Friday, April 19, 2024

डॉ. पीएन सिंह: बौद्धिक आकाश को नया क्षितिज देने वाला अलहदा तारा

डॉ.परमानंद सिंह यानी पीएन सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। उनके जाने से सचमुच शदीद रंज-ओ-मलाल है। वे आला मार्क्सवादी नक़्क़ाद और बेहद ज़हीन दानिशवर थे। समूचे हिंदी साहित्यिक एवं एकेडमिक जगत में उनकी आर्गेनिक जनबुद्धिजीवी के तौर पर पहचान थी। मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स से लेकर क्रिस्टोफ़र कॉडवेल, लुइस अल्थुसर, अंतोनियो ग्राम्शी, एडवर्ड सईद, टेरी ईगलटन, रेमंड विलियम्स, जॉर्ज लुकाच, बर्तोल्त ब्रेख्त, माइकल फूको और ज़ाक देरिदा जैसे पश्चिमी मार्क्सवादी विचारकों का उन्होंने गहन अध्ययन किया था। जो कि उनके लेखन और वक्तव्यों में भी झलकता था। डॉ. पीएन सिंह ने बेशुमार लेखन किया। गुज़िश्ता तीन-चार सालों में ही उनकी कई किताबें शाया हुई थीं।

इसी महीने की 1 जुलाई को गजेन्द्र पाठक के संपादन में दो खंडों में ‘पीएन सिंह रचनावली’ का विमोचन हुआ था। उनकी लिखी कुछ अहमतरीन किताबें हैं, ‘साहित्य, विचारधारा और संस्कृति’, ‘रामविलास शर्मा और हिंदी जाति’, ‘नामवर: संदर्भ और विमर्श’, ‘अम्बेडकर, प्रेमचंद और दलित समाज’, ‘संस्कृति का विवेक’, ‘विमर्श केंद्रित साहित्य और हिंदी आलोचना’,’हिंदी दलित साहित्य संवेदना और विमर्श’, ‘लिटरेरी थ्योरी एंड क्रिटिसिज्म’, ‘गांधी, अम्बेडकर और लोहिया’,’अम्बेडकर चिंतन और दलित साहित्य’। उन्होंने तीन दशक से ज़्यादा समय तक ‘समकालीन सोच’ जैसी वैचारिक मैगज़ीन का संपादन भी किया।

1 जुलाई, 1942 को गाज़ीपुर के वासुदेवपुर गांव में पैदा हुए डा.पीएन सिंह ने दुनिया के जाने-माने मार्क्सवादी आलोचक और सौंदर्यशास्त्र के एक बड़े विशेषज्ञ क्रिस्टोफ़र कॉडवेल पर पीएचडी की थी। कोलकाता, अगरतला और जयपुर में वे अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। साल 1971 में पीएन सिंह गाज़ीपुर आ गए, और यहां के पीजी कॉलेज से ही रिटायर हुए। इस दौरान उनकी नियुक्ति अंग्रेजी डिपार्टमेंट के हेड के तौर पर भी हुई। वे ‘इंग्लिश लिटररी थ्योरी एंड क्रिटिसिज्म’ और ‘पोस्ट मॉडर्न लिटररी थ्योरी’ के विद्वान थे। हिंदी साहित्य के मैदान में डॉ.पीएन सिंह देर से आए थे।

वे हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अपने आप को हमेशा ‘लेटकमर’ मानते रहे। लेकिन देर से आने के बाद भी उन्होंने इस क्षेत्र में जिस तेज़ी से काम किया और अपनी एक जुदा पहचान बनाई, वह वाक़ई चौंकाने वाली थी। बीच में पैरालिसिस अटैक की वजह से उनका कुछ समय लिखना-पढ़ना बाधित रहा, मगर वे ज़ल्द ही इससे उबर गए और अपने आख़िरी वक़्त तक लिखते-पढ़ते रहे। ज़्यादा परेशानी पेश आई, तो डिक्टेशन से लिखवाया। पर काम नहीं रुका। ज़िंदगी के जानिब उनकी यह अदम्य जिजीविषा थी।

 मार्क्सवादी विचारधारा और प्रगतिशील लेखक संघ से डॉ.पीएन सिंह का आख़िर तक नाता रहा। वे जब बोलते थे, तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। मैंने उन्हें सिर्फ़ एक मर्तबा सुना, और उनकी दानिश-वरी का क़ायल हो गया। प्रगतिशील लेखक संघ की एक छोटी सी विचार-गोष्ठी में वे साल 2005 में शिवपुरी आए थे। विचार-गोष्ठी का मौज़ू’अ अंतोनियो ग्राम्शी पर केन्द्रित था। जिनसे हमारे छोटे से शहर में ज़्यादातर लोग अच्छी तरह से वाक़िफ़ नहीं थे। लेकिन डॉ.पीएन सिंह ने जब इस विषय पर बोलना शुरू किया, तो बैठक में शामिल सारे श्रोता मंत्रमुग्ध हो उन्हें सुनते रहे। कुछ यही हाल मेरा भी था। मुझे यह बात कहने में जरा सी भी हिचक नहीं कि हिंदी साहित्यिक जगत में डॉ.नामवर सिंह के बाद, वे दूसरे ऐसे शख़्स थे, जिनकी वक्तव्य शैली से मैं ख़ासा मुतअस्सिर हुआ। पहली ही मुलाकात में मैं उनका मुरीद हो गया। वे शिवपुरी में एक दिन रुक कर, दूसरे दिन अपने शहर गाज़ीपुर के लिए रवाना हुए।

मेरी तमन्ना उनका एक इंटरव्यू लेने की थी। इसके लिए रात में मैंने कुछ सवालात भी तैयार किए, लेकिन वक़्त की तंगी के चलते उनसे यह बातचीत मुमकिन नहीं हुई। अलबत्ता मध्य प्रदेश रोडवेज की बस में उन्हें रवाना करते हुए, मैंने उन्हें अपने यह सवाल ज़रूर थमा दिए। मुझे यक़ीन है कि मेरी ‘माशा-अल्लाह’ राइटिंग देखकर, (जिसमें काफ़ी कुछ कटा-पिटा भी था।) बाद में उन्होंने वे पेज़ ज़रूर फाड़ दिए होंगे। ख़ैर, इंटरव्यू तो नहीं हुआ, मगर उनके साथ एक यादगार तस्वीर ज़रूर हो गई। उस समय मेरे पास कैमरा नहीं था और न ही एंड्रॉयड मोबाइल आये थे। लिहाज़ा फ़ोटो स्टूडियों में उनके साथ एक फ़ोटो खिचवाई गई। साथ में मेरे साहित्यिक गुरु कथाकार पुन्नी सिंह भी थे।

मेरा हमेशा ऐसा मानना रहा है कि डॉ.पीएन सिंह का कर्मक्षेत्र यदि गाज़ीपुर से इतर लखनऊ या नई दिल्ली होता, सत्ता प्रतिष्ठानों या बड़े प्रकाशन संस्थानों से उनके ‘मधुर’ तअल्लुक़ात होते, तो वे हिंदी साहित्य जगत में और भी ज़्यादा जाने-पहचाने जाते। उन्हें तमाम मान-सम्मानों से नवाज़ा जाता। लेकिन उन्होंने न कभी अपना गाज़ीपुर छोड़ा और न ही कभी कोई वैचारिक समझौता किया। इसी बात का सबब है कि वे हमेशा उपेक्षित ही रहे। उनकी प्रतिभा को लगातार नज़रअंदाज़ किया गया। जबकि डॉ.नामवर सिंह जैसे हिंदी साहित्य के शीर्ष आलोचक भी डॉ.पीएन सिंह की विद्वता और वक्तृता का लोहा मानते थे। सच बात तो यह है कि अपनी ज़िंदगी में उन्हें जो कुछ भी हासिल हुआ, वे उससे कहीं ज़्यादा के हक़दार थे। गाज़ीपुर की शनाख़्त डॉ.पीएन सिंह को सुर्ख़ सलाम।

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और समीक्षक हैं।)

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