में भारतीय जन गण के बीच में इस चेतना ने जन्म ले लिया है कि संघ और भाजपा (खासकर मोदीजी) का आभामंडल झूठ, प्रपंच, घृणा, पाखंड, षड्यंत्र और नफरत के घालमेल से निर्मित हुआ है। इलेक्टोरल बांड के असंवैधानिक और अनैतिक होने के बाद मोदी का कॉर्पोरेट मीडिया और जनता के धन के दुरुपयोग से प्रचार द्वारा खड़ा किया गया ईमानदारी का गुब्बारा फूट गया है।

सच कहा था मार्क्स ने इतिहास में जो एक बार नायक बनकर आते हैं। अगर वे उसे दोहराने की कोशिश करते हैं तो अंततोवागत्ता वे विदूषक बनकर ही विदा लेते हैं। लगता है भारत में इतिहास इसे दोहराने जा रहा है। 

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता हैं।)

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